2018-10-20

स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

परमेश्वर का अधिकार (II)
आज हम "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है" के विषय पर अपनी सभा को जारी रखेंगे। हम पहले से ही इस विषय पर दो सभाएँ कर चुके हैं, पहला परमेश्वर के अधिकार से सम्बन्धित था, और दूसरा परमेश्वर के धर्मी स्वभाव से सम्बन्धित था। इन दोनों सभाओं को सुनने के पश्चात्, क्या तुम लोगों ने परमेश्वर की पहचान, हैसियत, और हस्ती की नई समझ हासिल की है?
क्या इन अन्तः दृष्टियों ने परमेश्वर के अस्तित्व की सच्चाई के विषय में और अधिक ठोस ज्ञान और निश्चित्ता प्राप्त करने में तुम लोगों की सहायता की है? आज मैंने "परमेश्वर के अधिकार" के शीर्षक को विस्तार से बताने की योजना बनाई है।
दीर्घ - और सूक्ष्म - दृष्टिकोण से परमेश्वर के अधिकार को समझना
परमेश्वर का अधिकार अद्वितीय है। यह स्वयं परमेश्वर की पहचान की विलक्षण अभिव्यक्ति तथा विशिष्ट सार है। कोई सृजा गया या न सृजा गया प्राणी ऐसे विलक्षण अभिव्यक्ति और ऐसे सार को धारण नहीं करता है; केवल सृष्टिकर्ता ही इस प्रकार के अधिकार को धारण करता है। अर्थात, केवल सृष्टिकर्ता—अद्वितीय परमेश्वर—को ही इस तरह से अभिव्यक्त किया गया है और उसके पास ही यह सार है। परमेश्वर के अधिकार के बारे में बात क्यों करें? स्वयं परमेश्वर का अधिकार मनुष्य के मस्तिष्क में अधिकार से किस प्रकार भिन्न है? इसके बारे में विशेष क्या है? यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण क्यों है कि इसके विषय में यहाँ बात करें? तुम सब में से प्रत्येक को सावधानीपूर्वक इस मुद्दे पर ध्यान देना होगा? क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए, "परमेश्वर का अधिकार" एक अस्पष्ट विचार है, एक ऐसा विचार है जिसे किसी के दिमाग में बैठाना बहुत ही कठिन है, और इसके बारे में कोई बात करना धुंध के समान हो सकता है। अतः परमेश्वर के अधिकार के ज्ञान और परमेश्वर के अधिकार के सार के मध्य लगभग हमेशा ही एक अन्तर होगा जिसे धारण करने में मनुष्य समर्थ है। इस अन्तर को भरने के लिए, किसी व्यक्ति को वास्तविक-जीवन के लोगों, घटनाओं, चीज़ों, या उन प्राकृतिक एवं सामाजिक घटनाओं की सहायता से धीरे धीरे परमेश्वर के अधिकार को जानना होगा जो मनुष्य की पहुँच के भीतर है, और जिसे समझने में मनुष्य समर्थ है। यद्यपि यह वाक्यांश "परमेश्वर का अधिकार" अथाह प्रतीत हो सकता है, फिर भी परमेश्वर का अधिकार बिलकुल भी काल्पनिक नहीं है। वह मनुष्य के जीवन के प्रत्येक क्षण में उसके साथ है, और प्रतिदिन उसका मार्गदर्शन करता है। अतः, हर मनुष्य के दैनिक जीवन में वह आवश्यक रूप से परमेश्वर के अधिकार के अत्यंत स्पर्शगम्य पहलू को देखेगा और अनुभव करेगा। यह स्पर्शगम्यता पर्याप्त प्रमाण है कि परमेश्वर का अधिकार असलियत में मौज़ूद है, और यह किसी व्यक्ति को इस तथ्य को पहचानने और समझने की अनुमति देता है कि परमेश्वर ने इस अधिकार को धारण किया है।
परमेश्वर ने सब कुछ की सृष्टी की, और इसकी सृष्टि करने के बाद, उसकी सभी चीज़ों के ऊपर प्रभुता है। सभी चीज़ों के ऊपर प्रभुता रखने के अतिरिक्त, वह हर एक चीज़ को नियन्त्रण में रखता है। यह विचार कि "परमेश्वर हर एक चीज़ को नियन्त्रण में रखता है" इसका अर्थ क्या है? इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है? यह वास्तविक जीवन में किस प्रकार लागू होता है? इस सत्य को समझने के द्वारा कि "परमेश्वर हर एक चीज़ को नियन्त्रण में रखता है" तुम लोग परमेश्वर के अधिकार को कैसे जान सकते हो? "परमेश्वर हर एक चीज़ को नियन्त्रण में रखता है" इस वाक्यांश से हमें देखना चाहिए कि जो कुछ परमेश्वर नियन्त्रित करता है वह ग्रहों का एक भाग, और सृष्टि का एक भाग नहीं है, मानवजाति का एक भाग तो बिलकुल भी नहीं है, परन्तु हर एक चीज़ है: अति विशाल से लेकर अति सूक्ष्म तक, दृश्य से लेकर अदृश्य तक, विश्व के सितारों से लेकर पृथ्वी के जीवित प्राणियों तक, साथ ही साथ अति सूक्ष्मजीव जिन्हें नंगी आँखों से देखा नहीं जा सकता है या ऐसे प्राणी जो अन्य रूपों में मौज़ूद हैं। यह "हर एक चीज़" की सही परिभाषा है जिसे परमेश्वर "नियन्त्रण में रखता है," और यह वह दायरा है जिसके ऊपर परमेश्वर अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है, और यह उसकी संप्रभुता और उसके शासन का विस्तार है।
मानवता के अस्तित्व में आने से पहले, विश्व - सभी ग्रह, आकाश के सभी सितारे - पहले से ही अस्तित्व में थे। दीर्घ स्तर पर, ये खगोलीय पिंड परमेश्वर के नियन्त्रण के अधीननियमित रूप से अपनी कक्षा में परिक्रमा करते रहे हैं, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के दौरान चाहे इसे जितने भी वर्ष हो गए हों। कौन सा ग्रह कौन से निश्चित समय में कहाँ जाता है; कौन सा ग्रह कौन सा कार्य करता है, और कब करता है; कौन सा ग्रह कौन सी कक्षा में चक्कर लगाता है, और वह कब अदृश्य हो जाता है या कब उसका स्थान बदल दिया जाता है—ये सभी चीज़ें थोड़ी सी भी ग़लती के बगैर आगे बढ़ती रहती हैं। ग्रहों की स्थिति और उनके बीच की दूरियां सभी सख्त नमूनों का अनुसरण करती हैं, उन में से सभी का वर्णन सटीक आंकड़ों के द्वारा किया जा सकता है; वे पथ जिस परवे परिभ्रमण करते हैं, उनकी कक्षाओं की गति एवं नमूने, वे समय जब वे विभिन्न स्थितियों में होते हैं उन्हें विशेष नियमों के द्वारा परिमाणित किया जा सकता है और उनकी व्याख्या की जा सकती है। युगों से ग्रहों ने इन नियमों का पालन किया है, और ज़रा सा भी विचलन नहीं किया है। कोई भी शक्ति उनकी कक्षाओं या नमूनों को बदल नहीं सकती है या उनको बाधित नहीं कर सकती है जिनका वे अनुसरण करते हैं। क्योंकि वे विशेष नियम जो उनकी गति को नियन्त्रित करते हैं और वह सटीक आंकड़ा जो उनका वर्णन करता है उन्हें सृष्टिकर्ता के अधिकार के द्वारा पूर्वनिर्धारित किया गया है, वे स्वयं ही सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और नियन्त्रण के अधीन इन नियमों का पालन करते हैं। दीर्घ स्तर पर, कुछ नमूनों, कुछ आंकड़ों, साथ ही साथ कुछ अजीब और अवर्णनीय नियमों या घटनाओं का पता लगाना मनुष्य के लिए कठिन नहीं है। हालाँकि मानवता यह नहीं मानती है कि परमेश्वर अस्तित्व में है, इस सत्य को स्वीकार नहीं करती है कि सृष्टिकर्ता ने हर एक चीज़ को बनाया है और हर एक चीज़ पर प्रभुता करता है, और इसके अतिरिक्त सृष्टिकर्ता के अधिकार के अस्तित्व को नहीं पहचानती है, फिर भी मानव वैज्ञानिक, खगोलशास्त्री, और भौतिक विज्ञानी और भी अधिक खोज कर रहे हैं कि इस विश्व में सभी चीज़ों का अस्तित्व, और वे सिद्धान्त और नमूने जो उनकी गतिविधियों का आदेश देते हैं, उन सभी पर एक विशाल और अदृश्य अंधकारमय ऊर्जा के द्वारा शासन और नियंत्रित किया जाता है। यह सत्य मनुष्य को बाध्य करता है कि वह इस बात का सामना करे और स्वीकार करे कि इन गतिविधियों के नमूनों के मध्य एक सामर्थी परमेश्वर है, जो हर एक चीज़ का आयोजन करता है। उसका सामर्थ्य असाधारण है, और हालाँकि कोई उसके असली चेहरे को नहीं देख सकता है, फिर भी वह प्रत्येक क्षण हर एक चीज़ पर शासन और नियन्त्रण करता है। कोई भी व्यक्ति या ताकत उसकी संप्रभुता से परे नहीं जा सकती है। इस सत्य का सामना करते हुए, मनुष्य को यह पहचानना चाहिए कि वे नियम जो सभी चीज़ों के अस्तित्व पर शासन करते हैं उन्हें मनुष्यों के द्वारा नियन्त्रित नहीं किया जा सकता है, किसी के द्वारा बदला नहीं जा सकता है; और उसी समय मनुष्य को मानना चाहिए कि मानव इन नियमों को पूरी तरह से समझ नहीं सकते हैं। और वे प्राकृतिक रूप से घटित नहीं होते हैं, बल्कि एक प्रभु और मालिक के द्वारा नियन्त्रित किए जाते हैं। ये सब परमेश्वर के अधिकारों की अभिव्यक्तियां हैं जिनका एहसास मानवजाति दीर्घ स्तर पर कर सकती है।
सूक्ष्म स्तर पर, सभी पहाड़ियाँ, नदियाँ, झीलें, समुद्र और भू-भाग जिन्हें मनुष्य पृथ्वी पर देखता है, सभी मौसम जिन्हें वह अनुभव करता है, सभी चीज़ें जो पृथ्वी पर पाई जाती हैं, जिनमें पेड़-पौधे, जानवर, सूक्ष्मजीव और मनुष्य शामिल हैं, ये सभी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं, और उन्हें परमेश्वर के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। परमेश्वर की संप्रभुता और नियन्त्रण के अधीन, सभी चीज़ें उसके विचारों की अनुरूपता में अस्तित्व में आती हैं या अदृश्य हो जाती हैं, उन सब के जीवन पर कुछ नियमों के द्वारा शासन किया जाता है, और वे उनके साथ बने रहते हुए बढ़ते हैं और बहुगुणित होते हैं। कोई भी मनुष्य या चीज इन नियमों के ऊपर नहीं है। ऐसा क्यों है? इसका एकमात्र उत्तर है, परमेश्वर के अधिकार के कारण। या, दूसरे रूप में कहें, तो परमेश्वर के विचार और परमेश्वर के वचनों के कारण; क्योंकि स्वयं परमेश्वर यह सब करता है। अर्थात, यह परमेश्वर का अधिकार और परमेश्वर का मन है जो इन नियमों को उत्पन्न करता है; ये उसके विचार के अनुसार स्थानांतरित होंगे एवं बदलेंगे, और ये सभी स्थानांतरण एवं बदलाव उसकी योजना के लिए घटित होंगे एवं लोप होंगे। उदाहरण के लिए, महामारियों को ही लीजिए। वे बिना चेतावनी दिए अचानक प्रकट हो जाते हैं, कोई भी उनके उद्भव को या सही कारणों को नहीं जानता है कि वे क्यों होते हैं, और जब कभी एक महामारी एक निश्चित स्थान पर आती है, तो ऐसे लोग जो अभागे हैं वे विपत्ति से बच नहीं सकते हैं। मानव विज्ञान समझता है कि महामारियां ख़तरनाक या हानिकारक सूक्ष्म रोगाणुओं के फैलने के द्वारा होती हैं, और उनकी गति, दायरे, और संक्रमण के तरीके का पूर्वानुमान या नियन्त्रण मानव विज्ञान के द्वारा नहीं किया जा सकता है। यद्यपि मानवता हर सम्भव तरीके से उनका प्रतिरोध करती है, फिर भी जब महामारियां अचानक प्रकट हो जाती हैं तो वे ऐसे लोगों और पशुओं को नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं जो अपरिहार्य रूप से प्रभावित हो जाते हैं। एकमात्र कार्य जिसे मानव प्राणी कर सकते हैं वह है उन्हें दूर करने का प्रयास करना, उनका सामना करना, और उन पर शोध करना। परन्तु कोई भी उनका मूल कारण नहीं जानता है जो किसी विशिष्ट महामारी के प्रारम्भ और अंत का वर्णन कर सके, और कोई उन्हें नियन्त्रित नहीं कर सकता है। एक महामारी के उदय और फैलाव का सामना करते समय, पहला उपाय जो मनुष्य करते हैं वह है एक टीके को विकसित करना, परन्तु कई बार टीके के तैयार होने से पहले ही वह महामारी अपने आप ही खत्म हो जाती है। महामारियां क्यों समाप्त हो जाती हैं? कुछ लोग कहते हैं कि कीटाणुओं को नियन्त्रण में लाया जा चुका है, अन्य लोग कहते हैं कि ऋतुओं में बदलावों के कारण वे समाप्त हो जाती हैं। जहाँ तक यह बात है कि इन निरर्थक कल्पनाओं पर विश्वास करें या नहीं, विज्ञान कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं कर सकता है, और कोई सटीक उत्तर नहीं दे सकता है। जिसका मानवता सामना करती है वह न केवल ये कल्पनाएँ हैं बल्कि महामारियों के विषय में मानवजाति की समझ और भय की कमी है। अंतिम विश्लेषणों में कोई नहीं जानता है, कि ये महामारियां क्यों शुरू होती हैं या वे क्यों समाप्त होती हैं। क्योंकि मानवता का विश्वास केवल विज्ञान में ही है, वह पूरी तरह से इस पर ही आश्रित है, परन्तु सृष्टिकर्ता के अधिकार को नहीं पहचानता है या उसकी संप्रभुता को स्वीकार नहीं करता है, उनके पास कभी कोई उत्तर नहीं होगा।
परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन, उस के अधिकार के कारण, और उसके प्रबन्ध के कारण सभी चीज़ें अस्तित्व में आती हैं और नाश हो जाती हैं। कुछ चीज़ें चुपके से आती हैं और चली जाती हैं, और मनुष्य नहीं बता सकता है कि वे कहां से आई थीं या उन नियमों का आभास नहीं कर सकता है जिनका वे अनुसरण करती हैं, और वह उन कारणों को तो बिलकुल भी नहीं समझ सकता है कि वे क्यों आती हैं और जाती हैं। यद्यपि मनुष्य वह सब कुछ देख, सुन, या अनुभव कर सकता है जो सभी हालातों के बीच घटित होती हैं; यद्यपि ये सब मनुष्य से सम्बन्धित हैं, और यद्यपि मनुष्य अवचेतन रूप से असाधारणता, नियमितता, या विभिन्न घटनाओं के अनोखेपन का आभास करता है, तब भी वह सृष्टिकर्ता की इच्छा और उसके मन के विषय में कुछ भी नहीं जानता है जो उनके पीछे होती हैं। उनके पीछे अनेक कहानियाँ हैं, और अनेक छिपी हुई सच्चाईयाँ हैं। क्योंकि मनुष्य सृष्टिकर्ता से दूर भटक गया है, क्योंकि वह इस तथ्य को नहीं स्वीकारता है कि सृष्टिकर्ता का अधिकार सभी चीज़ों पर शासन करता है, इसलिए वह हर एक चीज़ को कभी नहीं जानेगा और समझेगा जो उसकी संप्रभुता के अधीन है। क्योंकि अधिकांश भागों में, परमेश्वर का नियन्त्रण और संप्रभुता मानवीय कल्पना, मानवीय ज्ञान, मानवीय समझ, और जो कुछ मानव विज्ञान हासिल कर सकता है उसकी सीमाओं को पार कर देता है, सृजी गई मानवता की योग्यताएं इससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं। कुछ लोग कहते हैं, "जबकि तुमने स्वयं ही परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं देखा है, तो तुम कैसे विश्वास कर सकते हो कि हर एक चीज़ उसके अधिकार के अधीन है?" देखना ही हमेशा विश्वास करना नहीं है; देखना ही हमेशा पहचानना या समझना नहीं है। अतः "विश्वास" कहाँ से आता है? मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ, "विश्वास चीज़ों की वास्तविकता और मूल कारणों के प्रति लोगों की समझ, और अनुभव की मात्रा और गहराई से आता है।" यदि तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर अस्तित्व में है, परन्तु तुम पहचान नहीं सकते हो, और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर के नियन्त्रण और परमेश्वर की संप्रभुता का तो बिलकुल भी एहसास नहीं करते हो, तो तुम अपने हृदय में यह कभी स्वीकार नहीं करोगे कि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है और यह कि परमेश्वर का अधिकार अद्वितीय है। तुम कभी सृष्टिकर्ता को अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार नहीं करोगे।
मानवता की नियति और विश्व की नियति सृष्टिकर्ता की संप्रभुता से अविभाज्य हैं
तुम सब सभी व्यस्क हो। तुम सबों में से कुछ अधेड़ उम्र के हैं; कुछ लोग वृद्धवस्था में प्रवेश कर चुके हैं। एक अविश्वासी से लेकर विश्वासी तक, और परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत से लेकर परमेश्वर के वचन को ग्रहण करने और परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करने तक, तुम लोगों के पास परमेश्वर की संप्रभुता का कितना ज्ञान है? तुम सब ने मानव की नियति के भीतर कौन कौन सी अंतर्दृष्टि हासिल की है? क्या एक व्यक्ति हर एक चीज़ हासिल कर सकता है जिसकी उसने अपने जीवन में इच्छा की है? जैसा तुम लोग चाहते थे उसके अनुसार तुम सब के अस्तित्व के कुछ दशकों के दौरान कितनी चीज़ें हैं जिन्हें तुम लोग पूरा करने में सक्षम हो पाए हो? जैसी अपेक्षा की गई थी उसके अनुसार कितनी चीज़ें घटित नहीं हुई हैं? कितनी चीज़ें सुखद आश्चर्यों के रूप में आई हैं? कितनी चीज़ें हैं जिनके फलवन्त होने के लिए तुम सब अभी भी इंतज़ार कर रहे हो—अवचेतन रूप से सही अवसर का इंतज़ार कर रहे हो, और स्वर्ग की इच्छा का इंतज़ार कर रहे हो? कितनी चीज़ों ने लोगों को असहाय और कुंठित महसूस कराया है? हर एक अपनी नियति के विषय में आशाओं से भरपूर है, और अनुमान लगाता है कि उनकी ज़िन्दगी में हर एक चीज़ वैसी ही होगी जैसा वे चाहते हैं, यह कि उनके पास भोजन या वस्त्रों की कमी नहीं होगी, और यह कि उनका भाग्य बहुत ही बेहतरीन ढंग से उदय होगा। कोई भी ऐसा जीवन नहीं चाहता है जो दरिद्र और कुचला हुआ हो, कठिनाईयों से भरा हुआ हो, आपदाओं से घिरा हुआ हो। परन्तु लोग इन चीज़ों को पहले से ही देख नहीं सकते हैं या नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं। कदाचित् कुछ लोगों के लिए, अतीत बस अनुभवों का मिश्रण है; उन्होंने कभी नहीं सीखा है कि स्वर्ग की इच्छा क्या है, और न ही वे इसकी परवाह करते हैं कि यह क्या है। वे बिना सोचे समझे जानवरों के समान, दिन ब दिन जीते हुए अपनी ज़िन्दगियों को बिताते हैं, इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि मानवता की नियति क्या है, मानव क्यों जीवित हैं या उन्हें किस प्रकार जीवन जीना चाहिए। ये लोग मानव की नियति के विषय में कोई समझ हासिल किए बिना ही वृद्धावस्था में पहुंच जाते हैं, और उनके मरने की घड़ी तक उनके पास कोई विचार नहीं होता है कि जीवन किस के विषय में है। ऐसे लोग मरे हुए हैं; वे ऐसे प्राणी है जिनमें आत्मा नहीं है; वे जानवर हैं। हालाँकि सभी चीज़ों के मध्य जीवन बिताते हुए, लोग उन अनेक तरीकों से आनन्द पा लेते हैं जिसके अंतर्गत संसार अपनी भौतक आवश्यकताओं को संतुष्ट करता है, हालाँकि वे इस भौतिक संसार को निरन्तर बढ़ते हुए देखते हैं, फिर भी उनके स्वयं के अनुभव—जो कुछ उनका हृदय और आत्मा महसूस एवं अनुभव करता है— का भौतिक चीज़ों के साथ कोई लेना-देना नहीं है, और कोई भी पदार्थ उसका स्थान नहीं ले सकती है। यह एक पहचान है जो किसी व्यक्ति के हृदय की गहराई में होती है, ऐसी चीज़ जिसे नग्न आँखों से देखा नहीं जा सकता है। यह पहचान मानव के जीवन एवं मानव की नियति के विषय में उसकी समझ, और उसकी भावनाओं में होती है।और यह अकसर किसी व्यक्ति को इस बात की समझ की ओर ले जाती है कि एक अनदेखा स्वामी इन सभी चीज़ों को व्यवस्थित कर रहा है, और मनुष्य के लिए हर एक चीज़ का आयोजन कर रहा है। इन सब के बीच, कोई व्यक्ति नियति के इंतज़ामों और आयोजनों को स्वीकार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता है; उसी समय, वह उस आगे के पथ को जिसे सृष्टिकर्ता ने प्रदर्शित किया है,और उसकी नियति के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने के आलावा कुछ नहीं कर सकता है। यह एक निर्विवादित सत्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि नियति के विषय में कोई क्या अन्तःदृष्टि एवं मनोवृत्ति रखता है, कोई भी इस प्रमाणित तथ्य को बदल नहीं सकता है।
तू प्रतिदिन कहाँ जाएगा, तू क्या करेगा, तू किसका या क्या सामना करेगा, तू क्या कहेगा, तेरे साथ क्या होगा - क्या इसमें से किसी की भी भविष्यवाणी की जा सकती है? लोग इन सभी घटनाओं को पहले से नहीं देख सकते हैं, और जिस प्रकार वे विकसित होते हैं उसको तो बिलकुल भी नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं। जीवन में, पहले से देखी न जा सकनेवाली ये घटनाएं हर समय घटित होती हैं, और ये प्रतिदिन घटित होनेवाली घटनाएं हैं। ये दैनिक उतार-चढ़ाव और तरीके जिन्हें वे प्रकट करते हैं, या ऐसे नमूने जिसके परिणामस्वरूप वे घटित होते हैं, वे मानवता को निरन्तर स्मरण दिलानेवाले हैं कि कुछ भी बस यों ही बिना सोचे समझे नहीं होता है, यह कि इन चीज़ों की शाखाओं में विस्तार को, और उनकी अनिवार्यता को मनुष्य की इच्छा के द्वारा बदला नहीं जा सकता है। हर एक घटना सृष्टिकर्ता की ओर से मानवजाति को दी गई झिड़की को सूचित करती है, और साथ ही यह सन्देश भी देती है कि मानव प्राणी अपनी नियति को नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं, और ठीक उसी समय हर एक घटना अपनी नियति को अपने ही हाथों में लेने के लिए मानवता की निरर्थक, व्यर्थ महत्वाकांक्षा एवं इच्छा का खण्डन है। ये मानवजाति के कान के पास एक के बाद एक मारे गए जोरदार थप्पड़ों के समान हैं, जो लोगों को पुनःविचार करने के लिए बाध्य करते हैं कि अंत में कौन उनकी नियति पर शासन एवं नियन्त्रण करता है। और चूंकि उनकी महत्वाकांक्षाएं एवं इच्छाएं लगातार नाकाम होती हैं और बिखर जाती हैं, तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से एक अचैतन्य स्वीकृति की ओर आ जाते हैं कि नियति ने क्या संजोकर रखा है, और स्वर्ग की इच्छा और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की वास्तविकता की स्वीकृति की ओर आ जाते हैं। सम्पूर्ण मानवजीवन की नियति के इन दैनिक उतार-चढ़ावों से, ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की योजना और उसकी संप्रभुता को प्रकट नहीं करता है; ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सन्देश नहीं देता है कि "सृष्टिकर्ता के अधिकार से आगे बढ़ा नहीं जा सकता है," जो इस अनन्त सत्य को सूचित नहीं करता है कि "सृष्टिकर्ता का अधिकार ही सर्वोच्च है।"
मानवता एवं विश्व की नियति सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के साथ घनिष्ठता से गुथी हुई हैं, और सृष्टिकर्ता के आयोजनों से अविभाज्य रूप से बंधी हुई हैं; अंत में, उन्हें सृष्टिकर्ता के अधिकार से धुनकर अलग नहीं किया जा सकता है। सभी चीज़ों के नियमों के माध्यम से मनुष्य सृष्टिकर्ता के आयोजनों एवं उसकी संप्रभुता को समझ पाता है; जीवित बचे रहने के नियमों के माध्यम से वह सृष्टिकर्ता के शासन का एहसास करता है; सभी चीज़ों की नियति से वह उन तरीकों के विषय में निष्कर्ष निकालता है जिनसे सृष्टिकर्ता अपनी संप्रभुता का इस्तेमाल करता है और उन पर नियन्त्रण करता है; और मानव प्राणियों एवं सभी चीज़ों के जीवन चक्रों में मनुष्य सचमुच में सभी चीज़ों के लिए सृष्टिकर्ता के आयोजनों और इंतज़ामों का अनुभव करता है और सचमुच में इस बात का साक्षी बनता है कि किस प्रकार वे आयोजन और इंतज़ाम सभी सांसारिक विधियों, नियमों, और संस्थानों, तथा सभी शक्तियों और ताकतों का स्थान ले लेते हैं। इसके प्रकाश में, मानवजाति को यह पहचानने के लिए बाध्य किया गया है कि किसी भी सृजे गए जीव के द्वारा सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है, और यह कि सृष्टिकर्ता के द्वारा पूर्व निर्धारित की गई घटनाओं और चीज़ों के साथ कोई भी शक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकती है या उन्हें बदल नहीं सकती है। यह इन अलौकिक विधियों और नियमों के अधीन है कि मनुष्य एवं सभी चीज़ें पीढ़ी दर पीढ़ी जीवन बिताती हैं और प्रचार करती हैं। क्या यह सृष्टिकर्ता के अधिकार का असली जीता जागता नमूना नहीं है? हालाँकि मनुष्य, वस्तुनिष्ठ नियमों में, सभी घटनाओं एवं सभी चीज़ों के लिए सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और उसके निर्धारण को देखता है, फिर भी कितने लोग विश्व के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के सिद्धान्तों का आभास करने में समर्थ हैं? कितने लोग सचमुच में अपनी अपनी नियति के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और इंतज़ाम को जान, पहचान, एवं स्वीकार कर सकते हैं, और उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं? कौन, सभी चीज़ों के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के सत्य पर विश्वास करने के बाद, सचमुच में विश्वास करेगा एवं पहचानेगा कि सृष्टिकर्ता मानव जीवन की नियति को भी निर्धारित करता है? कौन सचमुच में इस सत्य को समझ सकता है कि मनुष्य की नियति सृष्टिकर्ता की हथेली में होती है? जब इस सत्य से सामना होता है कि वह मानवता की नियति पर शासन और नियन्त्रण करता है, तो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के प्रति मानवता को किस प्रकार की मनोवृत्ति रखनी चाहिए, यह एक ऐसा निर्णय है जिसे हर एक मानव प्राणी को अपने लिए लेना होगा जिसने अब इस सत्य का सामना किया है।
एक मनुष्य के जीवन में छ: घटनाक्रम
अपने जीवन के पथक्रम में, हर एक व्यक्ति महत्वपूर्ण घटनाक्रमों की एक श्रृंखला पर पहुँचता है। ये अत्याधिक बुनियादी, और अति महत्वपूर्ण कदम हैं जो जीवन में किसी व्यक्ति की नियति को निर्धारित करते हैं। जो कुछ नीचे दिया गया है वह इन मील के पत्थरों का एक संक्षिप्त विवरण है जिनसे होकर हर एक स्त्री या पुरुष को अपने जीवन के पथक्रम में गुज़रना होगा।
जन्म: पहला घटनाक्रम
जहाँ किसी व्यक्ति का जन्म होता है, जिस परिवार में उस स्त्री या पुरुष का जन्म होता है, उसका लिंग, रंग-रूप, जन्म का समय: ये किसी व्यक्ति के जीवन के प्रथम घटनाक्रम के विवरण हैं।
इस घटनाक्रम में इन भागों के विषय में किसी के भी पास कोई विकल्प नहीं है; उन सभी को सृष्टिकर्ता के द्वारा बहुत पहले से ही निर्धारित कर दिया जाता है। उन्हें किसी भी तरह से बाहरी वातावरण के द्वारा प्रभावित नहीं किया जाता है, और कोई मानव निर्मित कारक इन तथ्यों को बदल नहीं सकते हैं जिन्हें सृष्टिकर्ता ने पहले से निर्धारित किया है। क्योंकि किसी व्यक्ति के पैदा होने का अर्थ है कि सृष्टिकर्ता ने पहले से ही उसकी नियति के पहले कदम को पूरा कर लिया है जिसे उसने उस व्यक्ति के लिए इंतज़ाम किया है। क्योंकि उसने बहुत पहले से ही इन सभी विवरणों को पूर्वनिर्धारित कर दिया है, इसलिए किसी में भी उन में से किसी को भी पलटने की ताकत नहीं है। किसी मनुष्य की आगामी नियति के बावजूद भी, उसके जन्म की स्थितियां पूर्वनिर्धारित होती हैं, और जैसे वे हैं वैसी ही बनी रहती हैं; वे जीवन में उसकी नियति के द्वारा किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होती हैं, और न ही वे किसी भी तरह से सृष्टिकर्ता की संप्रभुता पर असर डालती हैं जो उसके ऊपर है।
1. सृष्टिकर्ता की योजनाओं के फलस्वरूप एक नए जीवन की उत्पत्ति हुई है
प्रथम घटनाक्रम के किन विवरणों को – किसी व्यक्ति के जन्म का स्थान, उसका परिवार, उसका लिंग, उसका रंग-रूप, उसके जन्म का समय –क्या मनुष्य चुनने में समर्थ होता है? स्पष्ट रूप से, किसी मनुष्य का जन्म एक अनिवारक घटना है: वह अनायास ही किसी निश्चित स्थान में, किसी निश्चित समय में, किसी निश्चित परिवार में, और किसी निश्चित शारीरिक रंग-रूप के साथ जन्म लेता है; वह अनायास ही किसी निश्चित घराने का सदस्य बन जाता है, और किसी निश्चित वंश वृक्ष का उत्तराधिकारी होता है। किसी मनुष्य के पास जीवन के इस प्रथम घटनाक्रम में कोई विकल्प नहीं होता है, किन्तु वह एक ऐसे वातावरण में जो सृष्टिकर्ता की योजना के अनुसार निश्चित होता है, एक विशेष परिवार में, एक विशेष लिंग एवं रंग-रूप के साथ, और एक विशेष समय पर जन्म लेता है जो घनिष्ठ रूप से उसकेजीवन के पथक्रम से जुड़ा होता है। कोई व्यक्ति इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम में क्या कर सकता है? सभी ने कहा है, किसी मनुष्य के पास उसके जन्म से सम्बन्धित इन विवरणों में से किसी एक के विषय में भी कोई विकल्प नहीं होता है। यद सृष्टिकर्ता का पूर्वनिर्धारण एवं उसका मार्गदर्शन नहीं होता, तो एक जीवन जिसने नए रूप में इस संसार में जन्म लिया है वह यह नहीं जानता कि कहाँ जाना है या कहाँ रहना है, उसके पास कोई रिश्ते नहीं होते, वह किसी से सम्बन्धित नहीं होता, और उसके पास कोई वास्तविक घर नहीं होता। किन्तु सृष्टिकर्ता के अत्यंत सतर्कता से किए गए इंतज़ामों के कारण, वह रहने के लिए एक स्थान, माता-पिता, एक स्थान जिससे वह सम्बन्धित होता है, और रिश्तेदारों के साथ अपने जीवन की यात्रा का आरम्भ करता है। इस प्रक्रिया के दौरान, इस नए जीवन के आगमन को सृष्टिकर्ता की योजनाओं के द्वारा निर्धारित किया जाता है, और हर एक चीज़ जिसे वह धारण करेगा उसे सृष्टिकर्ता के द्वारा उसे प्रदान किया जाएगा। स्वतन्त्र रूप से तैरती हुई एक देह से जिसका कोई नाम नहीं है वह धीरे धीरे मांस और लहू, दृश्यमान, स्पर्शगम्य मानव, और परमेश्वर की एक सृष्टि बन जाता है, जो सोचता, साँस लेता, और गर्माहट एवं ठण्ड का एहसास करता है, जो भौतिक संसार में सृजे गए प्राणियों की सभी सामान्य क्रियाकलापों में भाग ले सकता है, और जो उन सभी हालातों से होकर गुज़रेगा जिनका अनुभव सृजे गए मानव को जीवन में करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा किसी व्यक्ति के जन्म के पूर्वनिर्धारण का अर्थ है कि वह उस व्यक्ति को जीवित बचे रहने के लिए आवश्यक सभी चीज़ें प्रदान करेगा; और उसी प्रकार यह कि किसी व्यक्ति का जन्म हुआ है इसका अर्थ है कि वह सृष्टिकर्ता के द्वारा जीवित बचे रहने के लिए आवश्यक सभी चीज़ों को प्राप्त करेगा या करेगी, यह कि इस बिन्दु के आगे से वह किसी और रूप में जीवन बिताएगा या बिताएगी, जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा प्रदान किया गया है और जो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन है।
2. विभिन्न मानव विभिन्न परिस्थितियों के अंतर्गत जन्म क्यों लेते हैं
लोग अकसर यह कल्पना करना पसंद करते हैं कि यदि वे फिर से जन्म लेते, तो एक प्रसिद्ध परिवार में होते; यदि वे महिला होते, तो वे राजकुमारी के समान दिखते और हर एक के द्वारा उन्हें प्रेम किया जाता, और यदि वे पुरुष होते, तो वे सुन्दर राजकुमार होते, उन्हें कोई कमी नहीं होती, और पूरा संसार उनके आदेशों का पालन करने के लिए सदा तैयार रहता। प्रायः ऐसे लोग हैं जो अपने जन्म को लेकर बहुत सारे भ्रम के अधीन हैं और वे अक्सर इससे असंतुष्ट रहते हैं, और अपने परिवार, अपने रंग-रूप, अपने लिंग, और यहाँ तक कि अपने जन्म के समय से भी नाराज़ रहते हैं।फिर भी लोग कभी नहीं समझते हैं कि उनका जन्म एक विशिष्ट परिवार में क्यों हुआ है या वे इस प्रकार क्यों दिखते हैं। वे नहीं जानते हैं कि इसके बावजूद कि उन्होंने कहाँ जन्म लिया है या वे कैसे दिखते हैं, उन्हें विभिन्न भूमिकाएं अदा करनी हैं और सृष्टिकर्ता के प्रबंधन में विभिन्न मिशन को पूरा करना है – यह उद्देश्य कभी नहीं बदलेगा। सृष्टिकर्ता की नज़रों में, वह स्थान जहाँ किसी व्यक्ति का जन्म होता है, उसका लिंग, उसका रंग-रूप, वे सभी अल्पकालिक चीज़ें हैं। ये समूची मानवजाति के उसके प्रबंधन के प्रत्येक पहलू में अति सूक्ष्म बिन्दुओं, और छोटे छोटे संकेतों की एक श्रंखला है। और किसी व्यक्ति की वास्तविक मंज़िल और उसके अंत को किसी विशेष चरण में स्त्री या पुरुष के जन्म के द्वारा निर्धारित नहीं किया जाता है, किन्तु उस उद्देश्य के द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसे स्त्री या पुरुष प्रत्येक जीवन में पूरा करते हैं, और उन पर किए गए सृष्टिकर्ता के न्याय के द्वारानिर्धारित किया जाता है जब उसकी प्रबंधकीय योजना पूरी हो जाती है।
ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक प्रभाव का एक कारण होता है, यह कि कोई भी प्रभाव बिना कारण के नहीं होता है। और इस प्रकार किसी व्यक्ति का जीवन आवश्यक रूप से उसके वर्तमान जीवन और उसके भूतपूर्व जीवन दोनों से जुड़ा हुआ होता है। यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु उनके जीवन की वर्तमान अवधि को समाप्त कर देती है, तो किसी व्यक्ति का जन्म एक नए चक्र की शुरुआत है; यदि पुराना चक्र किसी व्यक्ति के भूतपूर्व जीवन को दर्शाता है, तो नया चक्र स्वाभाविक रूप से उनका वर्तमान जीवन है। चूँकि किसी व्यक्ति का जन्म उसके भूतपूर्व जीवन साथ ही साथ उसके वर्तमान जीवन, स्थान, परिवार, लिंग, रंग-रूप, और अन्य ऐसे कारकों से जुड़ा हुआ है, जो उसके जन्म के साथ जुड़े हुए हैं, तो वे सभी आवश्यक रूप से उनसे सम्बन्धित हैं। इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति के जीवन के कारकों को न केवल उसके भूतपूर्व जीवन के द्वारा प्रभावित किया जाता है, बल्कि वर्तमान में उसकी नियति के द्वारा भी निर्धारित किया जाता है। यह विभिन्न प्रकार की अलग अलग परिस्थितियों को स्पष्ट करती है जिसके अंतर्गत लोगों का जन्म होता है; कुछ लोग गरीब परिवारों में जन्म लेते हैं, अन्य अमीर परिवारों में जन्म लेते हैं। अतः कुछ लोग सामान्य कुटुम्ब से हैं, और अन्य लोगों के पास प्रसिद्ध वंशावलियां हैं। कुछ लोगों ने दक्षिण में जन्म लिया है, और अन्य लोगों ने उत्तर में जन्म लिया है। कुछ लोगों ने रेगिस्तान में जन्म लिया है, और अन्य लोगों ने हरी-भरी भूमि में जन्म लिया है। कुछ लोगों के जन्म के साथ उल्लास, हंसी और उत्सव मनाया जाता है,और अन्य लोग आँसू, आपदा और दुःख लेकर आते हैं। कुछ लोगों का जन्म ख़ज़ाने की तरह संजोकर रखे जाने के लिए होता है, और अन्य लोगों को जंगली घास फूस की तरह अलग फेंक दिया जाता है। कुछ लोग सुन्दर नाक नक्शों के साथ जन्म लेते हैं, और अन्य लोग कुरूपता के साथ। कुछ लोग दिखने में सुन्दर होते हैं, और अन्य लोग भद्दे होते हैं। कुछ लोगों ने अर्धरात्रि में जन्म लिया है, और अन्य लोग दोपहर के सूर्य की चिलचिलाती गर्मी के नीचे पैदा हुए हैं। सभी प्रकार के लोगों के जन्म को नियति के द्वारा निर्धारित किया जाता है जिन्हें सृष्टिकर्ता ने उनके लिए सहेजकर रखा है; उनका जन्म वर्तमान जीवन में उनकी नियति को साथ ही साथ उन भूमिकाओं को जिन्हें वे अदा करेंगे और उस उद्देश्य को निर्धारित करता है जिन्हें वे पूरा करेंगे। यह सब कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन है, और उसके द्वारा पहले से निर्धारित है; कोई भी अपने पूर्वनिर्धारित भाग्य से बच नहीं जा सकता है, कोई भी अपने जन्म की परिस्थितियों को[क] बदल नहीं सकता है, और कोई भी अपनी स्वयं की नियति को चुननहीं सकता है।
बढ़ना: दूसरा घटनाक्रम
यह इस बात पर निर्भर है कि उन्होंने किस प्रकार के परिवार में जन्म लिया है, लोग विभिन्न पारिवारिक वातावरणों में बढ़ते हैं और अपने माता पिता से अलग अलग पाठ सीखते हैं। यह उन स्थितियों को निर्धारित करता है जिसके अधीन कोई व्यक्ति वयस्क होता है, और उसका बड़ा होना[ख]किसी व्यक्ति के जीवन के दूसरे घटनाक्रम को दर्शाता है। यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है, कि लोगों के पास इस घटनाक्रम में भी कोई विकल्प नहीं होता है। यह भी तय, और पूर्वनियोजित है।
1. वे परिस्थितियाँ जिसके अधीन कोई व्यक्ति बढ़ता है उन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा तय किया जाता है
कोई व्यक्ति ऐसे लोगों या कारकों का चुनाव नहीं कर सकता है जिसकी मानसिकउन्नति एवं प्रभाव के अधीन वह बढ़ता है या बढ़ती है। कोई व्यक्ति यह चुनाव नहीं कर सकता है कि वह कौन सा ज्ञान या कुशलता हासिल करता है, और वह कौन सी आदतों को निर्मित करता है। कोई भी यह नहीं कह सकता है कि उसके माता पिता एवं सगे सम्बन्धी कौन होंगे, वह किस प्रकार के वातावरण में बढ़ेगा; लोगों, घटनाओं, और आस पास की चीज़ों के साथ किसी का रिश्ता, और वे किस प्रकार किसी के विकास को प्रभावित करते हैं, ये सब उसके नियन्त्रण से परे है। तो, इन चीज़ों का निर्णय कौन लेता है? कौन इनका इंतज़ाम करता है? चूंकि इस मामले में लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है, चूंकि वे अपने आप के लिए इन चीज़ों का चुनाव नहीं कर सकते हैं, और चूंकि वे स्पष्ट रुप से स्वाभविक तौर पर विकसित नहीं होते हैं, तो यह बिलकुल साफ है कि इन सब चीज़ों की संरचना सृष्टिकर्ता के हाथों में होती है। ठीक वैसे ही जैसे सृष्टिकर्ता हर एक व्यक्ति के जन्म की विशेष परिस्थितियों का इंतज़ाम करता है, कहने की कोई आवश्कता नहीं है, वह विशिष्ट परिस्थितियों का भी इंतज़ाम करता है जिसके अधीन कोई व्यक्ति बढ़ता है। यदि किसी व्यक्ति का जन्म लोगों, घटनाओं, और उस स्त्री या पुरुष के आस पास की चीज़ों में परिवर्तन लाता है, तो उस व्यक्ति की वृद्धि एवं विकास आवश्यक रूप से उन्हें भी प्रभवित करेगी।उदाहरण के लिए, कुछ लोगों का जन्म गरीब परिवारों में होता है, किन्तु धन सम्पत्ति के साथ पलते बढ़ते हैं; अन्य लोग समृद्ध परिवारों में जन्म लेते हैं किन्तु अपने परिवारों के सौभाग्य का पतन कर देते हैं, कुछ इस तरह कि वे गरीब वातावरण में पलते बढ़ते हैं। किसी भी व्यक्ति के जन्म को निश्चित नियमों के द्वारा नियन्त्रित नहीं किया जाता है, और कोई भी व्यक्ति अनिवार्य, एवं परिस्थतियों की एक निश्चित श्रृंखला के अधीन बढ़ता नहीं है। ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिनका कोई व्यक्ति अनुमान लगा सकता है या नियन्त्रण कर सकता है; ये उसकी नियति के परिणाम हैं, और इन्हें उसकी नियति के द्वारा निर्धारित किया जाता है। हाँ वास्तव में, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा किसी व्यक्ति के भाग्य के लिए पूर्वनिर्धारित किया जाता है, उन्हें उस व्यक्ति की नियति के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के द्वारा, और उसके लिए उसकी योजनाओं के द्वारा, निर्धारित किया जाता है।
2. ऐसी विभिन्न परिस्थितियाँ जिनके अधीन लोग पलते-बढ़ते हैं वे अलग अलग भूमिकाओं को जन्म देते हैं
किसी व्यक्ति के जन्म की परिस्थितियाँ उस वातावरण एवं उन परिस्थितियाँ को मूल स्तर पर स्थापित करती हैं जिसमें वे पलते-बढ़ते हैं, और वैसे ही ऐसी परिस्थितियाँ जिनमें कोई व्यक्ति बढ़ता है वे उस स्त्री एवं पुरुष के जन्म की परिस्थितियों का परिणाम हैं। इस समय के दौरान कोई व्यक्ति भाषा को सीखना प्रारम्भ कर देता है, और उसका मस्तिष्क अनेक नई चीज़ों का सामना एवं उनको आत्मसात करना प्रारम्भ कर देता है, इस प्रक्रिया में वह लगातार बढ़ता है। ऐसी चीज़ें जिन्हें कोई व्यक्ति अपने कानों से सुनता है, अपनी आँखों से देखता है, और अपने मस्तिष्क में ग्रहण करता है वे आहिस्ता आहिस्ता उसके भीतरी संसार को समृद्ध एवं जीवंत करते हैं। ऐसे लोग, घटनाएं, एवं चीज़ें जिनके सम्पर्क में कोई व्यक्ति आता है, वह सामान्य बुद्धि, ज्ञान, एवं कुशलताएं जिन्हें वह सीखता है, और सोचने के तरीके जिनके द्वारा वह प्रभावित होता है, मन में बैठाता है, या उसे सिखाया जाता है, वे सब जीवन में किसी व्यक्ति की नियति का मार्गदर्शन करते हैं एवं उसे प्रभावित करते हैं। जब कोई व्यक्ति बढ़ता है तो वह भाषा जिसे वह सीखता है और उसेक सोचने का तरीकाउस वातावरण से अविभाज्य होते हैं जिसमें वह अपनी किशोरावस्था को बिताता है, और वह वातावरण माता पिता, भाई बहन, एवं अन्य लोगों, घटनाओं, और उस स्त्री या पुरुष के आस पास की चीज़ों से मिलकर बना होता है। अतः किसी व्यक्ति के विकास के पथक्रम को उस वातावरण के द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसमें कोई व्यक्ति पलता-बढ़ता है, और साथ ही लोगों, घटनाओं, और चीज़ों पर भी निर्भर होता है जिनके सम्पर्क में इस समय अवधि के दौरान कोई व्यक्ति आता है। चूँकि ऐसी स्थितियाँ जिनके अधीन कोई व्यक्ति पलता-बढ़ता है वे बहुत पहले से ही पूर्वनिर्धारित हैं, और वह वातावरण जिसमें कोई व्यक्ति इस प्रक्रिया के दौरान जीवन बिताता है वह भी, प्राकृतिक रूप से, पूर्वनिर्धारित है। इसे किसी व्यक्ति के चुनाव एवं प्राथमिकताओं के द्वारा निश्चित नहीं किया जाता है, किन्तु इसे सृष्टिकर्ता की योजनाओं के अनुसार निश्चित किया जाता है, सृष्टिकर्ता के सावधानी से किए गए इंतज़ामों के द्वारा, और जीवन में किसी व्यक्ति की नियति पर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के द्वारा निर्धारित किया जाता है। अतः ऐसे लोग जिनका सामना कोई व्यक्ति बढ़ने के पथक्रम में करता है, और ऐसी चीज़ें जिनके सम्पर्क में कोई व्यक्ति आता है, वे सभी अनिवार्य रूप से सृष्टिकर्ता के आयोजन एवं इंतज़ाम से जुड़े हुए हैं। लोग इस प्रकार के जटिल पारस्परिक सम्बन्धों को पहले से नहीं देख सकते हैं, और न ही वे उन्हें नियन्त्रित कर सकते हैं या उनकी थाह ले सकते हैं। बहुत सी अलग अलग चीज़ों एवं बहुत से अलग अलग लोगों का उस वातावरण पर प्रभाव होता है जिसमें कोई व्यक्ति पलता-बढ़ता है, और कोई मानव ऐसे विशाल सम्बन्धों के जाल का इंतज़ाम एवं आयोजन करने के योग्य नहीं है। सृष्टिकर्ता को छोड़ कोई व्यक्ति या चीज़ सब प्रकार के अलग अलग लोगों, घटनाओं, एवं चीज़ों के रंग-रूप, उपस्थिति, एवं उनके लुप्त होने को नियन्त्रित नहीं कर सकता है, और ये केवल सम्बन्धों के इतने विशाल जाल हैं जो किसी व्यक्ति के विकास को आकार देते हैं जैसा सृष्टिकर्ता के द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जाता है, और विभिन्न प्रकार के वातावरण का निर्माण करते हैं जिनमें लोग पलते-बढ़ते हैं, तथा उन विभिन्न भूमिकाओं की रचना करते हैं जो सृष्टिकर्ता के प्रबंधन के कार्य के लिए, और लोगों के लिए ठोस एवं मज़बूत बुनियाद डालने हेतु आवश्यक होता है कि वे सफलतापूर्वक अपने अपने उद्देश्य को पूरा कर सकें।
स्वतन्त्रता: तीसरा घटनाक्रम
जब कोई व्यक्ति बचपन एवं किशोरावस्था से होकर गुज़र जाता है और आहिस्ता आहिस्ता एवं अनिवार्य रूप से परिपक्वता की ओर पहुँच जाता है, तो उनके लिए अगला कदम होता है कि वे अपनी किशोरावस्था को पूरी तरह से अलविदा कह दें, अपने अपने माता पिता को अलविदा कह दें, और एक स्वतन्त्र वयस्क के रूप में उस मार्ग का सामना करें जो सामने है। इस बिन्दु पर[ग] उन्हें सभी लोगों, घटनाओं, एवं चीज़ों का सामना करना होगा जिन्हें एक व्यस्क को सामना करना पड़ता है, और अपनी नियति की जंज़ीर की सभी कड़ियों का सामना करना होगा।यह तीसरा घटनाक्रम है जिससे होकर किसी व्यक्ति को गुज़रना होगा।
1. स्वतन्त्र होने के पश्चात्, कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करना आरम्भ कर देता है
यदि किसी व्यक्ति का जन्म एवं पलना-बढ़ना उसकी जीवन यात्रा के लिए, किसी व्यक्ति की नियति की आधारशिला रखने के लिए "तैयारी की अवधि" है, तो उसकी स्वतन्त्रता जीवन में उसकी नियति के लिए आरम्भिक आत्मभाषण है। यदि किसी व्यक्ति का पलना-बढ़ना उस धन-समृद्धि के समान है जिसे उन्होंने जीवन में अपनी नियति के लिए संचय करके रखा है, तो किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता तब होती है जब वे अपनी धन-समृद्धि को खर्च करना एवं उसमें जोड़ना आरम्भ करते हैं। जब कोई अपने माता पिता को छोड़ देता है और स्वतन्त्र हो जाता है, तो वे सामाजिक स्थितियाँ जिनका वह सामना करता है, और उसके लिए उपलब्ध कार्य व जीवनवृत्ति दोनों का प्रकार नियति द्वारा आदेश दिया जाता है और उनका किसी के माता पिता के साथ कोई लेना देना नहीं होता है। कुछ लोग महाविद्यालय में अच्छे मुख्य विषय लेते हैं और अंत में स्नातक के पश्चात् एक संतोषजनक नौकरी पाते हैं, और अपने जीवन की यात्रा में पहली विजयी छलांग लगाते हैं। कुछ लोग बहुत से विभिन्न कौशलों को सीखते और उनमें महारत हासिल कर लेते हैं और फिर भी ऐसी नौकरी नहीं ढूँढ़ पाते हैं जो उन पर जँचती हो या अपने पद को नहीं पाते हैं, जीवनवृत्ति को तो बिलकुल भी नहीं पाते हैं; अपनी जीवन यात्रा के आरम्भ में ही वे अपने आपको हर एक मोड़ पर बाधित, परेशानियों से व्याकुल, अपनी भविष्य की योजनाओं को निराशाजनक और अपने जीवन को अनिश्चित पाते हैं। कुछ लोग स्वयं को कर्मठतापूर्वक अपने अध्ययनों में लगा देते हैं, फिर भी ऊँची शिक्षा पाने के लिए अपने सभी अवसरों से बहुत कम अन्तर से चूक जाते हैं, और कभी सफलता हासिल न करने के लिए नियति के द्वारा निर्धारित होते हैं, अपनी जीवन यात्रा में उनकी सबसे पहली आकांक्षा अचानक ही गायब हो जाती है। न जानते हुए[घ] कि आगे का मार्ग सपाट है या पथरीला, वे पहली बार महसूस करते हैं कि मानव की नियति कितनी विभिन्नताओं से भरी हुई है, और इसलिए वे जीवन को आशा एवं भय के साथ समझते हैं। कुछ लोग, बहुत अधिक शिक्षित न होने के बावजूद भी, पुस्तकें लिखते हैं और बड़ी प्रसिद्धि हासिल करते हैं; कुछ, हालाँकि पूरी तरह से अशिक्षित हैं, फिर भी व्यवसाय में पैसा कमाते हैं और इसके द्वारा स्वयं का खर्च वहन करने में समर्थ हैं। कोई व्यक्ति कौन सा व्यवसाय चुनता है, कोई व्यक्ति कैसे जीविका अर्जित करता है: क्या लोगों के पास इस पर कोई नियन्त्रण है कि वे अच्छा चुनाव करते हैं या बुरा चुनाव? क्या वे अपनी इच्छाओं एवं निर्णयों से सहमत होते हैं? अधिकांश लोग चाहते हैं कि वे कम काम करें और अधिक कमा सकें, धूप और बरसात में परिश्रम न करें, अच्छे अच्छे कपड़े पहनें, हर जगह जगमगाएँ और चमकें, दूसरों से ऊँचा उठें, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाएँ। लोगों की इच्छाएँ तो बहुत ही बढ़िया होती हैं, किन्तु जब लोग अपने जीवन की यात्रा में अपना पहला कदम उठाते हैं, तब उन्हें धीरे धीरे एहसास होता है कि मानव की नियति कितनी अपूर्ण है, पहली बार वे सचमुच में आभास करते हैं कि, यद्यपि कोई व्यक्ति अपने भविष्य के लिए जोरदार योजना बना सकता है, यद्यपि कोई अपने लिए साहसिक कल्पनाओं को आश्रय दे सकता है, फिर भी किसी के पास अपने सपनों को साकार करने की योग्यता या सामर्थ्य नहीं होती है, और कोई भी अपने स्वयं के भविष्य को नियन्त्रित करने की स्थिति में नहीं होता है। किसी व्यक्ति के सपनों एवं उन सच्चाईयों के बीच हमेशा कुछ दूरियाँ होंगी जिनका सामना उसे करना होगा; चीज़ें वैसी कभी नहीं होती हैं जैसा कोई व्यक्ति चाहता है कि वे हों, और जब ऐसी सच्चाईयों से सामना होता है तो लोग कभी भी संतुष्टि या तृप्ति हासिल नहीं कर सकते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग कल्पना की जाने लायक किसी भी हद तक जाएँगे, अपनी स्वयं की नियति को बदलने की कोशिश में, वे अपनी जीविका एवं भविष्य के वास्ते बहुत अधिक प्रयास करेंगे और बड़े बड़े बालिदन करेंगे। किन्तु अंत में, भले ही वे अपने सपनों एवं इच्छाओं को अपने स्वयं के कठिन परिश्रम के माध्यम से साकार कर सकते हैं, फिर भी वे अपनी नियति को कभी बदल नहीं सकते हैं, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितने दृढ़ निश्चय के साथ कोशिश करते हैं क्योंकि वे कभी उससे आगे नहीं बढ़ सकते हैं जो नियति ने उन्हें आवंटित किया है। योग्यता, बौद्धिक क्षमता, एवं इच्छा शक्ति में भिन्नताओं के बावजूद भी, लोग नियति के सामने बिलकुल एक समान हैं, जो महान एवं तुच्छ, ऊंचे एवं नीचे, और उच्च एवं नीच के बीच कोई भेद नहीं करती है। कोई किस व्यवसाय में निरन्तर लगा रहता है, कोई जीविका के लिए क्या करता है, और कोई जीवन में कितनी धन-सम्पत्ति इकट्ठा करता है ये उसके माता पिता, उसकी प्रतिभाओं, उसके प्रयासों या उसकी महत्वाकांक्षाओं के द्वारा तय नहीं किए जाते हैं, बल्कि सृष्टिकर्ता के द्वारा पूर्वनिर्धारित किए जाते हैं।
2. अपने माता पिता को छोड़ना और जीवन के रंगमंच में अपनी भूमिका अदा करने के लिए ईमानदारी से शुरुआत करना
जब कोई व्यक्ति परिपक्व हो जाता है, तो वह अपने माता पिता को छोड़ने और अपने बलबूते पर कुछ करने में सक्षम हो जाता है, और यह इसी बिन्दु पर होता है कि वह सही मायने में अपनी भूमिका अदा करना शुरू कर देता है, यह कि जीवन में उसका मिशन धुँधला नहीं होता है और धीरे धीरे स्पष्ट हो जाता है। कोई व्यक्ति नाममात्र के लिए अभी भी अपने माता पिता के करीब बना रहता है, परन्तु क्योंकि उसका मिशन एवं वह भूमिका जिसे वह जीवन में अदा करता है उनका उसके माता पिता के साथ कोई लेना देना नहीं होता है, इसलिए वास्तविकता में यह घनिष्ठ बन्धन आहिस्ता आहिस्ता टूट जाता है जब कोई व्यक्ति धीरे धीरे स्वतन्त्र हो जाता है। जैविक दृष्टिकोण से, लोग अभी भी अवचेतन रूप में माता पिता पर निर्भर होने से अपने आपको रोक नहीं सकते हैं, किन्तु वस्तुनिष्ठ रूप से कहें, तो जब एक बार वे बड़े हो जाते हैं तो उनके पास अपने माता पिता से बिलकुल अलग जीवन होता है, और वे उन भूमिकाओं को अदा करेंगे जिन्हें उन्होंने स्वतन्त्र रूप से ग्रहण किया है। जन्म व बच्चों के पालन पोषण के अलावा, किसी बच्चे के जीवन में माता पिता की ज़िम्मेदारी होती है कि उस बच्चे या बच्ची के पलने-बढ़ने के लिए बस एक औपचारिक वातावरण प्रदान करें, क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनियोजन को छोड़ किसी भी चीज़ का उस व्यक्ति की नियति से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। कोई भी इस चीज़ को नियन्त्रित नहीं कर सकता है कि किसी व्यक्ति का कैसा भविष्य होगा; इसे बहुत पहले ही पूर्वनिर्धारित किया जाता है, और यहाँ तक कि उसके माता पिता भी उसकी नियति को नहीं बदल सकते हैं। जहाँ तक नियति की बात है, हर एक व्यक्ति स्वतन्त्र है, और हर स्त्री या पुरुष की अपनी स्वयं की नियति होती है। अतः किसी के भी माता पिता जीवन में उसकी नियति को नहीं टाल सकते हैं या उस भूमिका को जरा सा भी प्रभावित नहीं कर सकते हैं जिसे वह जीवन में अदा करता है। ऐसा कहा जा सकता है कि वह परिवार जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म लेना तय किया जाता है, और वह वातावरण जिसमें वह पलता-बढ़ता है, वे जीवन में उसके मिशन को पूरा करने के लिए उन पूर्व शर्तों से बढ़कर और कुछ नहीं हैं। वे किसी भी तरह से जीवन में किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते हैं जिसके मध्य कोई स्त्री या पुरुष अपने मिशन को पूरा करता है। और इसलिए किसी के भी माता पिता जीवन में उसके मिशन को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते हैं, किसी के भी सगे-सम्बन्धी जीवन में उसकी भूमिका को ग्रहण करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते हैं। किस प्रकार कोई व्यक्ति अपने मिशन को पूरा करता है और वह किस प्रकार के जीवन जीने के वातावरण में अपनी भूमिका को अदा करता है यह जीवन में उसकी नियति के द्वारा पूरी तरह से निर्धारित किया जाता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी वस्तुनिष्ठ स्थितियाँ किसी व्यक्ति के मिशन को प्रभावित नहीं कर सकती हैं, जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जाता है। सभी लोग अपने स्वयं के पलने-बढ़ने के विशेष वातावरण में परिपक्व होते जाते हैं, तब आहिस्ता आहिस्ता, कदम दर कदम, जीवन में अपने स्वयं के मार्गों में चल पड़ते हैं, उन तकदीरों को पूरा करते हैं जिन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा उनके लिए नियोजित किया गया था, और स्वाभाविक रूप से, अनायास ही मानवता के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में अपने स्वयं के पदों को ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के वास्ते, और उसकी संप्रभुता के वास्ते, सृजित किए गए प्राणियों के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना शुरू करते हैं।
विवाह: चौथा घटनाक्रम
जब कोई उम्र में बढ़ता है एवं परिपक्व होता है, तो वह अपने माता पिता से और उस वातावरण से और भी अधिक दूर हो जाता है जिसमें वह जन्मा और पला-बढ़ा था, और इसके बदले वह अपने जीवन के लिए एक दिशा को खोजना और उस तरीके से अपने स्वयं के जीवन के लक्ष्यों को पाने का निरन्तर प्रयास शुरू कर देता है जो उसके माता पिता से भिन्न होता है। इस दौरान उसे अपने माता पिता की अब और आवश्यकता नहीं होती है, परन्तु उसके बजाए एक साथी की आवश्यकता होती है जिसके साथ वह अपने जीवन को बिता सकता हैः एक पत्नी, एक ऐसा इंसान जिसके साथ उसकी नियति घनिष्ठता से परस्पर जुड़ी हुई होती है। इस तरह से, पहली बड़ी घटना जिसका वह स्वतन्त्रता के पश्चात् सामना करता है वह विवाह है, चौथा घटनाक्रम जिससे होकर उसको गुज़रना होगा।
1. विवाह के विषय में किसी के पास कोई विकल्प नहीं है।
किसी व्यक्ति के जीवन में विवाह एक मुख्य घटना होती है; यह वह समय है जब कोई सचमुच विभिन्न प्रकार की ज़िम्मेदारियों को ग्रहण करना शुरू करता है, विभिन्न प्रकार के मिशन को धीरे-धीरे पूरा करना आरम्भ करता है। लोग विवाह के बारे में बहुत से भ्रमों को पनाह देते हैं इससे पहले कि वे स्वयं इसका अनुभव करें, और ये सब भ्रम बहुत ही खूबसूरत हैं। महिलाएँ कल्पना करती हैं कि उनके होने वाले पति सुन्दर राजकुमार होंगे, और पुरुष कल्पना करते हैं कि वे बर्फ जैसी सफेद स्त्री से विवाह करेंगे। ये कल्पनाएँ यह दिखाने के लिए की जाती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की विवाह के लिए कुछ निश्चित अपेक्षाएँ होती हैं, उनकी स्वयं की मांगें एवं मानक होते हैं। हालाँकि इस बुरे युग में लोगों के ऊपर विवाह के बारे में विकृत संदेशों की लगातार बमबारी की जाती है, जो और भी अधिक अतिरिक्त अपेक्षाओं को जन्म देते हैं और लोगों को सब प्रकार के बोझ एवं अजीब मनोवृत्तियाँ प्रदान करते हैं, कोई व्यक्ति जिसने विवाह का अनुभव किया है वह जानता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह इसे किस प्रकार समझता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसके प्रति उसकी मनोवृत्ति क्या है, किन्तु विवाह व्यक्तिगत चुनाव का मामला नहीं है।
किसी व्यक्ति का अपने जीवन में कई लोगों से आमना-सामना होता है, परन्तु कोई भी नहीं जानता है कि उसका जीवन साथी कौन बनेगा। हालाँकि विवाह के विषय पर प्रत्येक के पास उनके स्वयं के विचार एवं व्यक्तिगत दृष्टिकोण होते हैं, फिर भी वह पहले से नहीं जान सकता हैं कि अंततः कौन सचमुच में उसका जीवन साथी बनेगा, और उसकी स्वयं की धारणाएँ कम महत्व रखती हैं। तुम जिस इंसान को पसंद करते हो उससे मिलने के बाद, उसे पाने का निरन्तर प्रयास कर सकते हो; परन्तु वह तुममें रुचि रखता या रखती है या नहीं, वह पुरुष या स्त्री तुम्हारा या तुम्हारी जीवन साथी बनने के योग्य है या नहीं, यह फैसला करना तुम्हारा काम नहीं है। तुम्हारे स्नेह का विषय ज़रूरी नहीं कि वह व्यक्ति हो जिसके साथ तुम अपना जीवन साझा करने में समर्थ होगे; और इसी बीच कोई जिसकी तुमने कभी अपेक्षा नहीं की वह चुपके से तुम्हारे जीवन में प्रवेश करता है और तुम्हारा जीवन साथी बन जाता है, तुम्हारी नियति में सबसे महत्वपूर्ण अवयव, तुम्हारा जीवन साथी बन जाता है, जिसके साथ तुम्हारी नियति अभिन्न रूप से बँध जाती है। और इसलिए, यद्यपि संसार में लाखों विवाह होते हैं, फिर भी हर एक अलग है: कितने विवाह असंतोषजनक होते हैं, कितने खुशगवार होते हैं; कितने पूर्व एवं पश्चिम, कितने उत्तर एवं दक्षिण के दायरे में फैल जाते हैं; कितने पूर्ण जोड़े होते हैं, कितने समान श्रेणी के होते हैं; कितने प्रसन्न एवं सामंजस्यपूर्ण होते हैं, कितने दुःखदाई एवं कष्टपूर्ण होते हैं; कितने दूसरों से इर्ष्या करते हैं, कितनों को गलत समझा जाता है और उन पर नाक-भौं चढ़ाई जाती है; कितने आनन्द से भरे होते हैं, कितने आँसू बहाते हैं एवं मायूसी पैदा करते हैं। इन बेशुमार विवाहों में, मनुष्य विवाह के प्रति वफादारी एवं आजीवन समर्पण प्रकट करते हैं, या प्रेम, आसक्ति, एवं अवियोज्यता को, या परित्याग एवं न समझ पाने को, या विवाह के प्रति विश्वासघात, और यहाँ तक कि घृणा को भी प्रकट करते हैं। चाहे विवाह स्वयं ही खुशी लेकर आता है या कष्ट, विवाह में हर एक व्यक्ति के मिशन को सृष्टिकर्ता के द्वारा पूर्वनिर्धारित किया गया है और यह नहीं बदलेगा; हर एक को इसे पूरा करना ही होगा। और वह व्यक्तिगत नियति जो प्रत्येक विवाह के पीछे होता है वह अपविर्तनीय है; इसे बहुत पहले ही सृष्टिकर्ता के द्वारा निर्धारित किया गया था।
2. विवाह दो भागीदारों की नियति से जन्म लेता है
विवाह किसी व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। यह किसी व्यक्ति की नियति का परिणाम है, उसकी नियति में एक महत्वपूर्ण कड़ी है; यह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा या प्राथमिकताओं पर स्थापित नहीं है, और बाहरी कारकों द्वारा प्रभावित नहीं होता है, परन्तु यह दो लोगों की नियति के द्वारा, दम्पत्ति की नियतियों के बारे में सृष्टिकर्ता के इंतज़ामों एवं पूर्वनिर्धारणों के द्वारा पूरी तरह से निर्धारित है। सतही तौर पर, विवाह का उद्देश्य मानव जाति को जारी रखने के लिए है, परन्तु असलियत में विवाह और कुछ नहीं बल्कि एक रस्म है जिसमें कोई व्यक्ति अपने मिशन को पूरा करने के लिए उस प्रक्रिया से होकर गुज़रता है। वे भूमिकाएँ जिन्हें लोग विवाह में अदा करते हैं वे अगली पीढ़ी का पालन पोषण करना मात्र नहीं हैं; वे ऐसी विभिन्न भूमिकाएँ हैं जिन्हें वे ग्रहण करते हैं और ऐसे मिशन हैं जिन्हें विवाह को बनाए रखने के दौरान उन्हें पूरा करना होगा। चूँकि व्यक्ति का जन्म लोगों, घटनाओं एवं आसपास की चीज़ों के परिवर्तन को प्रभावित करता है, तो उसका विवाह अनिवार्य रूप उन्हें भी प्रभावित करेगा, और इसके अतिरिक्त, विभिन्न अलग अलग तरीकों से उन्हें रूपान्तरित करेगा।
जब कोई स्वतन्त्र हो जाता है, तो वह अपनी स्वयं की जीवन यात्रा प्रारम्भ करता है, जो उसे कदम दर कदम उसके विवाह से सम्बन्धित लोगों, घटनाओं, एवं चीज़ों की और ले जाती है; और उसके साथ-साथ, वह दूसरा व्यक्ति जो उस विवाह को पूरा करेगा वह, कदम दर कदम, उन्हीं लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की ओर आ रहा है। सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन, दो असम्बद्ध लोग जो एक सम्बद्ध नियति को साझा करते हैं धीरे-धीरे विवाह में प्रवेश करते हैं और,चमत्कारी ढ़ंग से, एक परिवार, "एक ही रस्सी से लटकी हुई दो टिड्डियाँ" अतः जब कोई विवाह में प्रवेश करता है, तो उसकी जीवन यात्रा उसके जीवनसाथी को प्रभावित एवं स्पर्श करेगी, और उसी तरह उसके साथी की जीवन यात्रा भी जीवन में उसकी नियति को प्रभावित एवं स्पर्श करेगी। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की नियतियाँ आपस में एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, और कोई भी दूसरों से पूरी तरह स्वतन्त्र होकर जीवन में अपने मिशन को पूरा नहीं कर सकता है या अपनी भूमिका को अदा नहीं कर सकता है। किसी व्यक्ति का जन्म रिश्तों की एक बड़ी श्रृंखला से सम्बन्धित होता है; पलने-बढ़ने में भी सम्बन्धों की एक जटिल श्रृंखला शामिल होती है; और उसी प्रकार, मानवीय सम्बन्धों के एक विशाल एवं जटिल जाल में विवाह अनिवार्य रूप से अस्तित्व में आता है और कायम रहता है, जिसमें प्रत्येक सदस्य शामिल है और हर एक की नियति प्रभावित होती है जो इसका एक भाग है। विवाह दोनों सदस्यों के परिवारों का, जिन परिस्थितियों में वे पले-बढ़े थे उनका, उनके रंग-रूप, उनकी आयु, उनकी योग्यताओं, उनकी प्रतिभाओं, या अन्य कारकों का परिणाम नहीं है; बल्कि, यह उनके साझा मिशन एवं उनकी सम्बद्ध नियति से उत्पन्न होता है। यह विवाह का मूल है, और मनुष्य की नियति का एक उत्पाद है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा आयोजित एवं व्यवस्थित किया जाता है।
सन्तान: पाँचवां घटनाक्रम
विवाह करने के पश्चात्, कोई व्यक्ति अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करने में लग जाता है। कोई यह नहीं कह सकता कि उसके पास कितने एवं किस प्रकार के संतान होंगे; यह किसी की नियति द्वारा निर्धारित होता है, सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित होता है। यह पाँचवां घटनाक्रम है जिससे होकर किसी व्यक्ति को गुज़रना होगा।
यदि किसी व्यक्ति ने किसी और बच्चे की भूमिका को पूरा करने के लिए जन्म लिया है, तो वह किसी और के माता पिता की भूमिका पूरा करने के लिए अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करता है। भूमिकाओं का यह स्थानान्तरण किसी व्यक्ति को अलग अलग दृष्टिकोण से जीवन के अलग अलग पहलुओं का अनुभव कराता है। साथ ही यह किसी व्यक्ति को जीवन के अनुभवों के विभिन्न संग्रह प्रदान करता है, जिसमें वह सृष्टिकर्ता की उसी संप्रभुता को जान पाता है, साथ ही साथ उस तथ्य को जान पाता है कि कोई भी व्यक्ति सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण का अतिक्रमण या उसे पलट नहीं सकता है।
1. किसी व्यक्ति के पास इस पर कोई नियन्त्रण नहीं होता है कि उसकी संतान का क्या होगा
जन्म, पलना-बढ़ना एवं विवाह सभी विभिन्न प्रकार की और विभिन्न स्तर की निराशा प्रदान करते हैं। कुछ लोग अपने परिवारों या अपने शारीरिक रंग-रूप से असंतुष्ट होते हैं; कुछ अपने माता पिता को नापसंद करते हैं; कुछ लोग उस वातावरण से नाराज़ हैं या उससे बहुत क्रोधित हैं जिसमें वे पले-बढ़े हैं। और अधिकांश लोगों के लिए, इन सभी निराशाओं के बीच विवाह सबसे अधिक असंतोषजनक है। इसके बावजूद कि कोई व्यक्ति अपने जन्म, अपने पलने-बढ़ने, या अपने विवाह से कितना असंतुष्ट है, हर एक व्यक्ति जो इन से होकर गुज़र चुका है वह जानता है कि वह चुन नहीं सकता है कि उसे कहां एवं कब जन्म लेना है, उसे कैसा दिखना है, उसके माता पिता कौन हैं, और उसकी पत्नी कौन है, परन्तु उसे स्वेच्छा से स्वर्ग की इच्छा को स्वीकार करना होगा। परन्तु जब लोगों का समय आता है कि वे अगली पीढ़ी का पालन पोषण करें, तो वे अपने जीवन के प्रथम भाग में अपने वंशों पर अपनी सारी अपूर्ण इच्छाओं को डाल देते हैं, यह आशा करते हुए कि उनकी संतान उनकी सभी निराशाओं की क्षतिपूर्ति करेगी जिन्हें उन्होंने अपने जीवन के प्रथम भाग में अनुभव किया था। अतः लोग अपने बच्चों के विषय में सब प्रकार की कल्पनाओं में लगे रहते हैं; यह कि उनकी बेटियां बड़ी होकर बहुत ही खूबसूरत सुन्दरियां बन जाएंगी, उनके बेटे बहुत ही आकर्षक सुन्दर जवान हो जाएंगे; यह कि उनकी बेटियां सुसंस्कृत एवं प्रतिभाशाली होंगी और उनके बेटे प्रतिभावान छात्र एवं स्टार एथलीट होंगे; यह कि उनकी बेटियां नम्र, गुणी, एवं संवेदनशील होंगी, और उनके बेटे बुद्धिमान, सक्षम और संवेदनशील होंगे। वे आशा करते हैं कि चाहे बेटे हों या बेटियां, वे बुज़ुर्गों का आदर करेंगे, अपने माता पिता का ध्यान रखेंगे, और हर कोई उनसे प्रेम करेगा एवं उनकी प्रशंसा की जाएगी। इस मुकाम पर जीवन की आशा नए सिरे से अंकुरित होती है, और लोगों के हृदयों में नई नई उमंगें उत्पन्न होने लगती हैं। लोग जानते हैं कि वे इस जीवन में निर्बल एवं आशाहीन हैं, यह कि उनके पास औरों से विशिष्ट होने का दूसरा मौका, एवं दूसरी आशा नहीं होगी, और यह कि उनके पास अपनी नियति को स्वीकार करने के सिवाए और कोई विकल्प नहीं है। और इस प्रकार वे अगली पीढ़ी पर अपनी सारी आशाओं, अपनी अपूर्ण इच्छाओं, एवं आदर्शों को डाल देते हैं, यह आशा करते हुए कि उनकी संतान उनके सपनों को हासिल करने में एवं उनकी इच्छाओं को साकार करने में उनकी सहायता करेंगे; यह कि उनकी पुत्रियां एवं पुत्र परिवार के नाम को महिमावान्वित करेंगे, और अति महत्वपूर्ण, धनी या प्रसिद्ध हो जाएंगे; संक्षेप में, वे अपने बच्चों के सौभाग्य को ऊंचा उठता हुआ देखना चाहते हैं। लोगों की योजनाएं एवं कल्पनाएं पूर्ण हैं; परन्तु क्या वे नहीं जानते हैं कि बहुत सारे बच्चे जो उनके पास हैं, उनके बच्चों का रंग-रूप, योग्यताएं, और ऐसी ही कितनी बातें, उनके लिए नहीं हैं कि वे निर्णय करें, किन्तु यह कि उनके बच्चों की नियति उनकी हथेलियों में नहीं है? मनुष्य अपनी स्वयं की नियति का स्वामी नहीं है, फिर भी वे युवा पीढ़ी की नियति को बदलने की आशा करते हैं; वे अपनी स्वयं की नियति से बचने में निर्बल हैं, फिर भी वे अपने बेटे एवं बेटियों की नियति को नियन्त्रित करने की कोशिश करते हैं। क्या वे अपने आपका बहुत अधिक मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं? क्या यह मनुष्य की मूर्खता एवं अज्ञानता नहीं है? लोग अपनी संतान के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, परन्तु अंत में, किसी व्यक्ति के पास जितने बच्चे हों, और उसके बच्चे किस प्रकार के हैं, यह उनकी योजनाओं एवं इच्छाओं के अनुरूप नहीं होता है। कुछ लोग दरिद्र होते हैं परन्तु कई बच्चों को पैदा करते हैं; कुछ लोग धनी होते हैं फिर भी उनके पास बच्चे नहीं होते हैं। कुछ लोग एक बेटी चाहते हैं परन्तु उनकी इस इच्छा का इन्कार कर दिया जाता है; कुछ लोग एक बेटा चाहते हैं परन्तु एक लड़के को जन्म देने में असफल हो जाते हैं। कुछ लोगों के लिए, बच्चे एक आशीष हैं; परन्तु अन्य लोगों के लिए, वे एक श्राप हैं। कुछ दम्पत्ति बुद्धिमान होते हैं, फिर भी मंदबुद्धि बच्चों को जन्म देते हैं; कुछ माता पिता मेहनती एवं ईमानदार होते हैं, फिर भी जिन बच्चों का वे पालन-पोषण करते हैं वे आलसी होते हैं। कुछ माता पिता उदार एवं सच्चे होते हैं परन्तु उनके पास ऐसे बच्चे होते हैं जो चालाक एवं ख़तरनाक बन जाते हैं। कुछ माता पिता दिमाग एवं शरीर से स्वस्थ्य होते हैं किन्तु अपाहिज बच्चों को जन्म देते हैं। कुछ माता पिता सामान्य एवं असफल होते हैं फिर भी उनके पास ऐसे बच्चे होते हैं जो महान चीज़ों को हासिल करते हैं। कुछ माता पिता की हैसियत छोटी होती है फिर भी उनके पास ऐसे बच्चे होते हैं जो प्रतिष्ठा में बढ़ जाते हैं।
2. अगली पीढ़ी का पालन पोषण करने के बाद, लोग नियति के विषय में एक नई समझ हासिल करते हैं
अधिकांश लोग जो विवाह करते हैं वे लगभग तीस वर्ष की आयु में ऐसा करते है, और जीवन के इस मुकाम पर किसी को मानव की नियति के विषय में कोई समझ नहीं होती है। परन्तु जब लोग अपने बच्चों का पालन पोषण करना प्रारम्भ करते हैं, जैसे जैसे उनकी संतानें बढ़ती हैं, वे नई पीढ़ी को पिछली पीढ़ी के जीवन और उन सभी अनुभवों को दोहराते हुए देखते हैं, और वे अपने स्वयं के अतीत को उनमें प्रतिबिम्बित होते हुए देखते हैं और एहसास करते हैं कि, उनके मार्ग के समान ही, उस मार्ग की योजना नहीं बनाई जा सकती है और उसे चुना नहीं जा सकता है जिस पर युवा पीढ़ी के द्वारा चला गया है। इस सत्य का सामना करते हुए, उनके पास यह मानने के सिवाए और कोई विकल्प नहीं होता है कि हर एक व्यक्ति की नियति पूर्वनिर्धारित होती है; और पूरी तरह से इसका एहसास किए बिना ही वे आहिस्ता आहिस्ता अपनी स्वयं की इच्छाओं को दरकिनार कर देते हैं, और उनके हृदय का जोश-खरोश बेतरतीब ढंग से जल जाता है और लुप्त होजाता है। समय की इस अवधि के दौरान, उस व्यक्ति ने अधिकांशतः जीवन में मील के महत्वपूर्ण पत्थरों को पार कर लिया है और जीवन की एक नई समझ हासिल कर चुका है, और एक नई मनोवृत्ति को अपना चुका है। इस उम्र का इंसान भविष्य से कितनी अपेक्षा कर सकता है और उनके भविष्य की सम्भावनाएं क्या हैं? ऐसी कौन सी पचास साल की बूढ़ी स्त्री है जो अभी भी एक सुन्दर राजकुमार का सपना देख रही है? ऐसा कौन सा पचास साल का बूढ़ा पुरुष है जो अभी भी अपनी बर्फ के समान सफेद स्त्री की खोज कर रहा है? ऐसी कौन सी मध्यम-आयु वर्ग की स्त्री है जो अभी भी एक भद्दी बतख़ से एक हंस में बदलने की आशा कर रही है? क्या अधिकांश बूढ़े पुरुषों में जवान पुरुषों समान जीवनवृत्ति कर्मशक्ति होती है? संक्षेप में कहें तो, इसके बावजूद कि कोई पुरुष है या स्त्री, कोई भी जो इस आयु में जीवन बिताता है उसके पास सम्भवतः विवाह, परिवार, एवं बच्चों के प्रति अपेक्षाकृत कहीं अधिक तर्कसंगत, एवं व्यावहारिक मनोवृत्ति होती है। ऐसे व्यक्ति के पास अनिवार्य रूप से कोई विकल्प नहीं बचता है, और उसके पास नियति को चुनौती देने के लिए कोई प्रबल इच्छा नहीं होती है। जहाँ तक मनुष्य के अनुभव की बात है, जैसे ही कोई व्यक्ति इस आयु में पहुँच जाता है वह स्वाभाविक रूप से एक मानसिकता विकसित कर लेता है कि, "नियति को स्वीकार करना ही होगा; उसके बच्चों का अपना स्वयं का सौभाग्य होता है; मनुष्य की नियति को स्वर्ग से निर्धारित किया जाता है।"अधिकांश लोग जो सत्य को नहीं समझते हैं, इस संसार के सभी उतार-चढ़ावों, तनावों, एवं कठिनाईयों को झेलकर सही सलामत निकलने के बाद, तीन शब्दों में मानव जीवन में अपनी अंतर्दृष्टि का सारांश निकालते हैं: "यह नियति है!" हालाँकि यह वाक्यांश मानव की नियति के विषय में सांसारिक लोगों के निष्कर्ष एवं एहसास को संक्षेप में बताता है, हालाँकि यह मानवता की असहायता को अभिव्यक्ति करता है और ऐसा कहा जा सकता है कि यह आर पार भेदता है और सटीक है, फिर भी यह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की समझ से बिलकुल ही अलग अनुभव है, और सृष्टिकर्ता के अधिकार के ज्ञान के लिए मात्र कोई स्थानापन्न (के बदले में) नहीं है।
3. नियति पर विश्वास करना सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के ज्ञान के लिए कोई स्थानापन्न (के बदले में) नहीं है
इतने वर्षों तक परमेश्वर के अनुयायी बने रहने के पश्चात्, क्या नियति के विषय में तुम लोगों के ज्ञान एवं संसारिक लोगों के ज्ञान के मध्य कोई ठोस अन्तर है? क्या तुम सब सचमुच में सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण को समझ गए हो, और सचमुच में सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जान गए हैं? कुछ लोगों के पास इस वाक्यांश "यह नियति है" की गहन, एवं गहराई से महसूस की जाने वाली समझ होती है, फिर भी वे परमेश्वर की संप्रभुता पर जरा सा भी विश्वास नहीं करते हैं, यह विश्वास नहीं करते हैं कि मनुष्य की नियति को परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित एवं आयोजित किया जाता है, और वे परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होने के लिए तैयार नहीं हैं। इस प्रकार के लोग मानो ऐसे हैं जो महासागर में इधर-उधर बहते रहते हैं, लहरों के द्वारा उछाले जाते हैं, जलधारा के साथ साथ तैरते रहते हैं, निष्क्रियता से इंतज़ार करने और अपने आपको नियति पर छोड़ देने के आलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं होता है। फिर भी वे नहीं पहचानते हैं कि मानव की नियति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है; वे अपने स्वयं के प्रारम्भिक प्रयासों से परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं जान सकते हैं, उसके द्वारा परमेश्वर के अधिकार की पहचान को हासिल नहीं कर सकते हैं, परमेश्वर के आयोजनों एवं इंतज़ामों के अधीन नहीं हो सकते हैं, नियति का प्रतिरोध करना बन्द नहीं कर सकते हैं, और परमेश्वर की देखभाल, सुरक्षा एवं मार्गदर्शन के अधीन नहीं जी सकते हैं। दूसरे शब्दों में, नियति को स्वीकार करना सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन होने के समान नहीं है; नियति में विश्वास करने का अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करता, पहचानता एवं जानता है; नियति में विश्वास करना मात्र इस तथ्य एवं इस बाहरी घटना की पहचान है, जो इस बात को जानने से अलग है कि किस प्रकार सृष्टिकर्ता मानवता की नियति पर शासन करता है, और इस बात को पहचानने से अलग है कि सभी चीज़ों की नियति से बढ़कर सृष्टिकर्ता ही प्रभुत्व का स्रोत है, और उससे बढ़कर मानवता की नियति के लिए सृष्टिकर्ता के आयोजनों एवं इंतज़ामों के प्रति समर्पण से अलग है। यदि कोई व्यक्ति केवल नियति पर ही विश्वास करता है–यहाँ तक कि इसके विषय में गहराई से एहसास करता है - परन्तु इसके द्वारा मानवता की नियति के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने, पहचानने, उसके अधीन होने,एवं उसे स्वीकार करने में समर्थ नहीं है, तो उस पुरुष या स्त्री का जीवन इसके बावजूद भी एक त्रासदी, व्यर्थ में बिताया गया जीवन, एवं खाली होगा; वह तब भी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन होने, उस वाक्यांश के सच्चे अर्थ के रूप में एक सृजा गया मानव प्राणी बनने, और सृष्टिकर्ता की मंज़ूरी का आनन्द उठाने में असमर्थ होगा या होगी। कोई व्यक्ति जो सचमुच में सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानता एवं अनुभव करता है उसे सक्रिय अवस्था में होना चाहिए, न कि निष्क्रिय या असहाय अवस्था में। जबकि उसी समय यह स्वीकार करना कि सभी चीज़ें नियति के द्वारा तय हैं, तो वह जीवन एवं नियति के विषय में एक सटीक परिभाषा को धारण करता है या करती है: यह कि प्रत्येक जीवन सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन है। जब कोई व्यक्ति पीछे मुड़कर उस मार्ग को देखता है जिस पर वह चला था, जब कोई व्यक्ति अपनी यात्रा के हर एक पहलू को पुनः स्मरण करता है, तो वह देखता है कि हर एक कदम पर, चाहे उसका मार्ग कठिन था या सरल, परमेश्वर उसके पथ का मार्गदर्शन कर रहा था, और उसकी योजना बना रहा था। ये परमेश्वर के बहुत सावधानी से किए गए इंतज़ाम थे, और उसकी सतर्क योजना थी, जिन्होंने आज तक, अनजाने में, किसी व्यक्ति की अगुवाई की है। सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने, एवं उसके उद्धार को प्राप्त करने के योग्य होना–यह कितना महान सौभाग्य है! यदि नियति के प्रति किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति निष्क्रिय है, तो यह साबित करता है कि वह हर एक चीज़ का विरोध कर रहा है या कर रही है जिसे परमेश्वर ने उस पुरुष या स्त्री के लिए बनाया है, और यह कि उस पुरुष या स्त्री के पास समर्पण की मनोवृत्ति नहीं है। यदि परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति सक्रिय है, तो जब वह अपनी यात्रा को पीछे मुड़कर देखता है, जब वह सचमुच में परमेश्वर की संप्रभुता को समझना शुरू कर देता है, तो वह और भी अधिक निष्ठा से हर एक चीज़ के अधीन होना चाहेगा जिसका परमेश्वर ने इंतज़ाम किया है, उसके पास उसकी नियति को प्रदर्शित करने हेतु परमेश्वर को अनुमति देने के लिए, और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह रोकने के लिए और अधिक दृढ़ निश्चय एवं दृढ़ विश्वास होगा। क्योंकि वह देखता है कि जब वह नियति को नहीं बूझ पाता है, जब वह परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझता है, जब वह जानबूझकर अंधेरे में टटोलते हुए आगे बढ़ता है, कोहरे के बीच लड़खड़ाता एवं डगमगाता है, तो यात्रा बहुत ही कठिन है, और बहुत ही दुखदाई। अतः जब लोग मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता को पहचान जाते हैं, तो बुद्धिमान मनुष्य इसे जानने एवं स्वीकार करने, और दर्द से भरे हुए उन दिनों को अलविदा कहने का चुनाव करते हैं जब उन्होंने अपने दोनों हाथों से एक अच्छे जीवन का निर्माण करने के लिए प्रयास किया था, बजाए इसके कि अपने स्वयं के तरीकों से नियति के विरुद्ध लगातार संघर्ष करें और अपने तथाकथित जीवन के लक्ष्यों का अनुसरण करें। जब किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर नहीं है, जब वह उसे देख नहीं सकता है, जब वह स्पष्ट रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को देख नहीं सकता है, तो हर एक दिन निरर्थक, बेकार, एवं दयनीय है। कोई व्यक्ति जहाँ कहीं भी हो, उसका कार्य जो कुछ भी हो, उसके जीवन जीने का अर्थ एवं उसके लक्ष्यों का अनुसरण उसके लिए अंतहीन मर्मभेदी दुख एवं असहनीय कष्ट के सिवाय और कुछ लेकर नहीं आता है, कुछ इस तरह कि पीछे मुड़कर देखना वह बर्दाश्त नहीं कर सकता है।जब वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करता है, उसके आयोजनों एवं इंतज़ामों के अधीन होता है, और सच्चे मानव जीवन की खोज करता है, केवल तभी वह धीरे-धीरे सभी अंतहीन मर्मभेदी दुखों एवं कष्टों से छूटकर आज़ाद होगा, और जीवन के सम्पूर्ण खालीपन से छुटकारा पाएगा।
4. केवल वे ही सच्ची स्वतन्त्रता हासिल कर सकते हैं जो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन हो जाते हैं
क्योंकि लोग सृष्टिकर्ता के आयोजनों एवं इंतज़ामों को नहीं पहचानते हैं, वे हमेशा ढिठाई से एवं विद्रोही मनोवृत्ति के साथ नियति का सामना करते हैं, और हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता एवं अधिकार एवं उन चीज़ों को दूर करना चाहते हैं जिन्हें नियति ने संचय करके रखा है, तथा अपनी वर्तमान परिस्थितियों को बदलने और अपनी नियति को पलटने के लिए व्यर्थ में आशा करते हैं। परन्तु वे कभी भी सफल नहीं हो सकते हैं; हर एक मोड़ पर उनका प्रतिरोध किया जाता है। यह संघर्ष, जो किसी व्यक्ति की आत्मा की गहराई में होता है, कष्टप्रद है; इस दर्द को भुलाया नहीं जा सकता है; और पूरे समय वह अपने जीवन को गंवाते रहता है। इस दर्द का कारण क्या है? क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण है, या इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति ने बदनसीबी में जन्म लिया था? स्पष्ट रूप से कोई भी सही नहीं है। सबसे मुख्य बात, यह उन मार्गों के कारण है जिन पर लोग चलते हैं, ऐसे मार्ग जिन्हें लोग अपनी ज़िन्दगियों को जीने के लिए चुनते हैं। शायद कुछ लोगों ने इन चीज़ों का एहसास नहीं किया है। परन्तु जब तू सचमुच में जानता है, जब तू सचमुच में एहसास करता है कि परमेश्वर के पास मनुष्य की नियति के ऊपर संप्रभुता है, जब तू सचमुच समझता है कि हर चीज़ जिसकी परमेश्वर ने तेरे लिए योजना बनाई और निश्चित की है तो उसका बड़ा लाभ है, और वह एक बहुत बड़ी सुरक्षा है, तो तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा दर्द आहिस्ता आहिस्ता कम हुआ है, और तुम्हारा सम्पूर्ण अस्तित्व शांत, स्वतंत्र, एवं बन्धन मुक्त हो गया है। अधिकांश लोगों की स्थितियों से आंकलन करते हुए, यद्यपि आत्मनिष्ठ स्तर पर वे निरन्तर वैसा जीवन जीना नहीं चाहते हैं जैसा वे पहले जीते थे, यद्यपि वे अपने दर्द से राहत चाहते हैं, फिर भी वस्तुनिष्ठ रूप से वे मानव की नियति के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के व्यावहारिक मूल्य एवं अर्थ को नहीं समझ सकते हैं; वे सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को वास्तव में समझ नहीं पाते और उसके अधीन नहीं हो पाते हैं। और वे यह तो बिलकुल भी नहीं जानते हैं कि सृष्टिकर्ता के आयोजनों एवं इंतज़ामों को किस प्रकार खोजें एवं स्वीकार करें। अतः यदि लोग सचमुच में इस तथ्य को पहचान नहीं सकते हैं कि सृष्टिकर्ता के पास मानव की नियति एवं मानव की सभी स्थितियों के ऊपर संप्रभुता है, यदि वे सचमुच में सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन नहीं हो सकते हैं, तो उनके लिए यह कठिन होगा कि वे इस विचार के द्वारा छलनी न किए जाएँ, और उसके द्वारा जंज़ीरों से जकड़े न जाएँ, कि "किसी की नियति उसके अपने हाथों में होती है," यह उनके लिए कठिन होगा कि वे नियति एवं सृष्टिकर्ता के अधिकार के विरुद्ध अपने भयानक संघर्ष के दर्द से छुटकारा पाएं, और कहने की आवश्यकता नहीं कि सच में बन्धनमुक्त एवं स्वतन्त्र होना भी उनके लिए कठिन होगा, और ऐसे लोग हो जाएँ जो परमेश्वर की आराधना करते हैं। अपने आपको इस स्थिति से स्वतन्त्र करने के लिए एक सबसे आसान रास्ता हैः जीवन जीने के पुराने तरीके को विदा कर दें, जीवन में अपने पुराने लक्ष्यों को अलविदा कह दें, अपनी पुरानी जीवनशैली, दर्शनज्ञान, व्यवसायों, इच्छाओं एवं आदर्शों का सारांश निकालें एवं उनका विश्लेषण करें, और उसके बाद मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा एवं मांग से उनकी तुलना करें, और देखें कि उनमें से कोई परमेश्वर की इच्छा एवं मांग के अनुकूल है या नहीं, उनमें से कोई जीवन के सही मूल्यों को प्रदान करता है या नहीं, सत्य की महान समझ की ओर उसकी अगुवाई करता है या नहीं, और उसे मानवता एवं मानव के रूप में जीवन जीने के लिए अनुमति देता है या नहीं। जब तुम जीवन के विभिन्न लक्ष्यों का जिनका लोग अनुसरण करते हो और जीवन जीने के उनके विभिन्न अलग अलग तरीकों की बारबार जांच-पड़ताल करते हो और सावधानीपूर्वक उनकी कांट-छांट करते हो, तो तुम यह पाओगे कि इनमें से कोई भी सृष्टिकर्ता की मूल इच्छानुसार नहीं जब उसने मानवता की सृष्टि की थी। उनमें से सभी लोगों को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता एवं उसके देखभाल से दूर कर देते हैं; ये सभी ऐसे गड्ढे हैं जिनमें मानवता गिर जाती है, और जो उन्हें नरक की ओर लेकर जाती है। जब तुम इसे पहचान जाते हो उसके पश्चात्, तुम्हारा कार्य है कि जीवन के अपने पुराने दृष्टिकोण को दूर करो, विभिन्न प्रकार के फंदों से दूर रहो, परमेश्वर को अनुमति दें कि वह तुम्हारे जीवन की ज़िम्मेदारी ले और तुम्हारे लिए इंतज़ाम करे, कोशिश करो कि केवल परमेश्वर के आयोजनों एवं मार्गदर्शन के ही अधीन रहो, कोई और विकल्प न रखो, और एक ऐसे इंसान बन जाओ जो परमेश्वर की आराधना करता हो। यह सुनने में आसान लगता है, परन्तु इसे करना बहुत कठिन है। कुछ लोग इसके दर्द को सह सकते हैं, परन्तु दूसरे नहीं सह सकते हैं। कुछ लोग मानने के लिए तैयार हैं, परन्तु कुछ लोग अनिच्छुक हैं। ऐसे लोग जो अनिच्छुक हैं उनमें ऐसा करने की इच्छा एवं दृढ़ संकल्प की कमी होती है; वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर की संप्रभुता के विषय में जानकारी रखते हैं, बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि यह परमेश्वर ही है जो मानव की नियति की योजना बनाता है और उसका इंतज़ाम करता है, और फिर भी वे पैर मारते हैं और संघर्ष करते हैं, और वे अभी भी परमेश्वर की हथेली में अपनी नियति को रखने और परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होने के लिए सहमत नहीं हैं, और इसके अतिरिक्त, वे परमेश्वर के आयोजनों एवं इंतज़ामों से नाराज़ होते हैं। अतः हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो अपने आपको देखना चाहते हैं कि वे क्या कुछ करने में समर्थ हैं; वे अपने दोनों हाथों से अपनी नियति को बदलना चाहते हैं, या अपनी ही सामर्थ्य के अधीन खुशियाँ हासिल करना चाहते हैं, यह देखने के लिए कि वे परमेश्वर के अधिकार की सीमाओं से आगे बढ़ सकते हैं या नहीं और परमेश्वर की संप्रभुता से ऊपर उठ सकते हैं कि नहीं। मनुष्य की उदासी इसलिए नहीं है कि मनुष्य सुखी जीवन की खोज करता है, इसलिए नहीं हैकि वह प्रसिद्धि एवं सौभाग्य का निरन्तर पीछा करता है या धुंध के बीच अपनी स्वयं की नियति के विरुद्ध संघर्ष करता है, परन्तु इसलिए है कि सृष्टिकर्ता के अस्तित्व को देखने के पश्चात्, उस तथ्य को सीखने के पश्चात् कि सृष्टिकर्ता के पास मानव की नियति के ऊपर संप्रभुता है, वह अभी भी अपने मार्ग को सुधार नहीं सकता है, अपने पैरों को दलदल से बहार नहीं निकाल सकता है, परन्तु अपने हृदय को कठोर कर देता है और अपनी ग़लतियों में निरन्तर बना रहता है। वह कीचड़ में लगातार हाथ पैर मारना, और बिना किसी लेशमात्र पछतावे के, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के विरोध में ढिठाई से निरन्तर प्रतिस्पर्धा करना, एवं कड़वे अंत तक लगातार इसका विरोध करना अधिक पसन्द करता है, और जब वह टूट कर बिखर जाता है और रक्त बहने लगता है केवल तभी वह आखिरकार छोड़ने एवं पीछे हटने का निर्णय लेता है। यह असली मानवीय दुख है। अतः मैं कहता हूँ, ऐसे लोग जो अधीन होने का चुनाव करते हैं वे बुद्धिमान हैं, और ऐसे लोग जो बच निकलने का चुनाव करते हैं वे महामूर्ख हैं।
मृत्यु: छठवां घटनाक्रम
इतनी अफरा-तफरी के पश्चात्, इतनी कुंठाओं एवं निराशाओं के पश्चात्, इतने सारे सुखों एवं दुखों और उतार एवं चढ़ावों के पश्चात्, इतने सारे अविस्मरणीय वर्षों के पश्चात्, बार बार ऋतुओं को परिवर्तित होते हुए देखने के पश्चात्, कोई व्यक्ति बिना ध्यान दिए ही जीवन के महत्वपूर्ण मील के पत्थरों को पार कर जाता है, और बिजली के चमकते ही वह स्वयं को अपने जीवन के ढलते हुए वर्षों में पाता है। समय के चिन्हों से उसके सारे शरीर पर मुहर लगाई गई है: वह अब आगे से सीधा खड़ा नहीं हो सकता है, घने काले बालों वाला सिर अब सफेद, एवं चमकदार हो गया है, चमकीली आंखें धुंधली हो गई हैं एवं अँधेरा छा गया है, चिकनी एवं कोमल त्वचा झुर्रीदार एवं दागदार हो गई है। उसकी सुनने की शक्ति कमज़ोर हो गई है, उसके दांत ढीले हो गए हैं एवं गिर गए हैं, उसकी प्रतिक्रियाएं धीमी हो गई हैं, उसकी गतिविधियां सुस्त हो गई हैं। इस मुकाम पर, उसने अपनी जवानी के जोशीले दिनों को पूरी तरह से अलविदा कह दिया है और अपने जीवन की सांझ की हलकी रौशनी में प्रवेश किया है: बुढ़ापा। इसके आगे, वह मृत्यु का सामना करेगा, किसी मानव के जीवन का अंतिम घटनाक्रम।
1. केवल सृष्टिकर्ता के पास ही मनुष्य के जीवन एवं मृत्यु के ऊपर सामर्थ्य है।
यदि किसी व्यक्ति का जन्म उसके पहले के जीवन पर आधारित होता, तो उसकी मृत्यु उसकी नियति के अंत को चिन्हित करती। यदि किसी का जन्म इस जीवन में उसके मिशन का प्रारम्भ होता, तो उसकी मृत्यु उसके मिशन के अन्त को चिन्हित करती। जबकि सृष्टिकर्ता ने किसी व्यक्ति के जन्म के लिए परिस्थितियों की एक निश्चित श्रृंखला को निर्धारित किया है, तो स्पष्ट है कि उसने उसकी मृत्यु के लिए भी परिस्थितियों की एक निश्चित श्रृंखला का इंतज़ाम किया है। दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति संयोगवश पैदा नहीं हुआ है, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अप्रत्याशित नहीं है, और जन्म एवं मृत्यु दोनों ही उसके पिछले एवं वर्तमान जीवन से आवश्यक रूप से जुड़े हुए हैं। किसी व्यक्ति के जन्म एवं मृत्यु की परिस्थितियों को सृष्टिकर्ता के द्वारा पूर्वनिर्धारित किया गया है; यह किसी व्यक्ति की मंज़िल है, और किसी व्यक्ति की नियति है। जैसा कि किसी व्यक्ति के जन्म के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, हर एक व्यक्ति की मृत्यु विशेष परिस्थितियों की एक भिन्न श्रृंखला में होगी, इसलिए लोगों के अलग अलग जीवनकाल और उनकी मृत्यु की अलग अलग रीतियांएवं समय होते हैं। कुछ लोग मज़बूत एवं स्वस्थ्य होते हैं और फिर भी जल्दी मर जाते हैं; कुछ लोग कमज़ोर एवं बीमार होते हैं फिर भी अपने बुढ़ापे तक जीवित रहते हैं, और शान्तिपूर्वक मर जाते हैं। कुछ अप्राकृतिक कारणों से नाश हो जाते हैं, और अन्य प्राकृतिक कारणों से।कुछ घर से दूर अपने जीवन को समाप्त करते हैं, अन्य अपने प्रियों के साथ उनके सानिध्य में अपनी आँखें हमेशा के लिए बन्द कर लेते हैं। कुछ अधर में मर जाते हैं, अन्य धरती के नीचे।कुछ पानी के नीचे डूब जाते हैं, अन्य आपदाओं में खो जाते हैं। कुछ सुबह मरते हैं, कुछ रात्रि में.... हर कोई एक शानदार जन्म, एक शानदार ज़िन्दगी, और एक गौरवशाली मृत्यु की कामना करता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपनी स्वयं की नियति को पार नहीं कर सकता है, कोई भी सृष्टिकर्ता की संप्रभुता से बचकर निकलनहीं सकता है। यह मनुष्य की नियति है। मनुष्य अपने भविष्य के लिए सभी प्रकार की योजनाएं बना सकता है, परन्तु कोई भी अपने जन्म की रीति एवं समय और संसार से अपने प्रस्थान की योजना नहीं बना सकता है। यद्यपि लोग मृत्यु को टालने एवं उसका प्रतिरोध करने के लिए भरसक कोशिश करते है, फिर भी उन्हें बिना बताए मृत्यु ख़ामोशी से अभी भी उनके पास चली आती है। कोई नहीं जानता है कि वे कब मर जाएंगे या वे कैसे मर जाएंगे, और यह तो बिलकुल भी नहीं जानते हैं कि यह कहाँ होगा। स्पष्ट रूप से, यह मानवता नहीं है जो जीवन एवं मरण के ऊपर सामर्थ्य रखती है, और न ही इस प्राकृतिक संसार में कोई प्राणी, परन्तु केवल सृष्टिकर्ता ही सामर्थ्य रखता है, जिसका अधिकार अद्वितीय है। मानवजाति का जीवन एवं मृत्यु प्राकृतिक संसार के कुछ नियमों का नतीजा नहीं है, परन्तु सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता का एक परिणाम है।
2. मृत्यु के भय के द्वारा ऐसे व्यक्ति का निरन्तर पीछा किया जाएगा जो सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को नहीं जानता है
जब कोई व्यक्ति वृद्धावस्था में प्रवेश करता है, तो ऐसी चुनौती जिसका वह सामना करता है वह परिवार के लिए आपूर्ति करना नहीं है या जीवन में अपनी भव्य महत्वाकांक्षाओं को निर्धारित करना नहीं है, परन्तु वह चुनौती जिसका वह सामना करता है वह यह है कि किस प्रकार अपने जीवन को अलविदा कहें, किस प्रकार अपने जीवन के अंत तक पहुंचें, और किस प्रकार उस समयावधि को अपने अस्तित्व के अंत में रखें। हालाँकि सतह पर ऐसा दिखाई देता है कि लोग मृत्यु पर थोड़ा सा ही ध्यान देते हैं, फिर भी कोई इस विषय पर खोजबीन करने से परहेज नहीं कर सकता है, क्योंकि कोई भी नहीं जानता है कि मृत्यु के पार कोई और संसार है या नहीं, एक ऐसा संसार जिसे मनुष्य आभास या एहसास नहीं कर सकता है, एक ऐसा संसार जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता है। इससे सामने खड़ी मृत्यु का सामना करने के लिए लोग डर जाते हैं, वे इसका सामना करने से डरते हैं जैसा उनको करना चाहिए, और इसके बजाए वे इस विषय को टालने के लिए भरसक कोशिश करते हैं। और इस प्रकार यह प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु के भय से भर देता है, और जीवन के इस अपरिहार्य सत्य पर रहस्य का परदा जोड़ देता है, और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पर लगातार बने रहनेवाली छाया डाल देता है।
जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसका शरीर बद से बदतर हो रहा है, जब वह आभास करता है कि वह मृत्यु के और करीब आ रहा है, तो उसे एक अजीब सा डर, एवं अवर्णनीय भय का एहसास होने लगता है। मृत्यु के भय से वह और भी अधिक अकेला एवं असहाय महसूस करने लगता है, और इस मुकाम पर वह स्वयं से पूछता हैः मनुष्य कहाँ से आया है? मनुष्य कहाँ जा रहा है? क्या मनुष्य इसी तरह से मरनेवाला है, इस जीवन के साथ जो यों ही बेपरवाही से गुज़़र जाता है? क्या यही वह समय है जो मनुष्य के जीवन के अंत को चिन्हित करता है? अंत में, जीवन का क्या अर्थ है? बहरहाल, जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह प्रसिद्धि एवं सौभाग्य के विषय में है? क्या यह परिवार को बढ़ाने के विषय में है? ... इसके बावजूद कि किसी ने इन विशेष प्रश्नों के बारे में सोचा है या नहीं, इसके बावजूद कि वह कितनी गहराई से मृत्यु से डरता है या नहीं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की गहराई में हमेशा से इन रहस्यों की जांच-पड़ताल करने की इच्छा, एवं जीवन के विषय में नासमझी की भावना होती है, और इनके साथ मिली हुई होती है,संसार के विषय में भावुकता,एवं छोड़कर जाने की अनिच्छा । कदाचित् कोई भी स्पष्ट तौर पर नहीं कह सकता है कि वह क्या है जिससे मनुष्य भयभीत होता है, वह क्या है जिसकी मनुष्य जाँच-पड़ताल करना चाहता है, वह क्या है जिसके विषय में वह भावुक है और वह किसे पीछे छोड़ने के लिए अनिच्छुक है।
क्योंकि वे मृत्यु से डरते हैं, इसलिए लोग बहुत ज्यादा चिंता करते है; क्योंकि वे मृत्यु से डरते हैं, इसलिए ऐसा बहुत कुछ है जिसे वे जाने नहीं देना चाहते हैं। जब वे मरने वाले होते हैं, तो कुछ लोग इसके या उसके विषय में कुढ़ते हैं; वे अपने बच्चों, अपने प्रियों, एवं धन-सम्पत्ति की चिंता करते हैं, मानो चिंता करके वे उस पीड़ा एवं भय को मिटा सकते हैं जो मृत्यु लेकर आती है, मानो जीवतों के साथ एक प्रकार की घनिष्ठता को बनाए रखने के द्वारा वे अपनी उस लाचारी एवं अकेलेपन से बच सकते हैं जो मृत्यु के साथ साथ आती है। मनुष्य के हृदय की गहराई में एक अजीब सा भय होता है, अपने प्रियजनों से बिछड़ जाने का भय, फिर कभी नीले आसमान पर निगाह न डाल पाने का भय, एवं फिर कभी इस भौतिक संसार पर निगाह न डाल पाने का भय। एक अकेला आत्मा, जो अपने प्रियजनों की संगति का आदी हो चुका है, वह अपनी पकड़ को ढीला करने और बिलकुल अकेले ही एक अनजाने एवं अपरिचित संसार में प्रस्थान करने के लिए अनिच्छुक है।
3. एक ऐसा जीवन जो प्रसिद्धि एवं सौभाग्य की तलाश करते हुए गुज़रा है मृत्यु का सामना होने पर उसे नुकसान होगा
सृष्टिकर्ता की संप्रभुता एवं पूर्वनिर्धारण के कारण, एक अकेला आत्मा जिसने शून्य से आरम्भ किया था वह परिवार एवं माता पिता को प्राप्त करता है, मानव जाति का एक सदस्य बनने का मौका प्राप्त करता है, मानव जीवन का अनुभव करने एवं इस संसार को देखने का मौका प्राप्त करता है; और साथ ही यह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का भी अनुभव करने का मौका प्राप्त करता है, जिससे सृष्टिकर्ता के द्वारा सृष्टि की अद्भुतता को जान सके, और सबसे बढ़कर, सृष्टिकर्ता के अधिकार को जान सके एवं उसके अधीन हो सके। परन्तु अधिकांश लोग वास्तव में इस दुर्लभ एवं क्षणिक अवसर को लपक नहीं पाते हैं। कोई व्यक्ति नियति के विरुद्ध लड़ते हुए जीवन भर की ऊर्जा को गवां देता है, अपने परिवार को खिलाने पिलाने की कोशिश करते हुए और धन-सम्पत्ति एवं हैसियत के बीच झूलते हुए अपना सारा समय बिता देता है। ऐसी चीज़ें जिन्हें लोग संजोकर रखते हैं वह परिवार, पैसा एवं प्रसिद्धि है; वे इन्हें जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ों के रूप में देखते हैं। सभी लोग अपनी नियति के विषय में शिकायत करते हैं, फिर भी वे अपने दिमाग में इन प्रश्नों को पीछे धकेल देते हैं कि इसे जांचना एवं समझना अति महत्वपूर्ण हैः मनुष्य जीवित क्यों है, उसे कैसे जीवनयापन करना चाहिए, जीवन का मूल्य व अर्थ क्या है। उनका सम्पूर्ण जीवन, चाहे कितने ही वर्षों का क्यों न हो, वहसिर्फ़ प्रसिद्धि एवं सौभाग्य को तलाशते हुए शीघ्रता से गुज़र जाता है, तब तक जब तक कि उनकी युवा अवस्था चली नहीं जाती है, उनके बाल सफेद नहीं हो जाते एवं उनकी त्वचा में झुर्रियां नहीं पड़ जाती हैं; जब तक वे देख नहीं लेते हैं कि प्रसिद्धि व सौभाय किसी का बुढ़ापा आने से रोक नहीं सकते, यह कि धन हृदय के खालीपन को भर नहीं सकता है; जब तक वे यह नहीं समझ लेते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म, उम्र के बढ़ने, बीमारी एवं मृत्यु के नियम से बच नहीं सकता है, और यह कि जो कुछ नियति ने संजोकर रखा हैं कोई उससे बच नहीं सकता है। जब उन्हें जीवन के अंतिम घटनाक्रम का सामना करने के लिए मजबूर किया जाता है केवल तभी वे सचमुच समझ पाते हैं कि चाहे कोई करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का मालिक हो जाए, भले ही किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हो व ऊंचे पद पर हो, कोई भी मृत्यु से नहीं बच सकता, प्रत्येक मनुष्य अपनी मूल स्थिति में वापस लौटेगा: एक अकेला आत्मा, जिसके नाम कुछ भी नहीं है। जब किसी व्यक्ति के पास माता पिता होते हैं, तो वह सोचता है कि उसके माता पिता ही सब कुछ हैं; जब किसी व्यक्ति के पास सम्पत्ति होती है, तो वह सोचता है कि पैसा ही उसका मुख्य आधार है, यही उसके जीवन की सम्पत्ति है; जब लोगों के पास हैसियत होती है, तो वे उससे मज़बूती से चिपक जाते हैं और इसके लिए अपने जीवन को भी जोखिम में डाल देते हैं। जब लोग इस संसार को छोड़कर जाने लगते हैं केवल तभी वे यह सोचते हैं कि जिन चीज़ों का अनुसरण करते हुए उन्होंने अपने जीवन को बिताया है वे और कुछ नहीं बल्कि क्षणभंगुर बादल हैं, वे उनमें से किसी को भी थामे नहीं रह सकते हैं, वे उनमें से किसी को भी अपने साथ नहीं ले जा सकते हैं, उनमें से कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता है, उनमें से कोई भी उस आत्मा की वापसी यात्रा में उस अकेले आत्मा का साथ एवं सांत्वना नहीं दे सकता है; और इतना ही नहीं, उनमें से कोई भी किसी व्यक्ति का उद्धार नहीं कर सकता, एवं मृत्यु से पार जाने की अनुमति नहीं दे सकता है। प्रसिद्धि एवं सौभाग्य जिन्हें कोई व्यक्ति इस भौतिक संसार में हासिल करता है, वे उसे अल्पकालीन संतुष्टि, थोड़े समय का आनन्द, एवं सुकून का एक झूठा एहसास प्रदान करते हैं, और उसे उसके मार्ग से भटका देते हैं। और इस प्रकार लोग, जब वे मानवता के इस विशाल समुद्र में हाथ पैर मारते हैं, शान्ति, आराम, एवं हृदय की निश्चलता की लालसा करते हैं, तो वे लहरों के नीचे बार बार डूबते जाते हैं। जब लोगों ने अभी तक उन प्रश्नों का पता नहीं लगाया है जिन्हें समझना बहुत ही महत्वपूर्ण है-वे कहाँ से आते हैं, वे जीवित क्यों हैं, वे कहाँ जा रहे हैं, इत्यादि-वे प्रसिद्धि एवं सौभाग्य के द्वारा मोहित हो जाते हैं, गुमराह हो जाते हैं, उनके द्वारा नियन्त्रित किए जाते हैं और अंततः हमेशा के लिए खो जाते हैं। समय उड़ जाता हैः पलक झपकते ही वर्ष बीत जाते हैं, इससे पहले कि कोई इसका एहसास करता है, वह अपने जीवन के उत्तम वर्षों को अलविदा कह चुका होता है। जब कोई व्यक्ति जल्द ही संसार से जाने वाला होता है, तो वह आहिस्ता आहिस्ता इस एहसास की ओर पहुँचता है कि संसार में हर एक चीज़ दूर हो रही है, यह कि वह उन चीज़ों को थामे नहीं रह सकता है जो उसके अधिकार में थी; तब वह सचमुच में महसूस करता है कि अब उससे पास कुछ भी नहीं है, एक रोते हुए शिशु के समान जो अभी अभी इस संसार में आया है। इस मुकाम पर, कोई व्यक्ति इस बात पर विचार करने के लिए बाध्य हो जाता है कि उसने जीवन में क्या किया है, जीवित रहने का मूल्य क्या है, इसका अर्थ क्या है, वह इस संसार में क्यों आया है; इस मुकाम पर, वह और भी अधिक जानना चाहता है कि वास्तव में मरने के बाद कोई जीवन है या नहीं, स्वर्ग वास्तव में है या नहीं, वास्तव में गुनाहों की सज़ा है या नहीं .... जब कोई व्यक्ति मृत्यु के और नज़दीक आता है, तो वह और भी अधिक यह समझना चाहता है कि वास्तव में जीवन किस के विषय में है; जब कोई व्यक्ति मृत्यु के और नज़दीक आता है, तो उसका हृदय और भी अधिक खाली महसूस होता है, जब कोई व्यक्ति मृत्यु के और नज़दीक आता है, तो वह और भी अधिक असहाय महसूस करता है; और इस प्रकार मृत्यु के विषय में उसका भय दिन ब दिन बढ़ता ही जाता है। जब मृत्यु नज़दीक आने लगती है तो मनुष्य इस तरह व्यवहार क्यों करता है, इसके दो कारण हैं: पहला, वे अपनी प्रसिद्धि एवं सम्पत्ति को खोने वाले हैं जिन पर उनका जीवन आधारित था, वे हर उस चीज़ को पीछे छोड़ने वाले हैं जो इस संसार में दृश्यमान है; और दूसरा, वे बिलकुल अकेले ही एक अनजाने संसार, एक रहस्मयी एवं अज्ञात आयाम का सामना करने वाले हैं जहाँ वे कदम रखने से भयभीत होते हैं, जहाँ उनके पास कोई प्रिय जन नहीं है और किसी भी प्रकार की सहायता नहीं है। इन दो कारणों से, हर एक व्यक्ति जो मृत्यु का सामना करता है वह बेचैनी महसूस करता है, अत्यंत भय एवं लाचारी के एहसास का अनुभव करता है जिनको उन्होंने पहले कभी नहीं जाना था। जब लोग वास्तव में इस मुकाम पर पहुंचते हैं केवल तभी वे महसूस करते हैं कि पहली बात जो उन्हें समझनी चाहिये, जब कोई इस पृथ्वी पर कदम रखता है, वह है कि मानव कहाँ से आया है, लोग जीवित क्यों हैं, मानव की नियति को कौन नियन्त्रित करता है, कौन मानव के अस्तित्व के लिए आपूर्ति करता है और किसके पास उसके अस्तित्व के ऊपर संप्रभुता है। ये जीवन में वास्तविक सम्पत्तियां हैं, मानव के जीवित बचे रहने के लिए आवश्यक आधार हैं, यह सीखना नहीं है कि किस प्रकार अपने परिवार की आपूर्ति करें या किस प्रकार प्रसिद्धि एवं धन-सम्पत्ति प्राप्त करें, यह सीखना नहीं है कि किस प्रकार भीड़ से अलग दिखें या किस प्रकार और भी अधिक समृद्ध जीवन बिताएं, और यह सीखना तो बिलकुल नहीं कि किस प्रकार दूसरों से आगे बढ़ें और उनके विरुद्ध सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करें। हालाँकि जीवित रहने के लिये विभिन्न कुशलताएं जिन पर महारत हासिल करने के लिए लोग अपना जीवन खर्च कर देते हैं वे भरपूर भौतिक सुख सुविधाएं दे सकते हैं, फिर भी वे किसी मनुष्य के हृदय में सच्ची शान्ति एवं सांत्वना नहीं ला सकते हैं, परन्तु इसके बदले वे लोगों को निरन्तर उनकी दिशा से भटका देते हैं, उन्हें अपने आप पर नियन्त्रण करने में कठिनाई होती है, वे जीवन का अर्थ सीखने के लिए हर अवसर को खो देते हैं; और किस प्रकार उचित रीति से मृत्यु का सामना करें इसके विषय में वे परेशानी की एक नकारात्मक एवं गुप्त भावना पैदा कर लेते हैं। इस प्रकार, लोगों की ज़िन्दगियां बर्बाद हो जाती हैं। सृष्टिकर्ता प्रत्येक से उचित रीति से व्यवहार करता है, हर एक को जीवन भर के अवसर प्रदान करता है कि वे उसकी संप्रभुता का अनुभव करें एवं उसे जानें, फिर भी, जब मृत्यु नज़दीक आती है, जब मृत्यु का संकट उसके ऊपर लटकने लगता है, केवल तभी वह उस रोशनी को देखना प्रारम्भ करता है–और तब बहुत देर हो जाती है।
लोग धन-दौलत एवं प्रसिद्धि का पीछा करते हुए अपनी ज़िन्दगियों को बिता देते हैं; वे इन तिनकों को मज़बूती से पकड़े रहते हैं, यह सोचते हुए कि वे उनके जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन है, मानों उन्हें प्राप्त करने के द्वारा वे निरन्तर जीवित रह सकते हैं, और अपने आपको मृत्यु से बचा सकते हैं। परन्तु जब वे मरने के करीब होते हैं केवल तभी उनको महसूस होता है कि ये चीज़ें उनसे कितनी दूर हैं, वे मृत्यु का सामना होने पर कितने कमज़ोर हैं, वे कितनी आसानी से बिखर सकते हैं, वे कितने अकेले एवं असहाय हैं, और सहायता के लिए कहीं नहीं जा सकते हैं। वे एहसास करते हैं कि जीवन धन दौलत एवं प्रसिद्धि से खरीदा नहीं जा सकता है, यह कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि कोई व्यक्ति कितना धनी है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उस पुरुष एवं स्त्री का पद कितना ऊंचा है, क्योंकि मृत्यु का सामना होने पर सभी लोग समान रूप से कंगाल एवं महत्वहीन होते हैं। वे एहसास करते हैं कि धन-दौलत जीवन को खरीद नहीं सकती, प्रसिद्धि मृत्यु को मिटा नहीं सकती, यह कि न धन-दौलत और न ही प्रसिद्धि किसी व्यक्ति के जीवन को एक मिनट, या एक पल के लिए भी बढ़ा सकती है। जितना अधिक लोग इस प्रकार से सोचते हैं, उतना ही अधिक वे निरन्तर जीवित रहने की लालसा करते हैं; जितना अधिक लोग इस प्रकार से सोचते हैं, उतना ही अधिक वे मृत्यु के आगमन से भयभीत होते हैं। केवल इसी मुकाम पर वे सचमुच में एहसास करते हैं कि उनका जीवन उनसे सम्बन्धित नहीं है, उनके नियन्त्रण में नहीं है, और कोई यह नहीं कह सकता है कि वह जीवित रहेगा या मर जाएगा, यह सब उसके नियन्त्रण से बाहर होता है।
4. सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आ जाओ और शान्ति से मृत्यु का सामना करो
उस घड़ी जब किसी व्यक्ति का जन्म होता है, तब एक अकेला आत्मा इस पृथ्वी पर जीवन के विषय में अपने अनुभवऔर सृष्टिकर्ता के अधिकार के विषय में अपने अनुभव का प्रारम्भ करता है जिसे सृष्टिकर्ता ने उसके लिए व्यवस्थित किया है। कहने की आवश्यकता नहीं है, उस व्यक्ति, अर्थात् उस आत्मा, के लिए यह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के ज्ञान को अर्जित करने के लिए, और उसके अधिकार को जानने और व्यक्तिगत तौर पर इसका अनुभव करने के लिए सबसे उत्तम अवसर है। लोग नियति के नियमों के अधीन अपने जीवन को जीते हैं जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा उनके लिए व्यवस्थित किया गया है, और किसी भी न्यायसंगत व्यक्ति के लिए जिसके पास विवेक है, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करना और पृथ्वी पर मनुष्यों के कई दशकों के जीवनक्रम के ऊपर उसके अधिकार को पहचानना कोई कठिन कार्य नहीं है कि उसे किया न जा सके। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह पहचानना बहुत ही सरल होना चाहिए, कई दशकों से पुरुष या स्त्री के स्वयं के जीवन के अनुभवों के माध्यम से, कि सभी मनुष्यों की नियति को पूर्वनिर्धारित किया गया है, और इस बात का आभास करना एवं इसे संक्षेप में कहना चाहिए कि जीवित रहने का अर्थ क्या है। ठीक उसी समय जब कोई व्यक्ति जीवन की इन शिक्षाओं को स्वीकार करता है, तब वह धीरे-धीरे यह समझने लगता है कि जीवन कहाँ से आया है, यह आभास करता है कि हृदय को सचमुच में किसकी आवश्यकता है, कौन जीवन के सही मार्ग पर उसकी अगुवाई करेगा, किसी मानव के जीवन का मिशन एवं लक्ष्य क्या होना चाहिए; और वह धीरे-धीरे पहचानने लगेगा कि यदि वह सृष्टिकर्ता की आराधना नहीं करता है, यदि वह उसके प्रभुत्व के अधीन नहीं आता है, तो जब वह मृत्यु का सामना करता है–जब एक आत्मा एक बार फिर से सृष्टिकर्ता का सामना करने वाला है–तब उसका हृदय असीमित भय एवं बेचैनी से भर जाएगा। यदि कोई व्यक्ति इस संसार में कुछ दशकों से अस्तित्व में रहा है और फिर भी नहीं जान पाया है कि मानव जीवन कहाँ से आया है, अभी तक नहीं पहचान पाया है कि किसकी हथेली में मानव की नियति होती है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि वह शान्ति से मृत्यु का सामना करने के योग्य नहीं होगा या नहीं होगी। कोई व्यक्ति जिसने जीवन के कई दशकों का अनुभव करने के बाद सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के ज्ञान को हासिल किया है, वह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास जीवन के अर्थ एवं मूल्य की सही समझ है; वह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास जीवन के उद्देश्य का गहरा ज्ञान है, और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का सच्चा अनुभव एवं सच्ची समझ है; और उससे भी बढ़कर, वह ऐसा व्यक्ति है जो सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन हो सकता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा मानवजाति की सृष्टि के अर्थ को समझता है, यह समझता है कि मनुष्य को सृष्टिकर्ता की आराधना करनी चाहिए, यह कि जो कुछ मनुष्य के पास है वह सृष्टिकर्ता से आता है और वह किसी दिन उसके पास लौटेगा जो भविष्य में ज़्यादा दूर नहीं है; ऐसा व्यक्ति समझता है कि सृष्टिकर्ता मनुष्य के जन्म की व्यवस्था करता है और उसके पास मनुष्य की मृत्यु के ऊपर संप्रभुता है, और यह कि जीवन व मृत्यु दोनों सृष्टिकर्ता के अधिकार द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। अतः, जब कोई व्यक्ति सचमुच में इन बातों का आभास कर लेता है, तो वह शांति से मृत्यु का सामना करने, अपनी सारी संसारिक सम्पत्तियों को शांतिपूर्वक दूर करने, और बाद में जो कुछ आता है उसको खुशी से स्वीकार करने एवं उसके अधीन होने, और सृष्टिकर्ता द्वारा व्यवस्थित जीवन के अंतिम घटनाक्रम का स्वागत करने योग्य हो जाएगा बजाए इसके कि आँख बंद करके इससे भय खाए और इसके विरुद्ध संघर्ष करे। यदि कोई जीवन को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने के लिए एक अवसर के रूप में देखता है और उसके अधिकार को जानने लगता है, यदि कोई अपने जीवन को सृजे गये प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए और अपने मिशन को पूरा करने के लिए एक दुर्लभ अवसर के रूप में देखता है, तो उसके पास आवश्यक रूप से जीवन के विषय में सही नज़रिया होगा, और सृष्टिकर्ता के द्वारा वह आशीषित जीवन बिताएगा और मार्गदर्शन पाएगा, वह सृष्टिकर्ता के प्रकाश में चलेगा, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानेगा, उसके प्रभुत्व में आएगा, और उसके अद्भुत कार्यों एवं उसके अधिकार का एक गवाह बनेगा। कहने की आवश्यकता नहीं है, ऐसे व्यक्ति को सृष्टिकर्ता के द्वारा प्रेम किया जाएगा एवं स्वीकार किया जाएगा, और केवल ऐसा व्यक्ति ही मृत्यु के प्रति शांत मनोवृत्ति रख सकता है, और जीवन के अंतिम घटनाक्रम का प्रसन्नता से स्वागत कर सकता है। अय्यूब स्पष्ट रूप से मृत्यु के प्रति इस प्रकार की मनोवृत्ति रखता था; वह जीवन के अंतिम घटनाक्रम को प्रसन्नता से स्वीकार करने के लिए ऐसी स्थिति में था, और अपनी जीवन यात्रा को एक सुखदाई निष्कर्ष पर पहुँचाने के बाद, एवं जीवन में अपने मिशन को पूरा करने के बाद, वह सृष्टिकर्ता के पास वापस लौट गया।
5. अय्यूब के जीवन के उद्यमों एवं उपलब्धियों ने उसे शान्तिपूर्वक मृत्यु का सामना करने की अनुमति दी
पवित्र शास्त्र में अय्यूब के विषय में ऐसा लिखा हुआ हैः "अन्त में अय्यूब वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मर गया" (अय्यूब 42:17)। इसका अर्थ है कि जब अय्यूब की मृत्यु हुई, उसे कोई पछतावा नहीं था और उसने किसी तकलीफ का एहसास नहीं किया, परन्तु प्राकृतिक रुप से इस संसार से चला गया। जैसा हर कोई जानता है, अय्यूब ऐसा इंसान था जो परमेश्वर से डरता था और बुराई से दूर रहता था जब वह जीवित था; परमेश्वर ने उसके धार्मिकता के कार्यों की सराहना की थी, लोगों ने उन्हें स्मरण रखा, और उसका जीवन किसी भी इंसान से बढ़कर अहमियत एवं महत्व रखता था। अय्यूब ने परमेश्वर की आशीषों का आनन्द लिया और उसे पृथ्वी पर उसके द्वारा धर्मी कहा गया, और साथ ही परमेश्वर के द्वारा उसे परखा गया और शैतान के द्वारा उसकी परीक्षा भी ली गई; वह परमेश्वर का गवाह बना रहा और वह धर्मी पुरुष कहलाने के योग्य था। परमेश्वर के द्वारा परखे जाने के बाद कई दशकों के दौरान, उसने ऐसा जीवन बिताया जो पहले से कहीं अधिक बहुमूल्य,अर्थपूर्ण, स्थिर, एवं शान्तिपूर्ण था। उसकी धार्मिकता के कार्यों के कारण, परमेश्वर ने उसे परखा था; उसकी धार्मिकता के कार्यों के कारण, परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और सीधे उससे बात की। अतः, उसके परखे जाने के बाद के वर्षों के दौरान अय्यूब ने जीवन के मूल्यों को और अधिक ठोस तरीके से समझाऔर उसकी सराहना की थी, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की और अधिक गहरी समझ प्राप्त की थी, और किस प्रकार सृष्टिकर्ता अपनी आशीषों को देता एवं वापस लेता है इसके विषय में और अधिक सटीक एवं निश्चित ज्ञान हासिल किया था। बाईबिल में दर्ज है कि यहोवा परमेश्वर ने अय्यूब को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक आशीषें प्रदान की थीं, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने के लिए एवं शान्ति से मृत्यु का सामना करने के लिए उसने अय्यूब को और भी बेहतर स्थिति में रखा था। इसलिएअय्यूब, जब वृद्ध हुआ और मृत्यु का सामना किया, तो वह निश्चित रूप से अपनी सम्पत्ति के विषय में चिंतित नहीं हुआ होगा। उसे कोई चिन्ता न थी, कुछ पछतावा नहीं था, और वास्तव में वह मृत्यु से भयभीत नहीं था; क्योंकि उसने अपना सम्पूर्ण जीवन परमेश्वर का भय मानते हुए, बुराई से दूर रहते हुए बिताया था, और अपने स्वयं के अन्त के बारे में चिन्ता करने का कोई कारण नहीं था। आज कितने लोग हैं जो अय्यूब के सभी मार्गों के अनुसार कार्य कर सकते हैं जब उसने अपनी मृत्यु का सामना किया था? कोई भी व्यक्ति इस प्रकार के सरल बाह्य व्यवहार को बनाए रखने रखने के योग्य क्यों नहीं है? केवल एक ही कारण हैः अय्यूब ने अपना जीवन परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति विश्वास, पहचान, एवं समर्पण के आत्मनिष्ठ उद्यम (अनुसरण) में बिताया था, और यह इस विश्वास, पहचान एवं समर्पण के साथ था कि उसने अपने जीवन में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम को उत्तीर्ण किया था, औरअपने जीवन के अंतिम घटनाक्रम का अभिनन्दन किया था। इसके बावजूद कि अय्यूब ने जो कुछ अनुभव किया, जीवन में उसकेउद्यम (अनुसरण) एवं लक्ष्य खुशगवार थे, न कि कष्टपूर्ण। अय्यूब आनन्दित था न केवल उन आशीषों या सराहनाओं के कारण जिन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा उसे प्रदान किया गया था, किन्तु अधिक महत्वपूर्ण रूप से, अपने उद्यमों (अनुसरण) एवं जीवन के लक्ष्यों के कारण, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के क्रमिक ज्ञान एवं सही समझ के कारण जिन्हें उसने परमेश्वर का भय मानने एवं बुराई से दूर रहने के माध्यम से अर्जित किया था, और इससे अतिरिक्त, उसके अद्भुत कार्यों के कारण जिन्हें अय्यूब ने सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के प्रति एक अधीनस्थ व्यक्ति के रूप में अपने समय के दौरान व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया था, और मनुष्य एवं परमेश्वर के बीच सह-अस्तित्व, जान-पहचान, एवं परस्पर समझ के सरगर्म एवं अविस्मरणीय अनुभवों एवं यादों के कारण; उस राहत एवं प्रसन्नता के कारण जो सृष्टिकर्ता की इच्छा को जानने से आई थी; उस परम आदर के कारण जो यह देखने से बाद उभरा कि वह कितना महान, अद्भुत, प्रेमी एवं विश्वासयोग्य है। वह कारण कि अय्यूब बिना किसी कष्ट के अपनी मृत्यु का सामना करने के योग्य हो पाया वह यह था क्योंकि वह जानता था कि, मरने पर, वह सृष्टिकर्ता के पास वापस लौट जाएगा। और जीवन में यही उसका उद्यम एवं उपलब्धि थी जिसने उसे शान्ति से मृत्यु का सामना करने, सृष्टिकर्ता के द्वारा उसके जीवन को वापस लेने की सम्भावना का स्थिर हृदय के साथ सामना करने, और इसके अतिरिक्त, शुद्ध एवं चिंतामुक्त होकर, सृष्टिकर्ता के सामने खड़े होने की अनुमति दी थी। क्या आजकल लोग उस प्रकार की प्रसन्नता को हासिल कर सकते हैं जो अय्यूब के पास थी? क्या तुम सब स्वयं ऐसा करने के स्थिति में हो? जबकि लोग आजकल ऐसा करने की स्थिति में होते हैं, फिर भी वे अय्यूब के समान खुशी से जीवन बिताने में असमर्थ क्यों हैं? वे मृत्यु के भय के कष्ट से बच निकलने में असमर्थ क्यों हैं? मृत्यु का सामना करते समय, कुछ पसीने से भीग जाते हैं; कुछ कांपते, मूर्छित होते, तथा स्वर्ग एवं मनुष्य के विरुद्ध समान रूप से तीखे शब्दों से हमला करते हैं, और यहाँ तक कि रोते एवं विलाप करते हैं। ये किसी भी तरह से अचानक होनेवाली प्रतिक्रियाएं नहीं हैं जो तब घटित होती हैं जब मृत्यु नज़दीक आ जाती है।लोग मुख्यत: ऐसे शर्मनाक तरीकों से व्यवहार करते हैं क्योंकि, अपने हृदय की गहराई में वे मृत्यु से डरते हैं, क्योंकि उनके पास परमेश्वर की संप्रभुता एवं उसके इंतज़ामों के विषय में स्पष्ट ज्ञान एवं समझ नहीं है, और सही मायने में वे उनके अधीन तो बिलकुल भी नहीं होते हैं; क्योंकि लोगों को स्वयं ही हर चीज़ का इंतज़ाम एवं शासन करने, अपनी नियति, अपने जीवन एवं मृत्यु का नियन्त्रण करने के सिवाय और कुछ नहीं चाहिए। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि लोग कभी मृत्यु के भय से बचने में समर्थ नहीं होते हैं।
6. सिर्फ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने के द्वारा ही कोई व्यक्ति उसकी ओर वापस आ सकता है
जब किसी व्यक्ति के पास सृष्टिकर्ता की संप्रभुता एवं उसके इंतज़ामों के विषय में स्पष्ट ज्ञान एवं अनुभव नहीं होता है, तो नियति एवं मृत्यु के विषय में उसका ज्ञान आवश्यक रूप से असंगत होगा। लोग स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं कि यह सब परमेश्वर की हथेली में होता है, यह एहसास नहीं कर सकते हैं कि परमेश्वर उनके ऊपर नियन्त्रण एवं संप्रभुता रखता है, यह पहचान नहीं सकते हैं कि मनुष्य ऐसी संप्रभुता को दूर नहीं फेंक सकता है या उससे बच नहीं सकता है; और इस प्रकार मृत्यु का सामना करते समय उनके अंतिम शब्दों, चिंताओं एवं पछतावों का कोई अन्त नहीं होता है। वे अत्याधिक बोझ, अत्याधिक अनिच्छाओं, अत्याधिक भ्रम, से नीचे दबे हुए होते हैं, और इन सब से उन्हें मृत्यु का भय होता है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति जिसने इस संसार में जन्म लिया है, उनका जन्म ज़रूरी होता है और उसकी मृत्यु अनिवार्य होती है, और कोई भी इस पथक्रम से बढ़कर नहीं हो सकता है। यदि कोई इस संसार से बिना किसी तकलीफ के चले जाना चाहता है, यदि कोई जीवन के इस अंतिम घटनाक्रम का बिना किसी अनिच्छा या चिंता के सामना करने के योग्य होना चाहता है, तो इसका एक ही रास्ता है कि कोई पछतावा न करें। और बिना किसी पछतावे के चले जाने का एकमात्र मार्ग है सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानना, उसके अधिकार को जानना है, और उनके अधीन हो जाना। केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति मानवीय लड़ाई-झगड़ों से, बुराई से, एवं शैतान के बन्धन से दूर रह सकता है; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान जीवन जी सकता है जो सृष्टिकर्ता के द्वारा निर्देशित एवं आशीषित था, ऐसा जीवन जो बंधनों से मुक्त हो, ऐसा जीवन जिसका मूल्य एवं अर्थ हो, और ऐसा जीवन जो सत्यनिष्ठ एवं खुले हृदय का हो; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान इस बात के अधीन हो सकता है कि उसे सृष्टिकर्ता के द्वारा परखा एवं वंचित किया जाए, केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता के आयोजनों एवं इंतज़ामों के अधीन हो सकता है; केवल इसी तरह से ही वह अपने जीवन भर सृष्टिकर्ता की आराधना कर सकता है और उसकी प्रशंसा को अर्जित कर सकता है, जैसा अय्यूब ने किया था, एवं उसकी आवाज़ को सुना था, और उसे प्रकट होते हुए देखा था; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान बिना किसी तकलीफ, चिंता एवं पछतावे के आनन्दपूर्वक जी एवं मर सकता है; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान प्रकाश में जीवन बिता सकता है, प्रकाश में अपने जीवन के घटनाक्रमों से होकर गुज़र सकता है, अपनी यात्रा को प्रकाश में सरलता से पूरा कर सकता है, और अपने मिशन को सफलतापूर्वक हासिल कर सकता है – एक सृजे गए प्राणी के रूप में सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करना, सीखना, और जानना–और प्रकाश में मर सकता है, और उसके पश्चात् एक सृजे गए प्राणी के रूप में हमेशा सृष्टिकर्ता के पास खड़ा हो सकता है, और उसके द्वारा सराहना पा सकता है।
सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने के अवसर को मत खो
छ: घटनाक्रम जिनका ऊपर वर्णन किया गया है वे ऐसे महत्वपूर्ण पहलू हैं जिन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा प्रदर्शित किया गया है जिनसे होकर प्रत्येक सामान्य पुरुष या स्त्री को अपने जीवन में गुज़रना होगा। इन घटनाक्रमों में से हर एक घटनाक्रम वास्तविक है; इनमें से किसी से भी किसी उपाय से बचकर निकला नहीं जा सकता है, और सभी सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण एवं उसकी संप्रभुता से सम्बन्ध रखते हैं। अतः एक मानव प्राणी के लिए, इन घटनाक्रमों में से प्रत्येक घटनाक्रम एक महत्वपूर्ण जाँच चौकी है, और किस प्रकार इनमें से प्रत्येक से आसानी से गुज़रा जाए यह एक गम्भीर प्रश्न है जिसका अब तुम सब को सामना करना है।
कुछ मुट्ठी भर दशक जो किसी मानव जीवन को बनाते हैं वे न तो लम्बे होते हैं और न ही छोटे। जन्म एवं व्यस्क होने के बीच के बीस-असाधारण वर्ष पलक झपकते ही गुज़र जाते हैं, और यद्यपि जीवन के इस मुकाम पर किसी व्यक्ति को व्यस्क माना जाता है, फिर भी इस आयु वर्ग के लोग मानव जीवन एवं मानव की नियति के बारे में लगभग कुछ भी नहीं जानते हैं। जैसेजैसे वे और भी अधिक अनुभव प्राप्त करते जाते हैं, वे आहिस्ता आहिस्ता लम्बे लम्बे डग भरते हुए मध्यम आयु की ओर बढ़ने लगते हैं। लोग अपने तीस एवं चालीस वर्ष की आयु में जीवन एवं नियति के विषय में आरम्भिक अनुभव ही अर्जित कर पाते हैं, परन्तु इनके बारे में उनके विचार अभी भी बिलकुल अस्पष्ट होते हैं। यह चालीस वर्ष की आयु तक तो नहीं होता है कि कुछ लोग मानवजाति एवं सृष्टिकर्ता को समझना आरम्भ करें, जिन्हें परमेश्वर के द्वारा सृजा गया था, कि वे आभास करें कि मानव जीवन सम्पूर्ण रीति से किस के विषय में है, और मानव की नियति सम्पूर्ण रीति से किस के विषय में है। कुछ लोग, हालाँकि वे काफी लम्बे समय से परमेश्वर के अनुयायी रहे हैं और अब वे मध्यम आयु के हैं, फिर भी वे अभी भी परमेश्वर की संप्रभुता का सटीक ज्ञान एवं परिभाषा धारण नहीं करते हैं, सच्चे समर्पण की तो बिलकुल भी नहीं। कुछ लोग आशीषों को पाने की खोज करने के आलावा किसी भी चीज़ के विषय में परवाह नहीं करते हैं, और हालाँकि उन्होंने अनेक वर्षों से जीवन बिताया है, फिर भी वे मानव की नियति के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के उस तथ्य को बिलकुल भी जानते एवं समझते नहीं हैं, और इस प्रकार उन्होंने परमेश्वर के आयोजनों एवं इंतज़ामों के प्रति समर्पण की थोड़ी सी भी व्यावहारिक शिक्षा में प्रवेश नहीं किया है। ऐसे लोग पूरी तरह से मूर्ख हैं; ऐसे लोग अपने जीवन को व्यर्थ में ही जीते हैं।
यदि किसी मानव जीवन को उसके जीवन के अनुभवों की मात्रा और मानव की नियति के विषय में उसके ज्ञान के अनुसार विभाजित किया जाता, तो यह मोटे तौर पर तीन चरणों में विभक्त होगा। पहला चरण है युवावस्था, जन्म से लेकर मध्यम आयु के बीच के वर्ष, या जन्म से लेकर तीस वर्ष की आयु तक। दूसरा चरण है परिपक्व होने की प्रक्रिया, मध्यम आयु से लेकर वृद्धावस्था तक, या तीस से लेकर साठ वर्ष की आयु तक। तीसरा चरण है परिपक्व समय, वृद्धावस्था से, अर्थात् साठ वर्ष से शुरू होकर, जब तक वह इस संसार से चला नहीं जाता। दूसरे शब्दों में, जन्म से लेकर मध्यम आयु तक, नियति एवं भाग्य के विषय में अधिकतर लोगों का ज्ञान सीमित होता है जिससे वे दूसरों के विचारों को तोते से समान रटते हैं; इसमें लगभग कोई वास्तविक, एवं व्यावहारिक मूल-तत्व नहीं होता है। इस समयावधि के दौरान, जीवन के प्रति उसका नज़रिया और किस प्रकार वह इस संसार में अपना मार्ग बनाता है वे सभी बहुत ही सतही एवं सीधे-सादे होते हैं। यह उसके लड़कपन की समयावधि है। जब किसी व्यक्ति ने जीवन के सभी आनन्द एवं दुखोंका स्वाद चख लिया है, केवल उसके पश्चात् ही वह नियति की वास्तविक समझ को हासिल करता है, केवल उसके पश्चात् ही वह - अवचेतन रूप से, अपने हृदय की गहराई में–धीरेधीरे नियति की अपरिवर्तनीयता की प्रशंसा करने लगता है, और धीरे-धीरे एहसास करता है कि मानव की नियति पर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता वाकई मौजूद है। यह किसी व्यक्ति के परिपक्व होने की समयावधि है। जब वह नियति के विरुद्ध संघर्ष करना समाप्त कर देता है, और जब वह आगे से लड़ाई-झगड़ों में पड़ने की इच्छा नहीं करता है, परन्तु अपने भागको जानता है, स्वर्ग की इच्छा के अधीन होता है, अपनी स्वयं की उपलब्धियों और जीवन में हुई ग़लतियों का सार निकलता है, और अपने जीवन में सृष्टिकर्ता के न्याय का इंतज़ार कर रहा है-यह उसकी परिपक्वता की समयावधि है। विभिन्न प्रकार के अनुभवों एवं उपलब्धियों पर विचार करने के बाद जिन्हें लोग इन तीन चरणों के दौरान अर्जित करते हैं, सामान्य परिस्थितियों के अधीन सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने के लिए उसके अवसर की खिड़की ज़्यादा बड़ी नहीं होती है। यदि कोई व्यक्ति साठ वर्ष की आयु तक जीवित रहता है, तो परमेश्वर की संप्रभुता को जानने ले लिए उसके पास केवल तीस वर्ष या इतना ही समय है; यदि वह और अधिक लम्बी समयावधि चाहता है, तो यह केवल तभी सम्भव है यदि उसका जीवन काफी लम्बाहै, यदि वह सौ वर्ष तक जीवित रहने के योग्य है। अतः मैं कहता हूँ, मानव अस्तित्व के सामान्य नियमों के अनुसार, हालाँकि यह एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है जब कोई व्यक्ति पहले पहल सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने के विषय का सामना करता है वहाँ से लेकर उस समय तक जब वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के तथ्य को पहचानने के योग्य हो जाता है, और वहाँ से लेकर उस बिन्दु तक जब वह उसके अधीन होने के योग्य हो जाता है, यदि वह वास्तव में उन वर्षों को गिने, तो वे तीस या चालीस से अधिक नहीं होंगे जिनके दौरान उसके पास इन प्रतिफलों को हासिल करने का मौका होता है। और अकसर, कई बार लोग आशीषों को पाने के लिए अपनी इच्छाओं एवं महत्वाकांक्षाओं के द्वारा बहक जाते हैं; वे परख नहीं सकते हैं कि मानव जीवन का सार-तत्व कहाँ है, परमेश्वर की संप्रभुता को जानने के महत्व का आभास नहीं करते हैं, और इस प्रकार वे मानव जीवन का एवं सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने के लिए मानव संसार में प्रवेश करने हेतु इस मूल्यवान अवसर को अपने हृदय में संजोकर नहीं रख पाते हैं, और एहसास नहीं कर पाते हैं कि एक सृजे गए प्राणी के लिए सृष्टिकर्ता के व्यक्तिगत मार्गदर्शन को प्राप्त करना कितना बहुमूल्य है। अतः मैं कहता हूँ, ऐसे लोग जो चाहते हैं कि परमेश्वर का कार्य जल्दी से समाप्त हो जाए, जो इच्छा करते हैं कि जितना जल्दी हो सके परमेश्वर मनुष्य के अंत का इंतज़ाम करे, ताकि वे तुरन्त ही उसके वास्तविक व्यक्तित्व को देख सकें और जल्दी से आशीषित हो जाएं, वे इस प्रकार की बदतरीन अनाज्ञाकारिता एवं अत्याधिक मूर्खता के दोषी हैं। और ऐसे लोग जो अपने सीमित समय के दौरान सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानने के लिए इस अनोखे अवसर को समझने की इच्छा करते हैं, वे ही बुद्धिमान लोग हैं, और वे ही प्रतिभाशाली लोग हैं। ये दोअलग-अलग इच्छाएंदो बेहद ही अलग नज़रिए एवं उद्यमों (अनुसरण) का खुलासा करते हैं: ऐसे लोग जो आशीषों की खोज करते हैं वे स्वार्थी एवं नीच हैं; वे परमेश्वर की इच्छा के प्रति कोई विचार नहीं करते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता की कभी खोज नहीं करते हैं, उसके प्रति समर्पित होने की कभी इच्छा नहीं करते हैं, और जैसा उनको अच्छा लगता है बस वैसे ही जीवन बिताते हैं। वे बेपरवाही से काम करनेवाले चरित्रहीन लोग हैं; वे ऐसे लोग हैं जिन्हें नष्ट किया जाना चाहिए। ऐसे लोग जो परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं वे अपनी इच्छाओं को दरकिनार करने के योग्य हैं, वे परमेश्वर की संप्रभुता एवं परमेश्वर के इंतज़ामों के अधीन होने के लिए तैयार हैं; वे इस प्रकार के लोग होने की कोशिश करते हैं जो परमेश्वर के अधिकार के अधीन हैं और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करते हैं। ऐेसे लोग ज्योति में रहते हैं, परमेश्वर की आशीषों के बीच में रहते हैं; निश्चित तौर पर परमेश्वर के द्वारा उनकी प्रशंसा की जाएगी। चाहे कुछ भी हो जाए, मानव का चुनाव व्यर्थ है, मनुष्य यह नहीं कह सकता है कि परमेश्वर का कार्य कितना समय लेगा। लोगों के लिए यह अच्छा है कि वे अपने आपको परमेश्वर की दया पर छोड़ दें, और उसकी संप्रभुता के अधीन हो जाएं। यदि तू अपने आपको उसकी दया पर नहीं छोड़ता है, तो तू क्या कर सकता है? क्या परमेश्वर को नुकसान उठाना पड़ेगा? यदि तुम अपने आपको उसकी दया पर नहीं छोड़ते हो, यदि तुम उत्तरदायित्व लेने की कोशिश करते हो, तो तुम एक मूर्खतापूर्ण चुनाव कर रहे हो, और केवल तुम ही हो जो अंत में नुकसान उठाओगे। यदि लोग जितना जल्दी हो सके परमेश्वर के साथ सहयोग करेंगे, यदि वे उसके आयोजनों को स्वीकार करने के लिए, एवं उसके अधिकार को जानने के लिए शीघ्रता करेंगे, और वह सब जो उसने उनके लिए किया है उन्हें पहचानेंगे, केवल तभी उनके पास आशा होगी, केवल तभी वे अपने जीवन को व्यर्थ में नहीं बिताएंगे, केवल तभी वे उद्धार को हासिल करेंगे।
कोई भी इस तथ्य को नहीं बदल सकता है कि परमेश्वर मानव की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता है
जो सब मैंने अभी कहा वह सुनने के बाद, क्या नियति के विषय में तुम लोगों का विचार बदला है? तुम सब मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को किस प्रकार समझते हो? इसे साधारण रूप से कहें, तो परमेश्वर के अधिकार के अधीन प्रत्येक व्यक्ति सक्रियता से या निष्क्रियता से उसकी संप्रभुता एवं इंतज़ामों को स्वीकार करता है, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह किस प्रकार अपने जीवन के पथक्रम में संघर्ष करता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह कितने टेढ़े-मेढ़े पथों पर चलता है, क्योंकि अंत में वह नियति की परिक्रमा-पथ पर वापस लौट आएगा जिसे सृष्टिकर्ता ने उस पुरुष या स्त्री के लिए चिन्हित किया है। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार की अजेयता है, और वह रीति है जिसके तहत उसका अधिकार विश्व पर नियन्त्रण एवं शासन करता है। यह वही अजेयता है, एवं यह नियन्त्रण एवं शासन का वही रूप है, जो उन नियमों के लिए ज़िम्मेदार है जो सभी प्राणियों के जीवन को नियन्त्रित करते हैं, जो मनुष्यों को अनुमति देते हैं कि वे बिना किसी हस्तक्षेप के बार बार एक शरीर से दूसरे शरीर में जाएं, जो इस संसार को लगातार घुमाते रहते हैं और दिन ब दिन एवं साल दर साल आगे बढ़ते रहते हैं। तुमने इन सभी तथ्यों को देखा है और तुम उन्हें समझते हो, चाहे सतही तौर पर या गहराई से; तुम्हारी समझ की गहराई सत्य के विषय में तुम्हारे अनुभव एवं ज्ञान के ऊपर, और परमेश्वर के विषय में तुम्हारे ज्ञान पर निर्भर होती है। तुम सत्य की वास्तविकता को कितनी अच्छी तरह से जानते हो, तुमने परमेश्वर के वचन का कितना अनुभव किया है, तुम परमेश्वर की हस्ती एवं उसके स्वभाव को कितनी अच्छी तरह से जानते हो - यह परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतज़ामों के विषय में तुम्हारी समझ की गहराई को प्रदर्शित करता है। क्या परमेश्वर की संप्रभुता एवं उसके इंतज़ाम इस बात पर निर्भर हैं कि मानव प्राणी उसके अधीन होते हैं या नहीं? क्या यह तथ्य कि परमेश्वर इस अधिकार को धारण करता है उसे इस बात के द्वारा निर्धारित किया जाता है कि मानवता उसके अधीन होती है या नहीं? परिस्थितियों की परवाह किए बगैर परमेश्वर का अधिकार अस्तित्व में है; परमेश्वर सभी परिस्थितियों में अपने विचारों एवं अपनी इच्छाओं की अनुरूपता में प्रत्येक मानव की नियति एवं सभी प्राणियों का नियन्त्रण एवं इंतज़ाम करता है। मनुष्यों के बदलने के कारण यह नहीं बदलेगा, और यह मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र है, और समय, अंतरिक्ष, एवं भूगोल में परिवर्तनों के द्वारा इसे बदला नहीं जा सकता है, क्योंकि परमेश्वर का अधिकार ही उसकी हस्ती है। चाहे मनुष्य परमेश्वर की संप्रभुता को जानने एवं स्वीकार करने के योग्य है या नहीं, और चाहे मनुष्य इसके अधीन होने के योग्य है या नहीं, यह मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को ज़रा सा भी नहीं बदलता है। दूसरे शब्दों में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति क्या मनोवृत्ति अपनाता है, क्योंकि यह साधारण तौर पर इस तथ्य को बदल नहीं सकता है कि परमेश्वर मानव की नियति एवं सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है। भले ही तुम परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन नहीं हो, फिर भी वह अब भी तुम्हारी नियति को निर्धारित करता है; भले ही तुम उसकी संप्रभुता को नहीं जान सकते हो, फिर भी उसका अधिकार अब भी अस्तित्व में है। परमेश्वर का अधिकार और मानव की नियति के ऊपर उसकी संप्रभुता मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र हैं, वे मनुष्य की इच्छा एवं चुनावों की अनुरूपता में बदलते नहीं हैं। परमेश्वर का अधिकार हर जगह, हर घण्टे, और हर एक क्षण है। स्वर्ग और पृथ्वी भले ही टल जाएँ, उसका अधिकार कभी नहीं टलता, क्योंकि वह स्वयं परमेश्वर है, वह अद्वितीय अधिकार धारण करता है, और उसके अधिकार को लोगों, घटनाओं या चीज़ों के द्वारा, एवं अंतरीक्ष के द्वारा या भूगोल के द्वारा प्रतिबन्धित या सीमित नहीं किया जाता है। सभी समयों पर परमेश्वर अपने अधिकार को काम में लाता है, अपनी सामर्थ्य को दिखाता है, और हमेशा की तरह अपने प्रबंधन के कार्य को लगातार करता रहता है; सभी समयों पर वह सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है, सभी चीज़ों के लिए आपूर्ति करता है, और सभी चीज़ों का आयोजन करता है, जैसा उसने हमेशा से किया था। इसे कोई बदल नहीं सकता है। यह एक तथ्य है; यह अति प्राचीन काल से अपरिवर्तनीय सत्य है।
जो परमेश्वर के अधिकार के अधीन होने की इच्छा रखता है उसके लिए उचित मनोवृत्ति एवं अभ्यास
किस मनोवृत्ति के साथ अब मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार, और मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य (सच्चाई) को जानना एवं मानना चाहिए? यह एक वास्तविक समस्या है जो प्रत्येक व्यक्ति के सामने खड़ी होती है। जब वास्तविक जीवन की समस्याओं का सामना किया जाता है, तब तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना एवं समझना चाहिए? जब तुम नहीं जानते हो कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझना, सम्भालना और अनुभव करना है, तो तुम्हारे इरादे, तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतज़ामों के अधीन होने की अपनी वास्तविकता को दिखाने के लिए तुम्हें किस प्रकार की मनोवृत्ति अपनानी चाहिए? पहले तुम्हें इंतज़ार करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; तब तुम्हें अधीन होना सीखना होगा। "इंतज़ार" का अर्थ है परमेश्वर के समय का इंतज़ार करना, तथा उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों का इंतज़ार करना जिन्हें उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है, और उसकी इच्छा के लिए इंतज़ार करना कि वह आहिस्ता आहिस्ता अपनी इच्छा को आप पर प्रकट करे। "खोजने" का अर्थ है उन लोगों, घटना और चीज़ों के माध्यम से तुम्हारे लिए परमेश्वर के विचारशील इरादों का अवलोकन करना एवं समझना जिन्हें उसने बनाया है, उनके माध्यम से सत्य को समझना, जो मनुष्यों को पूरा करना होगा उसे और उन मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन करना होगा, इस बात को समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को हासिल करने की इच्छा करता है और वह उनमें किन उपलब्धियों को देखने की इच्छा करता है। "समर्पण", वास्तव में, उन लोगों, घटनाओं, एवं चीज़ों को स्वीकार करने की ओर संकेत करता है जिन्हें परमेश्वर ने आयोजित किया है, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करने की ओर संकेत करता है और, इसके माध्यम से, यह जानना है कि किस प्रकार सृष्टिकर्ता मानव की नियति को नियन्त्रित करता है, कि वह किस प्रकार अपने जीवन से मनुष्य की आपूर्ति करता है, कि वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सच्चाई का काम करता है। सभी चीज़ें परमेश्वर के इंतज़ामों एवं संप्रभुता के अधीन प्राकृतिक नियमों का पालन करती हैं, और यदि तुमने ठान लिया है कि तुम परमेश्वर को अपने लिए हर एक चीज़ का इंतज़ाम करने एवं नियन्त्रण करने की अनुमति देते हो, तो तुम्हें इंतज़ार करना सीखना होगा, तुम्हें खोजना सीखना होगा, और तुम्हें अधीन होना सीखना होगा। यह वही मनोवृत्ति है जिसे प्रत्येक व्यक्ति को अपनाना होगा जो परमेश्वर में अधिकार के अधीन होना चाहता है, और यह वही मूल योग्यता है जिसे प्रत्येक व्यक्ति को धारण करना होगा जो परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतsज़ामों को स्वीकार करना चाहता है। इस प्रकार की मनोवृत्ति रखने के लिए, इस प्रकार की योग्यता धारण करने के लिए, तुम लोगों को और भी अधिक कठिन परिश्रम करना होगा; और केवल इस प्रकार से ही तुम लोग सच्ची वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो।
परमेश्वर को अपने अद्वितीय स्वामी के रूप में स्वीकार करना उद्धार हासिल करने का पहला कदम है
परमेश्वर के अधिकार से सम्बन्धित सच्चाईयाँ ऐसी सच्चाईयाँ हैं जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति को गम्भीरता से लेना होगा, अपने हृदय से अनुभव करना एवं समझना होगा; क्योंकि ये सच्चाईयाँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित हैं, प्रत्येक व्यक्ति के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य सेसम्बन्धित हैं, उन महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से सम्बन्धित हैं जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को गुज़रना है, और परमेश्वर की संप्रभुता एवं उस मनोवृत्ति से सम्बन्धित हैं जिनके तहत उसे परमेश्वर के अधिकार का सामना करना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से, प्रत्येक व्यक्ति की आखिरी मंज़िल से सम्बन्धित हैं। अतः उन्हें जानने एवं समझने के लिए जीवन भर की ऊर्जा लगती है। जब तुम परमेश्वर के अधिकार को गम्भीरता से लेते हो, जब तुम परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करते हो, तब तुम धीरे-धीरे एहसास करोगे एवं समझोगे कि परमेश्वर का अधिकार सचमुच में अस्तित्व में है। परन्तु यदि तुम परमेश्वर के अधिकार को कभी नहीं समझते हो, उसकी संप्रभुता को कभी स्वीकार नहीं करते हो, तब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितने वर्ष जीवित रहते हो, क्योंकि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के विषय में थोड़ी सी भी समझ हासिल नहीं करोगे। यदि तुम वाकई में परमेश्वर के अधिकार को जानते एवं समझते नहीं हो, तो जब तुम सड़क के अंत में पहुँचते हो, भले ही तुमने दशकों से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो तुम्हारे पास अपने जीवन में कुछ भी दिखाने के लिए नहीं होगा, और मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के विषय में तुम्हारा ज्ञान अनिवार्य रूप से शून्य होगा। क्या यह बहुत ही दुखदायी बात नहीं है? अतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम जीवन में कितनी दूर चले आए हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अब तुम कितने वृद्ध हो गए हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम्हारी बाकी बची हुई यात्रा कितनी लम्बी है, पहले तुम्हें परमेश्वर के अधिकार को पहचानना होगा और इसे गम्भीरतापूर्वक लेना होगा, और इस तथ्य (सच्चाई) को मानना होगा कि परमेश्वर तुम्हारा अद्वितीय स्वामी है। मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के सम्बन्ध में इन सच्चाईयों का स्पष्ट एवं सटीक ज्ञान एवं समझ हासिल करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक जरुरी सबक है, यह मानव जीवन को जानने एवं सत्य को हासिल करने की एक कुंजी है, परमेश्वर को जानने हेतु जीवन व बुनियादी सबक है जिसका हर कोई हर दिन सामना करता है, और जिससे कोई बच नहीं सकता है। यदि तुम में से कुछ लोग इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कोई छोटा मार्ग लेना चाहते हैं, तो मैं तुमसे कहता हूँ, कि यह असंभव है! यदि तुम में से कुछ लोग परमेश्वर की संप्रभुता से बचना चाहते हैं, तो यह और भी अधिक असंभव है! परमेश्वर ही मनुष्य का एकमात्र प्रभु है, परमेश्वर ही मानव की नियति का एकमात्र स्वामी है, और इस प्रकार मनुष्य के लिए अपनी स्वयं की नियति का नियन्त्रण करना असंभव है, और उससे बढ़कर होना असंभव है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किसी व्यक्ति की योग्यताएं कितनी ऊंची हैं, वह दूसरों की नियति को प्रभावित नहीं कर सकता है, आयोजित, व्यवस्थित, नियन्त्रित, या परिवर्तित तो बिलकुल नहीं कर सकता है। केवल स्वयं अद्वितीय परमेश्वर ही मनुष्य के लिए सभी हालातों को नियन्त्रित करता है, क्योंकि केवल वह ही अद्वितीय अधिकार धारण करता है जो मानव की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता है; और इस प्रकार केवल सृष्टिकर्ता ही मनुष्य का अद्वितीय स्वामी है। परमेश्वर का अधिकार न केवल सृजे गए मानवता के ऊपर संप्रभुता रखता है, बल्कि न सृजी गई चीज़ों के ऊपर जिन्हें कोई मानव देख नहीं सकता है, तारों के ऊपर,एवं विश्व के ऊपर भी संप्रभुता रखता है। यह एक निर्विवादित तथ्य है, ऐसा तथ्य जो वाकई में अस्तित्व में है, जिसे कोई मनुष्य या चीज़ बदल नहीं सकता है। यदि तुम में से कुछ लोग अभी भी जीवन के हालातों से असंतुष्ट हैं जिस प्रकार वे हैं, यह विश्वास करते हुए कि तुम्हारे पास कुछ विशेष कौशल या योग्यता है, और अभी भी यह सोचते हो कि तुम भाग्यशाली हो सकते हो और अपनी वर्तमान परिस्थितियों को बदल सकते हो या उससे बच सकते हो; यदि तुम मानवीय कोशिशों के माध्यम से अपनी नियति बदलने का प्रयास करते हो, और इसके द्वारा दूसरों से विशिष्ट दिखाई देते हो और प्रसिद्धि एवं सौभाग्य अर्जित करते हो, तब मैं तुमसे कहता हूँ, तुम जीवन के हालातों को अपने लिए कठिन बना रहे हैं, तुम केवल समस्याओं को ही मांग रहे हैं, तुम अपनी ही कब्र खोद रहे हैं! एक दिन, जल्दी या देर से ही सही, तुम यह जान जाओगे कि तुमने गलत चुनाव किया था, और यह कि तुम्हारी कोशिशें व्यर्थ थी। तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं, नियति से लड़ने की तुम्हारी इच्छाएं, और तुम्हारा स्वयं का विचित्र स्वभाव, तुम्हें ऐसे मार्ग में ले जाएगा जहाँ से कोई वापसी नहीं है, और इसके लिए तुम एक कड़वी कीमत चुकाओगे। हालाँकि फिलहाल तुम परिणाम की भयंकरता को नहीं देख पा रहे हो, जब तुम और भी अधिक गहराई से उस सत्य का अनुभव एवं उसकी प्रशंसा करते हो कि परमेश्वर मानव की नियति का स्वामी है, तो तुम धीरे धीरे यह महसूस करने लगोगे कि आज मैं किसके विषय में बात कर रहा हूँ और इसके वास्तविक परिणाम क्या हैं। तुम्हारे पास सचमुच में हृदय एवं आत्मा है या नहीं तुम एक ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो सत्य से प्रेम करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति एवं सत्य के प्रति किस प्रकार की मनोवृत्ति अपनाते हो। और स्वाभाविक रूप से, यह निर्धारित करता है कि तुम वाकई में परमेश्वर के अधिकार को जान एवं समझ सकते हो या नहीं। यदि तुमने अपने जीवन में परमेश्वर की संप्रभुता एवं उसके इंतज़ामों का कभी भी आभास नहीं किया है, परमेश्वर के अधिकार को बिलकुल भी पहचाना एवं स्वीकारा नहीं है, तो उस मार्ग के कारण जिसे तुमने लिया है और उस चुनाव के कारण जो तुमने किया है, तुम पूरी तरह से निकम्मे हो जाओगे, तुम निःसन्देह परमेश्वर की घृणा एवं तिरस्कार के पात्र हो जाओगे। परन्तु ऐसे लोग जो, परमेश्वर के कार्य में, उसकी परीक्षाओं को स्वीकार कर सकते हैं, उसकी संप्रभुता को ग्रहण कर सकते हैं, उसके अधिकार के अधीन हो सकते हैं, और आहिस्ता आहिस्ता उसके वचनों का वास्तविक अनुभव हासिल कर सकते हैं, वे परमेश्वर के अधिकार के वास्तविक ज्ञान को, एवं उसकी संप्रभुता की वास्तविक समझ को अर्जित कर चुके होंगे, और वे सचमुच में सृष्टिकर्ता के अधीन हो गए होंगे। केवल इस प्रकार के लोगों को ही सचमुच में बचाया गया होगा। क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की संप्रभुता को जाना है, क्योंकि उन्होंने इसे स्वीकार किया है, तो मानव की नियति के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य की उनकी समझ एवं उसके प्रति उनकी अधीनता वास्तविक एवं उचित है। जब वे मृत्यु को देखेंगे तो वे अय्यूब के समान इस योग्य होंगे कि उनके पास ऐसा मन है जो मृत्यु के द्वारा विचलित नहीं होता है, वे बिना किसी व्यक्तिगत चुनाव के साथ, एवं बिना किसी व्यक्तिगत इच्छा के साथसभी हालातों में परमेश्वर के आयोजनों एवं इंतज़ामों के अधीन रहते हैं। केवल ऐसा व्यक्ति ही एक वास्तविक सृजे गए मानव प्राणी के रूप सृष्टिकर्ता की ओर लौटने के योग्य होगा।
26 मार्च 2015

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