मानवजाति परमेश्वर के कथनों पर विस्मय से चुप हो जाती है जब उसे पता चलता है कि परमेश्वर ने आत्मा के क्षेत्र में एक महान कर्म किया है, ऐसा कुछ जिसके बारे में मनुष्य अक्षम है और जिसे केवल स्वयं परमेश्वर ही पूरा कर सकता है। इस कारण से, परमेश्वर एक बार पुनः मानवजाति के लिए उदारता के वचनों को प्रस्तुत करता है। जब लोगों के हृदय, यह सोचते हुए कि: "परमेश्वर दया या प्रेम से रहित एक परमेश्वर है, बल्कि ऐसा परमेश्वर जो मानवजाति को मार डालने के लिए समर्पित है; इसलिए उसे हम पर क्षमा क्यों दर्शानी चाहिए?
क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर ने एक बार पुनः एक विधि में स्थानांतरित हो गया है?", विरोधाभासों से भर जाते हैं, तो इस क्षण यह अवधारणा, यह विचार उनके मन के अंदर आकार लेता है, वे इसके विरुद्ध अपनी समस्त शक्ति के साथ संघर्ष करते हैं। तथापि, जब परमेश्वर का कार्य एक अन्य समयावधि तक प्रगति कर लेता है, पवित्र आत्मा कलीसिया के भीतर एक महान काम आरंभ कर लेता है, और हर एक मनुष्य अपने कार्य को करने के लिए नियत हो जाता है तब उस समय संपूर्ण मानवजाति परमेश्वर की इस पद्धति में प्रवेश कर लेती है। इसका कारण यह है कि परमेश्वर जो कहता और करता है उसमें कोई भी व्यक्ति अपूर्णता को नहीं देख सकता है, और जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर वास्तव में इसके बाद क्या करेगा, कोई भी इसके बारे में जान नहीं सकता है या यहाँ तक कि अनुमान भी नहीं लगा सकता है। जैसा कि परमेश्वर ने अपने स्वयं के मुँह से कहा है: "स्वर्ग के नीचे रहने वाले सभी लोगों में से, क्या कोई है जो मेरीहथेली के अंदर नहीं है? क्या कोई है जो मेरे निर्देश के अनुसार कार्य नहीं करता है?" किन्तु मैं तुम लोगों को छोटी सी सलाह देता हूँ: ऐसे मामलों में, जिन्हें तुम लोग पूर्णतः नहीं समझते हो, तुम लोगों में से कोई भी, न तो बोले न कार्य करे। मैंने अभी-अभी जो कुछ कहा है, वह तुम्हारे उत्साह को कुचलने के लिए नहीं है, बल्कि तुम्हारे कार्यकलापों में परमेश्वर के निर्देशन का पालन करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए है। "अपूर्णताओं" के बारे में मैंने जो कुछ कहा, उसकी वजह से, तुम्हें कदापि हिम्मत नहीं हारनी चाहिए या संदेह में नहीं पड़ना चाहिए: मेरा उद्देश्य मुख्यतः तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देने की याद दिलाना है। जब परमेश्वर कहता है: "आत्मा से सम्बन्धित मामलों में, तुझे कोमलतापूर्वक संवेदनशील होना चाहिए; मेरे वचनों के प्रति, तुझे सावधानीपूर्वक चौकस रहना पड़ेगा। तुझे मेरे आत्मा और शारीरिक स्वरूप, मेरे वचनों और शारीरिक स्वरूप को एक अखंड रूप में देखने की स्थिति में रहने का लक्ष्य बनाना चाहिए, ताकि सम्पूर्ण मानवजाति मुझे मेरी उपस्थिति में संतुष्ट करने के योग्य हो," तो इन वचनों को पढ़ कर, मानवजाति, एक बार फिर, विस्मय से चुप हो जाती है। उन्होंने कल जो देखा वह एक चेतावनी का वचन था, परमेश्वर की क्षमा का एक उदाहरण था, किन्तु आज बात अचानक आत्मा के भीतर के मामलों की ओर घूम गई है—आखिर इसका क्या अर्थ है? परमेश्वर अपने बोलने के तरीके को क्यों बदलता रहता है? और इन सब को एक अखंड समष्टि के रूप में क्यों माना जाए? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के वचनों में वास्तविकता का अभाव है? इन वचनों पर चिंतन करके, कोई यह एहसास करता है: जब परमेश्वर का आत्मा और देह पृथक होते हैं, तब वह देह भौतिक शरीर के गुणों वाला एक भौतिक शरीर है, दूसरे शब्दों में, जिसे लोग चलती-फिरती लाश कहते हैं। देहधारी देह आत्मा में उत्पन्न होता है: वह आत्मा का देहधारण है, अर्थात वचन देह बनता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर स्वयं देह के भीतर रहता है। इससे कोई देख सकता है कि किसमें पवित्रात्मा को मनुष्य से पृथक करने का प्रयास करने की गंभीर त्रुटि निहित है। इस कारण से, यद्यपि वह "मनुष्य" कहलाता है, फिर भी वह मानवजाति से संबंधित नहीं है, और उसके पास कोई मानवीय गुण नहीं हैं: यही वह व्यक्ति है जिसमें परमेश्वर अपने आप को ढकता है, यही वह व्यक्ति है जिसे परमेश्वर अनुमोदित करता है। वचनों के भीतर परमेश्वर का आत्मा मूर्त रूप लेता है, और परमेश्वर के वचन प्रत्यक्ष रूप से देह में प्रकट होते हैं। इससे और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर देह में रहता है और एक अधिक व्यावहारिक परमेश्वर है, जिससे यह साबित होता है कि परमेश्वर विद्यमान है, इस प्रकार परमेश्वर के विरुद्ध मानवता के विद्रोह के युग का अंत लाता है। फिर, मानवजाति को परमेश्वर के ज्ञान की ओर अगुआई करने वाले मार्ग के बारे में निर्देश दे कर, परमेश्वर पुनः विषय को फिर से बदल देता है, और इस समस्या के एक अन्य पहलू पर लग जाता है।
क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर ने एक बार पुनः एक विधि में स्थानांतरित हो गया है?", विरोधाभासों से भर जाते हैं, तो इस क्षण यह अवधारणा, यह विचार उनके मन के अंदर आकार लेता है, वे इसके विरुद्ध अपनी समस्त शक्ति के साथ संघर्ष करते हैं। तथापि, जब परमेश्वर का कार्य एक अन्य समयावधि तक प्रगति कर लेता है, पवित्र आत्मा कलीसिया के भीतर एक महान काम आरंभ कर लेता है, और हर एक मनुष्य अपने कार्य को करने के लिए नियत हो जाता है तब उस समय संपूर्ण मानवजाति परमेश्वर की इस पद्धति में प्रवेश कर लेती है। इसका कारण यह है कि परमेश्वर जो कहता और करता है उसमें कोई भी व्यक्ति अपूर्णता को नहीं देख सकता है, और जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर वास्तव में इसके बाद क्या करेगा, कोई भी इसके बारे में जान नहीं सकता है या यहाँ तक कि अनुमान भी नहीं लगा सकता है। जैसा कि परमेश्वर ने अपने स्वयं के मुँह से कहा है: "स्वर्ग के नीचे रहने वाले सभी लोगों में से, क्या कोई है जो मेरीहथेली के अंदर नहीं है? क्या कोई है जो मेरे निर्देश के अनुसार कार्य नहीं करता है?" किन्तु मैं तुम लोगों को छोटी सी सलाह देता हूँ: ऐसे मामलों में, जिन्हें तुम लोग पूर्णतः नहीं समझते हो, तुम लोगों में से कोई भी, न तो बोले न कार्य करे। मैंने अभी-अभी जो कुछ कहा है, वह तुम्हारे उत्साह को कुचलने के लिए नहीं है, बल्कि तुम्हारे कार्यकलापों में परमेश्वर के निर्देशन का पालन करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए है। "अपूर्णताओं" के बारे में मैंने जो कुछ कहा, उसकी वजह से, तुम्हें कदापि हिम्मत नहीं हारनी चाहिए या संदेह में नहीं पड़ना चाहिए: मेरा उद्देश्य मुख्यतः तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देने की याद दिलाना है। जब परमेश्वर कहता है: "आत्मा से सम्बन्धित मामलों में, तुझे कोमलतापूर्वक संवेदनशील होना चाहिए; मेरे वचनों के प्रति, तुझे सावधानीपूर्वक चौकस रहना पड़ेगा। तुझे मेरे आत्मा और शारीरिक स्वरूप, मेरे वचनों और शारीरिक स्वरूप को एक अखंड रूप में देखने की स्थिति में रहने का लक्ष्य बनाना चाहिए, ताकि सम्पूर्ण मानवजाति मुझे मेरी उपस्थिति में संतुष्ट करने के योग्य हो," तो इन वचनों को पढ़ कर, मानवजाति, एक बार फिर, विस्मय से चुप हो जाती है। उन्होंने कल जो देखा वह एक चेतावनी का वचन था, परमेश्वर की क्षमा का एक उदाहरण था, किन्तु आज बात अचानक आत्मा के भीतर के मामलों की ओर घूम गई है—आखिर इसका क्या अर्थ है? परमेश्वर अपने बोलने के तरीके को क्यों बदलता रहता है? और इन सब को एक अखंड समष्टि के रूप में क्यों माना जाए? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के वचनों में वास्तविकता का अभाव है? इन वचनों पर चिंतन करके, कोई यह एहसास करता है: जब परमेश्वर का आत्मा और देह पृथक होते हैं, तब वह देह भौतिक शरीर के गुणों वाला एक भौतिक शरीर है, दूसरे शब्दों में, जिसे लोग चलती-फिरती लाश कहते हैं। देहधारी देह आत्मा में उत्पन्न होता है: वह आत्मा का देहधारण है, अर्थात वचन देह बनता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर स्वयं देह के भीतर रहता है। इससे कोई देख सकता है कि किसमें पवित्रात्मा को मनुष्य से पृथक करने का प्रयास करने की गंभीर त्रुटि निहित है। इस कारण से, यद्यपि वह "मनुष्य" कहलाता है, फिर भी वह मानवजाति से संबंधित नहीं है, और उसके पास कोई मानवीय गुण नहीं हैं: यही वह व्यक्ति है जिसमें परमेश्वर अपने आप को ढकता है, यही वह व्यक्ति है जिसे परमेश्वर अनुमोदित करता है। वचनों के भीतर परमेश्वर का आत्मा मूर्त रूप लेता है, और परमेश्वर के वचन प्रत्यक्ष रूप से देह में प्रकट होते हैं। इससे और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर देह में रहता है और एक अधिक व्यावहारिक परमेश्वर है, जिससे यह साबित होता है कि परमेश्वर विद्यमान है, इस प्रकार परमेश्वर के विरुद्ध मानवता के विद्रोह के युग का अंत लाता है। फिर, मानवजाति को परमेश्वर के ज्ञान की ओर अगुआई करने वाले मार्ग के बारे में निर्देश दे कर, परमेश्वर पुनः विषय को फिर से बदल देता है, और इस समस्या के एक अन्य पहलू पर लग जाता है।
"मैंने अपने कदमों से बह्माण्ड को कुचला है, उसके पूरे विस्तार पर मेरी नज़रें लगी हुई हैं, और मैं मानवीय अनुभव के मीठे, खट्टे, कड़वे और तीखे स्वादों को चखते हुए, सम्पूर्ण मानवजाति के मध्य चला-फिरा हूँ।" इस वक्तव्य की सादगी के बावजूद, इसे समझना आसान नहीं है। यद्यपि विषय बदल गया है, किन्तु सार रूप में यह वही रहता है: यह अभी भी मानवता को उसे उसकी देहधारी देह में जानने में सक्षम बनाता है। परमेश्वर क्यों कहता है कि उसने मानव अनुभव के मीठे, खट्टे, कड़वे, और तीखे स्वादों को चखा है? वह क्यों कहता है कि वह समस्त मानवजाति के बीच में चला-फिरा है? परमेश्वर पवित्रात्मा है, लेकिन वह एक देहधारी मनुष्य भी है। आत्मा, जो मनुष्य की सीमाओं से बँधा हुआ नहीं हैं, ब्रह्मांड को एक व्यापक नज़र में घेरते हुए, चहुँओर विश्व में चल सकता है। इससे यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का आत्मा ब्रह्मांडीय विस्तार को भर देता है और धरती को ध्रुव से ध्रुव तक आवृत करता है; ऐसी कोई जगह नहीं है जो उसके हाथों से नहीं लगायी गई है, ऐसी कोई जगह नहीं है जो उसके पैरों के निशान को धारण नहीं करती है। भले ही पवित्रात्मा, देह बन कर, एक मनुष्य के रूप में पैदा होता है, किन्तु आत्मा के रूप में अपने अस्तित्व के कारण, उसकी उन सभी चीजों की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती है, जिनकी मनुष्यों को आवश्यकता होती है, बल्कि, एक साधारण मनुष्य की तरह, भोजन करता है, कपड़े पहनता है, सोता है, और एक निवास स्थान में रहता है, हर उस चीज को करता है जो एक साधारण आदमी करता है। उसके साथ-साथ, आंतरिक सार भिन्न होने से, वह वह नहीं है जैसा कि कोई आमतौर पर किसी व्यक्ति के बारे में बोलता है। यद्यपि वह मानवजाति के सभी कष्टों को सहन करता है, वह उसके कारण से पवित्रात्मा को नहीं त्यागता है; यद्यपि वह आशीष का आनंद लेता है, वह उसके फलस्वरूप पवित्रात्मा को नहीं भूलता है। पवित्रात्मा और मनुष्य मौन संबंध में संयुक्त हैं; दोनों को पृथक नहीं किया जा सकता है, और कभी भी पृथक नहीं किया गया है। क्योंकि मनुष्य पवित्रात्मा का देहधारण है, और पवित्रात्मा से आता है, उस पवित्रात्मा से जिसका एक रूप है, इसलिए पवित्रात्मा जो देह में अंतर्निहित है, अत्युत्तम नहीं है, अर्थात्, वह असाधारण चीज़ें नहीं कर सकता है, जिसका अर्थ है, यह पवित्रात्मा भौतिक शरीर को नहीं छोड़ सकता है, क्योंकि यदि उसने छोड़ा, तो देह बनने में परमेश्वर का कार्य अपने सारे अर्थ खो देगा। जब पवित्रात्मा भौतिक शरीर में पूरी तरह से व्यक्त होता है केवल तभी मानवजाति को व्यावहारिक परमेश्वर स्वयं का ज्ञान करवाया जा सकता है, और केवल तभी परमेश्वर की इच्छा पूरी होती है। यह केवल उसके बाद ही होता है जब परमेश्वर पवित्रात्मा और देह को पृथक रूप से प्रस्तुत करता है कि वह मनुष्य के अंधत्व और अवज्ञा की ओर इंगित करता है: "परन्तु मनुष्य मुझे कभी भी वास्तव में समझ नहीं पाया है, उसने मुझे विदेश में चलता हुआ देखा।" एक ओर, परमेश्वर कहता है कि, दुनिया को बिना बताए, वह स्वयं को देह के पिंड में छुपाता है, मनुष्यों के देखने के लिए कुछ भी अलौकिक नहीं करता है; दूसरी ओर, वह उसे न जानने के लिए मानवजाति के विरुद्ध शिकायत करता है। हालाँकि, इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। वास्तव में, इसके विवरण में देखा जाए तो, यह देखना कठिन नहीं है कि जिस तरह से परमेश्वर अपने लक्ष्यों को प्राप्त करता है उसके दो पक्ष हैं। अब, यदि परमेश्वर अलौकिक संकेत और अद्भुत कामों को करता, तो, किसी भी बड़े कार्य को किए बिना, वह सिर्फ अपने मुँह से किसी मनुष्य को मृत्यु का शाप देता, आदमी मौके पर ही मर जाता, और इस तरह हर व्यक्ति आश्वस्त हो जाता; परन्तु इससे परमेश्वर के देह बनने का लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। यदि परमेश्वर वास्तव में ऐसा करता, तो मानवजाति, अपने चेतन मन से, उसके अस्तित्व में विश्वास करने में कभी भी सक्षम नहीं होती,कभी भी वास्तव में विश्वास करने में सक्षम नहीं होती, और तो और शैतान को परमेश्वर समझने की भूल कर बैठती। इससे भी महत्वपूर्ण, मानवजाति कभी भी परमेश्वर के स्वभाव को नहीं जानती: क्या यह परमेश्वर के देह में होने के अर्थ का एक पहलू नहीं है? यदि मानवजाति परमेश्वर को जानने में असमर्थ है, तो यह हमेशा एक अस्पष्ट परमेश्वर, एक अलौकिक परमेश्वर होगा, जो मानव क्षेत्र में प्रभुत्व रखता है: क्या यह मनुष्य की अवधारणाओं का मनुष्य पर कब्ज़ा करने का मामला नहीं होगा? या, और इसे अधिक स्पष्ट रूप से दोहराने के लिए, क्या शैतान, दुष्ट, अधिकार धारण नहीं कर रहा होगा? "मैं क्यों कहता हूँ कि मैं अपनी सामर्थ्य वापस लेता हूँ? मैं क्यों कहता हूँ कि देहधारण के कई अर्थ हैं?" परमेश्वर देह उस क्षण बनता है, जब वह अपनी सामर्थ्य वापस ले लेता है; ऐसा तब भी होता है जब उसकी दिव्यता अपना काम करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होती है। कदम-दर-कदम, हर मनुष्य व्यावहारिक परमेश्वर को जानने लगता है, और इस वजह से मानव के हृदय में शैतान द्वारा धारण किया गया स्थान पूरी तरह से दब जाता है, जबकि परमेश्वर का स्थान बढ़ जाता है। पूर्व में, मनुष्यों के मन में विद्यमान परमेश्वर को शैतान की छवि के रूप में, एक ऐसे परमेश्वर के रूप में माना जाता था, जो अमूर्त, अदृश्य था, और फिर भी कोई इस परमेश्वर के न केवल विद्यमान होने पर बल्कि सभी प्रकार के अलौकिक चिह्नों और अद्भुत कामों को प्रदर्शित करने और दुष्टात्मा-ग्रस्त के घिनौनेपन जैसे सभी प्रकार के रहस्यों को प्रकट करने में सक्षम होने पर भी विश्वास करता था। यह इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि मनुष्य के मन में जो परमेश्वर है वह परमेश्वर की छवि नहीं है बल्कि परमेश्वर के अलावा किसी अन्य प्राणी की छवि है। परमेश्वर कहता है कि वह मानव हृदय के 0.1 प्रतिशत पर रहने के लिए जगह लेना चाहता है, और कि यह उच्चतम मानक है जिसकी वह मानवता से माँग करता है। इस कथन का न केवल एक सतही पक्ष है; इसका एक यथार्थवादी पक्ष भी है। यदि इसे इस तरीके से नहीं समझाया गया होता, तो लोग उन माँगों को जो परमेश्वर उनसे करता है बहुत कम मानते, मानो कि परमेश्वर उनके बारे में बहुत कम समझा हो। क्या यह मानव मनोविज्ञान नहीं है?
यदि कोई उपरोक्त को लेता है और पतरस के नीचे दिए गए उदाहरण के साथ इसे जोड़ता है, तो वह पाएगा कि पतरस ही वास्तव में वह व्यक्ति था जो परमेश्वर को सबसे अच्छी तरह से जानता था, क्योंकि वह अस्पष्ट परमेश्वर की ओर अपनी पीठ मोड़ने और व्यावहारिक परमेश्वर के ज्ञान की खोज करने में सक्षम था। परमेश्वर ने इस बात पर विशेष ध्यान क्यों दिया कि उसके माता-पिता शैतान थे जिन्होंने परमेश्वर का विरोध किया था? इससे यह साबित होता है कि पतरस अपने हृदय में परमेश्वर की खोज नहीं कर रहा था, और कि उसके माता-पिता अस्पष्ट परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं: पतरस के माता-पिता के उदाहरण को प्रस्तुत करने में यही परमेश्वर का इरादा है। बहुत बड़ी संख्या में लोग, इसके बजाय पतरस की प्रार्थनाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए, इस तथ्य पर कोई विशेष ध्यान नहीं देते हैं, इस हद तक कि कुछ लोगपतरस की प्रार्थनाओं को लगातार अपने मुँह में और अपने मन में रखते हैं, किन्तु कभी भी पतरस के ज्ञान के साथ अस्पष्ट परमेश्वर के अंतर पर विचार नहीं करते हैं। पतरस क्यों अपने माता-पिता के विरुद्ध हुआ और उसने परमेश्वर को जानने की कोशिश की? अधिक बड़े प्रयास पर स्वयं को प्रोत्साहित करने के लिए उसने क्यों उन लोगों से सीखे सबकों को एकीकृत किया जो अतीत में विफल हो गए थे? उसने क्यों उन सभी लोगों के विश्वास और प्रेम को आत्मसात किया जिन्होंने पूरे युगों में परमेश्वर से प्रेम किया था? पतरस समझता था कि हर सकारात्मक चीज़ परमेश्वर से उत्पन्न होती है—यह शैतान द्वारा किसी भी प्रसंस्करण से गुज़रे बिना सीधे परमेश्वर से आती है। इससे कोई यह देख सकता है कि जिसे वह जानता था वह एक व्यावहारिक परमेश्वर था और एक अलौकिक परमेश्वर नहीं था। परमेश्वर क्यों कहता है कि पतरस ने उन सभी लोगों के विश्वास और प्रेम को आत्मसात करने पर विशेष ध्यान दिया जिन्होंने तमाम युगों में परमेश्वर से प्रेम किया था? इससे कोई देख सकता है कि मनुष्य के पूरे युगों में असफल होने का मुख्य कारण यह है कि वे केवल विश्वास और प्रेम रखते थे किन्तु व्यावहारिक परमेश्वर को नहीं जानते थे, और इसलिए उनका विश्वास अस्पष्ट बना रहा। क्यों परमेश्वर कई बार केवल अय्यूब के विश्वास का ही उल्लेख करता है एक बार भी यह कहे बिना कि वह परमेश्वर को जानता था, और इसके अलावा उसे पतरस का अधीनस्थ कहता है? अय्यूब के वचनों से, "मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं," कोई यह देख सकता है कि अय्यूब के पास केवल विश्वास था लेकिन कोई ज्ञान नहीं था। "उसके माता-पिता के द्वारा विफल हुओं की तरह कार्य करने के विपरीत उदाहरण के कारण, इससे वह मेरे प्रेम एवं दया को और भी अधिक आसानी से समझने में सक्षम हो पाया," इस वक्तव्य को पढ़ कर, अधिकांश लोग कई प्रश्नों को उठाने के लिए प्रेरित हो जाएँगे: ऐसा क्यों है कि जब किसी प्रति-उदाहरण के साथ तुलना किये जाने पर ही पतरस परमेश्वर को जानता है, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से नहीं? ऐसा क्यों है कि वह केवल दया और प्रेम को जानता है, लेकिन अन्य चीजों का उल्लेख नहीं किया जाता है? जब कोई अस्पष्ट परमेश्वर की अवास्तविकता को पहचान लेता है केवल तभी कोई व्यावहारिक परमेश्वर के ज्ञान की खोज करने में समर्थ हो जता है। इस कथन का उद्देश्य लोगों की उनके हृदय से अस्पष्ट परमेश्वर का उन्मूलन करने में अगुआई करना है। यदि मानवजाति हमेशा से, सृष्टि की शुरुआत से लेकर वर्तमान दिन तक, परमेश्वर का असली चेहरा जानती, तो वह शैतान के तरीकों से पूरी तरह परिचित नहीं हुई होती, जैसा कि कहावत से जाना जाता है, "जब तक कोई किसी पर्वत को पार नहीं कर लेता है तब तक वह समतल मैदान पर ध्यान नहीं देता है," जो इन वचनों को बोलने में परमेश्वर के अर्थ को पर्याप्त रूप से स्पष्ट करता है। क्योंकि उसने जो उदाहरण उठाया है उसकी सच्चाई को गहराई से समझने हेतु लोगों की अगुआई करने की वह इच्छा करता है, इसलिए परमेश्वर दया और प्रेम पर जानबूझकर जोर देता है, यह साबित करता है कि जिस युग में पतरस रहता था वह अनुग्रह का युग था। एक अन्य परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो, यह दुष्टात्मा के घृणित चेहरे को और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट करता है, जो केवल मानवजाति को फँसाता और भ्रष्ट करता है, और फलस्वरूप परमेश्वर के प्यार और दया को, और भी अधिक स्पष्ट अंतर से उभारता है।
पतरस के परीक्षणों के बारे में परमेश्वर तथ्यों की रूपरेखा भी तैयार करता है और इसके अलावा उनकी वास्तविक परिस्थिति का वर्णन करता है, ताकि लोग बेहतर रूप से निम्नलिखित बातों को समझ सकें: कि परमेश्वर के पास केवल दया और प्रेम ही नहीं है, बल्कि उसके पास प्रताप और कोप भी है, और कि जो लोग शांति में रहते हैं जरूरी नहीं कि परमेश्वर के आशीर्वाद के बीच में रह रहे हैं। इसके अलावा, पतरस के परीक्षणों के बाद उसके अनुभवों के बारे में लोगों को बताना अय्यूब के इन वचनों की सच्चाई को और भी अधिक स्पष्टता से दर्शाता है: "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?" यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि पतरस परमेश्वर के अभूतपूर्व ज्ञान पर पहुँच गया था, कुछ ऐसा जो किसी भी पूर्ववर्ती युग में किसी ने भी कभी भी प्राप्त नहीं किया था: यही वह था जो पतरस ने प्राप्त किया जब उसने उन सभी लोगों के विश्वास और प्रेम को आत्मसात कर लिया जो तमाम युगों में परमेश्वर से प्रेम रखते थे और स्वयं को प्रोत्साहित करने के लिए पिछली विफलताओं के सबकों को एकीकृत किया। इस कारण से, जो कोई भी परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है उसे "फल" कहा जाता है और पतरस इनमें से एक है। परमेश्वर के लिए पतरस की प्रार्थनाओं में कोई परमेश्वर के उस वास्तविक ज्ञान को देख सकता है जो उसने अपनी परीक्षाओं में प्राप्त किया था, लेकिन एक छोटा सा दोष यह है कि वह परमेश्वर की इच्छा की पूरी तरह से थाह पाने में असमर्थ था। यही कारण है कि, पतरस के द्वारा प्राप्त परमेश्वर के ज्ञान की नींव पर निर्माण करके, परमेश्वर ने "मानव हृदय के 0.1 प्रतिशत पर रहने के लिए जगह लेने" की माँग निर्धारित की है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पतरस, वह व्यक्ति जो कि परमेश्वर को बहुत अच्छी तरह से जानता था, भी परमेश्वर की इच्छा को सही ढंग से समझने में समर्थ नहीं था, केवल यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानवजाति परमेश्वर को जानने के लिए किसी अंग से सुसज्जित है ही नहीं, क्योंकि शैतान ने पहले से ही मनुष्य को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया है, और यह मानवजाति के सार को जानने के लिए सभी लोगों की अगुआई करता है। ये दो पूर्व-शर्तें—कि मानवजाति में परमेश्वर को जानने के लिए एक अंग का अभाव है और इसके अलावा शैतान उसमें पूरी तरह से व्याप्त हो गया है—परमेश्वर की महान सामर्थ्य को दिखाने के लिए एक पृष्ठभूमि प्रदान करती हैं, क्योंकि परमेश्वर ने, केवल वचनों के व्यय के माध्यम से और बिना किसी प्रकार का काम किए, मानव हृदय में एक निश्चित स्थान ले लिया है। ऐसा क्यों है कि 0.1 प्रतिशत पर पहुँचने का अर्थ परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति पर पहुँचना है? इसे इस तथ्य के संदर्भ में समझाने के लिए कि परमेश्वर ने मनुष्य को प्रश्नगत अंग प्रदान नहीं किया: यदि, इस अंग के अभाव में, मानवजाति को सौ प्रतिशत ज्ञान तक पहुँचना होता, तो परमेश्वर की हर हरकत और कार्यकलाप मनुष्य के लिए एक खुली किताब हो जाता, और, मनुष्य की अंतर्निहित प्रकृति को देखते हुए, वह तुरंत परमेश्वर के खिलाफ़ विद्रोह कर देता, सार्वजनिक रूप से उसका विरोध करने के लिए उठ खड़ा होता (इसी तरह से शैतान पतित हुआ)। और इसलिए परमेश्वर मनुष्य को कभी भी कम करके नहीं आँकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह पहले से ही मनुष्य का पूरी तरह से विश्लेषण कर चुका है, जिसकी वजह से वह हर चीज़ को यहाँ तक कि उसके खून में कितना पानी मिला है इसे भी बहुत स्पष्टता से जानता है: वह मनुष्य की स्पष्ट प्रकृति को कितना अधिक स्पष्ट रूप से समझता है? परमेश्वर कभी भी त्रुटियाँ नहीं करता है, और इसके अलावा, अपने कथनों को कहने में, वह अपने वचनों को बहुत परिशुद्धता के साथ चुनता है। इस कारण से, यह तथ्य कि परमेश्वर की इच्छा को समझने में पतरस गलत था, इस तथ्य का खंडन नहीं करता है कि यही वह एक व्यक्ति है जो परमेश्वर को सबसे अच्छी तरह से जानता था, और साथ ही साथ ये दोनों पूरी तरह से असंबंधित हैं। यह पतरस पर लोगों का ध्यान केंद्रित करवाने के लिए नहीं था कि परमेश्वर ने उसका उदाहरण उठाय। यदि अय्यूब जैसा कोई व्यक्ति परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका था तो पतरस को परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम क्यों होना चाहिए? वह ऐसा क्यों कहेगा कि एक आदमी इसे प्राप्त करने में सक्षम है और लेकिन यह भी कहता है कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य के कारण है? क्या यह वास्तव में ऐसा मामला है कि मानवजाति की जन्मजात प्रतिभा अच्छी है? लोगों को इस बात को समझना आसान नहीं लगता है—जब तक मैंने इसे न समझाऊँ, तब तक कोई भी इसके आंतरिक अर्थ को नहीं जान पायेगा। इन वचनों का उद्देश्य मनुष्यों को किसी भी प्रकार की धारणा तक पहुँचने में सक्षम बनाना है, जिससे वे परमेश्वर के साथ सहयोग करने के लिए आत्मविश्वास प्राप्त करेंगे। केवल इस तरह से ही परमेश्वर, उसके साथ सहयोग करने के लिए मनुष्यों के प्रयासों से समर्थन पाकर, कार्रवाही कर सकता है: यह आत्मा के क्षेत्र में वास्तविक स्थिति है, कुछ ऐसी जिसकी थाह पाने में मानवजाति पूर्णतः असमर्थ है। उस जगह से छुटकारा पाने के लिए जो शैतान ने मानव के हृदय में कब्जा की है और उसके बाद परमेश्वर को कब्ज़ा करने में सक्षम बनाने के लिए, यह शैतान के हमले का प्रतिरोध करना कहलाता है; केवल जब ऐसा किया जाता है तभी यह कहा जा सकता है कि मसीह धरती पर उतर आया है, और तभी यह कहा जा सकता है कि दुनिया के राज्य मसीह का राज्य बन गए हैं।
यहाँ यह उल्लेख किया जाता है कि पतरस हजारों सालों से मानवजाति के लिए एक अनुकरणीय व्यक्ति और एक आदर्श रहा है। यह केवल इस तथ्य को प्रतिपादित करने के वास्ते नहीं है कि वह एक अनुकरणीय व्यक्ति और एक आदर्श है: ये वचन आध्यात्मिक क्षेत्र की लड़ाई के वास्तविक दृश्य का प्रतिबिंब हैं। इस पूरे समय शैतान, मानवजाति को निगलने और इसके फलस्वरूप परमेश्वर कोदुनिया को नष्ट करने और अपनी गवाही खो देनेके लिए मजबूर करने की झूठी आशा में, मनुष्य पर काम करता आ रहा है। किन्तु परमेश्वर ने कहा था: "मैं सबसे पहले एक आदर्श बनाऊँगा ताकि मैं मानव हृदय के भीतर सबसे छोटा स्थान ले सकूँ। इस चरण में, मानवजाति मुझे न तो खुश करती है और न ही पूरी तरह से जानती है; तथापि, मेरी महान सामर्थ्य पर भरोसा करके, मनुष्य पूरी तरह मेरे प्रति समर्पित होने में समर्थ हो जाएगा और मेरे विरुद्ध विद्रोह करना बंद कर देगा, और मैं इस उदाहरण का उपयोग शैतान को जीतने के लिए करूँगा, अर्थात्, मैं उन सभी शक्तियों का दमन करने के लिए जो शैतान मनुष्य पर चलाता आ रहा है 0.1 प्रतिशत से बने अपने स्थान का उपयोग करूँगा।" और इसलिए, आज, परमेश्वर ने पतरस का उदाहरण दिया है ताकि वह संपूर्ण मानवजाति द्वारा पालन करने के लिए एक मिसाल के रूप में काम आ सके। इसे आरंभिक वाक्य के साथ एक साथ रखकर, कोई भी उस बात की सच्चाई को देख सकता है जो आत्मा के क्षेत्र में वास्तविक स्थिति के बारे में परमेश्वर ने कही थी: "चीजें अब पहले जैसी नहीं रहीं: मैं उन बातों को करने जा रहा हूँ जिन्हें संसार ने, सृष्टि की रचना की शुरूआत से, पहले कभी नहीं देखा है, मैं उन वचनों को बोलने वाला हूँ जिन्हें मनुष्यों ने, तमाम युगों के दौरान, कभी भी नहीं सुना है, क्योंकि में अपेक्षा करता हूँ कि सम्पूर्ण मानवता मुझे देह में पहचाने।" इससे कोई देख सकता है कि, जिस बारे में परमेश्वर ने कहा था उस पर वह आज काम शुरू कर चुका है। मनुष्य केवल चीजों को वैसा देख सकता है जैसी कि वे बाहर से दिखाई देती हैं, न कि आत्मा के क्षेत्र के भीतर वास्तविक स्थिति को। इस कारण से, परमेश्वर ने प्रत्यक्ष और सीधे तरीके से कहा: "ये मेरे प्रबंधन के कार्य हैं, जिनके बारे में मानवजाति को जरा भी आभास नहीं है। यहाँ तक कि जब मैं उनके बारे में खुल कर बोलता हूँ, तब भी मनुष्य अपने मन में इतना भ्रमित होता है कि उसे उनके बारे में प्रत्येक विस्तार से बताना असम्भव है। इसमें मनुष्य की अधम दीनता निहित है, क्या ऐसा नहीं है?" इन वचनों के भीतर यह समझाने वाले अनकहे वचन हैं कि आध्यात्मिक क्षेत्र में एक लड़ाई शुरू हो गई है, जैसा कि ऊपर इंगित किया गया है।
पतरस की कहानी की रूपरेखा बताने से अभी भी परमेश्वर की इच्छा पूरी तरह से प्राप्त नहीं हुई, इसलिए परमेश्वर ने पतरस की जिंदगी की घटनाओं के संबंध में निम्नलिखित माँग की: "सम्पूर्ण बह्माण्ड में, आकाश के असीमित विस्तार में और सृष्टि की असंख्य बातों में, पृथ्वी पर की असंख्य चीज़ों में, और स्वर्ग की असंख्य चीज़ों में प्रत्येक और हर कोई अपनी सम्पूर्ण शक्ति से मेरे कार्य के अंतिम भाग के लिए अपने आप को समर्पित कर रहा है। निश्चय ही तुम लोग, शैतान की शक्तियों के द्वारा तितर-बितर होते हुए, किनारे पर दर्शक बने रहना नहीं चाहते हो?" पतरस के ज्ञान को देखना मानवजाति के लिए गहन रूप से प्रबुद्ध करने वाला था, और इसलिए, इससे भी बेहतर फल प्राप्त करने के लिए, परमेश्वर मानवजाति को अपने बारे में आवारा असंयम और अज्ञानता के परिणामों को देखने की अनुमति देता है, और इसके अलावा मानवजाति को—एक बार और तथा अधिक सूक्ष्मता से—आत्मा के क्षेत्र में लड़ाई की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में बताता है। यह केवल इस तरह से ही है कि मानवजाति शैतान द्वारा बन्दी बना लिए जाने के विरुद्ध स्वयं की रक्षा करने में अधिक सतर्क हो सकती है; इसके अतिरिक्त, यह स्पष्ट करता है कि, इस बार, यदि वे पतित होते हैं, तो वे पुनः परमेश्वर से मुक्ति प्राप्त नहीं करेंगे जैसे उन्होंने इस बार प्राप्त की। कुल मिलाकर, इन कई चेतावनियों ने, परमेश्वर के वचनों की मानवजाति पर छाप को गहरा करने में, लोगों को मजबूर किया है कि वे उसकी दया को अधिक प्यार से सँजोयें और उसकी चेतावनी के वचनों को अधिक घनिष्ठता से धारण करें, इस प्रकार वास्तव में मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के लक्ष्य पर पहुँचाया ह।
Source From:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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