विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (3)
विजयी कार्य द्वारा मुख्य रूप से यह परिणाम हासिल करने का प्रयास किया जाता है कि मनुष्य की देह को विद्रोह से रोका जाए, अर्थात मनुष्य का मस्तिष्क परमेश्वर की नई समझ हासिल करे, उसका दिल पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, और वह परमेश्वर का होने के लिए संकल्प करे। किसी व्यक्ति के स्वभाव या देह कैसे परिवर्तित होते हैं, वह यह निर्धारित नहीं करता कि उस पर विजय प्राप्त की गई है या नहीं। बल्कि, जब तुम्हारी सोच, तुम्हारी चेतना और तुम्हारी भावना बदलती है—अर्थात, जब तुम्हारी पूरी मनोवृत्ति में बदलाव होता है—तब परमेश्वर तुम पर विजय प्राप्त कर चुका होता है। जब तुम आज्ञा का पालन करने का संकल्प ले लेते हो और एक नई मानसिकता अपना लेते हो, जब तुम परमेश्वर के वचनों और कार्य के विषय में अपनी धारणाओं या इरादों को लाना बंद कर देते हो, और जब तुम्हारा मस्तिष्क सामान्य रूप से सोच सकता हो, यानी, जब तुम परमेश्वर के लिए तहेदिल से प्रयास करने में जुट सकते हो—तो इस प्रकार का व्यक्ति वह होता है जिस पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त की जा चुकी है। धर्म के दायरे में, बहुत से लोग सारा जीवन निरर्थकता से कष्ट भोगते हैं, अपने शरीर को नियंत्रित करते हुए या अपना बोझ उठाते हुए, यहाँ तक कि अपनी अंतिम सांस तक पीड़ा सहते हुए! कुछ लोग अपनी मृत्यु की सुबह में भी उपवास रखते हैं। वे अपने पूर्ण जीवन के दौरान स्वयं को अच्छे भोजन और अच्छे कपड़े से दूर रखते हैं, और केवल पीड़ा पर ज़ोर देते हैं।
वे अपने शरीर को वश में कर पाते हैं और अपने शरीर को त्याग पाते हैं। पीड़ा सहन करने की उनकी भावना सराहनीय है। लेकिन उनकी सोच, उनकी धारणाएं, उनका मानसिक रवैया, और वास्तव में उनका पुराना स्वभाव—इनमें से किसी के साथ बिल्कुल भी निपटा नहीं गया है। उनकी स्वयं के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं है। परमेश्वर के बारे में उनकी मानसिक छवि एक निराकार, अज्ञात परमेश्वर की पारंपरिक छवि है। परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने का उनका संकल्प उनके उत्साह और उनके सकारात्मक स्वभाव से आता है। हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे न तो परमेश्वर को समझते हैं और न ही उसकी इच्छा जानते हैं।. वे केवल अंधों की तरह परमेश्वर के लिए कार्य कर रहे हैं और पीड़ा सह रहे हैं। विवेकी बनने पर वे बिल्कुल महत्व नहीं देते और उन्हें इसकी भी बहुत परवाह नहीं कि वे सुनिश्चित करें कि उनकी सेवा वास्तव में परमेश्वर की इच्छा पूरी करती हो। उन्हें इसका ज्ञान उससे भी कम है कि परमेश्वर के विषय में समझ कैसे हासिल करें। जिस परमेश्वर की सेवा वे करते हैं वह परमेश्वर की अपनी मूल छवि नहीं है, बल्कि एक ऐसा परमेश्वर है जिसे उन्होंने स्वयं बनाया, जिसके बारे में उन्होंने सुना, या एक ऐसा पौराणिक परमेश्वर है जिसके बारे में उन्होंने लेखों में पढ़ा। फिर वे अपनी ज्वलंत कल्पनाओं और अपने परमेश्वरीय हृदयों का उपयोग परमेश्वर के लिए पीड़ित होने के लिए करते हैं और परमेश्वर के लिए उस कार्य को अपने ऊपर ले लेते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। उनकी सेवा बहुत ही अयथार्थ है, ऐसी कि व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो ऐसा कोई नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर की सेवा एक ऐसे तरीके से कर रहा है जो परमेश्वर की इच्छा को पूरा करता हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे पीड़ा भुगतने को कितने तैयार हों, उनकी सेवा का मूल परिप्रेक्ष्य और परमेश्वर की उनकी मानसिक छवि अपरिवर्तित रहती है क्योंकि वे परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना और उसके शुद्धिकरण और सिद्धता के माध्यम से नहीं गुज़रे हैं, और कोई उन्हें सत्य के साथ आगे नहीं ले गया है। यहां तक कि अगर वे उद्धारकर्ता यीशु पर विश्वास करते भी हैं, तो भी उनमें से किसी ने कभी उद्धारकर्ता को देखा नहीं है। वे केवल किंवदंती और अफ़वाहों के माध्यम से उसे जानते हैं। इसलिए, उनकी सेवा आँख बंद कर बेतरतीब ढंग से की जाने वाली सेवा से अधिक कुछ नहीं है, जैसे एक नेत्रहीन आदमी अपने पिता की सेवा कर रहा हो। इस प्रकार की सेवा के माध्यम से आखिरकार क्या हासिल किया जा सकता है? और इसे कौन स्वीकार करेगा? शुरुआत से लेकर अंत तक, उनकी सेवा कभी भी बदलती नहीं। वे केवल मानव निर्मित पाठ प्राप्त करते हैं और अपनी सेवा को अपनी स्वाभाविकता और वे स्वयं क्या पसंद करते हैं उस पर आधारित रखते हैं। इससे क्या इनाम प्राप्त हो सकता है? यहाँ तक कि पतरस, जिसने यीशु को देखा था, वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हुए सेवा कैसे करनी है। अंत में, वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद ही, उसे समझ आया। यह उन नेत्रहीन लोगों के बारे में क्या कहता है जिन्होंने किसी भी तरह के निपटान या काँट-छाँट का अनुभव नहीं किया और जिनके पास मार्गदर्शन के लिए कोई भी नहीं रहा है? क्या आजकल तुम लोगों में से अधिकांश की सेवा उन नेत्रहीन लोगों की तरह नहीं? जिन सभी लोगों ने न्याय नहीं प्राप्त किया है, जिनकी काँट-छाँट और जिनका निपटारा नहीं किया गया है, जो नहीं बदले हैं—क्या ये वे नहीं जिन पर विजय प्राप्ति अधूरी है।? ऐसे लोगों का क्या उपयोग? यदि तुम्हारी सोच, जीवन की तुम्हारी समझ और परमेश्वर की तुम्हारी समझ में कोई नया परिवर्तन नहीं दिखता है, और थोड़ा-सा भी लाभ नहीं मिलता है, तो तुम अपनी सेवा में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं प्राप्त करोगे! दर्शन के बिना और परमेश्वर के कार्य की एक नई समझ के बिना, तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन सकते जिस पर विजय प्राप्त की गई हो। परमेश्वर का अनुसरण करने का तुम्हारा तरीका फिर उन लोगों की तरह होगा जो पीड़ा सहते हैं और उपवास रखते हैं—इसका शायद ही कोई मूल्य हो! यह इसलिए है क्योंकि वे जो करते हैं उसकी शायद ही कोई गवाही हो और मैं कहता हूं कि उनकी सेवा व्यर्थ है! अपने जीवनकाल के दौरान, ये लोग कष्ट भोगते हैं, जेल में समय बिताते हैं, और हर पल वे कष्ट सहते हैं, प्यार और दयालुता पर ज़ोर देते हैं, और अपना क्रूस उठाते हैं। उन्हें दुनिया बदनाम और अस्वीकार करती है और वे हर कठिनाई का अनुभव करते हैं। वे अंत तक आज्ञा का पालन करते हैं, लेकिन फिर भी, उन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती और वे विजय प्राप्ति का कोई भी साक्ष्य पेश नहीं कर पाते। वे कम कष्ट नहीं भोगते हैं, लेकिन अपने भीतर वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। उनकी पुरानी सोच, पुरानी विचारधारा, धार्मिक प्रथाओं, मानव निर्मित समझों और मानवीय विचारों में से किसी से भी निपटा नहीं गया। इनमें कोई नई समझ नहीं है। परमेश्वर की उनकी समझ का थोड़ा-सा हिस्सा भी सही या सटीक नहीं है। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा को गलत समझा है। क्या यह परमेश्वर की सेवा के लिए हो सकता है? तुमने परमेश्वर के बारे में अतीत में जो भी समझा हो, मान लो कि यदि तुम उसे आज बनाए रखो और परमेश्वर के बारे में अपनी समझ को अपनी धारणाओं और विचारों पर आधारित रखना जारी रखो, चाहे परमेश्वर कुछ भी करे। अर्थात्, समझो कि तुम्हारे पास परमेश्वर की कोई नई, सच्ची समझ नहीं है और तुम परमेश्वर की वास्तविक छवि और सच्चे स्वभाव को जानने में विफल रहे हो। समझो कि सामंती, अंधविश्वासी सोच परमेश्वर की तुम्हारी समझ को अभी भी निर्देशित करती है और अब भी मानवीय कल्पनाओं और विचारों से पैदा होती है। यदि ऐसा है, तो तुम पर विजय प्राप्त नहीं की गई है। अभी, इन सभी वचनों को तुमसे कहने का मेरा लक्ष्य यह है कि तुम एक सटीक और नई समझ प्राप्त करने की राह पर पहुँचने के लिए इस ज्ञान का उपयोग करो और समझो। इनका, उन पुरानी धारणाओं और पुराने ज्ञान से छुटकारा पाने का भी उद्देश्य है, जो तुम अपने भीतर रखते हो, ताकि तुम एक नई समझ प्राप्त कर सको। अगर तुम सच में मेरे वचनों का भोजन करते हो और उन्हें पीते हो, तो तुम्हारी समझ में काफ़ी बदलाव आएगा। जब तक तुम परमेश्वर के वचनों पर भोजन करते हुए और उन्हें पीते हुए, एक आज्ञाकारी हृदय को बनाए रखोगे, तब तक तुम्हारा परिप्रेक्ष्य में बदलाव आएगा। जब तक तुम बार-बार ताड़ना को स्वीकार करते रहोगे, तुम्हारी पुरानी मानसाकिता धीरे-धीरे बदलती रहेगी। जब तक तुम्हारी पुरानी मानसिकता पूरी तरह से नई के साथ बदल दी जाएगी, तब तक तुम्हारा व्यवहार भी तदनुसार बदलेगा। इस तरह से तुम्हारी सेवा अधिक से अधिक लक्षित हो जाएगी, और अधिक से अधिक परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में सक्षम हो जाएगी। यदि तुम अपना जीवन, जीवन की अपनी समझ, और परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं को बदल सकते हो, तो तुम्हारी स्वाभाविकता धीरे-धीरे कम होती जाएगी। यह, और इससे कुछ भी कम नहीं, परिणामस्वरूप तब होता है जब परमेश्वर मनुष्य पर विजय प्राप्त करता है; यह वह परिवर्तन है जो मनुष्य में देखा जाएगा। यदि परमेश्वर पर विश्वास करने में, तुम केवल अपने शरीर को नियंत्रित करना और कष्ट और पीड़ा भुगतना जानते हो, और तुम्हें यह स्पष्टता से नहीं पता कि तुम जो कर रहे हो वह सही है या गलत, ये तो तुम्हें पता ही नहीं कि किसके लिए कर रहे हो, तो इस तरह के अभ्यास द्वारा कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है?
वे अपने शरीर को वश में कर पाते हैं और अपने शरीर को त्याग पाते हैं। पीड़ा सहन करने की उनकी भावना सराहनीय है। लेकिन उनकी सोच, उनकी धारणाएं, उनका मानसिक रवैया, और वास्तव में उनका पुराना स्वभाव—इनमें से किसी के साथ बिल्कुल भी निपटा नहीं गया है। उनकी स्वयं के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं है। परमेश्वर के बारे में उनकी मानसिक छवि एक निराकार, अज्ञात परमेश्वर की पारंपरिक छवि है। परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने का उनका संकल्प उनके उत्साह और उनके सकारात्मक स्वभाव से आता है। हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे न तो परमेश्वर को समझते हैं और न ही उसकी इच्छा जानते हैं।. वे केवल अंधों की तरह परमेश्वर के लिए कार्य कर रहे हैं और पीड़ा सह रहे हैं। विवेकी बनने पर वे बिल्कुल महत्व नहीं देते और उन्हें इसकी भी बहुत परवाह नहीं कि वे सुनिश्चित करें कि उनकी सेवा वास्तव में परमेश्वर की इच्छा पूरी करती हो। उन्हें इसका ज्ञान उससे भी कम है कि परमेश्वर के विषय में समझ कैसे हासिल करें। जिस परमेश्वर की सेवा वे करते हैं वह परमेश्वर की अपनी मूल छवि नहीं है, बल्कि एक ऐसा परमेश्वर है जिसे उन्होंने स्वयं बनाया, जिसके बारे में उन्होंने सुना, या एक ऐसा पौराणिक परमेश्वर है जिसके बारे में उन्होंने लेखों में पढ़ा। फिर वे अपनी ज्वलंत कल्पनाओं और अपने परमेश्वरीय हृदयों का उपयोग परमेश्वर के लिए पीड़ित होने के लिए करते हैं और परमेश्वर के लिए उस कार्य को अपने ऊपर ले लेते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। उनकी सेवा बहुत ही अयथार्थ है, ऐसी कि व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो ऐसा कोई नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर की सेवा एक ऐसे तरीके से कर रहा है जो परमेश्वर की इच्छा को पूरा करता हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे पीड़ा भुगतने को कितने तैयार हों, उनकी सेवा का मूल परिप्रेक्ष्य और परमेश्वर की उनकी मानसिक छवि अपरिवर्तित रहती है क्योंकि वे परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना और उसके शुद्धिकरण और सिद्धता के माध्यम से नहीं गुज़रे हैं, और कोई उन्हें सत्य के साथ आगे नहीं ले गया है। यहां तक कि अगर वे उद्धारकर्ता यीशु पर विश्वास करते भी हैं, तो भी उनमें से किसी ने कभी उद्धारकर्ता को देखा नहीं है। वे केवल किंवदंती और अफ़वाहों के माध्यम से उसे जानते हैं। इसलिए, उनकी सेवा आँख बंद कर बेतरतीब ढंग से की जाने वाली सेवा से अधिक कुछ नहीं है, जैसे एक नेत्रहीन आदमी अपने पिता की सेवा कर रहा हो। इस प्रकार की सेवा के माध्यम से आखिरकार क्या हासिल किया जा सकता है? और इसे कौन स्वीकार करेगा? शुरुआत से लेकर अंत तक, उनकी सेवा कभी भी बदलती नहीं। वे केवल मानव निर्मित पाठ प्राप्त करते हैं और अपनी सेवा को अपनी स्वाभाविकता और वे स्वयं क्या पसंद करते हैं उस पर आधारित रखते हैं। इससे क्या इनाम प्राप्त हो सकता है? यहाँ तक कि पतरस, जिसने यीशु को देखा था, वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हुए सेवा कैसे करनी है। अंत में, वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद ही, उसे समझ आया। यह उन नेत्रहीन लोगों के बारे में क्या कहता है जिन्होंने किसी भी तरह के निपटान या काँट-छाँट का अनुभव नहीं किया और जिनके पास मार्गदर्शन के लिए कोई भी नहीं रहा है? क्या आजकल तुम लोगों में से अधिकांश की सेवा उन नेत्रहीन लोगों की तरह नहीं? जिन सभी लोगों ने न्याय नहीं प्राप्त किया है, जिनकी काँट-छाँट और जिनका निपटारा नहीं किया गया है, जो नहीं बदले हैं—क्या ये वे नहीं जिन पर विजय प्राप्ति अधूरी है।? ऐसे लोगों का क्या उपयोग? यदि तुम्हारी सोच, जीवन की तुम्हारी समझ और परमेश्वर की तुम्हारी समझ में कोई नया परिवर्तन नहीं दिखता है, और थोड़ा-सा भी लाभ नहीं मिलता है, तो तुम अपनी सेवा में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं प्राप्त करोगे! दर्शन के बिना और परमेश्वर के कार्य की एक नई समझ के बिना, तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन सकते जिस पर विजय प्राप्त की गई हो। परमेश्वर का अनुसरण करने का तुम्हारा तरीका फिर उन लोगों की तरह होगा जो पीड़ा सहते हैं और उपवास रखते हैं—इसका शायद ही कोई मूल्य हो! यह इसलिए है क्योंकि वे जो करते हैं उसकी शायद ही कोई गवाही हो और मैं कहता हूं कि उनकी सेवा व्यर्थ है! अपने जीवनकाल के दौरान, ये लोग कष्ट भोगते हैं, जेल में समय बिताते हैं, और हर पल वे कष्ट सहते हैं, प्यार और दयालुता पर ज़ोर देते हैं, और अपना क्रूस उठाते हैं। उन्हें दुनिया बदनाम और अस्वीकार करती है और वे हर कठिनाई का अनुभव करते हैं। वे अंत तक आज्ञा का पालन करते हैं, लेकिन फिर भी, उन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती और वे विजय प्राप्ति का कोई भी साक्ष्य पेश नहीं कर पाते। वे कम कष्ट नहीं भोगते हैं, लेकिन अपने भीतर वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। उनकी पुरानी सोच, पुरानी विचारधारा, धार्मिक प्रथाओं, मानव निर्मित समझों और मानवीय विचारों में से किसी से भी निपटा नहीं गया। इनमें कोई नई समझ नहीं है। परमेश्वर की उनकी समझ का थोड़ा-सा हिस्सा भी सही या सटीक नहीं है। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा को गलत समझा है। क्या यह परमेश्वर की सेवा के लिए हो सकता है? तुमने परमेश्वर के बारे में अतीत में जो भी समझा हो, मान लो कि यदि तुम उसे आज बनाए रखो और परमेश्वर के बारे में अपनी समझ को अपनी धारणाओं और विचारों पर आधारित रखना जारी रखो, चाहे परमेश्वर कुछ भी करे। अर्थात्, समझो कि तुम्हारे पास परमेश्वर की कोई नई, सच्ची समझ नहीं है और तुम परमेश्वर की वास्तविक छवि और सच्चे स्वभाव को जानने में विफल रहे हो। समझो कि सामंती, अंधविश्वासी सोच परमेश्वर की तुम्हारी समझ को अभी भी निर्देशित करती है और अब भी मानवीय कल्पनाओं और विचारों से पैदा होती है। यदि ऐसा है, तो तुम पर विजय प्राप्त नहीं की गई है। अभी, इन सभी वचनों को तुमसे कहने का मेरा लक्ष्य यह है कि तुम एक सटीक और नई समझ प्राप्त करने की राह पर पहुँचने के लिए इस ज्ञान का उपयोग करो और समझो। इनका, उन पुरानी धारणाओं और पुराने ज्ञान से छुटकारा पाने का भी उद्देश्य है, जो तुम अपने भीतर रखते हो, ताकि तुम एक नई समझ प्राप्त कर सको। अगर तुम सच में मेरे वचनों का भोजन करते हो और उन्हें पीते हो, तो तुम्हारी समझ में काफ़ी बदलाव आएगा। जब तक तुम परमेश्वर के वचनों पर भोजन करते हुए और उन्हें पीते हुए, एक आज्ञाकारी हृदय को बनाए रखोगे, तब तक तुम्हारा परिप्रेक्ष्य में बदलाव आएगा। जब तक तुम बार-बार ताड़ना को स्वीकार करते रहोगे, तुम्हारी पुरानी मानसाकिता धीरे-धीरे बदलती रहेगी। जब तक तुम्हारी पुरानी मानसिकता पूरी तरह से नई के साथ बदल दी जाएगी, तब तक तुम्हारा व्यवहार भी तदनुसार बदलेगा। इस तरह से तुम्हारी सेवा अधिक से अधिक लक्षित हो जाएगी, और अधिक से अधिक परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में सक्षम हो जाएगी। यदि तुम अपना जीवन, जीवन की अपनी समझ, और परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं को बदल सकते हो, तो तुम्हारी स्वाभाविकता धीरे-धीरे कम होती जाएगी। यह, और इससे कुछ भी कम नहीं, परिणामस्वरूप तब होता है जब परमेश्वर मनुष्य पर विजय प्राप्त करता है; यह वह परिवर्तन है जो मनुष्य में देखा जाएगा। यदि परमेश्वर पर विश्वास करने में, तुम केवल अपने शरीर को नियंत्रित करना और कष्ट और पीड़ा भुगतना जानते हो, और तुम्हें यह स्पष्टता से नहीं पता कि तुम जो कर रहे हो वह सही है या गलत, ये तो तुम्हें पता ही नहीं कि किसके लिए कर रहे हो, तो इस तरह के अभ्यास द्वारा कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है?
लोगों को समझना चाहिए कि जो मैं तुम लोगों से मांग रहा हूं वह यह नहीं है कि तुम लोगों के शरीर को बंधन में रखा जाए या तुम लोगों के मस्तिष्क को नियंत्रित किया जाए और तुम लोगों को मनमाने रूप से विचारने से रोका जाए। यह न तो कार्य का लक्ष्य है और न ही यह वह कार्य है जिसे अभी किए जाने की आवश्यकता है। अभी, तुम लोगों को सकारात्मक रूप से समझ प्राप्त करने की आवश्यकता है, ताकि तुम लोग स्वयं को बदल सको। तुम लोगों के लिए सबसे आवश्यक है कि तुम लोग स्वयं को परमेश्वर के वचनों से तैयार करो, जिसका अर्थ है कि तुम लोग स्वयं को उस सत्य और दर्शन से तैयार करो जो अभी तुम लोगों के सामने है, और फिर आगे बढ़ो और उन्हें लागू करो। यह तुम लोगों की ज़िम्मेदारी है। मैं तुम लोगों से यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम अधिक प्रकाश की तलाश करो और उसे प्राप्त करो। फिलहाल, तुम लोगों की कद-काठी उतनी ऊँची नहीं है। तुम लोग बस वह सब करो जो परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के लिए आवश्यक है। यह आवश्यक है कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य को समझो और अपने स्वभाव, अपने सार, और अपने पुराने जीवन को जानो। तुम लोगों को विशेष रूप से अतीत की उन ग़लत प्रथाओं और मानवीय कृतियों को जानने की आवश्यकता है। बदलने के लिए, तुम लोगों को अपनी सोच बदलने से शुरुआत करनी होगी। पहले, अपनी पुरानी सोच को नई के साथ बदलो, और अपनी नई सोच को अपने वचनों और कार्यों और जीवन को नियंत्रित करने दो। अभी, तुम सभी लोगों से यही करने के लिए कहा जा रहा है। आँखें मूंदकर इसका अभ्यास या पालन न करो। तुम लोगों के पास एक आधार और एक लक्ष्य होना चाहिए। अपने आप को मूर्ख मत बनाओ। तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर पर तुम्हारा विश्वास किस लिए है, इससे क्या हासिल किया जाना चाहिए, और अभी तुम लोगों को किसमें प्रवेश करना चाहिए। यह आवश्यक है कि तुम ये सब कुछ जानो।
तुम लोगों को वर्तमान में जिसमें प्रवेश करना चाहिए, वह है अपने जीवन को ऊपर ले जाना और अपनी योग्यात को बढ़ाना। इसके अलावा, तुम लोगों को अतीत के उन पुराने दृष्टिकोणों को, अपनी सोच को, और अपने धारणाओं को बदलने की आवश्यकता है। तुम लोगों के पूरे जीवन को नवीनीकरण की आवश्यकता है। जब परमेश्वर के कार्यों की तुम्हारी समझ में परिवर्तन होगा, जब तुम्हें परमेश्वर की सभी बातों के सत्य की नई समझ होगी, और जब तुम्हारी आंतरिक समझ ऊपर उठ जाएगी, तो तुम्हारा जीवन एक बेहतर मोड़ ले लेगा। सब कुछ जो आज लोग करते हैं और कहते हैं वह अब व्यावहारिक है। ये सिद्धांत नहीं हैं, बल्कि ये वे हैं जिनकी लोगों को अपने जीवन के लिए ज़रूरत है और उनके पास जो होना चाहिए। विजय के कार्य के दौरान यही परिवर्तन मनुष्य में होता है, यही वह परिवर्तन है जो मनुष्य को अनुभव करना चाहिए, और यही वह परिणाम है जो मनुष्य पर विजय प्राप्ति के बाद उत्पन्न होना चाहिए। तुम अपनी सोच बदल लेते हो, एक नया मानसिक दृष्टिकोण अपना लेते हो, अपनी धारणाओं और इरादों और अपने पिछले तार्किक विचारों को उलट देते हो, तुम्हारे भीतर उन गहरी जड़ों वाली चीज़ों को त्याग देते हो, और परमेश्वर पर आस्था की एक नई समझ प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हारे द्वारा दी गई गवाहिय ऊँची उठ जाएँगी और तुम्हारा पूरा अस्तित्व वास्तव में बदल जाएगा। ये सभी सबसे व्यावहारिक, सबसे यथार्थवादी, और सबसे बुनियादी चीज़ें हैं—वे चीज़ें जिन्हें अतीत में लोगों के लिए स्पर्श करना मुश्किल था और जिनके साथ वे संपर्क में नहीं आ सकते थे। वे आत्मा के सच्चे कार्य हैं। अतीत में तुमने बाइबल को कैसे समझा था? आज यदि तुम एक त्वरित तुलना करोगे तो तुम्हें पता चल जाएगा। अतीत में, तुमने मूसा, पीटर, पॉल, या उन सभी बाइबल के कथनों और दृष्टिकोणों को एक ऊँचाई पर रखा था। अब, अगर तुम्हें बाइबल को एक ऊँचाई पर रखने के लिए कहा जाता है, तो क्या तुम ऐसा करोगे? तुम देखोगे कि बाइबल में मनुष्य द्वारा लिखे गए बहुत सारे अभिलेख हैं और बाइबल केवल परमेश्वर के कार्य के दो चरणों का मनुष्यों द्वारा लिखा विवरण है। यह एक इतिहास की पुस्तक है। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि इस विषय में तुम्हारी समझ में बदलाव आया है? यदि तुम अब मैथ्यू के सुसमाचार में दिए गए यीशु की वंशावली पर गौर करोगे, तो तुम कहोगे, "यीशु की वंशावली? बकवास! यह यूसुफ़ की वंशावली है, यीशु की नहीं। यीशु और यूसुफ़ के बीच कोई रिश्ता नहीं है।" जब तुम अब बाइबल को देखोगे, तो उसके बारे में तुम्हारी समझ बदल गई है, जिसका मतलब है कि तुम्हारा दृष्टिकोण बदल गया है, और तुम पुराने धार्मिक विद्वानों की तुलना में उसमें एक ऊच्च स्तर की समझ लेकर आते हो। जब कोई कहता है कि इस वंशावली में कुछ सही नहीं है, तो तुम जवाब दोगे, "इसमें क्या है? आगे बढ़ो और समझाओ। यीशु और यूसुफ संबंधित नहीं हैं। क्या तुम यह नहीं जानते? क्या यीशु की वंशावली हो सकती है? यीशु के पूर्वज कैसे हो सकते हैं? वह मनुष्य का वंशज कैसे हो सकता है? उसका देह मरियम का जन्मा हुआ था; उसका आत्मा परमेश्वर का आत्मा है, मनुष्य की आत्मा नहीं। यीशु परमेश्वर का प्रिय पुत्र है, तो क्या उसकी वंशावली हो सकती है? जब वह पृथ्वी पर था, वह मानव जाति का सदस्य नहीं था, तो उसकी वंशावली कैसे हो सकती है?" जब तुम वंशावली का विश्लेषण करते हो और सच्चाई की स्पष्ट रूप से व्याख्या करते हो, उसे साझा करते हुए जो तुम्हारी समझ है, तो वह व्यक्ति अवाक हो जाएगा। कुछ लोग बाइबल का संदर्भ लेंगे और तुमसे पूछेंगे, "यीशु की वंशावली थी। क्या आज के तुम्हारे परमेश्वर की वंशावली है?" फिर, तुम उन्हें अपनी सबसे यथार्थवादी समझ बताओगे। इस तरह, तुम्हारी समझ को परिणाम प्राप्त होंगे। वास्तव में, यीशु यूसुफ़ से संबंधित नहीं है और इब्राहीम से सम्बन्ध तो दूर की बात है। बस यही बात है कि यीशु का जन्म इज़राइल में हुआ था। परन्तु, परमेश्वर इज़राइली या इज़राइलियों का वंशज नहीं है। केवल इसलिए कि यीशु का जन्म इज़राइल में हुआ, इसका यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है। केवल अपने कार्य के उद्देश्य के लिए ही उसने स्वयं देहधारण करने का यह कदम उठाया। परमेश्वर ब्रह्मांड की पूरी सृष्टि का परमेश्वर है। बस बात केवल यह है कि उसने पहले इज़राइल में कार्य का एक चरण किया और उसके बाद, बाद में, गैर-यहूदी राष्ट्रों में कार्य करना शुरू किया। फिर भी, लोग मानने लगे कि यीशु इज़राइलियों का परमेश्वर है और यहाँ तक कि उसे इज़राइलियों के बीच और दाऊद के वंशजों के बीच में रख दिया। बाइबल कहती है कि अंत के दिनों में, गैर-यहूदी राष्ट्रों के बीच यहोवा का नाम महान होगा, जिसका अर्थ है कि अंत के दिनों में परमेश्वर गैर-यहूदी राष्ट्रों में कार्य करेगा। केवल इसलिए कि उसने उन दिनों यहूदिया में देहधारण किया था, उससे यह संकेत नहीं मिलता कि परमेश्वर केवल यहूदियों से प्रेम करता है। ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि कार्य को इसकी आवश्यकता थी। यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर का देहधारण केवल इज़राइल में ही होना था (क्योंकि इज़राइली उनके चुने हुए लोग थे। क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग गैर-यहूदी राष्ट्रों में भी नहीं पाए जाते हैं? यीशु ने जब यहूदिया में कार्य करना समाप्त कर दिया, तभी इस कार्य का विस्तार गैर-यहूदी राष्ट्रों में हुआ। (इज़राइल के बाहर के अन्य राष्ट्रों को सामान्यतः "गैर-यहूदी राष्ट्र" के रूप में जाना जाता है; "गैर-यहूदी राष्ट्र" यह संकेत नहीं देता कि इन स्थानों में कोई चुने हुए लोग नहीं हैं; बल्कि, इज़राइल के बाहर के राष्ट्रों को सामूहिक रूप से "गैर-यहूदी राष्ट्र" कहा जाता है।) सच तो यह है कि उन गैर-यहूदी राष्ट्रों में भी परमेश्वर के चुने हुए लोग बसते थे; बस केवल इतना था कि उस समय तक वहाँ कोई कार्य नहीं किया जा रहा था। लोग इज़राइल पर इतना ज़ोर इसलिए देते हैं क्योंकि इज़राइल में कार्य के पहले दो चरण हुए और गैर-यहूदी राष्ट्रों में कोई कार्य नहीं किया गया था। गैर-यहूदी राष्ट्रों में कार्य बस आज शुरू हो रहा है, और यही कारण है कि लोगों के लिए इसे स्वीकारना कठिन हो रहा है। यदि तुम इन सब बातों को स्पष्ट रूप से समझ सकते हो, इन सभी मामलों को अपने भीतर समाविष्ट कर सकते हो और सही तरीके से देख सकते हो, तो तुम्हें आज के और अतीत के परमेश्वर के बारे में सही समझ प्राप्त होगी, और यह समझ इतिहास के सभी संतों के पास उपस्थित परमेश्वर की समझ से अधिक होगी। यदि तुम आज के कार्य का अनुभव करोगे और आज परमेश्वर का व्यक्तिगत कथन सुनोगे, और फिर भी तुम्हें परमेश्वर की संपूर्णता की कोई समझ नहीं होगी; अगर तुम्हारी खोज वैसी ही बनी रहेगी जैसी हमेशा रही है और उसके स्थान पर कुछ नया नहीं करोगे; और विशेषतः यदि तुम विजय प्राप्त करने वाले सभी कार्यों का अनुभव करते हो, फिर भी तुम में किसी भी परिवर्तन को नहीं देखा जा सकता, तो क्या तुम्हारी आस्था उन लोगों की तरह नहीं है जो अपनी भूख को संतुष्ट करने के लिए केवल रोटी की खोज करते हैं? उस स्थिति में, विजय प्राप्ति के कार्य ने तुम में कोई भी परिणाम नहीं प्राप्त किया। क्या तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन जाओगे जिसे हटा दिया जाना चाहिए?
विजय के सभी कार्यों के समापन पर, यह ज़रूरी है कि तुम सभी जानो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर नहीं है, बल्कि पूरी सृष्टि का परमेश्वर है। उसने सभी मनुष्यों का निर्माण किया, और केवल इज़राइलियों का नहीं। यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है या परमेश्वर का इज़राइल के अलावा किसी भी देश में देहधारण करना असंभव है, तो तुम्हें विजयी कार्य के दौरान अब भी कोई भी समझ नहीं प्राप्त हुई है और तुम बिल्कुल भी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। तुम बस यही स्वीकार कर रहे हो कि परमेश्वर इज़राइल से चीन चला गया और उसे तुम्हारा परमेश्वर होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। अगर तुम अभी भी इसे ऐसे देखते हो, तो तुम में मेरा कार्य बेकार हो गया है और तुमने मेरी कही हुई किसी भी बात को समझा नहीं है। अंत में, यदि तुम, मत्ती की तरह, फिर से मेरे लिए वंशावली लिखते हो, मेरे लिए एक उपयुक्त पूर्वज ढूंढते हो, और मेरे लिए एक सही जड़ तलाश करते हो—ऐसे कि परमेश्वर के दो देहधारियों की दो वंशावली हैं—तो क्या यह विश्व का सबसे बड़ा मज़ाक नहीं होगा? क्या तुम, वह "कल्याणकारी" व्यक्ति जिसने मेरी वंशावली ढूंढी, एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन जाओगे जिसने परमेश्वर को विभाजित किया? क्या तुम इस पाप के बोझ को उठाने में सक्षम हो? विजय प्राप्त करने के इस सब कार्य के बाद, यदि तुम अभी भी यह विश्वास नहीं करते हो कि परमेश्वर पूरी सृष्टि का परमेश्वर है, यदि तुम अभी भी सोचते हो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है, तो क्या तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो खुलेआम परमेश्वर का विरोध करता है? आज तुम पर विजय प्राप्त करने का उद्देश्य यही है कि तुम स्वीकार करो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, और दूसरों का परमेश्वर है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उन सभी का परमेश्वर है जो उससे प्यार करते हैं, और सारी सृष्टि का परमेश्वर है। वह इज़राइलियों का परमेश्वर है और मिस्र के लोगों का परमेश्वर है। वह ब्रिटिश का परमेश्वर है और अमरिकियों का परमेश्वर है। वह केवल आदम और हव्वा का परमेश्वर नहीं है, बल्कि आदम और हव्वा के सभी वंशजों का भी परमेश्वर है। वह स्वर्ग और पृथ्वी की हर चीज़ का परमेश्वर है। इज़राइली परिवार और सभी गैर-यहूदी परिवार एक समान परमेश्वर के हाथ में हैं। उसने न केवल कई हज़ार सालों तक इज़राइल में कार्य किया था और कभी यहूदिया में पैदा हुआ था, बल्कि आज वह चीन में उतर रहा है, वह जगह जहां बड़ा लाल अजगर कुंडली बनाकर बैठा हुआ है। यदि यहूदिया में पैदा होना उसे यहूदियों का राजा बना देता है, तो क्या तुम सभी के बीच में आज उतरना उसे तुम लोगों का परमेश्वर नहीं बनाता है? उसने इज़राइलियों की अगुवाई की और यहूदिया में पैदा हुआ, और वह एक गैर-यहूदि भूमि में भी पैदा हुआ है। क्या उसका सभी कार्य उस मानव जाति के लिए नहीं जिसका उसने निर्माण किया? क्या वह इज़राइलियों को सौ गुना पसंद करता है और गैर-यहूदियों से एक हज़ार गुना घृणा करता है? क्या यह तुम्हारी धारणा नहीं है? वह तुम लोग हो जो परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते हो; ऐसा नहीं है कि परमेश्वर कभी तुम लोगों का परमेश्वर नहीं था। वह तुम लोग हो जो परमेश्वर को अस्वीकार करते हो; ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम लोगों का परमेश्वर बनने के लिए तैयार नहीं है। ऐसी कौन-सी निर्मित चीज़ है जो सर्वशक्तिमान के हाथों में नहीं है?.आज, तुम लोगों पर विजय के लिए, क्या यही लक्ष्य नहीं है कि तुम लोग मानो कि परमेश्वर तुम लोगों के परमेश्वर के अलावा कोई और नहीं है? यदि तुम अभी भी मानते हो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है, और अभी भी यह मानते हो कि इज़राइल में दाऊद का घर परमेश्वर के जन्म का स्थान है और इज़राइल के अलावा कोई भी राष्ट्र परमेश्वर को "उत्पन्न" करने के योग्य नहीं है, और तो और यह भी मानते हो कि कोई गैर-यहूदी परिवार यहोवा के कार्यों को निजी तौर पर प्राप्त करने के लिए सक्षम नहीं है—अगर तुम अभी भी इस तरह सोचते हो, तो क्या यह तुम्हें एक ज़िद्दी विरोधी नहीं बनाता? हमेशा इज़राइल पर मत अटके रहो। परमेश्वर तुम लोगों के बीच अभी उपस्थित है। स्वर्ग की ओर भी देखते मत रहो। स्वर्ग में अपने परमेश्वर के लिए तड़पना बंद करो! परमेश्वर तुम लोगों के बीच में आया है, तो वह स्वर्ग में कैसे हो सकता है? तुम लोगों ने परमेश्वर पर बहुत लंबे समय तक विश्वास नहीं किया है, फिर भी तुम लोगों की उसके बारे में बहुत सारी धारणाएं हैं, इस हद तक कि तुम लोग इस बारे में दोबारा सोचने की हिम्मत नहीं कर सकते कि इज़राइलियों का परमेश्वर अपनी उपस्थिति से तुम लोगों पर अनुग्रह करेगा। इससे भी कम, तुम लोग इस बारे में सोचने की हिम्मत नहीं कर सकते कि तुम कैसे परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप में प्रकट होते हुए देख सकते हो, यह जानते हुए कि तुम कितने असहनीय ढंग से अपवित्र हो। तुम लोगों ने यह भी कभी नहीं सोचा कि कैसे एक गैर-यहूदी भूमि में परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से उतर सकता है। उसे तो सिनाई पर्वत पर या जैतून पर्वत पर उतरना चाहिए और इज़राइलियों के समक्ष प्रकट होना चाहिए। क्या गैर-यहूदी (जो इज़राइल के बाहर के लोग है) सभी उसकी घृणा के पात्र नहीं हैं? वह व्यक्तिगत रूप से उनके बीच कैसे काम कर सकता है? ये सभी गहरी जड़ों वाली धारणाएं हैं जिन्हें तुम लोगों ने कई वर्षों से विकसित किया है। आज तुम लोगों पर विजय प्राप्त करने का उद्देश्य है तुम लोगों की इन धारणों को ध्वस्त कर देना। इस तरह तुम लोगों ने परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से अपने बीच में प्रकट होते हुए देखा है—सिनाई पर्वत पर या जैतून पर्वत पर नहीं, बल्कि उन लोगों के बीच जिनकी उसने अतीत में कभी अगुवाई नहीं की है। जब परमेश्वर ने अपने दो चरणों का कार्य इज़राइल में किया, तो इज़राइलियों और गैर-यहूदी जातियों ने समान रूप से यह धारणा अपना ली: यद्यपि यह सत्य है कि परमेश्वर ने सभी चीज़ें बनाई हैं, वह केवल इज़राइलियों का परमेश्वर बनने को तैयार है, गैर-यहूदियों का परमेश्वर नहीं। इज़राइली निम्नलिखित पर विश्वास करते हैं: परमेश्वर केवल हमारा परमेश्वर हो सकता है, तुम सभी गैर-यहूदियों का परमेश्वर नहीं, और क्योंकि तुम लोग यहोवा को नहीं मानते हो, यहोवा—हमारा परमेश्वर—तुम लोगों से घृणा करता है। इसके अतिरिक्त, उन यहुदियों का यह भी मानना है: प्रभु यीशु ने हम यहूदियों की छवि ग्रहण की थी और यह एक ऐसा परमेश्वर है जिस पर यहूदियों का चिन्ह उपस्थित है। हमारे बीच ही परमेश्वर कार्य करता है। परमेश्वर की छवि और हमारी छवि समान हैं; हमारी छवि परमेश्वर के करीब है। प्रभु यीशु हम यहूदियों का राजा है; अन्य जातियाँ ऐसा महान उद्धार प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं। प्रभु यीशु हम यहूदियों के लिए पापबलि है। कार्य के केवल इन दो चरणों के आधार पर ही इज़राइलियों और यहूदियों ने कई धारणाएं बना ली थीं। वे रोब से स्वयं के लिए परमेश्वर पर दावा करते हैं, और मानते नहीं हैं कि परमेश्वर गैर-यहूदी जातियों का भी परमेश्वर है। इस प्रकार, परमेश्वर गैर-यहूदी जातियों के दिल में एक रिक्त स्थान बन गया। यह इसलिए कि हर कोई यह मानने लगा था कि परमेश्वर गैर-यहूदी जातियों का परमेश्वर नहीं बनना चाहता है और वह केवल इज़राइलियों को ही पसंद करता है—उसके चुने हुए लोग—और वह यहूदियों को पसंद करता है, विशेषकर उन अनुयायियों को जो उसका अनुसरण करते हैं। क्या तुम नहीं जानते कि यहोवा और यीशु ने जो कार्य किया, वह सभी मानव जाति के अस्तित्व के लिए किया था? क्या तुम लोग अब स्वीकारते हो कि परमेश्वर उन सभी लोगों का परमेश्वर है जो इज़राइल से बाहर पैदा हुए? क्या आज परमेश्वर तुम्हारे बीच नहीं है? यह एक सपना नहीं हो सकता है, क्यों है न? क्या तुम लोग इस वास्तविकता को स्वीकारते नहीं हो? तुम लोग इस पर विश्वास करने की या इसके बारे में सोचने की हिम्मत नहीं करते। चाहे तुम लोग जैसे भी इसे देखो, क्या परमेश्वर तुम लोगों के बीच ठीक यहाँ नहीं है? क्या तुम लोग अभी भी इन शब्दों पर विश्वास करने से डरते हो? इस दिन से, क्या वे सभी जिन पर विजय प्राप्त की गई है और सभी जो परमेश्वर के अनुयायी बनना चाहते हैं, वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं? क्या तुम सभी, जो आज अनुयायी हो, इज़राइल के बाहर चुने हुए लोग नहीं हो? क्या तुम लोगों का पद इज़राइलियों के बराबर नहीं है? क्या यह सब वह नहीं है जिसे तुम लोगों को पहचानना चाहिए? क्या तुम पर विजय पाने के कार्य का यही उद्देश्य नहीं है? क्योंकि तुम लोग परमेश्वर को देख सकते हो, तो वह तुम लोगों का परमेश्वर हमेशा रहेगा, शुरू से लेकर भविष्य तक। जब तक कि तुम लोग उसके पीछे चलने के लिए और उसकी वफ़ादार और आज्ञाकारी रचनाएं बने रहने के लिए तैयार रहोगे, तब तक वह तुम लोगों को अकेला नहीं छोड़ेगा।
चाहे परमेश्वर को प्रेम करने का उनका वर्तमान संकल्प जितना भी मज़बूत हो, मनुष्य सामान्य रूप से आज्ञाकारी बन गया है और इस दिन तक उसने उसका अनुसरण किया है। केवल अंत तक ह, जब कार्य के इस चरण का समापन होगा, तभी मनुष्य को पूरी तरह से पश्चाताप होग। केवल तभी लोगों पर वास्तव में विजय प्राप्त की जाएगी। फिलहाल, उनपर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया चल रही है। जैसे ही कार्य समाप्त होगा, उन पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ली जाएगी, लेकिन अभी नहीं! चाहे हर कोई आश्वस्त हो गया हो, इसका मतलब यह नहीं है कि उन पर पूर्ण रूप से विजय हासिल की गई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि फिलहाल लोगों ने केवल वचनों को देखा है और तथ्यात्मक घटनाओं को नहीं, और वे अभी भी अनिश्चित महसूस करते हैं, चाहे वे कितनी गहराई से ही क्यों न विश्वास करते हों। यही कारण है कि केवल उस अंतिम वास्तविक घटना के साथ ही ये वचन वास्तविकता बनेंगे और लोगों पर पूर्ण रूप से विजय हासिल की जाएगी। अभी इन लोगों पर विजय प्राप्त की जा रही है क्योंकि वे ऐसे कई रहस्यों को सुन रहे हैं जिन्हें उन्होंने पहले कभी नहीं सुना। लेकिन उनमें से प्रत्येक अपने भीतर, अभी भी कुछ ऐसी वास्तविक घटनाओं की खोज में है और उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं जो उन्हें परमेश्वर के प्रत्येक शब्द को यथार्य करके दिखाएंगी। तभी वे पूरी तरह से आश्वस्त होंगे। केवल जब, अंत में, वे सभी इन यथार्य तथ्यात्मक वास्तविकताओं को देख चुके होंगे, और इन वास्तविकताओं ने उन्हें निश्चित रूप से महसूस करवा दिया होगा, तभी वे अपने दिल, अपनी बोली, और अपनी आंखों में दृढ़ विश्वास दिखाएंगे, और तभी वे तहेदिल से आश्वस्त होंगे। यह मनुष्य का स्वभाव है। तुम सभी को वचनों को सत्य होते हुए देखने की ज़रूरत है, तुम लोगों को कुछ तथ्यात्मक घटनाओं को देखने की ज़रूरत है और कुछ लोगों पर आने वाली आपदा को देखने की ज़रूरत है, और फिर तुम लोग अपने दिल की गहराई में आश्वस्त हो जाओगे। यहूदियों की तरह, तुम संकेतों और चमत्कारों पर बहुत महत्व देते रहते हो। फिर भी, तुम यह नहीं देख पाते हो कि संकेत और चमत्कार उपस्थित हैं और तुम्हारी आँखों को पूरी तरह खोलने के लिए वास्तविकताएं घटित हो रही हैं। चाहे वह किसी का आकाश से उतरना हो, या बादलों के एक समूह का तुम लोगों से बात करना हो, या मेरे द्वारा तुम लोगों में से किसी एक के भीतर से बुरी आत्माओं को निकालना हो, या तुम लोगों के बीच मेरी आवाज़ का ज़ोर-से गड़गड़ाना हो, ऐसी घटनाओं को देखना तुम लोग हमेशा चाहते रहे हो और हमेशा चाहते रहोगे। कहा जा सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करके, तुम लोगों की सबसे बड़ी इच्छा है परमेश्वर को आते हुए देखना और तुम्हें व्यक्तिगत रूप से संकेत दिखाना। तब तुम लोग संतुष्ट होगे। तुम लोगों पर विजयी होने के लिए मुझे दुनिया के सृजन के समान कार्य करना होगा और फिर एक संकेत देना होगा। फिर, तुम लोगों के दिलों पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर लिया जाएगा।
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