कलीसिया के निर्माण के समय के दौरान, परमेश्वर ने मुश्किल से ही राज्य के निर्माण का उल्लेख किया। यहाँ तक कि जब उसने उल्लेख किया भी, तो उसने कलीसिया के निर्माण के समय की भाषा में ऐसा किया। एक बार जब राज्य का युग आ गया, तो परमेश्वर ने कलीसिया के निर्माण के समय की कुछ विधियों और चिंताओं को एक ही झटके में छोड़ दिया और फिर कभी इसके बारे में एक वचन भी नहीं कहा। यही वास्तव में "परमेश्वर स्वयं" का मूल अर्थ है जो सदैव नया है और कभी भी पुराना नहीं पड़ता है।
साथ ही, जहाँ तक चीज़ें किसी विगत युग का हिस्सा हैं, तो वे अतीत में की गई हो सकती हैं, परमेश्वर ऐसी चीज़ों को मसीह से पहले के समय में आने वाली के रूप में समूहित करता है, जबकि वर्तमान दिन "मसीह के बाद"[क] के समय के रूप में जाना जाता है। इस संबंध में, कलीसिया के निर्माण को राज्य के निर्माण के आवश्यक पूर्ववर्ती के रूप में देखा जा सकता है। इसने परमेश्वर के लिए राज्य में अपनी संप्रभु शक्ति का उपयोग करने की नींव रखी। आज, कलीसिया के निर्माण का कार्य राज्य के निर्माण, जो कि पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य का मुख्य केंद्र है, के समक्ष केवल प्रतिछाया के समान है। परमेश्वर ने कलीसिया के निर्माण का कार्य पूरा होने से पूर्व अपने कार्य के सभी विवरण तैयार किए, और जब समय सही आया, तो तुरंत अपने कार्य पर लग गया। वैसे तो, परमेश्वर ने इस प्रकार कहा, "आखिरकार, राज्य का युग बीते हुए समयों से अलग है। मनुष्य जो कुछ करता है यह उससे संबंधित नहीं है। उसके बजाए, पृथ्वी पर उतरने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता हूँ—वह कार्य जिसका मनुष्य न तो अनुमान लगा सकते हैं और जिसे न ही पूरा कर सकते हैं।" निस्संदेह, यह कार्य अवश्य व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए—कोई भी मनुष्य ऐसा कार्य करने में सक्षम नहीं है, वे बस इसे करने में समर्थ नहीं हैं। परमेश्वर के अलावा, कौन मनुष्यों के बीच इतने महान कार्य को कर सकता है? और कौन संपूर्ण मानवजाति को यंत्रणा दे कर अधमरा करने में सक्षम है? क्या संभवतः मनुष्य इस तरह के कार्य की व्यवस्था कर सकते थे? ऐसा क्यों है कि वह कहता है, "पृथ्वी पर उतरने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता हूँ?" क्या संपूर्ण अंतरिक्ष से परमेश्वर का आत्मा सचमुच गायब हो सकता था? "पृथ्वी पर उतरने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता हूँ," यह इस तथ्य को कि परमेश्वर के आत्मा ने कार्य करने के लिए देह में देहधारण किया है, और इस तथ्य को कि परमेश्वर का आत्मा स्पष्ट रूप से मानवजाति के माध्यम से कार्य कर रहा है, दोनों को संदर्भित करता है। व्यक्तिगत रूप अपना कार्य करके, परमेश्वर कई लोगों को उनकी नग्न आँखों से परमेश्वर स्वयं को देखने देता है, ताकि उन्हें अपनी आत्माओं में सावधानीपूर्वक खोज करने की आवश्यकता न हो। इसके अलावा, यह सभी मनुष्यों को उनकी स्वयं की आँखों से आत्मा के कार्य को देखने देता है और उन्हें दिखाता है कि मनुष्य की देह और परमेश्वर की देह के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। इसके साथ ही, संपूर्ण अंतरिक्ष और ब्रह्मांड की दुनिया में, परमेश्वर का आत्मा अभी भी कार्य पर है। वे सभी लोग जो प्रबुद्ध हैं, परमेश्वर के नाम को स्वीकार करके देखते हैं कि परमेश्वर का आत्मा कैसे कार्य करता है और फलस्वरूप, परमेश्वर के देहधारण के साथ और भी अधिक परिचित हो जाते हैं। वैसे तो, यदि परमेश्वर की दिव्यता प्रत्यक्ष रूप से कार्य करती है, अर्थात्, परमेश्वर का आत्मा थोड़े से भी हस्तक्षेप के बिना कार्य करने में समर्थ है, केवल तभी मनुष्य व्यावहारिक परमेश्वर स्वयं से परिचित हो सकता है। यही राज्य के निर्माण का सार है।
साथ ही, जहाँ तक चीज़ें किसी विगत युग का हिस्सा हैं, तो वे अतीत में की गई हो सकती हैं, परमेश्वर ऐसी चीज़ों को मसीह से पहले के समय में आने वाली के रूप में समूहित करता है, जबकि वर्तमान दिन "मसीह के बाद"[क] के समय के रूप में जाना जाता है। इस संबंध में, कलीसिया के निर्माण को राज्य के निर्माण के आवश्यक पूर्ववर्ती के रूप में देखा जा सकता है। इसने परमेश्वर के लिए राज्य में अपनी संप्रभु शक्ति का उपयोग करने की नींव रखी। आज, कलीसिया के निर्माण का कार्य राज्य के निर्माण, जो कि पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य का मुख्य केंद्र है, के समक्ष केवल प्रतिछाया के समान है। परमेश्वर ने कलीसिया के निर्माण का कार्य पूरा होने से पूर्व अपने कार्य के सभी विवरण तैयार किए, और जब समय सही आया, तो तुरंत अपने कार्य पर लग गया। वैसे तो, परमेश्वर ने इस प्रकार कहा, "आखिरकार, राज्य का युग बीते हुए समयों से अलग है। मनुष्य जो कुछ करता है यह उससे संबंधित नहीं है। उसके बजाए, पृथ्वी पर उतरने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता हूँ—वह कार्य जिसका मनुष्य न तो अनुमान लगा सकते हैं और जिसे न ही पूरा कर सकते हैं।" निस्संदेह, यह कार्य अवश्य व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए—कोई भी मनुष्य ऐसा कार्य करने में सक्षम नहीं है, वे बस इसे करने में समर्थ नहीं हैं। परमेश्वर के अलावा, कौन मनुष्यों के बीच इतने महान कार्य को कर सकता है? और कौन संपूर्ण मानवजाति को यंत्रणा दे कर अधमरा करने में सक्षम है? क्या संभवतः मनुष्य इस तरह के कार्य की व्यवस्था कर सकते थे? ऐसा क्यों है कि वह कहता है, "पृथ्वी पर उतरने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता हूँ?" क्या संपूर्ण अंतरिक्ष से परमेश्वर का आत्मा सचमुच गायब हो सकता था? "पृथ्वी पर उतरने के बाद मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता हूँ," यह इस तथ्य को कि परमेश्वर के आत्मा ने कार्य करने के लिए देह में देहधारण किया है, और इस तथ्य को कि परमेश्वर का आत्मा स्पष्ट रूप से मानवजाति के माध्यम से कार्य कर रहा है, दोनों को संदर्भित करता है। व्यक्तिगत रूप अपना कार्य करके, परमेश्वर कई लोगों को उनकी नग्न आँखों से परमेश्वर स्वयं को देखने देता है, ताकि उन्हें अपनी आत्माओं में सावधानीपूर्वक खोज करने की आवश्यकता न हो। इसके अलावा, यह सभी मनुष्यों को उनकी स्वयं की आँखों से आत्मा के कार्य को देखने देता है और उन्हें दिखाता है कि मनुष्य की देह और परमेश्वर की देह के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। इसके साथ ही, संपूर्ण अंतरिक्ष और ब्रह्मांड की दुनिया में, परमेश्वर का आत्मा अभी भी कार्य पर है। वे सभी लोग जो प्रबुद्ध हैं, परमेश्वर के नाम को स्वीकार करके देखते हैं कि परमेश्वर का आत्मा कैसे कार्य करता है और फलस्वरूप, परमेश्वर के देहधारण के साथ और भी अधिक परिचित हो जाते हैं। वैसे तो, यदि परमेश्वर की दिव्यता प्रत्यक्ष रूप से कार्य करती है, अर्थात्, परमेश्वर का आत्मा थोड़े से भी हस्तक्षेप के बिना कार्य करने में समर्थ है, केवल तभी मनुष्य व्यावहारिक परमेश्वर स्वयं से परिचित हो सकता है। यही राज्य के निर्माण का सार है।
परमेश्वर ने कितनी बार देह में देहधारण किया है? क्या ऐसा कई बार हो सकता है? ऐसा क्यों है कि परमेश्वर ने कई बार अभ्युक्ति की है कि, "मैं एक बार मनुष्यों के संसार में उतरा था और उनके दुख दर्द का अवलोकन और अनुभव किया था, किन्तु मैंने अपने देहधारण के उद्देश्य को पूरा नहीं किया था"? क्या ऐसा है कि परमेश्वर कई बार देहधारी बनाया गया है, किन्तु कभी एक बार भी मनुष्य के द्वारा नहीं जाना गया है? इस कथन का यह अभिप्राय नहीं है। जब पहली बार परमेश्वर ने देहधारण किया था, तो उसका उद्देश्य वास्तव में यह नहीं था कि मनुष्य उसे जाने। इसके बजाय, उसने अपना कार्य किया और फिर किसी के ध्यान में आए बिना या किसी को उसे जानने का अवसर दिए बिना वह गायब हो गया। उसने मनुष्य को उसे पूरी तरह से जानने की अनुमति नहीं दी और देहधारण के महत्व को पूरी तरह से धारण भी नहीं किया, इसलिए उसे पूरी तरह देहधारण किया गया नहीं कहा जा सका। प्रथम देहधारण में, उसने उस कार्य को करने के लिए केवल पापपूर्ण प्रकृति से मुक्त एक दैहिक शरीर का उपयोग किया—कार्य पूरा हो जाने के बाद, आगे उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। जहाँ तक उन मनुष्यों की बात है जिन्हें परमेश्वर ने युगों भर में उपयोग किया है, ऐसे उदाहरण तो देहधारण कहे जाने के और भी कम योग्य हैं। आज, केवल उसे ही पूरी तरह देहधारण कहा जा सकता है जो व्यावहारिक परमेश्वर स्वयं है, जिसका बाहरी प्रकटन, अंदर पूर्ण देवत्व को छुपाते हुए, सामान्य मानवता का है, और जिसका उद्देश्य स्वयं को जानने की मनुष्य को अनुमति देना है। इस दुनिया में परमेश्वर की पहली यात्रा के अर्थ में उस चीज़ के महत्व के केवल एक पहलू का समावेश है जो आज देहधारण कहलाता है—यह यात्रा किसी भी तरह से उस चीज़ का पूर्ण अर्थ धारण नहीं करती थी जिसे अब देहधारण कहा जाता है। इसीलिए परमेश्वर ने कहा, "देहधारण के महत्त्व को पूरा किए बिना।" "मनुष्य के दुःखों का अनुभव और अवलोकन" परमेश्वर के आत्मा और दो देहधारणों को दर्शाता है, इस प्रकार परमेश्वर ने कहा, "जब राज्य के निर्माण का कार्य होना शुरू हो जाता है, मेरा देहधारी शरीर विधिवत् रूप से सेवकाई करना प्रारम्भ कर देता है; अर्थात्, राज्य का राजा अपनी सर्वोच्च सामर्थ को यथाविधि प्राप्त कर लेता है।" यद्यपि कलीसिया का निर्माण परमेश्वर के नाम की गवाही थी, किन्तु कार्य अभी तक औपचारिक रूप से आरंभ नहीं हुआ था—केवल आज ही इसे राज्य का निर्माण करना कहा जा सकता है। पहले जो कुछ भी किया गया था वह सिर्फ एक पूर्वानुभव था, यह असली चीज़ नहीं थी। भले ही यह कहा गया था कि राज्य में प्रवेश किया जा चुका है, किन्तु इसके अंदर कोई कार्य नहीं किया जा रहा था। केवल आज ही, अब चूँकि कार्य परमेश्वर की दिव्यता के भीतर किया जा रहा है और परमेश्वर ने औपचारिक रूप से अपना कार्य आरंभ कर दिया है, इसलिए मनुष्य ने अंततः राज्य में प्रवेश कर लिया है। इस प्रकार, "मानवीय संसार में राज्य का नीचे उतरना, मात्र वचनों और प्रकटीकरण के विषय से कहीं दूर है, और यह वास्तव में एक सच्चाई है; यह ‘वास्तविकता के अभ्यास’ के अर्थ का एक पहलु है।" यह अंश उपरोक्त व्याख्या का एक उचित सारांश है। यह विवरण प्रदान करने के बाद, मनुष्य को लगातार कार्यरतता की स्थिति में छोड़ते हुए, परमेश्वर मानवजाति की सामान्य स्थिति का चरित्रचित्रण करने के लिए आगे बढ़ता है। "समूचे संसार में, सारी मानवता मेरे प्रेम एवं मेरी तरस के भीतर रहती है, परन्तु इस प्रकार सारी मानवता मेरे न्याय के आधीन रहती है, और उसी प्रकार मेरे इम्तेहान के अधीन भी रहती है।" मनुष्य का जीवन कुछ सिद्धांतों और नियमों के अनुसार संचालित होता है, जिन्हें परमेश्वर ने यथास्थान नियत किया है। ये सिद्धांत और नियम निम्नानुसार हैं: यहाँ खुशी के, हताशा के क्षण और इसके अलावा, सहन करने के लिए कठिनाइयों द्वारा शुद्धिकरण के समय होंगे। इस प्रकार, कोई भी व्यक्ति विशुद्ध सुखद या विशुद्ध दुःखद जीवन नहीं जिएगा। हर जीवन के उतार-चढ़ाव होंगे। समस्त मानवजाति भर में, न केवल परमेश्वर का प्यार और करुणा स्पष्ट है, उसका निर्णय और उसका संपूर्ण स्वभाव भी उतना ही स्पष्ट है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि: सभी मनुष्य परमेश्वर के परीक्षण का अनुभव करते हैं, क्या वे नहीं करते हैं? इस विशाल दुनिया भर में, समस्त मानवजाति अपना स्वयं का मार्ग खोजने का कार्य करने में व्यस्तता से श्रम करती है। वे आश्वस्त नहीं हैं कि वे क्या भूमिका निभाते हैं और कुछ तो यहाँ तक कि अपने भाग्य के वास्ते अपने जीवन को क्षति पहुँचाते हैं या उस पर अधिकार खो बैठते हैं। यहाँ तक कि अय्यूब भी नियम के लिए कोई अपवाद नहीं था: परमेश्वर के परीक्षण से होकर जीते हुए भी, वह अपना स्वयं का मार्ग तलाशते हुए आगे बढ़ता रहा। कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के परीक्षणों में डटे रहने में सक्षम नहीं है। अपने लालच या अपनी मानवीय प्रकृति के कारण, कोई भी व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है, और कोई भी व्यक्ति परीक्षणों में डटा नहीं रह सकता है: हर मनुष्य परमेश्वर के न्याय के नीचे चूर-चूर हो जाता है। यदि परमेश्वर अभी भी मनुष्य के साथ इतना गंभीर होता, यदि उसे अभी भी मनुष्य से इतनी सख़्त माँग रखनी होती, तो यह ठीक ऐसा होता जैसे परमेश्वर ने कहा था: "समूची मनुष्य जाति मेरी घूरती हुई ज्वलंत निगाहों तले लड़खड़ाकर गिर जाएगी।"
इस तथ्य के बावजूद कि राज्य का निर्माण औपचारिक रूप से आरंभ हो गया है, राज्य के लिए सलामी अभी तक औपचारिक रूप से बजनी है—अभी यह केवल उसकी भविष्यवाणी है जो आना है। जब सभी लोग को पूर्ण बना लिया गया होगा और पृथ्वी के सभी राष्ट्र मसीह का राज्य बन गए होंगे, तब वह समय होगा जब सात बिजलियाँ गरजती हैं। वर्तमान दिन उस चरण की दिशा में आगे एक लंबा कदम है, आने वाले समय पर आवेश उन्मुक्त कर दिया गया है। यह परमेश्वर की योजना है—निकट भविष्य में इसका एहसास हो जाएगा। हालाँकि, परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा है, वह सब पहले ही पूरा कर दिया है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि धरती के देश केवल रेत के किले हैं जो ज्वार आने पर काँप जाते हैं: अंत का दिन सन्निकट है और बड़ा लाल अजगर परमेश्वर के वचन के नीचे गिर जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि परमेश्वर की योजना को सफलतापूर्वक पूरा किया जाता है, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना पूरा प्रयास करते हुए, स्वर्ग के स्वर्गदूत पृथ्वी पर उतर गए हैं। स्वयं देहधारी परमेश्वर दुश्मन से लड़ाईकरने के लिए युद्ध के मैदान में तैनात हुआ है। जहाँ कहीं भी देहधारण प्रकट होता है, उस जगह से दुश्मन नष्ट हो जाता है। परमेश्वर के हाथ से सर्वनाश किए जाने वालों, बर्बाद किए जाने वालों में चीन सबसे पहला है। परमेश्वर चीन पर बिल्कुल भी दया नहीं दिखाता है। बड़े लाल अजगर के उत्तरोत्तर ढहने का सबूत लोगों की निरंतर परिपक्वता में देखा जा सकता है। इसे किसी के भी द्वारा स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। लोगों की परिपक्वता दुश्मन की मृत्यु का संकेत है यह इस बात का भी थोड़ा सा स्पष्टीकरण है जो "युद्ध कर सकूँ" का अर्थ है। इस लिए, परमेश्वर ने अवधारणाओं की हैसियत, मनुष्यों के हृदय में बड़े लाल अजगर की कुरूपता को नष्ट करने के लिए, परमेश्वर की खूबसूरत गवाहियाँ देने के लिए, कई अवसरों पर लोगों को याद दिलाया। परमेश्वर मनुष्य के विश्वास में जीवन डालने के लिए इस तरह के अनुस्मारकों का उपयोग करता है और, ऐसा करने में, अपने कार्य में उपलब्धियाँ प्राप्त करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने कहा है कि, "मनुष्य क्या करने में सक्षम है? उसके बजाए क्या यह वह नहीं है जिसे मैं स्वयं करता हूँ?" संपूर्ण मानवजाति ऐसी ही है। न केवल वे अक्षम हैं, बलिक् वे आसानी से निरुत्साहित और निराश हो जाते हैं। इस कारण से, वे परमेश्वर को जानने में अक्षम हैं। परमेश्वर न केवल मनुष्यों के विश्वास को पुनर्जीवित करता है, बल्कि वह मनुष्य को गुप्त रूप से लगातार शक्ति से प्रेरित भी कर रहा है।
इसके बाद, परमेश्वर ने पूरे ब्रह्मांड से बात करना शुरू कर दिया। परमेश्वर ने न केवल चीन में अपना नया कार्य आरंभ किया, बल्कि उसने पूरे विश्व में आज का नया कार्य करना आरंभ कर दिया। कार्य के इस चरण में, क्योंकि परमेश्वर अपने सभी कर्मों को पृथ्वी पर प्रकट करना चाहता है ताकि संपूर्ण मानवजाति जिसने उसके साथ विश्वासघात किया है, पुनः उसके सिंहासन के समक्ष झुक कर समर्पित होने के लिए आ जाएगी, इसलिए परमेश्वर के न्याय के अंदर अभी भी परमेश्वर की दया और अनुकम्पा है। परमेश्वर दुनिया भर की वर्तमान घटनाओं का उपयोग मनुष्यों के हृदय को कँपाने के लिए करता है, उन्हें परमेश्वर की तलाश करने के लिए झकझोरता है ताकि वे उसकी ओर प्रवाहित हो सकें। इस प्रकार परमेश्वर कहता है, "यह एक तरीका है जिसके तहत मैं कार्य करता हूँ, और यह निःसन्देह मनुष्य के उद्धार का एक कार्य है, और जो मैं उसको देता हूँ वह अब भी एक प्रकार का प्रेम है।" परमेश्वर मनुष्य की सच्ची प्रकृति को इतनी सटीकता के साथ उजागर करता है जो कि चुभने वाली, अद्वितीय और आसान है। इससे आदमी, पूरी तरह अपमानित होते हुए, शर्म में अपना चेहरा छुपाता है। हर बार जब परमेश्वर बोलता है, तो वह किसी तरह से हमेशा मनुष्य की दुर्दशा के कुछ पहलू को इंगित करता है ताकि, अपनी निश्चिंतता में, मनुष्य स्वयं को जानना न भूल जाए और स्वयं को जानना एक पुराने कार्य जैसा न समझे।मनुष्य की प्रकृति को जान कर, यदि परमेश्वर सिर्फ एक पल के लिए उसकी गलतियों को नहीं बताता, तो मनुष्य स्वच्छन्द और अभिमानी हो सकता था। इसलिए, आज परमेश्वर कहता है," मानवता-उन नामों को संजोकर रखने से कहीं दूर जिन्हें मैंने तुम लोगों को प्रदान किया है, तुममें से बहुत से लोग, "सेवा करने वाले" की उपाधि पर अपने अपने हृदयों में द्वेष पालकर रखते हैं, और बहुत से लोग "मेरी प्रजा" की उपाधि पर अपने अपने हृदयों में प्रेम का पालन पोषण करते हैं। मुझे मूर्ख बनाने की कोशिश मत करो—मेरी आँखें सभी चीज़ों को देखती हैं और उन्हें भेदती हैं!" जैसे ही आदमी इस वक्तव्य को देखता है, वह तुरंत असहज महसूस करता है। उसे महसूस होता है कि उसके अतीत के कार्य अत्यधिक बचकाने—सिर्फ एक प्रकार के गंदे-व्यवहार थे, जो परमेश्वर को अपमानित करते हैं। वह हाल ही में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता था, किन्तु जबकि वह अत्यधिक इच्छुक है, तब भी उसमें सामर्थ्य का अभाव है और वह नहीं जानता कि उसे क्या करना चाहिए। अनजाने में, वह एक नए संकल्प के साथ प्रेरित होता है। जब कोई अपनी निश्चिंतता में हो तो इन वचनों को पढ़ने का यह प्रभाव होता है।
एक ओर, परमेश्वर कहता है कि शैतान चरम रूप से पागल है, जबकि दूसरी ओर वह यह भी कहता है कि अधिकांश मनुष्य अपनी पुरानी प्रकृति को नहीं बदलते हैं। इससे, यह स्पष्ट है कि शैतान के क्रिया-कलाप मनुष्यों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। इसलिए, परमेश्वर प्रायः मनुष्य को स्वच्छन्द जिद्दी नहीं होने की याद दिलाता है, ताकि कहीं ऐसा न हो कि वह शैतान द्वारा निगल लिया जाए। यह केवल भविष्यवाणी करना नहीं है कि कुछ मनुष्य विद्रोह करेंगे, बल्कि इससे अधिक सभी मनुष्यों को शीघ्रता से अतीत को एक ओर रखने और वर्तमान दिन की तलाश करने हेतु चेतावनी देने के लिए एक खतरे-की-घंटी बजना है। कोई भी व्यक्ति असुरों द्वारा ग्रस्त होना या दुष्टात्माओं द्वारा काबू में किया जाना नहीं चाहता है, इसलिए परमेश्वर का वचन उनके लिए और भी अधिक चेतावनी और फटकार जैसा है। हालाँकि, जब परमेश्वर के हर अंतिम शब्द को बहुत महत्व देते हुए, अधिकांश लोग चरम रूप से विपरीत चलते हैं, तो परमेश्वर बदले में कहता है, "अधिकांश लोग मेरा इन्तज़ार कर रहे हैं कि मैं उनके लिए अधिक से अधिक रहस्यों को प्रकाशित करूँ जिससे वे अपनी आँखों को आनन्दित कर सकें। और फिर भी, अगर तुम्हें स्वर्ग के सारे रहस्यों की समझ हो भी जाए, तो तुम उस ज्ञान के साथ क्या कर सकते हो? क्या यह मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम को बढ़ाएगा? क्या यह मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम को प्रज्वलित कर देगा?" इससे यह स्पष्ट है कि मनुष्य परमेश्वर को जानने और परमेश्वर से प्यार करने के लिए परमेश्वर के वचन का उपयोग नहीं करता है, बल्कि अपने "छोटे से भण्डारगृह" के भंडार में वृद्धि करने के लिए उपयोग करता है। इसलिए, मनुष्य के अतिवाद का वर्णन करने के लिए परमेश्वर का "जिससे वे अपनी आँखों को आनन्दित कर सकें" वाक्यांश का उपयोग यह दर्शाता है कि कैसे मनुष्य का परमेश्वर के प्रति प्यार अभी भी पूरी तरह से शुद्ध नहीं है। यदि परमेश्वर रहस्यों का अनावरण नहीं करता, तो मनुष्य उसके वचनों को बहुत महत्व नहीं देता, बल्कि उन्हें सिर्फ क्षण-भर के लिए देखता—सिर्फ एक नज़र, एक झलक देखता। वे उसके वचनों पर वास्तव में चिंतन करने और उन पर विचार करने का समय नहीं निकालते। अधिकांश लोग परमेश्वर के वचनों को वास्तव में सँजो कर नहीं रखते हैं। वे उसके वचनों को खाने और पीने के लिए बहुत कोशिश नहीं करते हैं, बल्कि बेमन से उन्हें सतही रूप से पढ़ते हैं। परमेश्वर अब अतीत के समय की तुलना में एक भिन्न तरीके से क्यों बोलता है? यह सब गूढ़ भाषा क्यों है? उदाहरण के लिए, "मैं कभी भी यूँ ही मनुष्य के माथे पर नाम पट्टी नहीं लगाता हूँ कि वह उसे मुकुट के रूप में पहने" में "मुकुट, " "क्या कोई है जो स्वयं में सबसे शु़द्ध सोने को प्राप्त कर सकता है जिससे मेरे वचन बने हैं? " में "सबसे शु़द्ध सोने, " "शैतान द्वारा किसी संसाधन से गुज़रे बिना" में "संसाधन" का उसका पिछला उल्लेख, और अन्य ऐसे ही वाक्यांश। मनुष्य की समझ में नहीं आता है कि परमेश्वर इस तरह से क्यों बोलता है। उनकी समझ में नहीं आता है कि वह क्यों इस तरह के एक मजेदार, विनोदी और भड़काने वाले ढंग से बोलता है। यह वास्तव में परमेश्वर के भाषण के उद्देश्य की एक अभिव्यक्ति है। बिल्कुल शुरुआत से अब तक, मनुष्य हमेशा परमेश्वर के वचन को समझने में अक्षम रहा है और ऐसा प्रतीत हुआ है मानो कि परमेश्वर का वचन वास्तव में काफी गंभीर और कठोर था। हास्य की थोड़ी सी धुन को जोड़कर—यहाँ-वहाँ कुछ हँसी के ठट्ठे जोड़ कर—वह अपने वचनों के भाव को हल्का करने में समर्थ है और मनुष्य को अपनी माँसपेशियों को थोड़ा-बहुत शिथिल करने की अनुमति देता है। ऐसा करने में, वह, सभी मनुष्यों को परमेश्वर के वचन पर विचार करने के लिए बाध्य करते हुए, एक और भी बड़ा प्रभाव प्राप्त करने में सक्षम है।
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