2019-02-06

5. देह-धारी परमेश्वर और जो परमेश्वर द्वारा उपयोग में लाए जाते हैं उन लोगों के बीच सारभूत अंतर क्या है?

I. परमेश्वर के देह-धारण से सम्बंधित सत्य के पहलू पर हर किसी को गवाही देनी चाहिए


I. परमेश्वर के देह-धारण से सम्बंधित सत्य के पहलू पर हर किसी को गवाही देनी चाहिए

5. देह-धारी परमेश्वर और जो परमेश्वर द्वारा उपयोग में लाए जाते हैं उन लोगों के बीच सारभूत अंतर क्या है?
देह-धारी परमेश्वर और जो परमेश्वर द्वारा उपयोग में लाए जाते हैं उन लोगों के बीच सारभूत अंतर क्या है
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"मैं तो पानी से अथवा, में तुम्हें मन फिराव का बपतिस्मा देता हूँ, परन्तु जो मेरे बाद आने वाला है, वह मुझ से शक्‍तिशाली है; मैं उसकी जूती उठाने के योग्य नहीं। वह तुम्हें पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देगा" (मत्ती 3:11)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
तथा मसीह परमेश्वर के आत्मा के द्वारा धारण किया गया देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है बल्कि आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण परमेश्वरत्व दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती है। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियों को बनाए रखती है, जबकि दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य करती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, अर्थात्, दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा, तथा वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता है जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, ना वह ऐसे वचन कहेगा जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरूद्ध जाते हों। ...
... जो कोई भी अवज्ञा करता है वह शैतान की ओर से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएँ होने का कारण यह है कि शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किया गया तथा उस पर कार्य किया गया है। मसीह शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएँ हैं तथा शैतान की एक भी नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से
क्योंकि वह परमेश्वर के सार वाला एक मनुष्य है, वह किसी भी सृजन किए गए मानव से ऊपर है, किसी भी ऐसे मनुष्य से ऊपर है जो परमेश्वर का कार्य कर सकता है। और इसलिए, उसके समान मानवीय आवरण वाले सभी के बीच, उन सभी के बीच जो मानवता को धारण करते हैं, केवल वही देहधारी परमेश्वर स्वयं है—अन्य सभी सृजन किए गए मानव हैं। यद्यपि उन सब में मानवता है, किन्तु सृजन किए गए मानव और कुछ नहीं केवल मानव ही हैं, जबकि देहधारी परमेश्वर भिन्न हैः अपनी देह में उसमें न केवल मानवता है परन्तु इससे महत्वपूर्ण दिव्यता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से
मसीह की दिव्यता सभी मनुष्यों से ऊपर है, इसलिए सभी सृजन किए गए प्राणियों में वह सर्वोच्च अधिकारी है। यह अधिकार उसकी दिव्यता, अर्थात्, परमेश्वर स्वयं का स्वभाव तथा अस्तित्व है, जो उसकी पहचान निर्धारित करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से
क्योंकि परमेश्वर पवित्र और शुद्ध है, तथा यथार्थ और वास्तविक है, इसलिए उसका देह पवित्रात्मा से आता है। यह निश्चित है, और संदेह से परे है। न केवल स्वयं परमेश्वर की गवाही देने में समर्थ होना, बल्कि परमेश्वर की इच्छा को पूर्णतः कार्यान्वित करने में सक्षम होना: यह परमेश्वर के सार का एक पक्ष है। यह कि देह एक छवि के साथ पवित्रात्मा से आता है का अर्थ है कि देह जिससे आत्मा स्वयं को ढकता है, वह आवश्यक रूप से मनुष्य की देह से भिन्न है, और यह अंतर मुख्य रूप से उनकी आत्मा में निहित है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "नौवें कथन की व्याख्या" से
परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण किया हुआ देह परमेश्वर का अपना देह है। परमेश्वर का आत्मा सर्वोच्च है; वह सर्वशक्तिमान, पवित्र और धर्मी है। तो इसी तरह, उसका देह भी सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान, पवित्र और धर्मी है। इस तरह का देह ही केवल वह करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए धर्मी और लाभकारी है, वह जो पवित्र, महान और शक्तिमान है, और ऐसी किसी भी चीज को करने में असमर्थ है जो सत्य या नैतिकता और न्याय का उल्लंघन करती हो, ऐसी किसी चीज को करने में तो बिल्कुल समर्थ नहीं है जो परमेश्वर के आत्मा के साथ विश्वासघात करती हो। परमेश्वर का आत्मा पवित्र है, और इस प्रकार उसका शरीर शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए जाने योग्य है; उसका शरीर मनुष्य के शरीर की तुलना में भिन्न सार का है। क्योंकि यह मनुष्य है, परमेश्वर नहीं, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जाता है; शैतान संभवतः परमेश्वर के शरीर को भ्रष्ट नहीं कर सका। इस प्रकार, इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य और मसीह एक ही स्थान के भीतर रहते हैं, यह केवल मनुष्य है शैतान द्वारा जिस पर प्रभुत्व किया जाता है, जिसे उपयोग किया जाता है और फँसाया जाता है। इसके विपरीत, मसीह शैतान की भ्रष्टता के प्रति शाश्वत रूप से अभेद्य है, क्योंकि शैतान कभी भी उच्चतम स्थान तक आरोहण करने में सक्षम नहीं होगा, और कभी भी परमेश्वर के निकट नहीं पहुँच पाएगा। आज, तुम सभी लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि यह केवल मानवजाति है, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है, जो मेरे साथ विश्वासघात करती, और यह कि मसीह के लिए यह समस्या हमेशा अप्रासंगिक रहेगी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "एक बहुत गंभीर समस्या: विश्वासघात (2)" से
क्योंकि सभी घटनाओं के बावजूद मनुष्य मनुष्य है, और वह एक इंसान के दृष्टिकोण और ऊँचाई से ही सभी चीज़ों को देख सकता है। मगर देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर का देहधारी शरीर कितना सामान्य, कितना साधारण, कितना दीन है, या लोग उसे कितनी नीची दृष्टि से देखते हैं, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसकी मनोवृत्तियाँ ऐसी चीज़ें है जिन्हें कोई भी मनुष्य धारण नहीं कर सकता है, और ना ही उसका अनुकरण कर सकता है। वह हमेशा ईश्वरीय दृष्टिकोण, और सृष्टिकर्ता के रूप में अपने पद की ऊँचाई से मानव जाति का अवलोकन करता रहेगा। वह हमेशा परमेश्वर के सार और मनःस्थिति से मानव जाति को देखता रहेगा। वह एक औसतइंसान की ऊँचाई, और एक भ्रष्ट इंसान के दृष्टिकोण से मानव जाति को बिल्कुल नहीं देख सकता है। जब लोग मानव जाति को देखते हैं, तो वे मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और वे मानवीय ज्ञान और मानवीय नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों को एक पैमाने की तरह प्रयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; यह उस दायरे के भीतर है जिसे भ्रष्ट लोग प्राप्त कर सकते हैं। जब परमेश्वर मानव जाति को देखता है, वह ईश्वरीय दर्शन के साथ देखता है, और अपने सार और जो उसके पास है तथा जो वह है उसे नाप के रूप में लेता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते हैं, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और दूषित मनुष्य बिल्कुल अलग हैं। इस अन्तर को मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न भिन्न सार तत्वों के द्वारा निर्धारित किया जाता है, और ये भिन्न भिन्न सार ही हैं जो उन की पहचानों और पदस्थितियों को निर्धारित करते हैं साथ ही साथ उस दृष्टिकोण और ऊँचाई को भी जिस से वे चीज़ों को देखते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" से
जो कोई ईश्वरत्व में कार्य करता है वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि जो मानवता में कार्य करते हैं वे परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए जाते हैं। अर्थात्, देहधारी परमेश्वर उन लोगों से मौलिक रूप से भिन्न है जो परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए हैं। देहधारी परमेश्वर ईश्वरत्व का कार्य कर सकता है, परन्तु परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए गए लोग नहीं कर सकते हैं। हर युग की शुरुआत में, परमेश्वर का आत्मा नया युग शुरू करने के लिए और मनुष्य को एक नई शुरुआत तक लाने के लिए व्यक्तिगत रूप से बोलता है। जब वह अपना बोलना पूरा कर लेता है, तो यह प्रकट करता है कि परमेश्वर का ईश्वरत्व में कार्य हो चुका है। उसके बाद, सभी लोग अपने जीवन में आत्मिक अनुभव में प्रवेश करने के लिए उन लोगों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए गए हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों के बीच महत्वपूर्ण अंतर" से
यद्यपि देहधारी परमेश्वर एक सामान्य मानवीय मन रखता है, किन्तु उसका कार्य मानव विचार के द्वारा अपमिश्रित नहीं होता है; वह इस पूर्वशर्त के अधीन सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य को अपने हाथ में लेता है, कि वह मानवता को मन के साथ धारण करता है, न कि सामान्य मानवीय विचारों को प्रयोग में लाने के द्वारा। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उसकी देह के विचार कितने उत्कृष्ट हैं, उसके कार्य पर तर्क या सोच का ठप्पा नहीं लगता है। दूसरे शब्दों में, उसका कार्य उसकी देह के मन के द्वारा कल्पना नहीं किया जाता है, बल्कि उसकी मानवता में दिव्य कार्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उसका समस्त कार्य उसकी वह सेवकाई है जिसे उसे पूरा करने की आवश्यकता है, और इनमें से कोई भी उसके मस्तिष्क द्वारा कल्पना नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और सलीब पर चढ़ना उसके मानवीय मन के परिणाम नहीं थे, किसी मानवीय मन वाले किसी भी मनुष्य द्वारा प्राप्त नहीं किए जा सकते थे। इसी तरह, आज का जीतने का कार्य ऐसी सेवकाई है जो देहधारी परमेश्वर के द्वारा अवश्य की जानी चाहिए, किन्तु यह किसी मानवीय इच्छा का कार्य नहीं है, यह ऐसा कार्य है जो उसकी दिव्यता को करना चाहिए, ऐसा कार्य जिसे करने में कोई भी दैहिक मानव सक्षम नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से
पूरे समय में, उन सभी लोगों के पास जिनका परमेश्वर ने उपयोग किया है सामान्य सोच और कारण रहे हैं। वे सब जानते हैं कि कैसे स्वयं आचरण करना है और जीवन के मामलों को सँभालना है। उनके पास सामान्य मानव विचारधारा है और वे सभी चीज़ें हैं जो सामान्य लोगों के पास होनी चाहिए। उनमें से अधिकतर लोगों के पास असाधारण प्रतिभा और सहज ज्ञान है। उन लोगों के माध्यम से कार्य करने में, परमेश्वर का आत्मा उनकी प्रतिभाओं का उपयोग करता है, जोकि उनके ईश्वर-प्रदत्त वरदान हैं। यह परमेश्वर का आत्मा ही है जो परमेश्वर की सेवा करने की उनकी शक्तियों का उपयोग करके उनकी प्रतिभाओं को सक्रिय करता है। हालाँकि, परमेश्वर का सार विचारधारा-मुक्त और विचार-मुक्त है। यह मनुष्य के विचारों को शामिल नहीं करता है और यहाँ तक कि उसमें उन बातों का भी अभाव है जो मनुष्यों में सामान्य रूप से होती हैं। अर्थात्, परमेश्वर मानव आचरण के सिद्धांतों को समझता तक नहीं है। जब आज का परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तब ऐसा ही होता है। वह मनुष्य के विचारों या मनुष्य की सोच को शामिल किए बिना कार्य करता और बोलता है, परन्तु आत्मा का वास्तविक अर्थ सीधे प्रकट करता है और सीधे परमेश्वर की ओर से कार्य करता है। इसका अर्थ है कि आत्मा कार्य करने के लिए आगे आता है, जो मनुष्य के विचारों को थोड़ा सा भी शामिल नहीं करता है। अर्थात्, देहधारी परमेश्वर सीधे ईश्वरत्व का अवतार होता है, मनुष्य की सोच या विचारधारा के बिना होता है, और मानव आचरण के सिद्धांतों की कोई समझ नहीं रखता है। अगर वहाँ केवल दिव्य कार्य होते (अर्थात् यदि केवल परमेश्वर स्वयं कार्य कर रहा होता), तो परमेश्वर का कार्य पृथ्वी पर पूरा नहीं किया जा सकता था। इसलिए जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, उसे कुछ लोग रखने ही पड़ते हैं जिनका वह ईश्वरत्व में अपने कार्य के साथ संयोजन में मानवता में कार्य करने के लिए उपयोग करता है। दूसरे शब्दों में, वह अपने ईश्वरीय कार्य का समर्थन करने के लिए मनुष्य के कार्य का प्रयोग करता है। अन्यथा, मनुष्य ईश्वरीय कार्य के साथ सीधे संपर्क में आने में असमर्थ होगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों के बीच महत्वपूर्ण अंतर" से
उन मनुष्यों का काम भी पवित्र आत्मा का कार्य है जिन्हें उपयोग किया जाता है। यह सिर्फ इतना है कि परमेश्वर का कार्य पवित्र आत्मा की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है, और इनमें कोई फ़र्क नहीं है, जबकि उपयोग किए गए मनुष्यों का काम बहुत सी मानवीय चीज़ों के साथ घुल मिल गया है, और यह पवित्र आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं है, सम्पूर्ण प्रकाशन की तो बात ही छोड़ दीजिए। ... जब पवित्र आत्मा इस्तेमाल किए जा रहे मनुष्यों पर कार्य करता है, तो उनके वरदान एवं वास्तविक क्षमता का प्रदर्शन होता है और उन्हें बचाकर नहीं रखा जाता है। उनकी वास्तविक क्षमता कार्य को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल होती है। ऐसा कहा जा सकता है कि वह उस कार्यकारी परिणाम को हासिल करने के लिए मनुष्यों के उपलब्ध गुणों का उपयोग करने के द्वारा कार्य करता है। इसके विपरीत, देहधारी शरीर में किया गया कार्य सीधे तौर पर आत्मा के कार्य को व्यक्त करने के लिए है और यह मानवीय मस्तिष्क एवं विचारों के साथ मिश्रित नहीं होता है, और मनुष्यों के वरदानों, मनुष्य के अनुभव या मनुष्य की स्वाभाविक दशा के द्वारा इस तक पहुंचा नहीं जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
देह में रहने वाला कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ नहीं है, जब तक कि वह पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया कोई व्यक्ति न हो। हालाँकि, यहाँ तक कि इस तरह के व्यक्ति के लिए भी, उसके स्वभाव को और जिस जीवन को वह व्यतीत करता है उसे पूर्णतः परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना नहीं कहा जा सकता है; कोई केवल यही कह सकता है कि वह जो जीवन व्यतीत करता है वह पवित्र आत्मा के द्वारा निर्देशित होता है। ऐसे व्यक्ति का स्वभाव परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।
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...मनुष्य शैतान का मूर्त रूप है, और मनुष्य का स्वभाव परमेश्वर के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। कुछ मनुष्य अच्छे चरित्र वाले होते हैं; परमेश्वर ऐसे व्यक्तियों के चरित्र के माध्यम से कुछ कार्य कर सकता है और जिस कार्य को वे करते हैं वह पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित होता है। फिर भी उनका स्वभाव परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। परमेश्वर जो कार्य उनमें करता है, वह केवल जो पहले से ही भीतर विद्यमान होता है उसी पर कार्य करता और उसे ही विस्तारित करता है। वे चाहे भविष्यद्वक्ता हों या परमेश्वर द्वारा अतीत के युगों से उपयोग में लाए गए व्यक्ति हों, कोई भी उसका प्रत्यक्षतः प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। ... करने हेतु पर्याप्त है कि पापमय प्रकृति वाला कोई भी व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, और मनुष्य का पाप शैतान का प्रतिनिधित्व करता है। कहने का अर्थ है, कि पाप परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और परमेश्वर पापरहित है। यहाँ तक कि पवित्र आत्मा द्वारा मनुष्य में किया गया कार्य भी केवल पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित किया गया माना जा सकता है, और मनुष्य द्वारा परमेश्वर की ओर से किया गया नहीं कहा जा सकता है। किन्तु, जहाँ तक मनुष्य का संबंध है, न उसका पाप और न उसका स्वभाव परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मनुष्य परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है" से


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