स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर का धर्मी स्वभाव
तुम सब परमेश्वर के अधिकार के बारे में पिछली सभा में सुन चुके हो, अब मैं आश्वस्त हूं कि तुम सब उस मुद्दे पर शब्दों की व्यूह रचना के साथ पूर्ण रूप से सुसज्जित हो गए हो। तुम सब कितना अधिक स्वीकार कर सकते हो, आभास कर सकते और समझ सकते हो यह इस पर निर्भर करता है कि तुम सब उसके लिए कितना प्रयास करोगे। यह मेरी आशा है कि तुम सब इस मुद्दे तक बड़े उत्साह से पहुंच सको; तुम लोगों को किसी भी कीमत पर इसके साथ अधूरे मन से व्यवहार नहीं करना चाहिए। अब, क्या परमेश्वर के अधिकार को जानना परमेश्वर की सम्पूर्णता को जानने के समान है?
कोई कह सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानना स्वयं अद्वितीय परमेश्वर को जानने की शुरुआत है, और कोई यह भी कह सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानने का अर्थ है कि किसी ने स्वयं अद्वितीय परमेश्वर की हस्ती को जानने हेतु पहले से ही द्वार के भीतर कदम रख दिया है। यह समझ परमेश्वर को जानने का एक भाग है। दूसरा भाग क्या है? यह वह विषय है जिसके बारे मैं आज विचार विमर्श करना चाहूंगा - परमेश्वर का धर्मी स्वभाव।
कोई कह सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानना स्वयं अद्वितीय परमेश्वर को जानने की शुरुआत है, और कोई यह भी कह सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानने का अर्थ है कि किसी ने स्वयं अद्वितीय परमेश्वर की हस्ती को जानने हेतु पहले से ही द्वार के भीतर कदम रख दिया है। यह समझ परमेश्वर को जानने का एक भाग है। दूसरा भाग क्या है? यह वह विषय है जिसके बारे मैं आज विचार विमर्श करना चाहूंगा - परमेश्वर का धर्मी स्वभाव।
जिसके तहत आज के विषय के बारे में विचार विमर्श करने के लिए मैंने बाइबल से दो खण्डों का चयन किया है: पहला परमेश्वर द्वारा सदोम के विनाश से सम्बन्धित है, जिसे उत्पत्ति 19:1-11 और उत्पत्ति 19:24-25 में पाया जा सकता है; दूसरा परमेश्वर द्वारा नीनवे के छुटकारे से सम्बन्धित है, जिसे पुस्तक के तीसरे और चौथे अध्यायों के अतिरिक्त योना 1:1-2 में पाया जा सकता है। मैं सन्देह करता हूँ कि तुम सब सुनने के लिए इंतज़ार कर रहे हो कि मुझे इन दो खण्डों के बारे में क्या कहना है। जो कुछ मैं सहजता से कहता हूँ वह स्वयं परमेश्वर को जानने और उसकी हस्ती को जानने के मुख्य विषय से अलग नहीं हो सकता है, किन्तु आज की सहभागिता का केन्द्र क्या होगा? क्या तुम लोगों में से कोई जानता है? "परमेश्वर के अधिकार" के बारे में मेरे विचार विमर्श के किन भागों ने तुम सब का ध्यान खींचा था? मैंने क्यों कहा था कि केवल वही जो ऐसा अधिकार और सामर्थ धारण करता है स्वयं परमेश्वर है? ऐसा कहने के द्वारा मैं क्या समझाना चाहता हूँ? मैं तुम लोगों को क्या सूचित करना चाहता था? जिस प्रकार उसकी हस्ती को प्रदर्शित किया गया है क्या परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ एक पहलू है? क्या वे उसकी हस्ती के एक भाग हैं जो उसकी पहचान और पदस्थिति को प्रमाणित करती है? क्या इन प्रश्नों ने तुम लोगों को बता दिया है कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ? मैं तुम लोगों को क्या समझाना चाहता हूँ? सावधानी से इस पर विचार करो।
(I) ढिठाई से परमेश्वर का विरोध करने से, मनुष्य परमेश्वर के क्रोध के द्वारा नाश हो जाता है।
सर्वप्रथम, आओ हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो "परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश" की व्याख्या करते हैं।
(उत्पत्ति 19:1-11) "सांझ को वे दो दूत सदोम के पास आए और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उनको देखकर वह उनसे भेंट करने के लिए उठा और मुंह के बल झुककर दण्डवत कर कहा हे मेरे प्रभुओं, अपने दास के घर में पधारिये और रात भर विश्राम कीजिये और अपने पांव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइये।" उन्होंने कहा, "नहीं हम चौक ही में रात बिताएंगे।" पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया, इसलिए वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए और उसने उनके लिए भोजन तैयार किया और बिना खमीर की रोटियां बनाकर उनको खिलाई; उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया और लूत को पुकारकर कहने लगे, "जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहां हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।" तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया और किवाड़ को अपने पीछे बंद करके कहा "हे मेरे भाइयों ऐसे बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियां हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुंह नहीं देखा, इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊं और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो, पर इन पुरुषों से कुछ न करो, क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।" उन्होंने कहा "हट जा!" फिर वे कहने लगे, "तू एक परदेशी होकर यहां रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है, इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।" और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए।तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया और किवाड़ को बंद कर दिया और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरूषों को जो द्वार पर थे, अंधा कर दिया, अतः वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।
(उत्पत्ति 19:24-25) "तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।"
इन अंशों से, यह देखना कठिन नहीं है कि सदोम का अधर्म और भ्रष्टता पहले से ही उस मात्रा तक पहुँच चुका था जो परमेश्वर और मुनष्यों दोनों के लिए घृणास्पद था, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में नगर नाश किए जाने के लायक था। परन्तु नगर के नाश किए जाने से पहले उसके भीतर क्या हुआ था? हम इन घटनाओं से क्या सीख सकते हैं? इन घटनाओं के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति उसके स्वभाव के विषय में हमें क्या दिखाती है? सम्पूर्ण कहानी को समझने के लिए, जो कुछ पवित्र शास्त्र में लिखा गया था आओ हम उसे सावधानीपूर्वक पढ़ें।
सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली
उस रात, लूत ने परमेश्वर के दो दूतों का स्वागत किया और उनके लिए एक भोज तैयार किया। रात्रि के भोजन पश्चात्, उनके लेटने से पहले, नगर के चारों ओर से लोगों की भीड़ ने लूत के घर को घेर लिया और लूत को बाहर बुलाने लगे। पवित्र शास्त्र उन्हें दर्ज करता है यह कहते हुए, "जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहां हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।" इन शब्दों को किसने कहा था? इन्हें किन से कहा गया था? ये सदोम के लोगों के शब्द थे, जो लूत के घर के बाहर चिल्लाते थे और ये लूत के लिए थे। इन शब्दों को सुनकर कैसा महसूस होता है? क्या तुम क्रोधित हो? क्या इन शब्दों से तुम्हें घिन आती है? क्या तुम क्रोध के मारे आगबबूला हो रहे हो? क्या ये शब्द शैतान की तीखी दुर्गन्ध नहीं है? उनके जरिए, क्या तुम इस नगर की बुराई और अन्धकार का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके शब्दों के जरिए इन लोगों के व्यवहार की क्रूरता और असभ्यता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके आचरण के जरिए उनकी भ्रष्टता की गहराई का एहसास कर सकते हो? उनकी बोली की विषयवस्तु के जरिए, यह देखना कठिन नहीं है कि उनकी बुरी प्रवृत्ति और हिंसक स्वभाव एक ऐसे स्तर तक पहुँच गया था जो उनके खुद के नियन्त्रण से परे था। लूत को छोड़कर, नगर का हर अंतिम व्यक्ति शैतान से अलग नहीं था; अन्य व्यक्तियों की मात्र झलक से ही ये लोग उन्हें नुकसान पहुंचना और निगल जाना चाहते थे…. ये चीज़ें न केवल एक व्यक्ति को नगर के भयंकर और डरावने स्वभाव, साथ ही साथ इस के चारों ओर मौत के घेरे का एहसास कराती हैं; बल्कि वे एक व्यक्ति को उसकी बुराई एवं खूनी प्रवृत्ति का भी एहसास कराती हैं।
जब उसने स्वयं को अमानवीय ठगों के गिरोह के आमने-सामने पाया, ऐसे लोग जो प्राणों को निगल जाने की लालसा से भरे हुए थे, तो लूत ने कैसा प्रत्युत्तर दिया था? पवित्र शास्त्र के अनुसार: "हे भाइयों ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियां है जिन्होंने अब तक पुरुष का मुंह नहीं देखा, इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊं और तुमको जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो, पर इन पुरुषों से कुछ न करो, क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।" लूत के शब्दों का अभिप्राय निम्नलिखित था: वह दूतों को बचाने के लिए अपनी दो बेटियों को त्यागने के लिए तैयार हो गया था। इस कारण से, इन लोगों को लूत की शर्तों से सहमत हो जाना चाहिए था और दोनों दूतों को अकेला छोड़ देना चाहिए था; बहरहाल, वे दूत उनके लिए पूरी तरह से अजनबी थे, ऐसे लोग जिनका उनके साथ कोई लेना देना नहीं था; इन दोनों दूतों ने उनके हितों को कभी भी नुकसान नहीं पहुंचाया था। फिर भी, अपनी बुरी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर, उन्होंने उस मुद्दे को यहाँ पर नहीं छोड़ा। उसके बजाए, उन्होंने केवल अपने प्रयासों को और अधिक तेज कर दिया। यहां उनकी एक और अदला-बदली बिना किसी सन्देह के एक व्यक्ति को इन लोगों के असली पापपूर्ण स्वभाव की और अधिक अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकती है; उसी समय यह किसी व्यक्ति को उस कारण को जानने और बूझने की अनुमति भी देती है कि क्यों परमेश्वर इस नगर को नाश करना चाहता था।
अत: उन्होंने आगे क्या कहा? जैसा बाइबल में पढ़ते है: "हट जा!" फिर वे कहने लगे, "तू एक परदेशी होकर यहां रहने के लिए आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा, इसलिए अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।" और वे उस पुरुष को बहुत दबाने लगे और किवाड़ तोड़ने के लिए निकट आए। वे किवाड़ को क्यों तोड़ना चाहते थे? वजह यह है कि वे उन दोनों दूतों को नुकसान पहुँचाने के लिए बहुत उत्सुक थे। वे दोनों दूत सदोम में क्या कर रहे थे? वहां आने का उनका उद्देश्य था लूत एवं उसके परिवार को बचाना; फिर भी, नगर के लोगों ने ग़लत रीति से सोचा कि वे आधिकारिक पदों पर हक़ जमाने के लिए आए थे। उनके उदेश्य को पूछे बिना, यह मात्र अनुमान ही था जिससे नगरवासियों ने असभ्यता से उन दोनों दूतों को नुकसान पहुंचाना चाहा; वे ऐसे दो जनों को चोट पहुंचाना चाहते थे जिनका उनके साथ किसी भी प्रकार का लेना देना नहीं था। यह स्पष्ट है कि नगर के लोगों ने पूरी तरह से अपनी मानवता और तर्कशक्ति को गंवा दिया था। उनके पागलपन और असभ्यता का स्तर पहले से ही मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले और निगल जानेवाले शैतान के दुष्ट स्वभाव से अलग नहीं था।
जब उन्होंने लूत से इन लोगों को मांगा, तब लूत ने क्या किया? पाठ से हमें ज्ञात होता है कि लूत ने उन्हें नहीं सौंपा। क्या लूत परमेश्वर के इन दोनों दूतों को जानता था? बिलकुल भी नहीं! परन्तु वह इन दोनों लोगों को बचाने में समर्थ क्यों था? क्या उसे मालूम था कि वे क्या करने आए थे? यद्यपि वह उनके आने के कारण से अनजान था, फिर भी वह जानता था कि वे परमेश्वर के सेवक हैं, और इस प्रकार उसने उनका स्वागत किया। सदोम के भीतर के अन्य लोगों से अलग, वह परमेश्वर के इन दासों को स्वामी कहकर बुला सकता था जो यह दिखाता है कि लूत आम तौर पर परमेश्वर का एक अनुयायी था। इसलिए, जब परमेश्वर के दूत उसके पास आए, तो इन दोनों सेवकों का स्वागत करने के लिए उसने अपने स्वयं के जीवन को जोखिम में डाल दिया था, उससे बढ़कर, इन दोनों सेवकों की सुरक्षा करने के लिए उसने अपनी बेटियों की अदला-बदली भी की थी। यह लूत का धर्मी कार्य है; साथ ही यह लूत के स्वभाव और उसकी हस्ती का एक स्पृश्य प्रकटीकरण है, और साथ ही यह वह कारण भी है कि परमेश्वर ने लूत को बचाने के लिए अपने सेवकों को भेजा था। जोखिम का सामना करते समय, लूत ने किसी भी चीज़ की परवाह किए बगैर इन दोनों सेवकों की सुरक्षा की; यहाँ तक कि उसने सेवकों की सुरक्षा के बदले में अपनी दोनों बेटियों का सौदा करने का भी प्रयास किया था। लूत के अतिरिक्त, क्या नगर के भीतर कोई ऐसा था जो कुछ इस तरह का काम कर सकता था? जैसे कि तथ्य साबित करते हैं – नहीं! इसलिए, कहने की आवश्यकता नहीं है कि लूत को छोड़कर सदोम के भीतर हर कोई विनाश का एक लक्ष्य था साथ ही साथ एक ऐसे लक्ष्य के समान था जो विनाश के योग्य था।
परमेश्वर के क्रोध को भड़काने के कारण सदोम को तबाह कर दिया गया
जब सदोम के लोगों ने इन दो सेवकों को देखा, तो उन्होंने उनके आने का कारण नहीं पूछा, न ही किसी ने यह पूछा कि क्या वे परमेश्वर की इच्छा का प्रचार करने के लिए आए थे। इसके विपरीत, उन्होंने एक भीड़ इकट्ठा की और, स्पष्टीकरण का इंतज़ार किए बगैर, जंगली कुत्तों या दुष्ट भेड़ियों के समान उन दोनों सेवकों को पकड़ने के लिए आ गए। क्या परमेश्वर ने इन चीज़ों को देखा था जब वे घटित हुई थीं? इस प्रकार के मानवीय व्यवहार, और इस प्रकार की चीज़ को लेकर परमेश्वर अपने हृदय में क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने इस नगर का नाश करने का निर्णय लिया; अब वह संकोच और इंतज़ार नहीं करेगा, न ही वह निरन्तर धीरज दिखाएगा। उसका दिन आ चुका था, अतः उसने उस कार्य को आरम्भ किया जिसे उसने करने की इच्छा की थी। इस प्रकार, उत्पत्ति 19:24-25 कहता है "तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।" ये दोनों पद लोगों को उस पद्धति के बारे में बताते हैं जिसके तहत परमेश्वर ने नगर को नष्ट किया था; और यह लोगों को यह भी बताता है कि परमेश्वर ने क्या नाश किया था। प्रथम, बाईबिल वर्णन करती है कि परमेश्वर ने उस नगर को आग से जला दिया, और यह कि आग की मात्रा समस्त लोगों और जो कुछ भूमि पर उगता था उसे नष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। कहने का तात्पर्य है, वह आग जो स्वर्ग से गिरी उसने न केवल उस नगर को नष्ट किया; बल्कि उसने उसके भीतर समस्त लोगों और जीवित प्राणियों को भी नष्ट कर दिया, और बिना किसी नामोनिशान के सब कुछ नष्ट कर दिया। नगर के नष्ट होने के पश्चात्, वह भूमि जीवित प्राणियों से विहीन हो गई थी। वहां और कोई जीवन नहीं था, और न ही जीवन के निशान थे। नगर एक उजड़ी भूमि और एक खाली स्थान बन गया था जो मौत की ख़ामोशी से भरा हुआ था। इस स्थान पर परमेश्वर के विरुद्ध अब और कोई बुरा कार्य नहीं होगा; अब और कोई हत्या या ख़ून ख़राबा नहीं होगा।
परमेश्वर क्यों इस नगर को पूरी तरह से जलाना चाहता था? तुम यहां क्या देख सकते हो? क्या परमेश्वर मनुष्य और प्रकृति, एवं अपनी स्वयं की सृष्टि को इस तरह नाश होते हुए देख पाता? यदि तुम उस आग से यहोवा परमेश्वर के कोप को परख सकते हो जिसे स्वर्ग से नीचे गिराया गया था, तो उसकी विनाशलीला के लक्ष्य से साथ ही साथ जिस हद तक इस नगर को नष्ट किया गया था उस से उसके फैलाव के स्तर को देखना कठिन नहीं है। जब परमेश्वर किसी नगर को तुच्छ जानता है, तो वह अपने दण्ड को उसके ऊपर डालेगा। जब परमेश्वर किसी नगर से अप्रसन्न को जाता है, तो वह लोगों को अपने क्रोध के बारे में सूचित करते हुए बार बार चेतावनियां जारी करेगा। फिर भी, जब परमेश्वर एक नगर का खात्मा और विनाश करने का निर्णय लेता है – अर्थात्, उसके क्रोध और वैभव को ठेस पहुँचाया गया है – तो वह आगे से और दण्ड और चेतावनी नहीं देगा। इसके बजाय, वह सीधे उसे नष्ट कर देगा। वह उसे पूरी तरह से मिटा देगा। यह परमेश्वर का धर्मी स्वभाव है।
परमेश्वर के प्रति सदोम के लगातार प्रतिरोध और शत्रुता के पश्चात्, उसने उसे पूरी तरह से मिटा दिया है
जब एक बार हम में परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सामान्य समझ आ जाती है, तो हम अपने ध्यान को सदोम के नगर की ओर मोड़ सकते हैं – जिसे परमेश्वर ने पाप की नगरी के रूप में देखा था। इस नगर की हस्ती को समझने के द्वारा, हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर इसे क्यों नष्ट करना चाहता था और उसने इसे क्यों पूरी तरह से नष्ट किया था। इससे, हम परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को जान सकते हैं।
मानवीय दृष्टिकोण से, सदोम ऐसा नगर था जो मनुष्य की इच्छा और मनुष्य की दुष्टता दोनों को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता था। वह प्रलोभन देने वाला और मोहित करने वाला था, जहाँ हर रात संगीत और नृत्य के साथ, उसकी सम्पन्नता ने मनुष्यों को आकर्षण और उन्माद की और धकेल दिया। बुराई ने लोगों के हृदयों को कलुषित कर दिया और उन्हें मोहित करके पतित कर दिया। यह एक ऐसा नगर था जहां अशुद्ध आत्माएं और दुष्ट आत्माएं बेधड़क मण्डराया करते थे; यह पाप और हत्या से पूरी तरह भरा हुआ था और ख़ूनी एवं सड़े हुए दुर्गन्ध से भरपूर था। यह एक ऐसा नगर था जिसने लोगों की हड्डियों तक को सुन्न कर दिया, एवं एक ऐसा नगर था जिससे कोई भी अपने आपको पीछे खींच लेता। इस नगर में ऐसा कोई नहीं था - न पुरुष और न स्त्री, न जवान और न बुज़ुर्ग - जो सच्चे मार्ग को खोजता था; कोई भी प्रकाश की लालसा नहीं करता था या पाप से दूर जाने की इच्छा नहीं करता था। वे शैतान के नियन्त्रण, भ्रष्टता और धूर्तता में जीवन बिताते थे। उन्होंने अपनी मानवता को खो दिया था; उन्होंने अपनी संवेदनाओं को गवां दिया था, और उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व के मूल उद्देश्य को खो दिया था। उन्होंने परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध के अनगिनित पापों को अंजाम दिया था; उन्होंने उसके मार्गदर्शन को अस्वीकार किया और उसकी इच्छा का विरोध किया था। ये उनके बुरे कार्य थे जिसने इन लोगों को, नगर को, और उसके भीतर के हर एक जीवित प्राणी को कदम दर कदम विनाश के पथ पर नीचे पहुंचा दिया था।
यद्यपि ये दोनों अंश उन विवरणों को दर्ज नहीं करते हैं जो सदोम के लोगों की भ्रष्टता के विस्तार का वर्णन करते हैं, इसके बजाए वे नगर में उनके आगमन के बाद परमेश्वर के दोनों सेवकों के प्रति उनके व्यवहार को दर्ज करते हैं, और एक साधारण सा सत्य प्रकट कर सकता है कि किस हद तक सदोम के लोग भ्रष्ट एवं दुष्ट थे और परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे। इसके साथ ही, नगर के लोगों के असली चेहरे और तत्व का भी खुलासा हो जाता है। उन्होंने न केवल परमेश्वर की चेतावनियों को स्वीकार नहीं किया था, बल्कि वे उसके दण्ड से भी नहीं डरते थे। इसके विपरीत, उन्होंने परमेश्वर के कोप का उपहास किया। उन्होंने आंख बंद करके परमेश्वर का प्रतिरोध किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसने क्या किया था या उसने इसे कैसे किया था, क्योंकि उनका दुष्ट स्वभाव केवल तेजी से बढ़ता गया था, और उन्होंने लगातार परमेश्वर का विरोध किया था। सदोम के लोग परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आगमन, उसके दण्ड, और उससे बढ़कर, उसकी चेतावनियों के विरुद्ध थे। उन्होंने उन सभी लोगों को निगल लिया और नुकसान पहुँचाया जिन्हें निगला और नुकसान पहुँचाया जा सकता था, और उन्होंने परमेश्वर के सेवकों से कोई अलग बर्ताव नहीं किया था। सदोम के लोगों के द्वारा की गई दुष्टता के तमाम कार्यों के लिहाज से, परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुंचना तो बस हिमशैल का ऊपरी छोर था, और इससे जो उनका दुष्ट स्वभाव प्रकट हुआ था वह वास्तव में विशाल समुद्र में पानी की एक बूंद से थोड़ा और बढ़ गया था। इसलिए, परमेश्वर ने उन्हें आग से नष्ट करने का चुनाव किया। परमेश्वर ने नगर को नष्ट करने के लिए बाढ़ का इस्तेमाल नहीं किया, न ही उसने चक्रवात, भूकम्प, सुनामी या किसी और तरीके का इस्तेमाल किया। इस नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल क्या सूचित करता है? इसका अर्थ नगर का सम्पूर्ण विनाश था, इसका अर्थ था कि नगर पूरी तरह से पृथ्वी से और अस्तित्व से लोप हो गया था। यहां, "विनाश" न केवल नगर के आकार और ढांचे या बाहरी रूप के लोप हो जाने की ओर संकेत करता है; बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि पूरी रीति से मिटा दिए जाने के बाद नगर के भीतर के लोगों की आत्माएं भी अस्तित्व में नहीं थे। साधारण रूप से कहें, तो नगर के साथ जुड़े सभी लोगों, घटनाओं और चीज़ों को नष्ट किया गया था। उनके लिए मृत्यु पश्चात् जीवन या पुन:देहधारण नहीं होगा; परमेश्वर ने उन्हें मानवता से, एवं अपनी सृष्टि से हमेशा हमेशा के लिए मिटा दिया था। "आग का इस्तेमाल" गुनाह के विराम को सूचित करता है, और इसका अर्थ है पाप का अंत; यह पाप अस्तित्व में नहीं रहेगा और नहीं फैलेगा; इसका अर्थ था कि शैतान की दुष्टता ने अपनी पोषण भूमि को साथ ही साथ उस कब्रिस्तान को भी खो दिया था जिसने इसे रहने और जीने के लिए एक स्थान प्रदान किया था। परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध में, परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल उसकी विजय की छाप है जिससे शैतान पर छाप की गई है। मनुष्यों को भ्रष्ट और बर्बाद करने के द्वारा परमेश्वर का विरोध करने के लिए सदोम का विनाश शैतान की महत्वाकांक्षा में एक बहुत भारी चूक है, और उसी प्रकार यह मानवता के विकास के समय में एक अपमानजनक चिन्ह है जब मनुष्य ने परमेश्वर के मार्गदर्शन को ठुकरा दिया था और बुराई के लिए अपने आपका परित्याग किया था। इसके अतिरिक्त, यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के सच्चे प्रकाशन का एक लेख है।
जब उस आग ने जिसे परमेश्वर ने स्वर्ग से भेजा था सदोम को राख में तब्दील कर दिया, तो इसका अर्थ था कि "सदोम" नामक नगर, और उसी प्रकार उस नगर के भीतर की हर चीज़ भी अस्तित्व में नहीं रही। इसे परमेश्वर के क्रोध के द्वारा नष्ट किया गया, यह परमेश्वर के क्रोध और महाप्रताप के अधीन लोप हो गया। परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के कारण सदोम को उसका न्यायोचित दण्ड मिला; और परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के कारण, उसे उसका न्यायोचित अंत मिला। सदोम के अस्तित्व का अन्त उसकी बुराई के कारण हुआ, और साथ ही यह इस कारण से भी था क्योंकि परमेश्वर दोबारा इस नगर को, साथ ही साथ किसी भी जन को जो इस नगर में रहता था या किसी भी जीवन को जो इस नगर में पनपा था देखना नहीं चाहता था। परमेश्वर की "इच्छा कि वह दोबारा इस नगर को कभी नहीं देखेगा," यह उसका क्रोध और साथ ही साथ उसका महाप्रताप है।" परमेश्वर ने नगर को जला दिया क्योंकि उसकी बुराई और पाप ने उसे उसके प्रति क्रोध, घृणा और द्वेष का एहसास कराया था और वह उसको या किसी भी इंसान को और जीवित प्राणियों को दोबारा कभी नहीं देखना चाहता था। जब एक बार नगर का जलना समाप्त हो गया, और केवल राख ही रह गया, तो यह सचमुच में परमेश्वर की नज़रों में अस्तित्व में नहीं रहा; यहाँ तक कि उसकी यादें भी चली गईं और मिट गईं। इसका अर्थ है कि वह आग जिसे स्वर्ग से भेजा गया था उसने न केवल सदोम नगर और अधर्म को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था–जो लोगों के भीतर भरा हुआ था, और न केवल उसने नगर के भीतर सभी चीज़ों को नष्ट कर दिया जिन्हें पाप के द्वारा कलंकित कर दिया गया था; बल्कि उससे भी बढ़कर, इस आग ने मानवता की दुष्टता की यादों को और परमेश्वर की प्रति उनके प्रतिरोध को नष्ट कर दिया था। उस नगर को जलाकर राख करने में परमेश्वर का उद्देश्य यही था।
मानवता चरम सीमा तक पतित हो चुकी थी। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन था या वे कहाँ से आए थे। यदि तुम परमेश्वर का जिक्र करते, तो ये लोग हमला कर देते, कलंक लगाते और ईश्वर की निन्दा करते। यहाँ तक कि जब परमेश्वर के सेवक उसकी चेतावनी का प्रचार करने आए थे, तब इन दुष्ट लोगों ने न केवल पश्चाताप को कोई चिन्ह नहीं दिखाया; बल्कि उन्होंने अपने दुष्ट आचरण को भी नहीं त्यागा। इसके विपरीत, उन्होंने ढिठाई से परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाया। जो कुछ उन्होंने उजागर और प्रकट किया था वह उनके स्वभाव और परमेश्वर के प्रति उनकी चरम शत्रुता का तत्व था। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के विरुद्ध इन भ्रष्ट लोगों का प्रतिरोध उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कहीं अधिक था, बिलकुल वैसे ही जैसे यह निंदा और उपहास करने के एक उदहारण से कहीं अधिक था जो सत्य की समझ की कमी से निकला था। न ही मूर्खता और न ही अज्ञानता ने उनके दुष्ट स्वभाव को उत्पन्न किया था; यह इसलिए नहीं था कि इन लोगों को धोखा दिया गया था, और यह तो बिलकुल भी नहीं था कि इन्हें भटकाया गया था। उनका चाल-चलन परमेश्वर के विरुद्ध खुले तौर पर निर्लज्ज शत्रुता, विरोध और उपद्रव के स्तर तक पहुंच चुका था। बिना किसी सन्देह के, इस प्रकार का मानवीय आचरण परमेश्वर को क्रोधित करेगा, और यह उसके स्वभाव को क्रोधित करेगा-एक ऐसा स्वभाव जिसे ठेस नहीं पहुंचना चाहिए। इसलिए, परमेश्वर ने सीधे और खुले तौर पर अपने क्रोध और अपने प्रताप को जारी किया; यह उसके धर्मी स्वभाव का सच्चा प्रकाशन है। एक ऐसे नगर का सामना करते हुए जो पाप से उमड़ रहा था, परमेश्वर ने जहाँ तक संभव हो उसे अतिशीघ्र नाश करने की इच्छा की थी; वह उसके भीतर लोगों को और उनके सम्पूर्ण पापों को सबसे मुकम्मल रीति से मिटाना, और इस नगर के लोगों के अस्तित्व को समाप्त करना और इस स्थान के भीतर उस पाप को बहुगुणित होने से रोकना चाहता था। ऐसा करने का सबसे तेज और सबसे मुकम्मल तरीका था उसे आग से जलाकर नाश करना। सदोम के लोगों के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति एक प्रकार से परित्याग या उपेक्षा नहीं थी; उसके बजाए, उसने इन लोगों को दण्ड देने, मारकर नीचे गिराने और पूरी तरह से नाश करने लिए अपने क्रोध, प्रताप और अधिकार का प्रयोग किया था। उनके प्रति उसकी मनोवृत्ति एक प्रकार से न केवल शारीरिक विनाश की थी किन्तु साथ ही प्राण के विनाश की थी, एक अनंतकालिक विध्वंस। यह उनके "अस्तित्व की समाप्ति के लिए" परमेश्वर की इच्छा का असली आशय है।
हालाँकि परमेश्वर का क्रोध मनुष्य से छिपा हुआ और अज्ञात है, फिर भी यह किसी अपराध को नहीं सहता है
समस्त मूर्ख और अबोध मानवता के प्रति परमेश्वर का उपचार मुख्य रूप से दया और सहनशीलता पर आधारित है। दूसरी ओर, उसका क्रोध समय और चीज़ों के अति विशाल पैमाने में छिपा हुआ है; मनुष्य इससे अनजान है। परिणामस्वरूप, यह मनुष्य के लिए कठिन है कि वह परमेश्वर को उसका क्रोध प्रदर्शित करते हुए देखे, और साथ ही उसके क्रोध को समझना भी कठिन है। जैसा कहा जा चुका है, मनुष्य परमेश्वर के क्रोध को हल्के में लेता है। जब मनुष्य परमेश्वर के अंतिम कार्य और सहनशीलता के कदम और मनुष्य की क्षमा का सामना करता है - अर्थात्, जब परमेश्वर की दया का अंतिम उदाहरण और उसकी अंतिम चेतावनी उनके पास पहुँचती है - यदि वे तब भी परमेश्वर का विरोध करने के लिए उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और पश्चाताप करने, अपने मार्गों को सुधारने या उसकी दया को स्वीकार करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं, तो परमेश्वर आगे से उनको अपनी सहनशीलता और धैर्य प्रदान नहीं करेगा। इसके विपरीत, यह वह समय है जब परमेश्वर अपनी दया को वापस ले लेगा। इसके पश्चात्, वह बस अपने क्रोध को प्रकट करेगा। वह अलग अलग तरीकों से अपने क्रोध को प्रकट कर सकता है, बिलकुल वैसे ही जैसे वह लोगों को दण्ड देने और नष्ट करने के लिए अलग अलग पद्धतियों का इस्तेमाल करता है।
सदोम नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल करना मानवता और किसी जीव को सम्पूर्ण रीति से विनाश करने के लिए उसकी शीघ्रतम पद्धति है। सदोम के लोगों को जलाना उनकी शरीरिक देहों को नष्ट करने से कहीं अधिक था; इसने पूरी तरह से उनके आत्माओं, उनके प्राणों और उनके शरीरों को नष्ट कर दिया, यह सुनिश्चित करते हुए कि इस नगर के भीतर के लोग भौतिक संसार और मनुष्य के लिए अदृश्य संसार में अस्तित्व में नहीं रहेंगे। यह एक तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर अपने क्रोध को दर्शाता और प्रकट करता है। इस तरह का प्रकाशन और प्रदर्शन परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्व का एक पहलू है, बिलकुल वैसे ही जैसे यह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव का आवश्यक तत्व भी है। जब परमेश्वर अपने क्रोध को भेजता है, तो वह दया या करुणा प्रकट करना बन्द कर देता है, न ही वह कोई सहनशीलता या धैर्य प्रदर्शित करता है; तब कोई ऐसा व्यक्ति, वस्तु या कारण नहीं है जो उसे निरन्तर धीरज धरने, फिर से दया करने, और एक बार फिर से अपनी सहनशीलता को प्रकट करने के लिए रज़ामंद कर सकता है। इन चीज़ों के बदले में, बिना एक पल के संकोच के, परमेश्वर अपने क्रोध और प्रताप को प्रकट करेगा, जो कुछ वह चाहता है उसे करेगा, और वह इन चीज़ों को अपनी स्वयं की इच्छाओं के अनुरूप शीघ्रता से और साफ सुथरे तरीके से करेगा। यह वह तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर अपने क्रोध और प्रताप को प्रकट करता है, जिसे मनुष्य को ठेस नहीं पहुंचना चाहिए, और साथ ही यह उसके धर्मी स्वभाव के एक पहलू का प्रकटीकरण भी है। जब लोग परमेश्वर को मनुष्य के प्रति चिंता करते और प्रेम दिखाते हुए देखते हैं, तो वे उसके क्रोध का पता लगाने में, उसके प्रताप का एहसास करने में या गुनाह के प्रति उसकी असहनशीलता का एहसास करने में असमर्थ होते हैं। इन चीज़ों ने हमेशा से यह विश्वास करने में लोगों की अगुवाई की है कि परमेश्वर का धर्मी स्वभाव केवल दया, सहनशीलता और प्रेम है। फिर भी, जब कोई परमेश्वर को किसी नगर का विनाश करते हुए या मानवता को तुच्छ जानते हुए देखता है, तो मनुष्य के विनाश में उसका क्रोध और उसका प्रताप लोगों को उसके धर्मी स्वभाव के अन्य पक्ष की झलक देखने की अनुमति देता है। यह गुनाह के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता है। परमेश्वर का स्वभाव जो किसी गुनाह को सहन नहीं करता है वह किसी भी सृजे गए प्राणी की कल्पना से परे है, और न सृजे गए प्राणियों में से, कोई भी उसके साथ दखलंदाज़ी करने या उसको प्रभावित करने में सक्षम नहीं है; और उससे भी बढ़कर, इसका भेष धारण या इसका अनुकरण नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, परमेश्वर के स्वभाव का यह पहलू ऐसा है जिसे मानवता को बहुत अच्छे से जानना चाहिए। केवल स्वयं परमेश्वर के पास ही इस प्रकार का स्वभाव है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही इस प्रकार के स्वभाव को धारण करता है। परमेश्वर इस प्रकार के धर्मी स्वभाव को धारण करता है क्योंकि वह दुष्टता, अंधकार, विद्रोहीपन और शैतान के बुरे कार्यों से घृणा करता है – मानवजाति को भ्रष्ट करना और निगल जाना – इसलिए क्योंकि वह अपने विरुद्ध पाप के सारे कार्यों से घृणा करता है और अपने पवित्र और बेदाग हस्ती के कारण। यह इसी लिए है क्योंकि वह किसी भी सृजे गए प्राणी या न सृजे गए प्राणी को उसका खुलकर विरोध करने या उससे मुकाबला करने की अनुमति नहीं देगा। यहाँ तक कि एक व्यक्ति भी जिसके प्रति उसने किसी समय दया दिखाई थी या किसी आवश्यकता की पूर्ति की थी वह सिर्फ उसके स्वभाव को क्रोधित करता है और उसके धीरज और सहनशीलता के सिद्धान्त का उल्लंधन करता है, और वह थोड़ी सी भी दया या संकोच के बगैर अपने धर्मी स्वभाव को जारी और प्रकट करेगा - ऐसा स्वभाव जो गुनाह को बर्दाश्त नहीं करता है।
परमेश्वर का क्रोध समस्त सच्ची शक्तियों और समस्त सकारात्मक चीज़ों के लिए बचाव है
परमेश्वर के कथन, विचारों और कार्यों के इन उदाहरणों को समझने के द्वारा, क्या तुम परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को समझने में समर्थ हो, एक ऐसा स्वभाव जिसे ठेस नहीं पहुंचाया जा सकता है? अंत में, यह उस स्वभाव का एक पहलू है जो स्वयं परमेश्वर के लिए अद्वितीय है, इसकी परवाह किए बगैर कि मनुष्य कितना समझ सकता है। गुनाह के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता उसकी विशिष्ट हस्ती है; परमेश्वर का क्रोध उसका विशिष्ट स्वभाव है; परमेश्वर का प्रताप उसकी विशिष्ट हस्ती है। परमेश्वर के क्रोध के पीछे का सिद्धान्त उस पहचान और हैसियत को दर्शाता जिसे सिर्फ उसने धारण किया है। किसी को जिक्र करने की आवश्यकता नहीं है कि यह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर की हस्ती का एक प्रतीक भी है। परमेश्वर का स्वभाव उसकी स्वयं की अंतर्निहित हस्ती है। यह समय के गुज़रने के साथ बिलकुल भी नहीं बदलता है, और जब कभी स्थान परिवर्तित होता है तब भी यह नहीं बदलता है। उसका अंतर्निहित स्वभाव उसकी स्वाभाविक हस्ती है। इसके बावजूद कि वह किसी पर अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, क्योंकि उसकी हस्ती नहीं बदलती है, न ही उसका धर्मी स्वभाव बदलता है। जब कोई उसे क्रोधित करता है, तो जिसे वह आगे भेजता है वह उसका अंतर्निहित स्वभाव है; इस समय उसके क्रोध के पीछे का सिद्धान्त नहीं बदलता है, और न ही उसकी अद्वितीय पहचान और हैसियत बदलती है। अपनी हस्ती में परिवर्तन के कारण या उसके स्वभाव ने अलग अलग तत्वों को उत्पन्न किया है इस कारण वह क्रोधित नहीं होता है, किन्तु इसलिए क्योंकि उसके विरुद्ध मनुष्य का विरोध उसके स्वभाव को ठेस पहुंचाता है। मनुष्य का परमेश्वर को बुरी तरह से उकसाना परमेश्वर की अपनी पहचान और हैसियत के लिए एक गम्भीर चुनौती है। परमेश्वर की नज़र में, जब मनुष्य उसे चुनौती देता है, तब मनुष्य उससे मुकाबला कर रहा है और उसके क्रोध की परीक्षा ले रहा है। जब मुनष्य परमेश्वर का विरोध करता है, जब मनुष्य परमेश्वर से मुकाबला करता है, जब मनुष्य लगातार उसके क्रोध की परीक्षा लेता है – तब भी जब उसका पाप अनियंत्रित हो जाता है - तब परमेश्वर का क्रोध स्वाभाविक रूप से अपने आपको प्रकट एवं प्रस्तुत करेगा। इसलिए, परमेश्वर के क्रोध का प्रकटीकरण संकेत करता है कि समस्त बुरी ताकतें अस्तित्व में नहीं रहेंगी; यह संकेत करता है कि सभी उपद्रवी शक्तियों को नष्ट किया जाएगा। यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की अद्वितीयता है, और यह परमेश्वर के क्रोध की अद्वितीयता है। जब परमेश्वर की गरिमा और पवित्रता को चुनौती दी जाती है, जब मनुष्य के द्वारा धर्मी ताकतों को रोका जाता है और इसकी अनदेखी की जाती है, तब परमेश्वर अपने क्रोध को भेजेगा। परमेश्वर की हस्ती के कारण, पृथ्वी की वे सारी ताकतें जो परमेश्वर का मुकाबला करती हैं, उसका विरोध करती हैं और उसके साथ संघर्ष करती हैं वे बुरी, भ्रष्ट और अधर्मी हैं; वे शैतान की ओर से आती हैं और उसी की हैं। क्योंकि परमेश्वर धर्मी है, और उस प्रकाश और दोषरहित पवित्रता के कारण, समस्त चीज़ें जो बुरी, भ्रष्ट और शैतान से सम्बन्धित हैं वे परमेश्वर के क्रोध के प्रकट होने के साथ ही विलुप्त हो जाएंगी।
यद्यपि परमेश्वर के क्रोध का उंडेला जाना उसके धर्मी स्वभाव के प्रदर्शन का एक पहलू है, फिर भी परमेश्वर का क्रोध अपने लक्ष्य के प्रति विवेकशून्य या सिद्धान्तविहीन बिलकुल भी नहीं है। इसके विपरीत, परमेश्वर क्रोध करने में बिलकुल भी उतावला नहीं है, न ही वह अपने क्रोध और प्रताप को जल्दबाजी में प्रकट करता है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर का क्रोध विशेष रूप से नियन्त्रित और और नपा-तुला होता है; इसकी तुलना इस बात से बिलकुल भी नहीं की जा सकती है कि मनुष्य किस प्रकार अपने क्रोध से आग बबूला होगा या अपने क्रोध को प्रकट करेगा। परमेश्वर और मनुष्य के बीच हुई अनेक बातचीत बाइबल में दर्ज हैं। इन में से कुछ लोगों के कथन सतही, अज्ञानी और बचकाने थे, किन्तु परमेश्वर ने उन्हें मारकर नीचे नहीं गिराया, और न ही उनकी भर्त्सना की। विशेष रूप से, अय्यूब की परीक्षा के दौरान, परमेश्वर ने अय्यूब के तीन मित्रों और दूसरों से कैसा बर्ताव किया था उन शब्दों को सुनने के पश्चात् जो उन्होंने अय्यूब से कहा था? क्या उसने उन्हें दोषी ठहराया था? क्या वह उन पर आग बबूला हो गया था? उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था! उसके बजाए उसने अय्यूब को उनके लिए विनती करने, और उनके लिए प्रार्थना करने के लिए कहा; दूसरी और परमेश्वर ने उनकी ग़लतियों को मन में नहीं रखा। ये सभी उदाहरण उस मुख्य मनोवृत्ति को दर्शाते हैं जिसके तहत परमेश्वर भ्रष्ट एवं अबोध मानवता से बर्ताव करता है। इसलिए, परमेश्वर के क्रोध का जारी होना उसके मिजाज़ का प्रदर्शन या प्रकट होना बिलकुल भी नहीं है। परमेश्वर का क्रोध गुस्से का बहुत बड़ा विस्फोट नहीं है जैसा मनुष्य इसे समझता है। परमेश्वर अपने क्रोध को इसलिए प्रकट नहीं करता है क्योंकि वह अपने मिजाज़ पर काबू करने में समर्थ नहीं है या क्योंकि उसका क्रोध उबलने के बिन्दु पर आ पहुंचा है और उसे बहार निकालना ही होगा। इसके विपरीत, उसका क्रोध उसके धर्मी स्वभाव का एक प्रदर्शन है और उसके धर्मी स्वभाव का एक विशुद्ध प्रकटीकरण है; यह उसकी पवित्र हस्ती का एक सांकेतिक प्रकाशन है। परमेश्वर क्रोध है, और किसी भी गुनाह के प्रति सहनशील नहीं है – कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि परमेश्वर का क्रोध विभिन्न कारणों के बीच अन्तर नहीं करता है या यह सिद्धान्तविहीन है; यह भ्रष्ट मानवता है जिसके पास सिद्धान्तविहीनता, और बिना सोचे समझे क्रोध के भड़कने पर एक व्यापक एकाधिकार है जो विभिन्न कारणों के बीच अन्तर नहीं करता है। जब एक बार किसी व्यक्ति के पास हैसियत आ जाती है, तो उसे अकसर अपने मिजाज़ पर नियन्त्रण पाने में कठिनाई होगी, और इस प्रकार वह अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए घटनाओं का इस्तेमाल करने में आनन्द करेगा; वह अक्सर बिना किसी स्पष्ट कारण के क्रोध से आगबबूला होगा, जिससे अपनी योग्यता को प्रकट कर सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान अन्य सामान्य लोगों से अलग है। हाँ वास्तव में, भ्रष्ट लोग बिना किसी हैसियत के भी बार बार नियन्त्रण खो देते हैं। उनके व्यक्तिगत हितों के नुकसान के द्वारा उनका क्रोध बार बार प्रकट होता है। अपनी स्वयं की हैसियत और गरिमा की सुरक्षा करने के लिए, भ्रष्ट मानवजाति बार बार अपनी भावनाओं को व्यक्त करेगी और अपने अहंकारी स्वभाव को प्रकट करेगी। पाप के अस्तित्व का समर्थन करने के लिए मनुष्य क्रोध में आगबबूला होगा और अपनी भावनाओं को व्यक्त करेगा, और ये कार्य वे तरीके हैं जिसके तहत मनुष्य अपने असंतोष प्रकट करता है। ये कार्य अशुद्धता से लबालब भरे हुए हैं; वे छल कपट और साजिशों से लबालब भरे हुए हैं; वे मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से लबालब भरे हुए हैं; उससे कहीं बढ़कर, वे मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हुए हैं। जब न्याय दुष्टता से मुकाबला करता है, तो मनुष्य न्याय के अस्तित्व का समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला नहीं होता है; उसके विपरीत, जब न्याय की शक्तियों को धमकाया, सताया और उन पर आक्रमण किया जाता है, तब मनुष्य का स्वभाव एक प्रकार से नज़रअंदाज़ करने, टालने या मुंह फेरने का होता है। फिर भी, दुष्ट की शक्तियों से मुकाबला करते समय, मनुष्य की मनोवृत्ति एक प्रकार से भोजन का प्रबन्ध करने, और नमस्कार करने, और रगड़ कर साफ करने की होती है। इसलिए, मनुष्य का बक बक करना दुष्ट की शक्तियों के लिए बच निकलने का मार्ग है, और शारीरिक मनुष्य के अनियंत्रण का एक प्रदर्शन है और रोका न जा सकनेवाले बुरा आचरण है। फिर भी, जब परमेश्वर अपने क्रोध को भेजता है, तब सारी बुरी शक्तियों को रोका जाएगा; मनुष्य को हानि पहुंचाने वाले सारे पापों को रोका जाएगा; वे सभी बैरी शक्तियां जो परमेश्वर के कार्य में बाधा डालती हैं उन्हें प्रकट, अलग और शापित किया जाएगा; शैतान के सभी सह अपराधियों को जो परमेश्वर का विरोध करते हैं उन्हें दण्डित किया जाएगा, और जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। उनके स्थान में, परमेश्वर का कार्य रुकावटों से मुक्त होकर आगे बढ़ेगा; परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना निर्धारित समय के अनुसार लगातार कदम दर कदम विकसित होगी; परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान की परेशानी और धूर्तता से मुक्त होंगे; ऐसे लोग जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वे खामोश और शांतिप्रिय माहौल के बीच परमेश्वर की अगुवाई और आपूर्ति का आनन्द लेंगे। परमेश्वर का क्रोध एक सुरक्षा कवच है जो दुष्ट की सारी शक्तियों को बहुगुणित होने और अनियंत्रित होकर बढ़ने से रोकता है, और यह एक ऐसा सुरक्षा कवच भी है जो समस्त धर्मी और सकारात्मक चीज़ों के अस्तित्व और फैलाव को सुरक्षा प्रदान करता है और दमन और विनाश से सदा उनकी हिफाज़त करता है।
क्या तुम सब सदोम के विनाश में परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्व को देख सकते हो? क्या उसके क्रोध में कोई चीज़ मिली हुई है? क्या परमेश्वर का क्रोध पवित्र है? मनुष्य के शब्दों में, क्या परमेश्वर का क्रोध बिना किसी मिलावट के है? क्या उसके क्रोध के पीछे कोई छल है? क्या कोई षडयंत्र है? क्या अकथनीय रहस्य हैं? मैं तुम्हें कठोरता और गम्भीरता से कह सकता हूँ; परमेश्वर के क्रोध का कोई अंश ऐसा नहीं है जो किसी को सन्देह की ओर ले जा सकता है। उसका क्रोध पवित्र एवं अमिश्रित है और वह उसमें किसी अन्य इरादों या लक्ष्यों को आश्रय नहीं देता है। उसके क्रोध का कारण पवित्र, निर्दोष और आलोचना से परे है। यह उसकी पवित्र हस्ती का एक स्वाभाविक प्रकाशन और प्रदर्शन है; यह कुछ ऐसा है जिसे सृष्टि में कोई भी धारण नहीं करता है। यह परमेश्वर के अद्वितीय धर्मी स्वभाव का एक हिस्सा है, साथ ही यह सृष्टिकर्ता और उसकी सृष्टि की अपनी अपनी हस्तियों के बीच एक असाधारण अन्तर भी है।
इसके बावजूद कि कोई दूसरों के देखते हुए क्रोध करता है या उनके पीठ के पीछे, क्योंकि प्रत्येक के पास अलग अलग इरादे और उद्देश्य होते हैं। कदाचित् वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण कर रहे हैं, या शायद वे अपने हितों का समर्थन कर रहे हैं, अपनी छवि को दुरुस्त कर रहे हैं या अपने चेहरे का ख्याल रख रहे हैं। कुछ लोग अपने क्रोध में नियन्त्रण रखने का अभ्यास कर रहे हैं, जबकि अन्य लोग बहुत उतावले हैं और थोड़े से नियन्त्रण के बिना जब भी वे चाहते हैं क्रोध से आगबबूला हो जाते हैं। संक्षेप में, मनुष्य का क्रोध उसके भ्रष्ट स्वभाव में से ही निकलता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इसका उद्देश्य क्या है, यह शारीर और स्वभाव से है; इसका न्याय और अन्याय से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि मनुष्य के स्वभाव और हस्ती में ऐसा कुछ नहीं है जो सत्य के अनुरूप हो। इसलिए, भ्रष्ट मानवता के मिजाज़ और परमेश्वर के क्रोध का एक सांस में जिक्र नहीं किया जाना चाहिए। बिना किसी अपवाद के, शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए गए एक मनुष्य का स्वभाव भ्रष्टता के बचाव से ही शुरू होता है, और यह भ्रष्टता पर आधारित होता है; इस प्रकार, मनुष्य के क्रोध का जिक्र परमेश्वर के प्रचण्ड क्रोध के समान एक ही साँस में नहीं किया जा सकता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे सैद्धान्तिक रूप से कितने उचित दिखाई देते हैं। जब परमेश्वर अपना क्रोध प्रकट करता है, दुष्ट की शक्तियों को रोका जाता है, बुरी चीज़ों को नष्ट किया जाता है, जबकि धर्मी और सकारात्मक चीज़ें परमेश्वर की देखरेख एवं सुरक्षा का आनन्द लेती हैं, और उन्हें निरन्तर बढ़ने की अनुमति दी जाती है। परमेश्वर अपने क्रोध को प्रकट करता है क्योंकि अधर्मी, नकारात्मक और बुरी चीज़ें सामान्य गतिविधि और धर्मी एवं सकारात्मक चीज़ों के विकास को बाधित, परेशान या नष्ट करती हैँ। परमेश्वर के क्रोध का लक्ष्य उसकी स्वयं की हस्ती और पहचान के बचाव के लिए नहीं है, किन्तु धर्मी, सकारात्मक, सुन्दर और अच्छी चीज़ों के अस्तित्व के बचाव के लिए, और मानवता के सामान्य रूप से जीवित रहने के नियमों और विधियों के बचाव के लिए है। यह परमेश्वर के क्रोध का मूल कारण है। परमेश्वर का कोप बिलकुल उचित, स्वाभाविक और उसके स्वभाव का असली प्रकाशन है। उसके क्रोध के पीछे कोई इरादे नहीं हैं, न ही धूर्तता या षडयंत्र हैं; या उससे भी बढ़कर, उसके कोप में कोई इच्छा, चतुराई, द्वेष, हिंसा, बुराई या कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिन्हें सारी भ्रष्ट मानवता में पाया जाता है। परमेश्वर द्वारा अपने क्रोध को प्रकट करने से पहले, उसने बिलकुल स्पष्ट रीति से और पूरी तरह से हर एक मामले के आवश्यक तत्व को पहले से ही जान लिया था, और उसने पहले से ही सटीक एवं स्पष्ट परिभाषाओं और परिणामों का सूत्र में वर्णन कर दिया था। इस प्रकार, हर मामले में जिसे वह करता है परमेश्वर का उद्देश्य कांच के समान स्वच्छ है, जैसी उसकी मनोवृत्ति है। वह गड़बड़ दिमागवाला नहीं है; वह अन्धा नहीं है; वह आवेगशील नहीं है; वह लापरवाह नहीं है; उससे बढ़कर, वह सिद्धान्तविहीन नहीं है। यह परमेश्वर के क्रोध का व्यावहारिक पहलू है, और यह परमेश्वर के क्रोध के इस व्यावहारिक पहलू के कारण ही है कि मानवता ने अपना सामान्य अस्तित्व हासिल किया है। परमेश्वर के क्रोध के बिना, मानवता जीवन जीने की असामान्य दशाओं में नीचे चली जाती; सभी चीज़ें जो धर्मी, सुन्दर और अच्छी हैं उन्हें नष्ट कर दिया जाता और वे अस्तित्व में नहीं रहतीं। परमेश्वर के क्रोध के बिना, वे नियम और विधि जो सृष्टि को संचालित करती हैं उन्हें तोड़ दिया जाता या उन्हें पूरी तरह से पलट दिया जाता। मनुष्य की उत्पत्ति के समय से, परमेश्वर ने मानवता के सामान्य अस्तित्व को बचाने और कायम रखने के लिए अपने धर्मी स्वभाव का निरन्तर इस्तेमाल किया है। क्योंकि उसके धर्मी स्वभाव में क्रोध और प्रताप का समावेश है, सभी बुरे लोग, चीज़ें, पदार्थ और समस्त चीज़ें जो मानवता के सामान्य अस्तित्व को परेशान करती हैं और क्षति पहुंचती हैं उन्हें उसके क्रोध के कारण दण्डित, नियन्त्रित और नष्ट कर दिया जाता है। पिछली अनेक शताब्दियों से, परमेश्वर ने सब प्रकार के अशुद्ध आत्माओं और बुरे आत्माओं को मार गिराने और नष्ट करने के लिए अपने धर्मी स्वभाव का लगातार इस्तेमाल किया है जो परमेश्वर का विरोध करते हैं और मानवता का प्रबंधन करने के उसके कार्य में शैतान के सहअपराधियों और दलालों के समान कार्य करते हैं। इस प्रकार, मुनष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर का कार्य उसकी योजना के अनुसार सदैव बढ़ता गया है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर के क्रोध की उपस्थिति के कारण, मनुष्यों के बीच के सर्वाधिक नेक कारण को कभी भी नष्ट नहीं किया गया है।
अब जबकि तुम लोगों के पास परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्व की समझ है, तो तुम लोगों के पास निश्चित रूप से और भी बेहतर समझ होनी चाहिए कि किस प्रकार शैतान की बुराई को पहचानते हैं!
यद्यपि शैतान दयालु, धर्मी और गुणवान प्रतीत होता है, फिर भी वह निर्दयी और सत्व में बुरा है।
शैतान जन सामान्य को धोखा देने के जरिए प्रसिद्धि प्राप्त करता है। वह अक्सर स्वयं को एक सेना प्रमुख और धार्मिकता के आदर्श पुरुष के रूप में स्थापित करता है। धार्मिकता के बचाव के झण्डे के तले, वह मनुष्य को हानि पहुंचाता है, उनके प्राणों को निगल जाता है, और मनुष्य को स्तब्ध करने, धोखा देने और भड़काने के लिए हर प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। उसका लक्ष्य है कि मनुष्य उसके बुरे आचरण को स्वीकार करे और उसका अनुसरण करे, और मनुष्य परमेश्वर के अधिकार और सर्वोच्च सत्ता का विरोध करने में उसके साथ जुड़ जाए। फिर भी, जब कोई उसकी चालों, षडयन्त्रों और बुरी युक्तियों के प्रति बुद्धिमान हो जाता है और नहीं चाहता कि उसके द्वारा उसे लगातार कुचला जाए और मूर्ख बनाया जाए या निरन्तर उसकी गुलामी करे, या उसके साथ दण्डित एवं नाश हो जाए, तो शैतान अपने असली दुष्ट, दुराचारी, भद्दे और वहशी चेहरे को प्रकट करने के लिए अपने पहले के संत के समान रूप को बदल देता है और अपने झूठे नकाब को फाड़कर फेंक देता है। उसे उन सभों का विनाश करने में कहीं ज़्यादा खुशी मिलेगी जो उसका अनुसरण करने से इंकार करते हैं और उनको जो उसकी बुरी शक्तियों का विरोध करते हैं। इस बिन्दु पर शैतान आगे से एक विश्वास योग्य और सभ्य व्यक्ति का रूप धारण नहीं कर सकता है; उसके बजाए, उसके बुरे और असली शैतानी लक्षण प्रकट हो जाते हैं जो भेड़ की खाल के नीचे हैं। जब एक बार शैतान की युक्तियों को प्रकाश में लाया जाता है, जब एक बार उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाता है, तो वह क्रोध से आगबबूला हो जाएगा और अपने वहशीपन का खुलासा करेगा; लोगों को नुकसान पहुंचाने और निगल जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र हो जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह मनुष्य के जागृत हो जाने से क्रोधित हो गया है; स्वतन्त्रता और प्रकाश की लालसा और अपनी कैद को तोड़कर आज़ाद होने की उनकी आकांक्षा के कारण उसने मनुष्य के प्रति बदले की एक प्रबल भावना को विकसित किया है। उसके क्रोध का अभिप्राय उसकी बुराई का समर्थन करना है, और साथ ही यह उसके जंगली स्वभाव का एक असली प्रकाशन भी है।
हर एक मामले में, शैतान का आचरण उसके बुरे स्वभाव का खुलासा करता है। उन सभी बुरे कार्यों से जिन्हें शैतान ने मनुष्यों पर क्रियान्वित किया है – उसके आरम्भ के प्रयासों से लेकर उसका अनुसरण करने के लिए मनुष्यों को बहकाने तक, और उसके द्वारा मनुष्य के शोषण तक, जिसके अंतर्गत वह मनुष्य को अपने बुरे कार्यों में खींचता है, और उसके असली लक्षणों का खुलासा कर दिए जाने और मनुष्य द्वारा उसे पहचानने और उसे छोड़ देने के पश्चात् मनुष्य के प्रति शैतान की बदले की भावना तक – कोई भी शैतान की बुरी हस्ती का खुलासा करने से नहीं चूकता है; कोई भी उस तथ्य को प्रमाणित करने से नहीं चूकता है कि शैतान का सकारात्मक चीज़ों से कोई नाता नहीं है; कोई भी यह प्रमाणित करने से नहीं चूकता है कि शैतान ही समस्त बुरी चीज़ों का स्रोत है। उसका हर एक कार्य उसकी बुराई का बचाव करता है, उसके बुरे कार्यों की निरन्तरता को बनाए रखता है, धर्मी और सकारात्मक चीज़ों के विरुद्ध जाता है, और मानवता के सामान्य अस्तित्व के नियमों और विधियों को बर्बाद कर देता है। वे परमेश्वर के विरोधी हैं, और वे ऐसे हैं जिन्हें परमेश्वर का क्रोध नष्ट कर देगा। यद्यपि शैतान के पास उसका अपना क्रोध है, फिर भी उसका क्रोध उसके बुरे स्वभाव को प्रकट करने का एक माध्यम है। शैतान क्यों भड़का हुआ और क्रोधित है उसका कारण यह है: उसकी अकथनीय युक्तियों का खुलासा कर दिया गया है; उसके षडयन्त्र आसानी से दूर नहीं होते हैं; परमेश्वर का स्थान लेने और परमेश्वर के समान कार्य करने की उसकी वहशी महत्वाकांक्षा और लालसा पर प्रहार किया गया है और उसे रोका गया है; समूची मानवता को नियन्त्रित करने का उसका उद्देश्य निष्फल हो गया है और उसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता है। यह परमेश्वर का बार बार उत्तेजित होनेवाला उसका क्रोध है जिसने शैतान के षडयन्त्रों को सफल होने से रोक दिया है और शैतान की दुष्टता के फैलाव और हिंसात्मक आचरण का पहले से अंत कर दिया है; इसलिए, शैतान परमेश्वर के क्रोध से नफरत करता है और डरता है। परमेश्वर के क्रोध का प्रत्येक इस्तेमाल न केवल शैतान के असली बुरे रूप को बेनकाब करता है; बल्कि वह शैतान की बुरी इच्छाओं को ज्योति में प्रकट भी करता है। उसी समय, मानवता के विरुद्ध शैतान के क्रोध की वज़हों का पूरी तरह से खुलासा किया गया है। शैतान के क्रोध का भड़काना उसके बुरे स्वभाव का असली प्रकाशन है, और उसकी युक्तियों का खुलासा है। हाँ वास्तव में, हर बार जब शैतान क्रोधित होता है, तो यह बुरी चीज़ों के विनाश की घोषणा करता है, यह सकारात्मक चीज़ों की सुरक्षा और उनकी निरन्तरता की घोषणा करता है, और यह परमेश्वर के क्रोध के स्वभाव की घोषणा करता है – एक ऐसा स्वभाव जिसे ठेस नहीं पहुंचाया जा सकता है।
परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को जानने के लिए एक मनुष्य को अनुभव और कल्पना पर भरोसा नहीं करना चाहिए
जब तुम स्वयं को परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का सामना करते हुए पाते हो, तो क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर के वचन में मिलावट है? क्या तुम कहोगेकि परमेश्वर के क्रोध के पीछे एक कहानी है, और यह कि उसके क्रोध में मिलावट है? क्या तुम परमेश्वर पर कलंक लगाओगे, यह कहते हुए कि उसका स्वभाव आवश्यक रूप से पूर्णत: धर्मी नहीं है? परमेश्वर के प्रत्येक कार्य के साथ व्यवहार करते समय, तुम्हें पहले निश्चित होना होगा कि परमेश्वर का धर्मी स्वभाव अन्य तत्वों से मुक्त है; कि यह पवित्र और त्रुटिहीन है; इन कार्यों में परमेश्वर द्वारा मनवता को मारकर नीचे गिराना, दण्ड देना और नष्ट करना शामिल है। बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर के हर एक कार्य को उसके अंतर्निहित स्वभाव और उसकी योजना के अनुसार सख्ती से बनाया गया है - इस में मानवता का ज्ञान, परम्परा और दर्शनशास्त्र शामिल नहीं है - परमेश्वर का हर एक कार्य उसके स्वभाव और हस्ती का एक प्रकटीकरण है, और किसी भी ऐसी चीज़ से असम्बद्धित है जो भ्रष्ट मानवता से सम्बन्धित है। मनुष्य की अवधारणाओं में, मानवता के प्रति केवल परमेश्वर का प्रेम, करुणा और सहनशीलता ही दोषरहित, अमिश्रित और पवित्र है। फिर भी, कोई नहीं जानता है कि परमेश्वर का कोप और उसका क्रोध इसी तरह अमिश्रित हैं; इसके अतिरिक्त, किसी के पास भी वैचारिक प्रश्न नहीं हैं जैसे परमेश्वर किसी गुनाह को क्यों नहीं सहता है या उसका कोप इतना भयंकर क्यों है? इसके विपरीत, कुछ लोग परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मानवता का मिजाज़ जान कर ग़लती करते हैं; वे परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मानवता का कोप समझते हैं; यहाँ तक कि वे भूलवश अनुमान लगते हैं कि परमेश्वर का कोप मानवता के भ्रष्ट स्वभाव के स्वाभाविक प्रकाशन के समान ही है। वे भूलवश विश्वास करते हैं कि परमेश्वर के क्रोध का जारी होना भ्रष्ट मानवता के क्रोध के समान ही है; जो नाराज़गी से उत्पन्न होता है; वे यहाँ तक विश्वास करते हैं कि परमेश्वर के क्रोध का जारी होना उसके मिजाज़ का एक प्रदर्शन है। इस सहभागिता के पश्चात्, मैं आशा करता हूँ कि यहाँ उपस्थित तुम लोगों में से हर एक के पास आगे से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को लेकर किसी भी प्रकार की ग़लत अवधारणा, कल्पना या अनुमान नहीं रहेगा, और मैं आशा करता हूँ कि मेरे वचनों को सुनने के पश्चात् तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के क्रोध की सही पहचान हो सकती है, कि तुम लोग परमेश्वर के क्रोध के विषय में पिछले समय की किसी भी ग़लत समझ को अलग कर सकते हैं, कि तुम लोग अपने ग़लत विश्वास और परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्वों के प्रति दृष्टिकोण को बदल सकते हो। इससे बढ़कर, मैं आशा करता हूँ कि तुम सब अपने हृदयों में परमेश्वर के स्वभाव की एक सटीक परिभाषा पा सकते हो, कि तुम लोगों के पास आगे से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को लेकर कोई सन्देह नहीं होगा, कि तुम लोग परमेश्वर के सच्चे स्वभाव के ऊपर कोई मानवीय तर्क या अनुमान नहीं थोपोगे। परमेश्वर का धर्मी स्वभाव परमेश्वर की स्वयं की सच्ची हस्ती है। यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे मनुष्य के द्वारा कुशलता से आकार दिया गया है या लिखा गया है। उसका धर्मी स्वभाव उसका अपना धर्मी स्वभाव है और इसका सृष्टि की किसी भी चीज़ के साथ कोई सम्बन्ध या नाता नहीं है। परमेश्वर स्वयं ही स्वयं परमेश्वर है। वह कभी भी सृष्टि का एक भाग नहीं बन सकता है, और भले ही वह सृजे गए प्राणियों के बीच एक सदस्य बन जाए, फिर भी उसका अंतर्निहित स्वभाव और हस्ती नहीं बदलेगी। इसलिए, परमेश्वर को जानना किसी पदार्थ को जानना नहीं है; यह किसी चीज़ की चीर-फाड़ करना नहीं है, न ही यह किसी व्यक्ति को समझना है। यदि तुम किसी पदार्थ को जानने हेतु अपनी धारणा या पद्धति का इस्तेमाल करते हो या परमेश्वर को जानने के लिए किसी व्यक्ति को समझते हो, तो तुम परमेश्वर के ज्ञान को हासिल करने में कभी भी सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर को जानना अनुभव या कल्पना पर भरोसा करना नहीं है, और इसलिए तुम्हें अपने अनुभव या कल्पना को परमेश्वर पर नहीं थोपना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम्हारे अनुभव और कल्पना कितने समृद्ध हो सकते हैं, क्योंकि वे अभी भी सीमित हैं; इससे अधिक क्या है, तुम्हारी कल्पना तथ्यों से मेल नहीं खाती है, और सच्चाई से तो बिलकुल भी मेल नहीं खाती है, और यह परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और उसकी हस्ती से असंगत है। यदि तुम परमेश्वर की हस्ती को समझने के लिए अपनी कल्पना पर भरोसा करते हो तो तुम कभी भी सफल नहीं होगे। एकमात्र रास्ता इस प्रकार है: वह सब ग्रहण कीजिए जो परमेश्वर से आता है, फिर धीरे-धीरे उसका अनुभव कीजिए और समझिए। एक ऐसा दिन होगा जब परमेश्वर तुम्हारे सहयोग के कारण और सत्य के लिए तुम्हारी भूख और प्यास के कारण तुम्हें ज्योतिर्मय करेगा ताकि तुम सचमुच में उसे समझो और जानो। और इसके साथ, आइए हम अपने वार्तालाप के इस भाग को समाप्त करें।
(II) सच्चे पश्चाताप के जरिए मानवता परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता को प्राप्त करती है।
जो आगे दिया गया है वह "परमेश्वर द्वारा नीनवे का उद्धार" की बाइबल की कहानी है।
(योना 1:1-2) यहोवा का यह वचन अमित्तै के पुत्र योना के पास पहुंचा। ''उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और उसके विरुद्ध प्रचार कर क्योंकि उसकी बुराई मेरी दृष्टि में बढ़ गई है।''
(योना 3) ''तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुंचा। ''उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा उसका उस में प्रचार कर।'' तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की और यह प्रचार करता गया, ''अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।'' तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्वर के वचन की प्रतीति की, और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभी ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुंचा, और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवायाः राजा और उसके सरदारों के आदेश से, कहते हुए, ''क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाने पाए, वे न खाएं और न पानी पिएं।'' मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्ला कर दें, और अपने कुमार्ग से फिरें, और उस उपद्रव से, जो वे करते है, पश्चाताप करें। संभव है, परमेश्वर दया करे और अपनी इच्छा बदल ले और उसका भड़का हुआ कोप शांत हो जाए और हम नष्ट होने से बच जाएँ। जब परमेश्वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।''
(योना 4) ''यह बात योना को बहुत ही बुरी लगी, और उसका क्रोध भड़का। उसने यहोवा से यह कहकर प्रार्थना की, ''हे यहोवा, जब मैं अपने देश में था, तब क्या मैं यही बात न कहता था? इसी कारण मैं ने तेरी आज्ञा सुनते ही तर्शीश को भाग जाने के लिए फुर्ती की, क्योंकि मैं जानता था कि तू अनुग्रहकारी और दयालु परमेश्वर है, और विलम्ब से कोप करने वाला करुणानिधान है, और दुख देने से प्रसन्न नहीं होता। इसलिए अब हे यहोवा, मेरा प्राण ले ले, क्योंकि मेरे लिए जीवित रहने से मरना ही भला है।'' यहोवा ने कहा ''तेरा जो क्रोध भड़का है, क्या वह उचित है?'' इस पर योना उस नगर से निकलकर, इसकी पूरब ओर बैठ गया, और वहां एक छप्पर बनाकर उसकी छाया में बैठा हुआ यह देखने लगा कि नगर का क्या होगा? तब यहोवा परमेश्वर ने एक रेंड़ का पेड़ उगाकर ऐसा बढ़ाया कि योना के सिर पर छाया हो, जिससे उसका दुख दूर हो। योना उस रेंड़ के पेड़ के कारण बहुत ही आनंदित हुआ। सबेरे जब पौ फटने लगी, तब परमेश्वर ने एक कीड़े को भेजा, जिस ने रेंड़ के पेड़ को ऐसा काटा कि वह सूख गया। जब सूर्य उगा, तब परमेश्वर ने पुरवाई बहाकर लू चलाई, और धूप योना के सिर पर ऐसी लगी कि वह मूर्छित होने लगा, और उसने यह कहकर मृत्यु मांगी ''मेरे लिए जीवित रहने से मरना ही अच्छा है।'' परमेश्वर ने योना से कहा, ''तेरा क्रोध, जो रेंड़ के पेड़ के कारण भड़का है, क्या वह उचित है?'' उसने कहा, ''हां मेरा जो क्रोध भड़का है वह अच्छा ही है, वरन् क्रोध के मारे मरना भी अच्छा होता।'' तब यहोवा ने कहा "जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ, उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हजार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस खाऊं?"
नीनवे की कहानी का सारांश
यद्यपि "परमेश्वर द्वारा नीनवे का उद्धार" की कहानी लम्बाई में छोटी है, फिर भी यह किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के अन्य पहलू की झलक देखने की अनुमति देती है। वह अन्य पहलू किस चीज़ से निर्मित है इसे सटीकता से समझने के लिए, हमें पवित्र शास्त्र में वापस लौटना होगा और परमेश्वर के कार्यों में से एक कार्य को देखना होगा।
आइए हम पहले इस कहानी की शुरुआत को देखें: "यहोवा का यह वचन अमित्तै के पुत्र योना के पास पहुंचा, "उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और उसके विरुद्ध प्रचार कर क्योंकि उसकी बुराई मेरी दृष्टि में बढ़ गई है" (योना 1:1-2)।" पवित्र शास्त्र के इस अंश में, हम जानते हैं कि यहोवा परमेश्वर ने योना को नीनवे शहर जाने का आदेश दिया था। उसने योना को इस नगर में जाने के लिए क्यों कहा था? बाइबल इसके विषय में बहुत स्पष्ट है: इस नगर के लोगों की दुष्टता यहोवा परमेश्वर की नज़रों में आ गई थी, और इसलिए जो कुछ उसने करने का इरादा किया था उसकी घोषणा करने के लिए उसने योना को उनके पास भेजा था। जबकि ऐसा कुछ भी लिखित रूप में दर्ज नहीं है जो हमें यह बताए कि योना कौन था, वास्तव में यह परमेश्वर को जानने से सम्बन्धित नहीं है। इस प्रकार, तुम लोगों को इस मनुष्य को समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम लोगों को केवल यह जानने की आवश्यकता है कि परमेश्वर ने योना को क्या करने का आदेश दिया था और उसने ऐसा काम क्यों किया था?
यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नीनवे के लोगों तक पहुंचती है
आइए हम दूसरे अंश की ओर आगे बढ़ें, योना की पुस्तक का तीसरा अध्यायः "योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।" ये वे वचन हैं जिन्हें परमेश्वर ने नीनवे के लोगों को बताने के लिए सीधे योना को दिया था। वे स्वाभाविक रूप से वे वचन हैं जिन्हें यहोवा नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। ये वचन हमें बताते हैं कि परमेश्वर ने नगर के लोगों से घृणा और नफरत करना शुरू कर दिया था क्योंकि उनकी दुष्टता परमेश्वर की नज़रों में आ गई थी, और इस प्रकार वह इस नगर का नाश करना चाहता था। फिर भी, इससे पहले कि परमेश्वर नगर को नष्ट करता, वह नीनवे के नागरिकों के लिए एक घोषणा करेगा, और इसके साथ-साथ वह उन्हें उनकी दुष्टता के लिए पश्चताप करने और नए सिरे से शुरुआत करने का एक अवसर देगा। यह अवसर चालीस दिन तक रहेगा। दूसरे शब्दों में, यदि नगर के भीतर के लोग चालीस दिनों के भीतर यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चाताप न करें, अपने पापों को न मानें या दंडवत न करें, तो परमेश्वर नगर को नष्ट करेगा जैसा उसने सदोम को नष्ट किया था। यह वह बात थी जिसे यहोवा परमेश्वर नीनवे के लोगों को बताना चाहता था। स्पष्ट रूप से, यह कोई सामान्य घोषणा नहीं थी। इसने न केवल यहोवा परमेश्वर के क्रोध को सूचित किया, बल्कि इसने नीनवे के लोगों के प्रति उसकी मनोवृत्ति को भी सूचित किया था; उसी समय इस सामान्य घोषणा ने नगर के भीतर रहनेवाले लोगों के लिए एक गम्भीर चेतावनी के रूप में भी काम किया था। इस चेतावनी ने उन्हें बताया था कि उनके बुरे कार्य से उन्होंने यहोवा परमेश्वर की नफरत को अर्जित किया था, और इसने उन्हें बताया था कि उनके बुरे कार्य शीघ्र ही उन्हें उनके सम्पूर्ण विनाश के कगार पर पहुंचा देंगे; इसलिए, नीनवे में हर एक का जीवन विनाश के अति निकट था।
यहोवा परमेश्वर की चेतावनी के प्रति नीनवे और सदोम की प्रतिक्रिया में सरासर अन्तर
उलट दिए जाने का क्या अर्थ है? बोलचाल की भाषा में, इसका अर्थ है लोप हो जाना। परन्तु किस प्रकार से? कौन एक नगर को पूर्ण रूप से उलट सकता है? किसी मनुष्य के लिए ऐसा काम करना असम्भव है, हाँ वास्तव में। ये लोग कोई मूर्ख नहीं थे; ज्यों ही उन्होंने इस घोषणा को सुना, त्यों ही उन्होंने उस उपाय को ग्रहण कर लिया। वे जानते थे कि यह परमेश्वर की ओर से आया था; वे जानते थे कि परमेश्वर अपना कार्य करने जा रहा था; वे जानते थे कि उनकी दुष्टता ने यहोवा परमेश्वर को क्रोधित किया और उसके क्रोध को नीचे अपने ऊपर उतारा था; जिससे वे शीघ्र ही अपने नगर के साथ नाश हो जाते। यहोवा परमेश्वर की चेतावनी को सुनने के पश्चात् नगर के लोगों ने किस प्रकार बर्ताव किया था? बाईबिल विशिष्ट विवरण के अंतर्गत वर्णन करती है कि इन लोगों ने, राजा से लेकर एक आम आदमी तक, कैसी प्रतिक्रिया की थी। जैसा पवित्र शास्त्र में लिखा हुआ है: "तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्वर के वचन की प्रतीति की, और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभी ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुंचा, और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया: राजा और उसके सरदारों के आदेश से, कहते हुए, "क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए, वे न खाएं और न पानी पिएं।" मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्लाकर दें, और अपने कुमार्ग से फिरें, और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें।
यहोवा परमेश्वर की घोषणा को सुनने के पश्चात्, नीनवे के लोगों ने एक ऐसी मनोवृत्ति का प्रदर्शन किया जो सदोम के लोगों से पूरी तरह विपरीत था -सदोम के लोगों ने खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध किया, और बुरे से बुरा करते चले गए, परन्तु इन वचन को सुनने के पश्चात्, नीनवे के लोगों ने इस विषय को नज़रअंदाज़ नहीं किया, न ही उन्होंने प्रतिरोध किया; उसके बजाए उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया और उपवास की घोषणा की। "विश्वास किया" क्या संकेत करता है? यह शब्द स्वतः ही विश्वास और समर्पण का सुझाव देता है। यदि हम इस शब्द का वर्णन करने के लिए नीनवे के नागरिकों के वास्तविक व्यवहार का उपयोग करते हैं, तो इसका अर्थ यह है कि उन्होंने विश्वास किया कि परमेश्वर ने जैसा कहा था वैसा वह कर सकता है और करेगा, और यह कि वे पश्चाताप करने के लिए तैयार थे। क्या नीनवे के लोग सन्निकट विनाश के सामने भय महसूस करते थे? यह उनका विश्वास था जिसने उनके हृदयों में भय डाला था। ठीक है, तो नीनवे के लोगों के विश्वास और भय को प्रमाणित करने के लिए हम क्या उपयोग कर सकते है? यह ऐसा है जैसा बाईबिल कहती हैः "... और उन्होंने(क) उपवास का प्रचार किया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा।" कहने का तात्पर्य है कि नीनवे के लोगों ने सचमुच में विश्वास किया था, और यह कि इस विश्वास से भय उत्पन्न हुआ, जिसने उसके बाद उपवास करने और टाट ओढ़ने के लिए प्रेरित किया था। इस प्रकार से उन्होंने अपने पश्चाताप की शुरूआत को दिखाया था। सदोम के लोगों के बिलकुल विपरीत, नीनवे के लोगों ने न केवल परमेश्वर का विरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार और कार्यों के जरिए स्पष्ट रुप से अपने पश्चाताप को दिखाया भी था। हाँ वास्तव में, यह केवल नीनवे के आम लोगों पर ही लागू नहीं होता था; उनका राजा कोई अपवाद नहीं था।
नीनवे के राजा का पश्चाताप यहोवा परमेश्वर की प्रशंसा पाता है
जब नीनवे के राजा ने यह सन्देश सुना, वह अपने सिंहासन से उठा खड़ा हुआ, अपने वस्त्र उतार डाले, टाट पहन लिया और राख में बैठ गया। तब उसने घोषणा की कि नगर में किसी को भी कुछ भी चखने की अनुमति नहीं दी जाएगी, और यह कि कोई मवेशी, भेड़-बकरी, और बैल घास नहीं चरेगा और पानी नहीं पिएगा। मनुष्य और पशु दोनों को एक समान टाट ओढ़ना था; लोग बड़ी लगन से परमेश्वर से विनती करेंगे। साथ ही राजा ने भी घोषणा की कि उनमें से हर एक अपने बुरे मार्गों से फिरे और अपने उपद्रव के कार्यों को छोड़ दे। पश्चाताप के कार्यों की इस श्रृंखला से आंकते हुए, नीनवे के राजा ने अपने हृदय से पश्चाताप का प्रदर्शन किया। कार्य की वह श्रृंखला जिसे उसने अंजाम दिया - अपने सिंहासन से उठा, अपने राजकीय वस्त्र को उतारा, टाट ओढ़ा और राख में बैठ गया – यह लोगों को बताती है कि नीनवे के राजा ने अपने शाही रुतबे को अलग रख दिया था और आम लोगों के साथ टाट ओढ़ लिया था। कहने का तात्पर्य है कि नीनवे के राजा ने यहोवा परमेश्वर से घोषणा को सुनने के पश्चात् अपने बुरे मार्ग या अपने उपद्रव के कार्यों को जारी रखने के लिए अपने शाही पद पर कब्ज़ा नहीं किया; उसके बजाए, उसने उस अधिकार को अलग रख दिया जो उसके पास था और यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चाताप किया। इस समय नीनवे का राजा एक राजा के समान पश्चाताप नहीं कर रहा था; वह परमेश्वर की एक सामान्य प्रजा के रूप में अपने पापों का अंगीकार करने और पश्चाताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आया था। उसके अलावा, उसने पूरे शहर से भी कहा कि वे उसके समान यहोवा परमेश्वर के सामने अपने पापों का अंगीकार करें और पश्चाताप करें; इसके अतिरिक्त, उसके पास एक विशिष्ट योजना थी कि ऐसा कैसे करना है, जैसा पवित्र शास्त्र में देखा जाता है: "क्या मनुष्य, क्या गाय बैल, क्या भेड़ बकरी क्या अन्य पशु कोई कुछ भी न खाए, वे न खाएं और न पानी पीएं। और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला चिल्ला कर दें और अपने कुमार्ग से फिरें, और उस उपद्रव से जो करते हैं।" जबकि नगर का शासक, नीनवे का राजा उच्चतम पद और सामर्थ धारण करता था और जो वह चाहता था कर सकता था। जब उसने यहोवा परमेश्वर की घोषणा का सामना किया, तो वह उस मामले को नज़रअंदाज़ कर सकता था या बस यों ही अकेले अपने पापों का पश्चाताप और अंगीकार कर सकता था; जहाँ तक यह बात है कि उस शहर के लोगों ने पश्चाताप करने का चयन किया था या नहीं, वह उस मामले की पूर्ण रूप से उपेक्षा कर सकता था। फिर भी, नीनवे के राजा ने ऐसा कतई नहीं किया। वह न केवल अपने सिंहासन पर से उठा, बल्कि टाट एवं राख को ओढ़ा और यहोवा परमेश्वर के सामने अपने पापों का अंगीकार और पश्चाताप किया, उसने अपने नगर के भीतर के सभी लोगों और पशुओं को भी ऐसा करने हेतु आदेश दिया। यहाँ तक कि उसने लोगों को आदेश दिया कि "परमेश्वर की दोहाई चिल्ला चिल्लाकर दो।" कार्यों की इस श्रृंखला के जरिए, नीनवे के राजा ने सचमुच में उसे पूरा किया जिसे एक शासक को पूरा करना चाहिए; उसके कार्य की श्रृंखला एक ऐसी चीज़ है जिसे हासिल करना मानव इतिहास में किसी भी राजा के लिए कठिन था, और साथ ही यह एक ऐसी चीज़ भी है जिसे किसी ने भी हासिल नहीं किया था। इन कार्यों को मानव इतिहास में अभूतपूर्व उद्यम कहा जा सकता है; वे इस योग्य हैं कि मानवजाति के द्वारा उनका उत्सव मनाया और अनुसरण किया जाए। मनुष्य के अरुणोदय के समय से ही, प्रत्येक राजा ने परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करने में अपनी प्रजा की अगुवाई की थी। किसी ने भी अपनी दुष्टता के निमित्त छुटकारे की खोज करने के लिए, यहोवा परमेश्वर की क्षमा को प्राप्त करने के लिए और सन्निकट दण्ड से बचने के लिए परमेश्वर से विनती करने हेतु अपनी प्रजा की अगुवाई नहीं की थी। फिर भी, नीनवे का राजा अपनी प्रजा को परमेश्वर की ओर ले जाने में, अपने अपने बुरे मार्गों को छोड़ने में और उपद्रव के कार्यों को रोकने में समर्थ था। इससे बढ़कर, वह अपने सिंहासन को छोड़ने के लिए भी समर्थ था, और इसके बदले, यहोवा परमेश्वर फिर गया और उसने अपना मन बदल लिया और उसने अपना क्रोध त्याग दिया, और उस नगर के लोगों को जीवित रहने की अनुमति दी और उन्हें सर्वनाश से बचा लिया। इस राजा के कार्यों को मानव इतिहास में केवल एक दुर्लभ आश्चर्य कर्म ही कहा जा सकता है; यहाँ तक कि उन्हें भ्रष्ट मानवता का आदर्श भी कहा जा सकता है जो परमेश्वर के सम्मुख अपने पापों का अंगीकार और पश्चाताप करती है।
परमेश्वर नीनवे के नागरिकों के हृदय की गहराईयों में सच्चा पश्चाताप देखता है
परमेश्वर की घोषणा को सुनने के पश्चात्, नीनवे के राजा और उसकी प्रजा ने कार्यों की एक श्रंखला को अंजाम दिया। उनके व्यवहार और कार्यों का स्वभाव क्या है? दूसरे शब्दों में, उनके सारे चाल चलन का सार-तत्व क्या है? जो कुछ उन्होंने किया था उसे क्यों किया गया था? परमेश्वर की नज़रों में उन्होंने सच्चाई से पश्चाताप किया था, न केवल इसलिए क्योंकि उन्होंने पूरी लगन से परमेश्वर से प्रार्थना की थी और उसके सम्मुख अपने पापों का अंगीकार किया था, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने बुरे व्यवहार का परित्याग कर दिया था। उन्होंने इस तरह से कार्य किया था क्योंकि परमेश्वर के वचनों को सुनने के पश्चात्, वे अविश्वसनीय रूप से भयभीत थे और यह विश्वास करते थे कि वह वही करेगा जैसा उसने कहा था। उपवास करने, टाट पहनने और राख में बैठने के द्वारा, वे अपने मार्गों का पुन:सुधार करना और दुष्टता से अलग रहने की अपनी तत्परता को प्रकट करना, उसके क्रोध को रोकने के लिए यहोवा परमेश्वर से प्रार्थना करना, और अपने निर्णय साथ ही साथ उस विपत्ति को वापस लेने के लिए यहोवा परमेश्वर से विनती करना चाहते थे जो उन पर आने ही वाला था। उनके सम्पूर्ण चालचलन का परिक्षण करने के जरिए हम देख सकते हैं कि वे पहले से ही समझ गए थे कि उनके पहले के बुरे काम परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे और यह कि वे उस कारण को समझ गए थे कि वह क्यों उन्हें शीघ्र नष्ट कर देगा। इन कारणों से, वे सभी पूर्ण रूप से पश्चाताप करना, अपने बुरे मार्गों से फिरना और उपद्रव के कार्यों का परित्याग करना चाहते थे। दूसरे शब्दों में, जब एक बार वे यहोवा परमेश्वर की घोषणा के विषय में जागृत हो गए थे, तब उनमें से हर एक ने अपने हृदय में भय महसूस किया था; उन्होंने आगे से अपने बुरे आचरण को निरन्तर जारी नहीं रखा और न ही उन कार्यों को निरन्तर किया जिनसे यहोवा परमेश्वर के द्वारा घृणा की जाती थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने यहोवा परमेश्वर से अपने पिछले पापों को क्षमा करने के लिए और उनके पापों के अनुसार उनसे बर्ताव नहीं करने के लिए विनती की थी। वे दोबारा दुष्टता में कभी संलग्न न होने के लिए और यहोवा परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार थे, केवल तभी जब वे फिर कभी यहोवा परमेश्वर को क्रोध नहीं दिलाएँगे। उनका पश्चाताप सच्चा और सम्पूर्ण था। यह उनके हृदय की गहराईयों से आया था और यह बनावटी नहीं था, और न ही थोड़े समय का था।
जब एक बार नीनवे के लोग, सर्वोच्च्च राजा से लेकर उसकी प्रजा तक, यह जान गए कि यहोवा परमेश्वर उनसे क्रोधित था, तो उनका हर एक कार्य, उनका सम्पूर्ण व्यवहार, साथ ही साथ उनका हर एक निर्णय और चुनाव परमेश्वर की दृष्टि में स्पष्ट और साफ थे। परमेश्वर का हृदय उनके व्यवहार के अनुसार बदल गया था। ठीक उस समय परमेश्वर की मनःस्थिति क्या थी? बाइबल तुम्हारे लिए उस प्रश्न का उत्तर दे सकती है। जैसा पवित्र शास्त्र में लिखा हुआ है: "जब परमेश्वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्वर ने अपनी इच्छा बदल दी और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।" यद्यपि परमेश्वर ने अपना मन बदल लिया था, फिर भी उसकी मनःस्थिति के विषय में कुछ भी जटिलता नहीं थी। उसने बस अपने क्रोध को प्रकट करने से लेकर अपने क्रोध को शांत करने तक का सफर तय किया था, और फिर नीनवे शहर के ऊपर उस विपत्ति को न लाने का निर्णय लिया था। क्यों परमेश्वर का निर्णय – उस विपत्ति से नीनवे के नागरिकों को बख्श देना - इतना शीघ्र था उसका कारण यह है क्योंकि परमेश्वर ने नीनवे के हर एक व्यक्ति के हृदय का अवलोकन किया था। जो कुछ उन्होंने अपने हृदय की गहराईयों में धारण किया था उसने उसे देखा: अपने पापों के लिए उनका सच्चा अंगीकार और पश्चाताप, परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास, उनकी गहरी समझ कि कैसे उनके बुरे कार्यों ने उसके स्वभाव को क्रोधित किया, और यहोवा परमेश्वर के सन्निकट दण्ड के परिणाम स्वरूप उत्पन्न भय। उसी समय, यहोवा परमेश्वर ने उनके हृदय की गहराईयों से निकली उनकी प्रार्थनाओं को सुना जो उससे विनती कर रहे थे कि वह उन के विरुद्ध अपने क्रोध को रोक दे जिससे वे इस विपत्ति बच सकें। जब परमेश्वर इन सभी तथ्यों का अवलोकन कर रहा था, तो थोड़ा थोड़ा करके उसका क्रोध जाता रहा। इसके बावजूद कि उसका क्रोध पहले कितना विशाल था, जब उसने इन लोगों के हृदय की गहराईयों में सच्चा पश्चाताप देखा तो इसने उसके ह्रदय को छू लिया, और इस प्रकार वह उनके ऊपर विपत्ति नहीं डाल सकता था, और उसने उन पर क्रोध करना बंद कर दिया। इसके बजाए उसने लगातार उनके प्रति करुणा और सहनशीलता का विस्तार किया और लगातार उनका मार्गदर्शन और उनकी आपूर्ति की।
यदि परमेश्वर में तेरा विश्वास सच्चा है, तो तू अक्सर उसकी देखरेख को प्राप्त करेगा
नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के द्वारा अपने इरादों को बदलने में कोई संकोच या अस्पष्टता शामिल नहीं है। इसके बजाए, यह शुद्ध-क्रोध से शुद्ध-सहनशीलता में हुआ एक रूपान्तरण था। यह परमेश्वर की हस्ती का एक सच्चा प्रकाशन है। परमेश्वर अपने कार्यों में कभी अस्थिर या संकोची नहीं है; उसके कार्यों के पीछे के सिद्धान्त और उद्देश्य स्पष्ट, पारदर्शी, शुद्ध और दोषरहित हैं, जिसमें कोई धोखा या कुचक्र बिलकुल भी नहीं है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की हस्ती में कोई अंधकार या बुराई शामिल नहीं है। परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से क्रोधित हो गया था क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस वक्त उसका क्रोध उसकी हस्ती से निकला था। फिर भी, जब परमेश्वर का क्रोध जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब कुछ जो उसने प्रकट किया था वह तब भी उसकी स्वयं की हस्ती थी। यह सम्पूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य की मनोवृत्ति में हुए बदलाव के कारण है। इस सम्पूर्ण अवधि के दौरान, परमेश्वर का उल्लंघन न किया जानेवाला स्वभाव नहीं बदला; परमेश्वर की सहनशील हस्ती नहीं बदली; परमेश्वर की प्रेमी और करुणामय हस्ती नहीं बदली। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुंचाते हैं, तो वह अपना क्रोध उन पर लाता है। जब लोग सचमुच में पश्चाताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलेगा, और उसका क्रोध थम जाएगा। जब लोग हठी होकर निरन्तर परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका क्रोध निरन्तर जारी रहेगा; उसका क्रोध थोड़ा थोड़ा करके उन्हें तब तक दबाता जाएगा जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते हैं। यह परमेश्वर के स्वभाव की हस्ती है। इसके बावजूद कि परमेश्वर क्रोध प्रकट कर रहा है या दया एवं करुणा, मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और मनोवृत्ति उस बात को बताते हैं जिसे परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से प्रकट किया गया है। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति को निरन्तर अपने क्रोध के अधीन रखता है, तो निःसन्देह इस व्यक्ति का हृदय परमेश्वर का विरोध करेगा। क्योंकि उसने कभी भी परमेश्वर के सम्मुख सचमुच में पश्चाताप नहीं किया है, अपना सिर नहीं झुकाया या परमेश्वर में सच्चा विश्वास धारण नहीं किया है, और उसने कभी भी परमेश्वर की दया और सहनशीलता को हासिल नहीं किया है। यदि कोई व्यक्ति अकसर परमेश्वर की देखरेख को प्राप्त करता है, और अकसर उसकी करुणा और सहनशीलता को हासिल करता है, तो निःसन्देह इस व्यक्ति के पास अपने हृदय में परमेश्वर के लिए सच्चा विश्वास है, और उसका हृदय परमेश्वर के विरुद्ध नहीं है। वह तो प्रायः परमेश्वर के सम्मुख पश्चाताप करता है; इसलिए, भले ही परमेश्वर का अनुशासन अकसर इस व्यक्ति के ऊपर आए, फिर भी उसका क्रोध नहीं आएगा।
यह संक्षिप्त उल्लेख, लोगों को परमेश्वर के हृदय को देखने, उसकी हस्ती की यथार्थता को देखने, और यह देखने की अनुमति देता है कि परमेश्वर का क्रोध और उसके हृदय के बदलाव बेवज़ह नहीं हैं। उस सरासर अन्तर के बावजूद जिसे परमेश्वर ने तब प्रदर्शित किया था जब वह क्रोधित था और जब उसने अपना हृदय बदल लिया था, जिसने लोगों को यह विश्वास दिलाया कि परमेश्वर की हस्ती के इन दोनों पहलुओं के बीच एक बड़ा खाली स्थान और एक बड़ा अन्तर दिखाई देता है – उसका क्रोध और उसकी सहनशीलता – तो नीनवे के लोगों के पश्चाताप के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति एक बार फिर से लोगों को परमेश्वर के सच्चे स्वभाव के अन्य पहलू को देखने की अनुमति देता है। परमेश्वर के हृदय के बदलाव ने सचमुच में एक बार फिर से मानवता को परमेश्वर की दया और करुणा की सच्चाई को देखने और परमेश्वर की हस्ती के सच्चे प्रकाशन को देखने की अनुमति दी है। मानवता को बस यह जानने की आवश्यक है कि परमेश्वर की दया और करुणा पौराणिक कथाएं नहीं हैं, और न ही उन्हें मन से गढ़ा गया है। यह इसलिए है क्योंकि उस घड़ी परमेश्वर की भावनाएं सच्ची थीं; परमेश्वर के हृदय का बदलाव सच्चा था; परमेश्वर ने वास्तव में एक बार फिर से मानवता के ऊपर अपनी दया और करुणा को अर्पित किया था।
नीनवे के लोगों के हृदयों में सच्चे पश्चाताप से उन्होंने परमेश्वर की दया को प्राप्त किया और उस ने उनके अंत को बदल दिया
क्या वहां परमेश्वर के हृदय के बदलाव और उसके क्रोध के बीच कोई परस्पर विरोध था? नहीं, बिलकुल भी नहीं! यह इसलिए है क्योंकि उस विशेष समय पर परमेश्वर की सहनशीलता का अपना कारण था। इसका कारण क्या हो सकता है? यह वह है जिसे बाईबिल में दिया गया है: "प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने कुमार्ग से फिर गया," और अपने हाथों के उपद्रवी कार्यों को तज दिया।
यह "कुमार्ग" कुछ मुटठीभर बुरे कार्यों की और संकेत नहीं करता है, परन्तु लोगों के व्यवहार के पीछे पाए जाने वाले बुरे स्रोत की और संकेत करता है। "अपने कुमार्ग से फिर जाना" इसका अर्थ है कि जिन पर सन्देह है वे कभी भी इन कार्यों को दोबारा नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, वे पुन: इस बुरे तरीके से व्यवहार नहीं करेंगे; वह तरीका, स्रोत, उद्देश्य, इरादा और उनके कार्यों का सिद्धान्त सब बदल चुका है; वे अपने हृदय में आनन्द और प्रसन्नता को लाने के लिए पुनः उन तरीकों और सिद्धान्तों का उपयोग कभी नहीं करेंगे। "हाथों के उपद्रव को त्याग देना" में "त्याग देना" का अर्थ है नीचे रख देना या छोड़ देना, बीते कल से पूर्ण रूप से नाता तोड़ देना और उस ओर कभी न फिरना। जब नीनवे के लोगों ने अपने हाथों से उपद्रव करना त्याग दिया, तो इसने उनके सच्चे पश्चाताप को प्रमाणित और साथ ही साथ प्रदर्शित भी किया। परमेश्वर लोगों के बाहरी रूप और साथ ही साथ उनके हृदय का भी अवलोकन करता है। जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के हृदयों में बिना किसी सन्देह के सच्चे पश्चाताप को देखा और साथ ही यह अवलोकन भी किया कि वे अपने कुमार्ग से फिर गए थे और हाथों के उपद्रव को त्याग दिया था, तो उसने अपना मन बदल लिया। कहने का तात्पर्य है कि इन लोगों के चालचलन, व्यवहार और कार्य करने के विभिन्न तरीकों ने, साथ ही साथ उनके हृदय के सच्चे अंगीकार और पापों के पश्चाताप ने, परमेश्वर को प्रेरित किया कि वह अपने मन को बदल दे, अपने इरादों को बदल दे, अपने निर्णय को वापस ले ले, और उन्हें दण्ड न दे या नष्ट न करे। इस प्रकार, नीनवे के लोगों ने एक अलग अंत को प्राप्त किया। उन्होंने अपने जीवन को छुड़ाया और उसी समय परमेश्वर की दया और करुणा को जीत लिया, इस बिन्दु पर परमेश्वर ने भी अपने क्रोध को वापस ले लिया।
परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है - मनुष्य का सच्चा पश्चाताप दुर्लभ है
इसके बावजूद कि परमेश्वर नीनवे के लोगों से कितना क्रोधित था, ज्यों ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, त्यों ही उसका हृदय धीरे-धीरे कोमल होता गया, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। जब उसने उनके लिए घोषणा की कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा–अपने पापों के निमित्त उनके अंगीकार और पश्चाताप के कुछ समय पहले - परमेश्वर तब भी उन से क्रोधित था। जब एक बार वे पश्चाताप के कार्यों की एक श्रृंखला से होकर गुज़र गए, तो नीनवे के लोगों के निमित्त परमेश्वर का क्रोध धीरे धीरे उनके लिए दया और सहनशीलता में रूपान्तरित हो गया। एक ही घटना में परमेश्वर के स्वभाव के इन दोनों पहलुओं के प्रकाशन को एक साथ मिलने के विषय में कोई विरोधाभास नहीं है। किसी व्यक्ति को विरोधाभास की इस कमी को कैसे समझना और जानना चाहिए? चूंकि नीनवे के लोगों ने पश्चाताप किया तो परमेश्वर ने सफलतापूर्वक इन दोनों ध्रुवीय-विपरीत हस्तियों को प्रकट और प्रकाशित किया, जिसने लोगों को परमेश्वर की हस्ती की यथार्थता और उसके उल्लंघन न किए जा सकनेवाले गुण को देखने की अनुमति दी। परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपनी मनोवृत्ति का उपयोग किया: ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बर्दाश्त नहीं करता है, या वह उन पर दया करना नहीं चाहता है; यह ऐसा है कि वे कभी कभार ही परमेश्वर के प्रति सच्चा पश्चाताप करते हैं, और ऐसा कभी कभार ही होता है कि लोग सचमुच में अपने कुमार्ग से फिरते हैं और अपने हाथों से उपद्रव करना त्यागते हैं। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित हो जाता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सचमुच में पश्चाताप करने में समर्थ होगा, और वह मनुष्य के सच्चे पश्चाताप को देखना चाहता है, ऐसी दशा में तब वह उदारता से मनुष्य को अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करता है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा चालचलन परमेश्वर के क्रोध को उनके ऊपर लाता है, जबकि परमेश्वर की दया और करुणा को उनके ऊपर उण्डेला जाता है जो परमेश्वर को ध्यान से सुनते हैं और सचमुच में उसके सम्मुख सच्चा पश्चाताप करते हैं, और इसे उनके ऊपर उण्डेला जाता है जो अपने कुमार्ग से फिर जाते हैं और अपने हाथों से उपद्रव करना त्याग कर देते हैं। नीनवे के लोगों के उपचार में परमेश्वर की मनोवृत्ति को बिलकुल साफ साफ प्रकाशित किया गया है: परमेश्वर की दया और सहनशीलता को प्राप्त करना बिलकुल भी कठिन नहीं है; वह एक व्यक्ति से सच्चे पश्चाताप की अपेक्षा करता है। जब तक लोग अपने कुमार्गों से परे रहते हैं और अपने हाथों से उपद्रव करना त्याग देते हैं, परमेश्वर उनके प्रति अपने हृदय और अपनी मनोवृत्ति को बदलेगा।
सृष्टिकर्ता का धर्मी स्वभाव सच्चा और स्पष्ट है
जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के वास्ते अपने मन को बदल लिया, तो क्या यह उसकी करुणा और सहनशीलता एक दिखावा थी? नहीं, बिलकुल भी नहीं! फिर एक ही मुद्दे के दौरान परमेश्वर के स्वभाव के दोनों पहलुओं के बीच का रूपान्तरण तुम्हें क्या देखने देता है? परमेश्वर का स्वभाव पूरी तरह से सम्पूर्ण है; यह बिलकुल भी खण्डित नहीं है। इस पर ध्यान दिए बिना कि वह लोगों के प्रति क्रोध प्रकट कर रहा है या दया एवं सहनशीलता, यह सब उसके धर्मी स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर का स्वभाव सच्चा एवं सुस्पष्ट है। वह अपने विचारों और रवैयों को चीज़ों के विकास अनुसार बदलता है। नीनवे के निवासियों के प्रति उसके रवैये का रूपान्तरण मानवता को बताता है कि उसके पास अपने स्वयं के विचार और युक्तियां हैं; वह रोबोट या मिट्टी का कोई पुतला नहीं है, परन्तु स्वयं जीवित परमेश्वर है। वह नीनवे के लोगों से क्रोधित हो सकता था, ठीक उसी तरह जैसे वह उनके रवैये के अनुसार उनके अतीत को क्षमा कर सकता था; वह नीनवे के लोगों के ऊपर दुर्भाग्य लाने का निर्णय ले सकता था, और वह उनके पश्चाताप के कारण अपना निर्णय बदल सकता था। लोग यांत्रिक रूप से नियमों को लागू करना अधिक पसंद करते हैं, और वे परमेश्वर को पूर्ण करने और परिभाषित करने के लिए नियमों का उपयोग करना अधिक पसंद करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को जानने के लिए सूत्रों का उपयोग करना अधिक पसंद करते हैं। इसलिए, मानवीय विचारों के आयाम के अनुसार, परमेश्वर विचार नहीं करते, और न ही उनके पास कोई स्वतन्त्र योजनाएँ हैं। असलियत में, परमेश्वर के विचार चीज़ों और वातावरण में परिवर्तन के अनुसार निरन्तर रूपान्तरित हो रहे हैं; जब तक ये विचार रूपान्तरित हो रहे हैं, परमेश्वर के अस्तित्व के विभिन्न पहलू प्रकट होंगे। रूपान्तरण की इस प्रक्रिया के दौरान, उस घड़ी जब परमेश्वर अपना मन बदलता है, तब वह मानवजाति पर अपने जीवन के अस्तित्व की सच्चाई को प्रकट करता है, और वह यह प्रकट करता है कि उसका धर्मी स्वभाव सच्चा और सुस्पष्ट है। इससे बढ़कर, परमेश्वर मानवजाति के प्रति अपने क्रोध, अपनी दया, अपनी करुणा और अपनी सहनशीलता के अस्तित्व की सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए अपने सच्चे प्रकटीकरणों की उपयोग करता है। उसकी हस्ती को चीज़ों के विकास के अनुसार किसी भी समय पर और किसी भी स्थान में प्रकट किया जाएगा। उनमें एक सिंह का क्रोध और माता की ममता एवं सहनशीलता होती है। किसी मनुष्य को उनके धर्मी स्वभाव पर प्रश्न करने, उसका उल्लंघन करने, उसे बदलने या तोड़ने मरोड़ने की अनुमति नहीं दी गई है। समस्त मुद्दों और सभी चीज़ों के मध्य, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को, अर्थात्, परमेश्वर का क्रोध एवं उसकी करुणा, किसी भी समय पर और किसी भी स्थान में प्रकट किया जा सकता है। वे प्रकृति के हर एक कोने एवं छिद्र में इन पहलुओं को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं और हर पल स्पष्ट रूप से उन्हें अंजाम देते हैं। परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को समय या अन्तराल के द्वारा सीमित नहीं किया जाता है, या दूसरे शब्दों में, समय या अन्तराल की सीमाओं के द्वारा तय तरीके से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को यांत्रिक रूप से प्रकट या प्रकाशित नहीं किया जाता है। उसके बजाए, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को किसी भी समय और स्थान में स्वतन्त्र रूप से प्रकट और प्रकाशित किया जाता है। जब तुम परमेश्वर को अपना मन बदलते और अपने क्रोध को थामते और नीनवे के लोगों का नाश करने से पीछे हटते हुए देखते हो, तो क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर केवल दयालु और प्रेमी है? क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर का क्रोध खोखले वचनों से बना है? जब परमेश्वर प्रचण्ड क्रोध प्रकट करता है और अपनी दया को वापस ले लेता है, तो क्या तुम कह सकते हो कि वह मानवता के प्रति किसी सच्चे प्रेम का एहसास नहीं करता है? परमेश्वर लोगों के बुरे कार्यों के प्रत्युतर में प्रचण्ड क्रोध प्रकट करता है; उसका क्रोध दोषपूर्ण नहीं है। परमेश्वर का हृदय लोगों के पश्चाताप के द्वारा द्रवित हो जाता है, और यह वही पश्चाताप है जो इस तरह उसके हृदय को बदल देता है। उसका द्रवित होना, मनुष्य के प्रति उसके हृदय का बदलाव साथ ही साथ उसकी दया और सहनशीलता पूर्ण रूप से दोषमुक्त है; वह साफ, स्वच्छ, निष्कलंक और अमिश्रित है। परमेश्वर की सहनशीलता विशुद्ध रूप से सहनशीलता है; उनकी दया विशुद्ध रूप से दया है। उनका स्वभाव मनुष्य के पश्चाताप और उसके विभिन्न चाल-चलन के अनुसार क्रोध, साथ ही साथ दया एवं सहनशीलता को प्रकट करेगा। जो वह प्रकट या प्रकाशित करता है उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि यह पूरी तरह पवित्र है; यह पूरी तरह प्रत्यक्ष है; उनकी हस्ती सृष्टि की किसी भी चीज़ की अपेक्षा पृथक है। कार्यों के वे सिद्धान्त जिन्हें परमेश्वर प्रकट करता है, उसके विचार एवं योजनाएँ या कोई विशेष निर्णय, साथ ही साथ हर एक कार्य, वह किसी भी प्रकार की त्रुटियों या दागों से स्वतन्त्र है। जैसा परमेश्वर ने निर्णय लिया है, वह वैसा ही करेगा, और इस रीति से वह अपने उद्यमों को पूरा करता है। इस प्रकार के परिणाम ठीक और दोषरहित हैं क्योंकि उनका स्रोत दोषरहित और निष्कलंक है। परमेश्वर का क्रोध दोषमुक्त है। इसी प्रकार, परमेश्वर की दया और सहनशीलता, जिसे किसी सृजन के द्वारा धारण नहीं किया जाता है, वे पवित्र एवं निर्दोष हैं, और वे सोच विचार और अनुभव किए जाने पर खरे निकल सकते हैं।
नीनवे की कहानी को समझने के पश्चात्, क्या तुम सब परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के तत्व के अन्य पक्ष को देख पाते हो? क्या तुम सब परमेश्वर के अद्वितीय धर्मी स्वभाव के अन्य पक्ष को देख पाते हो? क्या मानवता के मध्य कोई इस प्रकार का स्वभाव धारण करता है? क्या कोई परमेश्वर के समान इस प्रकार का क्रोध धारण करता है? क्या कोई परमेश्वर के समान दया और सहनशीलता धारण करता है? सृष्टि के मध्य ऐसा कौन है जो इतना अधिक क्रोध कर सकता है और मानवजाति को नष्ट करने या उसके ऊपर विपत्ति लाने का निर्णय ले सकता है? और करुणा प्रदान करने, मनुष्यों को सहने और क्षमा करने, और उसके द्वारा मनुष्य को नष्ट करने के निर्णय को बदलने के योग्य कौन है? सृष्टिकर्ता अपने स्वयं की अनोखी पद्धतियों और सिद्धान्तों के माध्यम से अपने धर्मी स्वभाव को प्रकट करता है; वह लोगों, घटनाओं या चीज़ों के नियन्त्रण या प्रतिबन्ध के अधीन नहीं है। उसके अद्वितीय स्वभाव के साथ, कोई भी उसके विचारों और उपायों को बदलने में समर्थ नहीं है, न ही कोई उसे मनाने में और उसके निर्णयों को बदलने में समर्थ है। सृष्टि के व्यवहार और विचारों की सम्पूर्णता उसके धर्मी स्वभाव के न्याय के अधीन अस्तित्व में रहती है। चाहे वह क्रोध करे या दया इसे कोई भी नियन्त्रित नहीं कर सकता है; केवल सृष्टिकर्ता की हस्ती – या दूसरे शब्दों में, सृष्टिकर्ता का धर्मी स्वभाव – ही इसका निर्णय ले सकती है। सृष्टिकर्ता के धर्मी स्वभाव की अद्वितीय प्रकृति यही है!
जब हम ने एक बार नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये में रूपान्तरण का विश्लेषण कर लिया है और समझ लिया है, तो क्या तुम सब परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के अंतर्गत पाई जानेवाली दया का वर्णन करने के लिए "अद्वितीय" शब्द का उपयोग करने में समर्थ हो? हम ने पहले ही कहा था कि परमेश्वर का क्रोध उनके अद्वितीय धर्मी स्वभाव के तत्व का एक पहलू है। अब मैं दो पहलुओं, परमेश्वर का क्रोध और परमेश्वर की दया, को उनके धर्मी स्वभाव के रूप में परिभाषित करूंगा। परमेश्वर का धर्मी स्वभाव पवित्र है; यह अनुल्लंघनीय साथ ही साथ निर्विवादित भी है; यह कुछ ऐसा है जिसे सृजी गई वस्तुओं और न सृजी गई वस्तुओं के मध्य कोई भी धारण नहीं कर सकता है। यह परमेश्वर के लिए अद्वितीय और अतिविशेष दोनों है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का क्रोध पवित्र और अनुल्लंघनीय है; ठीक उसी समय, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव का अन्य पहलू - परमेश्वर की दया - पवित्र है और उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। सृजी गई वस्तुओं या न सृजी गई वस्तुओं में से कोई भी परमेश्वर का स्थान नहीं ले सकता है या उनके कार्यों में उनका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, और न ही कोई सदोम के विनाश या नीनवे के उद्धार में उनका स्थान ले सकता है या उनका प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह परमेश्वर के अद्वितीय धर्मी स्वभाव की सच्ची अभिव्यक्ति है।
मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाएं
लोग अकसर कहते हैं कि परमेश्वर को जानना सरल बात नहीं है। फिर भी, मैं कहता हूं कि परमेश्वर को जानना बिलकुल भी कठिन विषय नहीं है, क्योंकि वह बार बार मनुष्य को अपने कामों का गवाह बनने देता है। परमेश्वर ने कभी भी मनुष्य के साथ संवाद करना बंद नहीं किया है; उसने कभी भी मनुष्य से अपने आपको गुप्त नहीं रखा है, न ही उसने स्वयं को छिपाया है। उसके विचारों, उसके उपायों, उसके वचनों और उसके कार्यों को मानवजाति के लिए पूरी तरह से प्रकाशित किया गया है। इसलिए, जब तक मनुष्य परमेश्वर को जानने की कामना करता है, वह सभी प्रकार के माध्यमों और पद्धतियों के जरिए उन्हें समझ और जान सकता है। मनुष्य क्यों आँख बंद करके सोचता है कि परमेश्वर ने जानबूझकर उससे परहेज किया है, कि परमेश्वर ने जानबूझकर स्वयं को मानवता से छिपाया है, कि परमेश्वर का मनुष्य को उन्हें समझने या जानने देने का कोई इरादा नहीं है, उसका कारण यह है कि मनुष्य नहीं जानता है कि परमेश्वर कौन है, और न ही वह परमेश्वर को समझने की इच्छा करता है; उससे भी बढ़कर, वह सृष्टिकर्ता के विचारों, वचनों या कार्यों की परवाह नहीं करता है..... सच्चाई से कहता हूँ, यदि कोई सृष्टिकर्ता के वचनों या कार्यों पर ध्यान केन्द्रित करने और समझने के लिए सिर्फ अपने खाली समय का उपयोग करे, और सृष्टिकर्ता के विचारों एवं उनके हृदय की आवाज़ पर थोड़ा सा ध्यान दे, तो उन्हें यह एहसास करने में कठिनाई नहीं होगी कि सृष्टिकर्ता के विचार, वचन और कार्य दृश्यमान और पारदर्शी हैं। उसी प्रकार, यह महसूस करने में उन्हें बस थोड़ा सा प्रयास लगेगा कि सृष्टिकर्ता हर समय मनुष्य के मध्य में है, कि वह मनुष्य और सम्पूर्ण सृष्टि के साथ हमेशा से वार्तालाप में है, और यह कि वह प्रति दिन नए कार्य कर रहा है। उसकी हस्ती और स्वभाव को मनुष्य के साथ उनके संवाद में प्रकट किया गया; उसके विचारों और उपायों को उसके कार्यों में पूरी तरह से प्रकट किया गया है; वह हर समय मनुष्य के साथ रहता है और उसे ध्यान से देखता है। वह ख़ामोशी से अपने शांत वचनों के साथ मानवजाति और समूची सृष्टि से बोलता है: मैं ब्रह्माण्ड के ऊपर हूँ, और मैं अपनी सृष्टि के मध्य हूँ। मैं रखवाली कर रहा हूँ, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ, मैं तुम्हारी तरफ हूँ..... उसके हाथों में गर्मजोशी है और वे बलवान हैं, उसके कदम हल्के हैं, उसकी आवाज़ कोमल और अनुग्रहकारी है; उसका स्वरूप हमारे पास से होकर गुज़र जाता है और मुड़ जाता है, और समूची मानवजाति का आलिंगन करता है; उसका मुख सुन्दर और सौम्य है। वह छोड़कर कभी नहीं गया, और न ही वा गायब हुआ है। सुबह से लेकर शाम तक, वह मानवजाति के निरन्तर साथी है। मानवता के लिए उनकी समर्पित देखभाल और विशेष स्नेह, साथ ही साथ मनुष्य के लिए उनकी सच्ची चिंता और प्रेम, को थोड़ा थोड़ा करके प्रदर्शित किया गया जब उन्होंने नीनवे के नगर को बचाया था। विशेष रूप से, यहोवा परमेश्वर और योना के बीच के संवाद ने मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता की दया को खुलकर प्रकट किया जिसे उन्होंने स्वयं सृजा था। इन वचनों के माध्यम से, तुम मानवता के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाओं की एक गहरी समझ हासिल कर सकते हो।
निम्नलिखित वचन को योना की पुस्तक 4:10-11 में दर्ज किया गया है: "तब यहोवा ने कहा, जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ, उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हजार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊं?" ये यहोवा परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं, उनके और योना के बीच का वार्तालाप। यद्यपि यह संवाद एक संक्षिप्त वार्तालाप है, यह मनुष्य के निमित्त सृष्टिकर्ता की चिंता और उसे त्यागने की उनकी अनिच्छा से लबालब भरा हुआ है। ये वचन उस सच्चे रवैये और एहसासों को प्रकट करते हैं जिसे परमेश्वर ने अपनी सृष्टि के लिए अपने हृदय के भीतर संजोकर रखा है, और इन स्पष्ट वचनों से, जिस प्रकार के वचन मनुष्य के द्वारा कभी कभार ही सुने जाते हैं, परमेश्वर मानवता के लिए अपने सच्चे इरादों को बताता है। यह संवाद उस रवैये को दर्शाता है जिसे परमेश्वर नीनवे के लोगों के प्रति रखते थे – किन्तु यह किस प्रकार का रवैया है? यह वह रवैया है जिसे परमेश्वर नीनवे के लोगों के प्रति उनके पश्चाताप से पहले और बाद में अपनाते थे। परमेश्वर मानवता से इसी रीति से बर्ताव करता है। इन वचनों के भीतर कोई भी व्यक्ति उनके विचारों, साथ ही साथ उनके स्वभाव को पा सकता है।
इन वचनों में परमेश्वर के किस प्रकार के विचारों को प्रकट किया गया है? सावधानीपूर्वक पढ़ने से तुरन्त ही प्रकट हो जाता है कि उन्होंने "दया" शब्द का प्रयोग किया है; इस शब्द का उपयोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे रवैये को दिखाता है।
शब्दों एवं वाक्यांशों के अध्ययन शास्त्र के दृष्टिकोण से, कोई व्यक्ति "दया" शब्द का विभिन्न प्रकार से व्याख्या कर सकता हैः पहला, प्रेम करना और रक्षा करना, किसी चीज़ के प्रति कोमलता महसूस करना; दूसरा, दीवानगी से प्रेम करना; और अंततः, उसे नुकसान पहुँचाना न चाहना और इस प्रकार के कार्य को बर्दाश्त करने में असमर्थ होना। संक्षेप में, इसका तात्पर्य कोमल स्नेह और प्रेम है, साथ ही साथ किसी व्यक्ति या किसी चीज़ को छोड़ने की अनिच्छा है; इसका अर्थ मनुष्य के प्रति परमेश्वर की दया और सहनशीलता है| यद्यपि परमेश्वर ने एक शब्द का उपयोग किया जिसे मनुष्यों के बीच सामान्य तौर पर बोला जाता है, फिर भी इस शब्द के इस्तेमाल ने मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय की आवाज़ और उनके रवैये को खुलकर प्रकट किया है।
यद्यपि नीनवे का नगर ऐसे लोगों से भरा हुआ था जो सदोम के लोगों के समान ही भ्रष्ट, बुरे और उपद्रवी थे, उनके पश्चाताप ने परमेश्वर को बाध्य किया कि वे अपना मन बदल दें और उन्हें नाश न करने का निर्णय लें। क्योंकि परमेश्वर के वचनों और निर्देशों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया ने एक ऐसे रवैये का प्रदर्शन किया जो सदोम के नागरिकों के रवैये के ठीक विपरीत था, और परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे समर्पण और अपने पापों के लिए उनके सच्चे पश्चाताप, साथ ही साथ हर लिहाज से उनके सच्चे और हार्दिक आचरण के कारण, परमेश्वर ने एक बार फिर से उनके ऊपर अपनी हार्दिक दया दिखाई और उन्हें यह प्रदान किया। मानवता के लिए परमेश्वर के प्रतिफल और उनकी दया की नकल कर पाना किसी के लिए भी असंभव है; कोई भी व्यक्ति परमेश्वर की दया या सहनशीलता को धारण नहीं कर सकता है, न ही मानवता के प्रति उनके सच्चे एहसासों को धारण कर सकता है। क्या कोई है जिसे तुम महान पुरुष या स्त्री मानते हो, या यहाँ तक कि कोई उत्कृष्ट मानव भी, जो, श्रेष्ठ नज़रिए से, एक महान पुरुष या स्त्री के रूप में, या उच्चतम बिन्दु पर बोलते हुए, मानवजाति या सृष्टि के लिए इस प्रकार का कथन कहेगा? मानवजाति के मध्य ऐसा कौन है जो मानवता के जीवन की स्थितियों को अपने हाथों की हथेली के समान जान सकता है? मानवता के अस्तित्व के लिए बोझ और ज़िम्मेदारी कौन उठा सकता है? किसी नगर के विनाश की घोषणा करने के लिए कौन समर्थ है? और किसी नगर को क्षमा करने के लिए कौन सक्षम है? कौन कह सकता है कि वह अपनी स्वयं की सृष्टि का पालन पोषण करता है? केवल सृष्टिकर्ता! केवल सृष्टिकर्ता ने ही इस मानवजाति के ऊपर दया की है। केवल सृष्टिकर्ता ने ही इस मानवजाति को कोमलता और स्नेह दिखाया है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के लिए सच्चा और कभी न टूटनेवाला प्रेम रखता है। उसी प्रकार, केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति पर दया कर सकता है और अपनी सम्पूर्ण सृष्टि का पालन पोषण कर सकता है। उसका हृदय मनुष्य के हर एक कार्यों से खुशी से उछलता और दुखित होता है: वह मनुष्य की दुष्टता और भ्रष्टता के ऊपर क्रोधित, परेशान और दुखित होता है; वह मनुष्य के पश्चाताप और विश्वास के लिए प्रसन्न, आनंदित, क्षमाशील और प्रफुल्लित होता है; उसका हर एक विचार और उपाय मानवजाति के लिए अस्तित्व में बने हुए हैं और उसके चारों और परिक्रमा करते हैं; जो वह है और जो उसके पास है उसे पूरी तरह से मानवजाति के वास्ते प्रकट किया जाता है; उसकी भावनाओं की सम्पूर्णता मानवजाति के अस्तित्व के साथ आपस में गुथी हुई है। मनुष्य के वास्ते, वह भ्रमण करता है और यहां वहां भागता है, वह खामोशी से अपने जीवन का हर अंश दे देता है; वह अपने जीवन का हर मिनट और सेकेंड समर्पित कर देता है। उसने कभी नहीं जाना कि स्वयं अपने जीवन पर किस प्रकार दया करना है, फिर भी उसने हमेशा से मानवजाति पर दया की है और उसका पालन पोषण किया है जिसे उसने स्वयं सृजा था। वह सब कुछ देता है जिसे उसे इस मानवजाति को देना है। वह बिना किसी शर्त के और बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करता है। वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है जिससे मानवजाति उसकी नज़रों के सामने निरन्तर जीवित रहे, और जीवन के उसके प्रावधान प्राप्त करती रहे; वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है जिससे मानवजाति एक दिन उसके सम्मुख समर्पित हो जाए और यह पहचान जाए कि यह वही ईश्वर हैं जो मुनष्य के अस्तित्व का पालन पोषण करता है और समूची सृष्टि के जीवन की आपूर्ति करता है।
सृष्टिकर्ता मानवता के लिए अपनी सच्ची भावनाओं को प्रकट करता है
यहोवा परमेश्वर और योना के बीच यह वार्तालाप निःसन्देह मानवता के लिए सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाओं का एक प्रकटीकरण है। एक ओर यह उसके अधीन सम्पूर्ण प्रकृति के विषय में सृष्टिकर्ता की समझ के बारे में लोगों को सूचित करता है; जैसा यहोवा परमेश्वर ने कहा: "फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊं?" दूसरे शब्दों में, नीनवे के विषय में परमेश्वर की समझ जल्दबाज़ी से किए गए कार्य से कहीं दूर था। वह न केवल नगर में रहने वाले जीवित प्राणियों (मनुष्य व पशु) की संख्या को जानता था, बल्कि वह यह भी जानता था कि कितने लोग अपने दाहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहचानते थे – अर्थात्, कितने बच्चे या तरुण जो वहां मौज़ूद थे। यह मानवता के विषय में परमेश्वर की श्रेष्ठतम समझ का एक ठोस प्रमाण है। दूसरी ओर यह वार्तालाप मानवता के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति के विषय में लोगों को सूचित करता है, दूसरे शब्दों में यह सृष्टिकर्ता के हृदय में मानवता के बोझ को सूचित करता है। यह ठीक वैसा है जैसा यहोवा परमेश्वर ने कहा: "जिस रेंड़ के पेड़ के लिए तूने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ, उस पर तूने तरस खाई है। और क्या मैं नीनवे पर तरस न खाऊं, उस बड़े नगर पर....." योना पर दोष लगाते हुए ये परमेश्वर यहोवा के वचन हैं, किन्तु वे सब सत्य हैं।
यद्यपि योना को नीनवे के लोगों के लिए यहोवा परमेश्वर के वचनों की घोषणा का काम सौंपा गया था, फिर भी उसने यहोवा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझा था, न ही उसने नगर के लोगों के लिए उसकी चिंताओं और अपेक्षाओं को समझा था। एक फटकार के साथ परमेश्वर का अभिप्राय उसे यह बताना था कि मानवता उसके हाथों की रचना है, और परमेश्वर ने हर एक व्यक्ति के लिए दर्द सहते हुए प्रयास किया था; प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ परमेश्वर की आशाओं को लिए फिरता था, प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के जीवन की आपूर्ति का आनन्द लेता था; प्रत्येक व्यक्ति के लिए, परमेश्वर ने एक दर्दनाक कीमत चुकाई थी। साथ ही इस फटकार ने योना को यह भी बताया कि परमेश्वर मानवता का पोषण करता है, जो उसके हाथों की रचना है, उतना ही जितना जैसे योना ने स्वयं रेंड़ के पेड़ को प्रिय जाना था। परमेश्वर अंतिम सम्भावित घड़ी से पहले किसी भी कीमत पर उन्हें आसानी से नहीं त्यागेगा; इसके अतिरिक्त, उस नगर में इतने सारे बच्चे और निरीह पशु थे। परमेश्वर की सृष्टि के इन युवा और अनभिज्ञ प्राणियों से व्यवहार करते समय, जो अपने दहिने बाएं हाथों का भेद भी नहीं पहचानते सकते थे, परमेश्वर इस प्रकार की जल्दबाज़ी से उनके जीवन को समाप्त करने और उनके परिणाम को निर्धारित करने में और भी अधिक असमर्थ था। परमेश्वर ने उन्हें बढ़ते हुए देखने की आशा की थी; उसने आशा की थी कि वे अपने बापदादों के समान उन्हीं मार्गों पर नहीं चलेंगे, कि उन्हें फिर से यहोवा परमेश्वर की चेतावनी को नहीं सुनना होगा, और यह कि वे नीनवे के अतीत की गवाही देंगे। उससे भी बढ़कर परमेश्वर ने नीनवे के द्वारा पश्चाताप किए जाने के बाद उसे देखने, नीनवे के पश्चाताप के पश्चात् उसके भविष्य को देखने, और एक बार फिर से नीनवे को परमेश्वर की दया के अधीन जीवन जीते हुए देखने की आशा की थी। इसलिए, परमेश्वर की निगाहों में, सृष्टि के प्राणी जो अपने दहिने और बाएं हाथों का भेद नहीं जान सकते थे वे नीनवे के भविष्य थे। वे नीनवे के घृणित अतीत की ज़िम्मेदारी लेंगे, ठीक उसी तरह जैसे वे यहोवा परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन नीनवे के अतीत और भविष्य के प्रति गवाही देने के महत्वपूर्ण कर्तव्य की ज़िम्मेदारी लेंगे। उसकी सच्ची भावनाओं की इस घोषणा में, यहोवा परमेश्वर ने मानवता के लिए सृष्टिकर्ता की दया को उसकी सम्पूर्णता में प्रस्तुत किया है। इसने मानवता को दिखाया है कि "सृष्टिकर्ता की दया" कोई खोखला वाक्यांश नहीं है, न ही यह खोखला वादा है; इसमें ठोस सिद्धान्त, पद्धतियाँ और उद्देश्य हैं। वह सच्चा और वास्तविक है, और किसी झूठ या कपटवेश का उपयोग नहीं करता है, और इसी रीति से उसकी दया को बिना रुके हर समय और हर युग में मानवता को प्रदान किया जाता है। फिर भी, आज के दिन तक, योना के साथ सृष्टिकर्ता का संवाद परमेश्वर का एकमात्र और अति विशेष मौखिक कथन है कि वह मानवता पर दया क्यों करता है, वह मानवता पर दया कैसे करता है, वह मानवता के प्रति और मानवता के लिए अपनी सच्ची भावनाओं के प्रति कितना सहनशील है। यहोवा परमेश्वर का संक्षिप्त वार्तालाप मानवता के लिए उसके सम्पूर्ण विचारों को अभिव्यक्त करता है; यह मानवता के निमित्त परमेश्वर के हृदय की मनोवृत्ति की सच्ची अभिव्यक्ति है, और साथ ही यह मानवता पर व्यापक रूप से दया करने का ठोस सबूत भी है। उसकी दया न केवल मानवता की प्राचीन पीढ़ियों को दी गई है; बल्कि यह मानवता के युवा सदस्यों को भी दी गई है, ठीक उसी तरह जैसा हमेशा से होता आया है, एक पीढ़ी से लेकर दूसरी पीढ़ी तक। यद्यपि परमेश्वर का क्रोध बार बार मानवता के कुछ निश्चित कोनों और कुछ निश्चित क्षेत्रों पर नीचे उतरता है, फिर भी उसकी दया कभी खत्म नहीं हुई है। अपनी करुणा के साथ, वह अपनी सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद अगली पीढ़ी का मार्गदर्शन एवं अगुवाई करता है, वह अपनी सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद अगली पीढ़ी की आपूर्ति एवं उनका पालन पोषण करता है, क्योंकि मानवता के प्रति उसकी सच्ची भावनाएं कभी नहीं बदलेंगी। जैसा यहोवा परमेश्वर ने कहा: "क्या मैं नीनवे पर तरस न खाऊं....?" उसने सदैव अपनी सृष्टि का पालन पोषण किया है। यह सृष्टिकर्ता के धर्मी स्वभाव की दया है, और साथ ही यह सृष्टिकर्ता की विशुद्ध अद्वितीयता भी है।
(III) पांच प्रकार के लोग
फिलहाल के लिए, मैं परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के विषय में हमारी सभा को यहीं छोडूंगा। आगे मैं परमेश्वर के अनुयायियों को अनेक श्रेणियों में वर्गीकृत करूंगा, परमेश्वर के विषय में उनकी समझ और उसके धर्मी स्वभाव के साथ उनकी समझ और अनुभव के अनुसार, ताकि तुम सब उस अवस्था को जिससे तुम सब वर्तमान में सम्बन्धित हो साथ ही साथ अपने वर्तमान डीलडौल को जान सको। परमेश्वर के विषय में उनके ज्ञान और उसके धर्मी स्वभाव के विषय में उनकी समझ के सम्बन्ध में, वे अलग अलग अवस्थाएं एवं डीलडौल जिन्हें लोग धारण करते हैं उन्हें साधारण तौर पर पांच प्रकारों में बांटा जा सकता है। इस विषय को अद्वितीय परमेश्वर और उसके धर्मी स्वभाव को जानने के आधार पर आधारित किया गया है; इसलिए, जैसे तुम सब निम्लिखित विषयवस्तु को पढ़ते हो, तो तुम्हें सावधानीपूर्वक यह मालूम करने की कोशिश करनी चाहिए कि तुम सब के पास परमेश्वर की अद्वितीयता और उसके धर्मी स्वभाव के सम्बन्ध में वास्तव में कितनी समझ और कितना ज्ञान है, और तब तुम सब यह अनुमान लगाने के लिए इसका उपयोग कर सकते हो कि तुम सब सचमुच में किस अवस्था से सम्बन्धित हो, तुम लोगों का डीलडौल सचमुच में कितना बड़ा है, और तुम सब सचमुच में किस प्रकार के व्यक्ति हो।
पहले प्रकार के लोगों को "कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु" की अवस्था के रूप में जाना जाता है।
कपड़े में लिपटा हुआ एक नवजात शिशु क्या है? कपड़े में लिपटा हुआ एक नवजात शिशु एक ऐसा शिशु है जो हाल ही में संसार में आया है, एक नया जन्मा बच्चा। यह तब होता है जब लोग बहुत ही छोटे और बिलकुल अपरिपक्व होते हैं।
इस अवस्था में लोग आवश्यक रूप से परमेश्वर में विश्वास के विषयों को लेकर कोई जागरुकता और सचेतता धारण नहीं करते हैं। वे हर चीज़ के प्रति व्याकुल और अनभिज्ञ होते हैं। हो सकता है कि इन लोगों ने एक लम्बे समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है या लम्बे समय से बिलकुल भी विश्वास नहीं किया है, परन्तु उनकी व्याकुल और अनभिज्ञ दशा और उनका असली डीलडौल उन्हें कपड़े में लिपटे हुए एक नवजात शिशु की अवस्था के अंतर्गत रखता है। कपड़े में लिपटे हुए एक नवजात शिशु की स्थति की सटीक परिभाषा इस प्रकार हैः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इस प्रकार के व्यक्ति ने कितने लम्बे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा है, वह हमेशा नासमझ, व्याकुल और सामान्य मस्तिष्क का होगा; वह नहीं जानता है कि वह परमेश्वर में क्यों विश्वास करता है, न ही वह यह जानता है कि कौन परमेश्वर है या परमेश्वर कौन है? यद्यपि वह परमेश्वर का अनुसरण करता है, फिर भी उसके हृदय में परमेश्वर की कोई सटीक परिभाषा नहीं है, और वह यह निर्धारित नहीं कर सकता है कि वह जिसका अनुसरण करता है वह परमेश्वर है कि नहीं, इसकी तो बात ही छोड़ दीजिए कि उसे सचमुच में परमेश्वर पर विश्वास करना और उसका अनुसरण करना चाहिए कि नहीं। इस प्रकार के व्यक्ति की असली परिस्थितियां ये हैं। इन लोगों के विचार धुंधले हैं, और साधारण तौर पर कहें, तो उनका विश्वास एक तरह से भ्रमित है। वे हमेशा व्याकुलता और खालीपन की अवस्था में बने रहते हैं; नासमझ, भ्रम और सामान्य मस्तिष्क उनकी परिस्थितियों को संक्षेप में बताते हैं। उन्होंने परमेश्वर के अस्तित्व को कभी नहीं देखा है और न ही उसे महसूस किया है, और इसलिए, परमेश्वर को जानने के बारे में उनसे बात करना उतना ही उपयोगी है जितना उनसे एक पुस्तक पढ़वाना जो गूढ़ लिपि में लिखा गया है; वे न तो उसे समझेंगे और न ही उसे ग्रहण करेंगे। उनके लिए, परमेश्वर को जानना एक काल्पनिक कहानी को सुनने के समान है। जबकि उनके विचार धुंधले हो सकते हैं, किन्तु वे वास्तव में दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि परमेश्वर को जानना पूरी तरह से समय और प्रयास की बर्बादी है। यह पहले प्रकार का व्यक्ति है - कपड़े में लिपटा हुआ एक नवजात शिशु।
दूसरे प्रकार की अवस्था "दूध पीते हुए शिशु" की अवस्था है।
कपड़े में लिपटे हुए एक शिशु की तुलना में, इस प्रकार के व्यक्ति ने कुछ प्रगति कर ली है। खेद की बात है, कि उनमें अभी भी परमेश्वर की कुछ भी समझ नहीं है। उनमें अभी भी परमेश्वर के विषय में स्पष्ट समझ और अन्तःदृष्टि की कमी है, और वे बिलकुल भी स्पष्ट नहीं हैं कि उन्हें परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए, किन्तु उनके हृदयों में उनके स्वयं के अपने उद्देश्य और स्पष्ट युक्तियां हैं। वे स्वयं को इस बात से नहीं जोड़ते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना सही है या नहीं। वह लक्ष्य एवं उद्देश्य जिन्हें वे परमेश्वर में विश्वास के जरिए खोजते हैं वह उसके अनुग्रह का आनन्द उठाने के लिए, आनन्द और शांति पाने के लिए, आरामदेह ज़िन्दगी बिताने के लिए, परमेश्वर की देखभाल एवं सुरक्षा को पाने के लिए और परमेश्वर की आशीषों के अधीन जीवन बिताने के लिए है। वे इस बात से चिंतित नहीं हैं कि वे किस हद तक परमेश्वर को जानते हैं; उनमें परमेश्वर की समझ को खोजने के लिए कोई उत्तेजना नहीं है, न ही वे इस बात से चिंतित हैं कि परमेश्वर क्या कर रहा है या वह क्या करना चाहता है। वे सिर्फ आंख बंद करके उसके अनुग्रह का आनन्द उठाने तथा उसकी और भी अधिक आशीषों को हासिल करने की खोज करते हैं; वे वर्तमान युग में सौ गुना और आनेवाले युग में अनन्त जीवन प्राप्त करने की खोज करते हैं। उनके विचार, खर्च और भक्ति, साथ ही साथ उनका दुख उठाना, सभी एक ही प्रायोजन को आपस में बांटते हैं: परमेश्वर के अनुग्रह को और आशीषों को हासिल करना। उन्हें किसी भी अन्य चीज़ की कोई चिंता नहीं है। इस प्रकार का व्यक्ति केवल इस बात में निश्चित है कि परमेश्वर उन्हें सुरक्षित रख सकता है और उन्हें अपनी दया प्रदान कर सकता है। कोई कह सकता है कि वे इसमें रूचि नहीं रखते हैं और वे बिलकुल भी स्पष्ट नहीं हैं कि परमेश्वर क्यों मनुष्य को या उस परिणाम को बचाना चाहता है जिसे परमेश्वर अपने वचनों और कार्य से हासिल करना चाहता है। उन्होंने परमेश्वर की हस्ती और धर्मी स्वभाव को जानने के लिए कभी प्रयास नहीं किया है, और न ही वे ऐसा करने के लिए रूचि जुटा सकते हैं। उन्हें इन चीज़ों पर ध्यान देने की इच्छा नहीं होती है, और न ही वे इन्हें जानना चाहते हैं। वे परमेश्वर के कार्य, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की अपेक्षाओं, परमेश्वर की इच्छा या कोई चीज़ जो परमेश्वर से सम्बन्धित है उसके विषय में पूछना नहीं चाहते हैं; न ही इन चीज़ों के विषय में पूछकर उन्हें कष्ट दिया जा सकता है। यह इसलिए है क्योंकि वे विश्वास करते हैं कि ये मुद्दे उनके द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लिए जाने से सम्बन्धित नहीं हैं; वे केवल एक ऐसे परमेश्वर से मतलब रखते हैं जो अनुग्रह करता है और जो उनकी व्यक्तिगत रुचियों से सम्बन्धित है। उनमें किसी और चीज़ की कोई रूचि नहीं है चाहे वह कुछ भी हो, और इस प्रकार वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं; इसके बावजूद कि उन्होंने कितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है। किसी ऐसे व्यक्ति के बिना जो बार बार उन्हें सींचे और उनका पोषण करे, उनके लिए परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर निरन्तर बढ़ते जाना कठिन है। यदि वे अपने प्रारम्भिक खुशी और शांति का आनन्द या परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द नहीं उठा सकते हैं, तो वे पीछे हट सकते हैं। यह दूसरे प्रकार का व्यक्ति है: वह व्यक्ति जो दूध पीते हुए शिशु की अवस्था में बना रहता है।
तीसरे प्रकार की अवस्था दूध छुड़ाए हुए बच्चे की है– छोटे बच्चे की अवस्था।
इस समूह के लोग कुछ स्पष्ट जागरूकता रखते हैं। ये लोग जानते हैं कि परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेने का अर्थ यह नहीं है कि वे अपने आप में सच्चा अनुभव रखते हैं; वे जानते हैं कि यदि वे आनन्द और शांति की खोज करते हुए, और अनुग्रह की खोज करते हुए कभी न थकें, या यदि वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेने के अनुभव को बांटने के द्वारा या उन आशीषों की प्रशंसा करने के द्वारा गवाही देने में समर्थ हैं जिन्हें परमेश्वर ने उन्हें दिया है, तो इन चीज़ों का अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने जीवन को धारण किया है, न ही इसका अर्थ यह है कि उन्होंने सत्य की वास्तविकता को धारण किया है। उनकी सचेतता की शुरुआत से ही, उन्होंने निरर्थक आशाओं का सत्कार करना छोड़ दिया है ताकि सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा ही उनका साथ दिया जाएगा; उसके बजाए, जब वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द उठाते हैं, तो वे उसी समय परमेश्वर के लिए कुछ करना भी चाहते हैं; वे अपने कर्तव्यों को निभाने, थोड़ी बहुत कठिनाई और थकान सहने, और परमेश्वर के साथ कुछ हद तक सहयोग करने के लिए तैयार हैं। फिर भी, क्योंकि परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास में उनका अनुसरण बहुत अधिक मिलावटी है, क्योंकि उनके व्यक्तिगत इरादे और इच्छाएं जिन्हें वे आश्रय देते हैं बहुत ही ताकतवर हैं, क्योंकि उनका स्वभाव बहुत ही स्पष्ट रूप से अभिमानी है, तो परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना या परमेश्वर के प्रति वफादार होना उनके लिए बहुत कठिन है; इसलिए, वे अक्सर अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का एहसास या परमेश्वर से की गई प्रतिज्ञाओं का सम्मान नहीं कर सकते हैं। वे अकसर अपने आपको परस्पर विरोधी स्थितियों में पाते हैं: जहां तक सम्भव हो वे सर्वाधिक मात्रा में परमेश्वर को सन्तुष्ट करने की बहुत इच्छा करते हैं, फिर भी वे उसका विरोध करने के लिए अपनी सारी सामर्थ का उपयोग करते हैं; वे अक्सर परमेश्वर से वादे तो करते हैं परन्तु तुरन्त ही अपनी मन्नतों से पीछे हट जाते हैं। उससे भी बढ़कर वे अकसर अपने आपको अन्य परस्पर विरोधी स्थितियों में पाते हैं: वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, फिर भी उसका और जो कुछ उससे आता है उसका इंकार करते हैं; वे व्याकुलता से आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें ज्योर्तिमय करेगा, उनकी अगुवाई करेगा, और उनकी आपूर्ति करेगा और उनकी सहायता करेगा, फिर भी वे बाहर निकलने का अपना मार्ग खोज ही लेते हैं। वे परमेश्वर को समझना और जानना चाहते हैं, फिर भी वे उसके करीब आने के लिए तैयार नहीं हैं। इसके बदले, वे हमेशा परमेश्वर से परहेज करते हैं; उनका हृदय उसके लिए बंद हो गया है। जबकि उनके पास परमेश्वर के वचनों और सच्चाई के शाब्दिक अर्थ की सतही समझ और अनुभव है, और परमेश्वर और सत्य की सतही अवधारणा है, किन्तु अवचेतन रूप में वे अभी भी इसकी पुष्टि या इसे निर्धारित नहीं कर सकते हैं कि परमेश्वर वह सत्य है या नहीं; वे इसकी पुष्टि नहीं कर सकते हैं कि परमेश्वर सचमुच में धर्मी है या नहीं; न ही वे परमेश्वर के स्वभाव और उसकी हस्ती की यथार्थता को निर्धारित कर सकते हैं, उसके सच्चे अस्तित्व की तो बात ही छोड़ दीजिए। परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास में सदैव सन्देह और ग़लतफ़हमी होती है, और साथ ही उसमें कल्पनाएं और अवधारणाएं होती हैं। जब वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेते हैं, तो वे न चाहते हुए भी उन में से कुछ का अनुभव या अभ्यास करते हैं जिन्हें वे सम्भावित सच्चाईयां मानते हैं, ताकि वे अपने विश्वास को समृद्ध कर सकें, परमेश्वर के प्रति विश्वास में अपने अनुभव को बढ़ा सकें, परमेश्वर के प्रति विश्वास के विषय में अपनी समझ को सत्यापित कर सकें, जीवन के पथ पर अपनी चहलक़दमी की व्यर्थता को सन्तुष्ट कर सकें जिसे उन्होंने स्वयं स्थापित किया था और मानवजाति की नेक वज़ह को पूरा कर सकें। उसी समय वे इन चीज़ों को भी अंजाम देते हैं ताकि आशीषों को हासिल करने के लिए अपनी स्वयं की इच्छा को सन्तुष्ट कर सकें, शर्त लगाने के लिए जिससे वे मानवता की सबसे बड़ी आशीषों को प्राप्त कर सकते हैं, और उस महत्वाकांक्षी आकांक्षा और जीवनभर की इच्छा को पूरा करने के लिए कि वे तब तक विश्राम नहीं करेंगे जब तक वे परमेश्वर को प्राप्त न कर लें। ये लोग कभी कभार ही परमेश्वर के अद्भुत प्रकाशन को हासिल करने में सक्षम होते हैं, क्योंकि आशीषों को पाने की उनकी इच्छा और उनके इरादे उनके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उनके पास इसे छोड़ने की कोई इच्छा नहीं है और इसे छोड़ने की बात को वे सह नहीं सकते हैं। वे डरते हैं कि आशीषों को पाने की इच्छा के बिना, लम्बे समय से पोषित उस महत्वाकांक्षा के बिना कि वे तब तक विश्राम नहीं करेंगे जब तक वे परमेश्वर को प्राप्त न कर लें, वे परमेश्वर पर विश्वास करने हेतु उस प्रेरणा को खो देंगे। इसलिए, वे वास्तविकता का सामना नहीं करना चाहते हैं। वे परमेश्वर के वचन या परमेश्वर के कार्य का सामना नहीं करना चाहते हैं। वे परमेश्वर के स्वभाव या हस्ती का सामना तक नहीं करना चाहते हैं, परमेश्वर को जानने के विषय की शिक्षा देने की तो बात ही छोड़ दीजिए। यह इसलिए है क्योंकि जब एक बार परमेश्वर, उसकी हस्ती और उसका धर्मी स्वभाव उनकी कल्पनाओं का स्थान ले लेता है, तो उनके सपने धुएं में उड़ जाएंगे; उनका तथाकथित विश्वास और "योग्यताएं" जिन्हें वर्षों के कठिन परिश्रम के कार्य के जरिए इकट्ठा किया गया था लुप्त और निष्फल हो जाएंगे; उनका "इलाका" जिसे उन्होंने कई वर्षों से खून पसीने से जीता था वे धराशायी होने के कगार पर होंगे। यह सूचित करेगा कि उनके अनेक वर्षों के कठिन परिश्रम और प्रयास व्यर्थ हैं, और यह कि उन्हें शून्य से दोबारा शुरुआत करना होगा। अपने हृदय में सहन करने के लिए यह उनके लिए सबसे कठिन दर्द है, और यह ऐसा परिणाम है जिसको देखने की इच्छा वे बहुत ही कम करते हैं; इसलिए वे हमेशा इस प्रकार के अनिर्णय एवं असहमति की विकट स्थिति में बंद रहते हैं, और वापस लौटने से माना करते हैं। यह तीसरे प्रकार का व्यक्ति है: ऐसा व्यक्ति जो दूध छुड़ाए हुए बच्चे की अवस्था में बना रहता है।
तीन प्रकार के लोग जिनका वर्णन ऊपर किया है - दूसरे शब्दों में, ऐसे लोग जो इन तीन अवस्थाओं में बने रहते हैं – वे परमेश्वर की पहचान और हस्ती में या उसके धर्मी स्वभाव में कोई सच्चा विश्वास नहीं रखते हैं, न ही उनके पास इन चीज़ों के विषय में कोई स्पष्ट, और निश्चित पहचान या पुष्टिकरण है। इसलिए, इन तीनों अवस्थाओं के लोगों के लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत कठिन है, और साथ ही उनके लिए परमेश्वर की दया, अद्भुत प्रकाशन और अद्भुत ज्योति को प्राप्त करना भी कठिन है क्योंकि वह प्रणाली जिसके अंतर्गत वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर के प्रति उनकी ग़लत मनोवृत्ति इसे परमेश्वर के लिए असम्भव बना देती है कि वह उनके हृदयों के भीतर कार्य करे। परमेश्वर के सम्बन्ध में उनके सन्देह, ग़लत अवधारणाएं और कल्पनाएं परमेश्वर के विषय में उनके विश्वास और ज्ञान से आगे बढ़ चुके हैं। ये तीनों बहुत ही ख़तरनाक प्रकार के लोग हैं साथ ही साथ तीनों बहतु ही ख़तरनाक अवस्थाओं में हैं। जब कोई परमेश्वर, परमेश्वर की हस्ती, परमेश्वर की पहचान, वह विषय कि परमेश्वर सत्य है या नहीं और उसके अस्तित्व की वास्तविकता के प्रति सन्देह की मनोवृत्ति को बनाए रखता है और इन चीज़ों के विषय में निश्चित नहीं हो सकता है, तो कोई कैसे हर चीज़ को स्वीकार कर सकता है जो परमेश्वर से आता है? कैसे कोई उस तथ्य को स्वीकार कर सकता है कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है? कोई कैसे परमेश्वर की ताड़ना और उसके न्याय को स्वीकार कर सकता है? कोई कैसे परमेश्वर के उद्धार को प्राप्त कर सकता है? इस किस्म का व्यक्ति परमेश्वर के सच्चे मार्गदर्शन और आपूर्ति को कैसे प्राप्त कर सकता है? वे जो इन तीन अवस्थाओं में हैं वे परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं, परमेश्वर पर दोष लगा सकते हैं, परमेश्वर की निंदा कर सकते हैं या किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। वे किसी भी समय सत्य के मार्ग को त्याग सकते हैं और परमेश्वर को छोड़ सकते हैं। कोई कह सकता है कि इन तीनों अवस्थाओं के लोग कठिन समयावधि में रहते हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास के विषय में सही पथ में प्रवेश नहीं किया है।
चौथे प्रकार की अवस्था परिपक्व होते हुए बालक की अवस्था है; अर्थात्, बचपना।
जब एक बच्चे का दूध पीना छुड़ाया जाता है – अर्थात्, उनके द्वारा प्रचुर मात्रा में अनुग्रह का आनन्द लिए जाने के पश्चात, एक व्यक्ति यह खोज करना प्रारम्भ कर देता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने, और विभिन्न प्रश्नों को समझने की इच्छा करने का क्या अर्थ है, जैसे मनुष्य क्यों जी रहा है, मनुष्य को कैसे जीवन जीना चाहिए और परमेश्वर क्यों मनुष्य पर अपने कार्य को क्रियान्वित करता है? जब ये अस्पष्ट विचार और भ्रमित कल्पनाएं उनके भीतर से उठती हैं और उनके भीतर बनी रहती हैं, तो वे लगातार सिंचाई को प्राप्त करती हैं और साथ ही वे अपने कर्तव्य को निभाने में समर्थ भी होती हैं। इस समयावधि के दौरान, उनके पास परमेश्वर के अस्तित्व की सच्चाई को लेकर आगे से कोई सन्देह नहीं होता है, और उनके पास एक सटीक समझ होती है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ क्या है। इस नींव पर उन्हें धीरे धीरे परमेश्वर का ज्ञान होता है, और वे आहिस्ता आहिस्ता परमेश्वर के स्वभाव और उसकी हस्ती के सम्बन्ध में अपने अस्पष्ट विचारों और भ्रमित कल्पनाओं के कुछ उत्तर हासिल करते हैं। उनके स्वभाव में हुए परिवर्तनों साथ ही साथ परमेश्वर के विषय में उनके ज्ञान के सम्बन्ध में, इस अवस्था में लोग सही पथ पर कदम बढ़ाना आरम्भ कर देते हैं और एक रूपान्तरण की समयावधि में प्रवेश करते हैं। यह इस अवस्था के अंतर्गत होता है कि लोग जीवन पाना शुरू कर देते हैं। जीवन को धारण करने के स्पष्ट संकेत परमेश्वर को जानने से सम्बन्धित उन विभिन्न प्रश्नों का क्रमिक समाधान है जो लोगों के हृदयों में होते हैं – ग़लतफ़हमियां, कल्पनाएं, अवधारणाएं और परमेश्वर की अस्पष्ट परिभाषाएं – यह कि वे न केवल सचमुच में परमेश्वर के अस्तित्व की वास्तविकता पर विश्वास करते हैं और उसे जानते हैं बल्कि अपने हृदय में परमेश्वर की एक स्पष्ट परिभाषा और प्रारम्भिक ज्ञान भी रखते हैं, कि सचमुच में परमेश्वर का अनुसरण करना उनके अस्पष्ट विश्वास का स्थान ले लेता है। इस अवधि के दौरान, लोग परमेश्वर के प्रति अपनी मिथ्या अवधारणाओं और अपने ग़लत अनुसरण और विश्वास के तरीकों को धीरे धीरे जान जाते हैं। वे सत्य के लिए लालायित होना, परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और अनुशासन के अनुभव हेतु लालायित होना, और अपने स्वभाव में परिवर्तन के लिए लालायित होना प्रारम्भ कर देते हैं। वे इस अवस्था के दौरान परमेश्वर के विषय में सभी प्रकार की अवधारणाओं और कल्पनाओं को धीरे धीरे त्याग देते हैं; ठीक उसी समय वे परमेश्वर के विषय में अपने ग़लत ज्ञान को बदलते और सुधारते हैं और परमेश्वर के विषय में कुछ सही आधारभूत ज्ञान हासिल करते हैं। यद्यपि इस अवस्था में लोगों के द्वारा धारण किए गए ज्ञान का एक अंश बहुत विशिष्ट या सटीक नहीं होता, फिर भी कम से कम वे परमेश्वर के विषय में अपनी अवधारणाओं, ग़लत ज्ञान और ग़लतफ़हमियों को त्यागना आरम्भ कर देते हैं; वे परमेश्वर के प्रति अपनी अवधारणाओं और कल्पनाओं को आगे से बनाए नहीं रखते हैं। वे यह सीखना आरम्भ करते हैं कि किस प्रकार त्यागें – अपनी स्वयं की अवधारणाओं के मध्य पाई जानेवाली चीज़ों को त्यागना, जो ज्ञान से और शैतान से हैं; वे सही और सकारात्मक चीज़ों के अधीन होने के लिए तैयार होना शुरू कर देते हैं, और यहां तक कि उन चीज़ों के प्रति भी जो परमेश्वर के वचनों से आते हैं और सत्य के अनुरूप होते हैं। साथ ही वे परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने का प्रयास करना, उसके वचनों को व्यक्तिगत रूप से जानना और उसे क्रियान्वित करना, उसके वचनों को अपने कार्यों के सिद्धान्तों के रूप में और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के एक आधार के रूप में स्वीकार करना आरम्भ कर देते हैं। इस समयावधि के दौरान, लोग अचैतन्य रूप में परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हैं, और अचैतन्य रूप में परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करते हैं। जबकि वे परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, और उसके वचनों को स्वीकार करते हैं, तो वे और भी अधिक सचेत हो जाते हैं और यह एहसास करने में सक्षम होते हैं कि वह परमेश्वर जिस पर वे अपने हृदय से विश्वास करते हैं वह सचमुच में अस्तित्व में है। परमेश्वर के वचनों, उनके अनुभवों और उनकी ज़िन्दगियों में, वे बहुतायत से महसूस करते हैं कि परमेश्वर ने सदैव मनुष्य की नियति के ऊपर अध्यक्षता की है, उनकी अगुवाई की है, और उनकी आपूर्ति की है। परमेश्वर के साथ अपनी संगति के जरिए, वे धीरे धीरे परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। इसलिए, इससे पहले कि वे इसका एहसास करते, उन्होंने अर्ध चेतनावस्था में ही परमेश्वर के कार्य को मंज़ूर कर लिया था और उस पर दृढ़ता से विश्वास किया था, और उन्होंने परमेश्वर के वचनों को मंज़ूर कर लिया था। जब एक बार लोग परमेश्वर के वचनों को मंज़ूर कर लेते हैं और परमेश्वर के कार्यों को मंज़ूर कर लेते हैं, तो वे बिना रुके अपने आपका इंकार करते हैं, अपनी स्वयं की अवधारणाओं का इंकार करते हैं, अपने स्वयं के ज्ञान का इंकार करते हैं, अपनी स्वयं की कल्पनाओं का इंकार करते हैं, और साथ ही उसी समय वे बिना रुके खोजते हैं कि सत्य क्या है और परमेश्वर की इच्छा क्या है। विकास की इस अवधि के दौरान परमेश्वर के विषय में लोगों का ज्ञान बहुत ही सतही है - वे तो शब्दों का उपयोग करते हुए इस ज्ञान को परिश्रम से विस्तृत करने में भी असमर्थ हैं, न ही वे इसे विशेष रूप से परिश्रम से विस्तृत कर सकते हैं – और उनके पास सिर्फ महसूस की जानेवाली समझ है; फिर भी, जब पिछली तीन अवस्थाओं के साथ तुलना की जाती है, तो इस समयावधि के लोगों की अपरिपक्व ज़िन्दगियों ने पहले से ही परमेश्वर के वचनों की सिंचाई और आपूर्ति को प्राप्त कर लिया है, और पहले से ही अंकुरित होना प्रारम्भ कर दिया है। यह एक बीज के समान है जिसे भूमि में गाड़ा गया है; नमी और पोषक तत्वों को पाने के बाद; वह मिट्टी से फूटता है, उसका अंकुरित होना एक नए जीवन की उत्पत्ति को दर्शाता है। नए जीवन की यह उत्पत्ति एक व्यक्ति को जीवन के संकेतों की झलक देखने की अनुमति देती है। जीवन के साथ, लोग इस प्रकार बढ़ते जाएंगे। इसलिए, इन नीवों पर - परमेश्वर में विश्वास करने के सही पथ पर धीरे धीरे अपना मार्ग बनाना, अपनी स्वयं की अवधारणाओं को त्यागना, परमेश्वर के मार्गदर्शन को प्राप्त करना – लोगों की ज़िन्दगियां अनिवार्य रूप से आहिस्ता आहिस्ता प्रगति करेंगी। किस आधार पर इस प्रगति को नापा जाता है? इसे परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सही समझ के साथ उसके अनुभव के अनुसार नापा जाता है। यद्यपि प्रगति की इस समयावधि के दौरान परमेश्वर और उसकी हस्ती के विषय में अपने ज्ञान का सटीकता से वर्णन करने के लिए अपने स्वयं के शब्दों का उपयोग करना उन्हें बहुत ही कठिन जान पड़ता है, फिर भी इस समूह के लोग परमेश्वर के अनुग्रह के आनन्द के जरिए प्रसन्नता का अनुसरण करने के लिए, या परमेश्वर में विश्वास करने के पीछे अपने उद्देश्य का अनुसरण करने से लिए आगे से चैतन्य रूप से तैयार नहीं हैं, जो उसके अनुग्रह को हासिल करने के लिए है। उसके बजाए, वे परमेश्वर के वचन के द्वारा जीविका की खोज करने, और परमेश्वर के उद्धार का एक विषय बनने के इच्छुक हैं। इसके अतिरिक्त, वे आत्मविश्वास रखते हैं और परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करने हेतु तैयार हैं। यह प्रगति की अवस्था में एक व्यक्ति की पहचान है।
यद्यपि इस अवस्था में लोगों के पास परमेश्वर के धर्मी स्वभाव का कुछ ज्ञान होता है, फिर भी यह ज्ञान बहुत धुंधला और अस्पष्ट है। जबकि वे इसका स्पष्ट रीति से विस्तार नहीं कर सकते हैं, उनको एहसास होता है कि उन्होंने पहले से ही अपने भीतर कुछ हासिल कर लिया है, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की ताड़ना एवं न्याय के जरिए परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के विषय में कुछ मात्रा में ज्ञान और समझ हासिल कर लिया है; फिर भी, उसके बजाए यह सब सतही है, और यह अभी भी प्रारम्भिक अवस्था में ही है। इस समूह के लोगों के पास ठोस दृष्टिकोण है जिसके तहत वे परमेश्वर के अनुग्रह से व्यवहार करते हैं। इस दृष्टिकोण को उद्देश्यों में हुए उन परिवर्तनों में प्रकट किया गया है जिनका वे अनुसरण करते हैं और जिस तरह से वे उनका अनुसरण करते हैं। उन्होंने पहले से ही देख लिया है - परमेश्वर के वचनों और कामों में, मनुष्य से की गई उसकी सभी प्रकार की अपेक्षाओं में और मनुष्य को दिए गए उसके प्रकाशनों में – कि यदि वे अभी भी सच्चाई का अनुसरण नहीं करेंगे, यदि वे अभी भी वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अनुसरण नहीं करेंगे, यदि वे अभी भी परमेश्वर को सन्तुष्ट करने और जानने के लिए प्रयास नहीं करेंगे जबकि वे उसके वचनों का अनुभव करते हैं, तो वे परमेश्वर में विश्वास करने के महत्व को खो देंगे। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे परमेश्वर के अनुग्रह का कितना आनन्द उठाते हैं, वे अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते हैं, परमेश्वर को सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं और परमेश्वर को नहीं जान सकते हैं, और यह कि यदि वे लगातार परमेश्वर के अनुग्रह के मध्य जीवन बिताएं, वे कभी उन्नति को प्राप्त नहीं करेंगे, जीवन को हासिल नहीं करेंगे या उद्धार पाने में समर्थ नहीं होंगे। संक्षेप में, यदि कोई परमेश्वर के वचनों का सचमुच में अनुभव नहीं कर सकता है और उसके वचनों के माध्यम से परमेश्वर को जानने में असमर्थ है, तो वह व्यक्ति अनंतकाल तक एक नवजात शिशु की अवस्था में बना रहेगा और कभी भी अपने जीवन की प्रगति में एक कदम भी नहीं ले पाएगा। यदि तुम सदैव एक नवजात शिशु की अवस्था में बने रहते हो, यदि तुम परमेश्वर के वचन की सच्चाई में कभी प्रवेश नहीं करते हो, यदि तुम परमेश्वर के वचनों के द्वारा जीवन व्यतीत करने में कभी समर्थ नहीं होते हो, यदि तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वास और ज्ञान को धारण करने में कभी समर्थ नहीं होते हो, तो परमेश्वर के द्वारा तुम्हें पूर्ण किए जाने हेतु क्या कोई सम्भावना है? इसलिए, कोई भी व्यक्ति जो परमेश्वर के वचन की सच्चाई में प्रवेश करता है, कोई भी व्यक्ति जो परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के समान ग्रहण करता है, कोई भी व्यक्ति जो परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करता है, कोई भी व्यक्ति जिसका भ्रष्ट स्वभाव बदलना शुरू हो गया है, और कोई भी व्यक्ति जिसके पास एक ऐसा हृदय है जो सच्चाई के लिए लालायित होता है, जिसके पास परमेश्वर को जानने की इच्छा है, जिसके पास परमेश्वर के उद्धार को ग्रहण करने की इच्छा है - ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने सचमुच में जीवन को धारण किया है। यह सचमुच में चौथे प्रकार का व्यक्ति है, जो परिपक्व बच्चा है, वह व्यक्ति जो बालकपन की अवस्था में है।
पांचवे प्रकार की अवस्था परिपक्व जीवन की अवस्था है, या बालिग अवस्था है।
बालकपन की लड़खड़ाती हुई अवस्था का अनुभव करने के पश्चात्, प्रगति की यह अवस्था बार बार की जानेवाली पुनरावृत्तियों से भरी हुई है, लोगों का जीवन पहले से ही स्थिर हो गया है, उनके बढ़ते पग अब आगे से नहीं रुकते हैं, न ही कोई ऐसा है जो उन्हें रोकने में समर्थ है। यद्यपि आगे का पथ ऊबड़-खाबड़ और खुरदुरा है, फिर भी वे आगे से कमज़ोर और भयभीत नहीं होते हैं; वे आगे से फूहड़ता से काम नहीं करते हैं या अपने आचरण को नहीं खोते हैं। उनकी नींव परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभव में गहराई से जड़ पकड़े हुए हैं। उनके हृदयों को परमेश्वर की प्रतिष्ठा और महानता के द्वारा भीतर खींचा गया है। वे परमेश्वर के पदचिन्हों में चलने के लिए, परमेश्वर की हस्ती को जानने के लिए, और परमेश्वर को उसकी सम्पूर्णता में जानने के लिए लालायित हैं।
इस अवस्था में लोग पहले से ही साफ साफ जानते हैं कि वे किस में विश्वास करते हैं, और वे स्पष्ट रीति से जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर में क्यों विश्वास करना चाहिए है और वे स्वयं अपनी अपनी ज़िन्दगियों के अर्थों को जानते हैं; साथ ही वे यह भी स्पष्ट रीति से जानते हैं कि हर चीज़ जिसे परमेश्वर प्रकट करता है वह सत्य है। उनके अनेक वर्षों के अनुभव में, वे महसूस करते हैं कि परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना के बिना, कोई व्यक्ति परमेश्वर को सन्तुष्ट करने और परमेश्वर को जानने में कभी सक्षम नहीं होगा, न ही कोई व्यक्ति परमेश्वर के सम्मुख आने में सचमुच में कभी समर्थ होगा। इन लोगों के अपने अपने हृदयों में एक बड़ी तीव्र इच्छा होती है कि उन्हें परमेश्वर के द्वारा जांचा जाए, जिससे जांचे जाते समय परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को देख सकें, एक अधिक शुद्ध प्रेम को हासिल कर सकें, और ठीक उसी समय परमेश्वर को और अधिक सच्चाई से समझने और जानने में समर्थ हो सकें। वे जो इस अवस्था से सम्बन्धित हैं उन्होंने पहले से ही नवजात शिशु की अवस्था को पूरी तरह से अलविदा कह दिया है, अर्थात् परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेने और रोटी खाने और तृप्त होने की अवस्था को। वे परमेश्वर को सहिष्णु बनाने और उन पर दया दिखाने के लिए असाधारण आशाओं को आगे से स्थान नहीं देते हैं; उसके बजाए, वे परमेश्वर की न रुकने वाली ताड़ना और उसके न्याय को पाने और उसकी आशा करने के लिए आश्वस्त हैं, ताकि अपने भ्रष्ट स्वभाव से अपने आपको अलग कर सकें और परमेश्वर को सन्तुष्ट कर सकें। परमेश्वर के विषय में उनका ज्ञान, उनका अनुसरण या उनके अनुसरण के अंतिम लक्ष्य: ये सभी चीज़ें उनके मनों में बहुत ही स्पष्ट हैं। इसलिए, बालिग अवस्था में लोगों ने पहले से ही अस्पष्ट विश्वास की अवस्था को, उस अवस्था को जिसके अंतर्गत वे उद्धार के लिए अनुग्रह पर आश्रित होते हैं, अपरिपक्व जीवन की अवस्था को जो परीक्षाओं का सामना नहीं कर सकती है, धुंधलेपन की अवस्था को, फूहड़पन से काम करने की अवस्था को, उस अवस्था को जिसमें अकसर चलने के लिए कोई पथ नहीं होता है, अचानक गर्म और ठण्डे होने के बीच के परिवर्तन की उस अस्थिर समयावधि को, और उस अवस्था को पूरी तरह से अलविदा कह दिया है जहां कोई व्यक्ति एक आँख को ढंक करके परमेश्वर के पीछे पीछे चलता है। इस प्रकार का व्यक्ति अकसर परमेश्वर का अद्भुत प्रकाशन और उसकी अद्भुत ज्योति को प्राप्त करता है, और अक्सर परमेश्वर के साथ सच्ची संगति और संवाद में संलग्न रहता है। कोई कह सकता है कि इस अवस्था में रह रहे लोगों ने पहले से ही परमेश्वर की इच्छा के एक भाग को समझ लिया है; वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे सत्य के सिद्धान्तों को पाने में समर्थ हैं; वे जानते हैं परमेश्वर की इच्छा को कैसे पूरी करें। इससे बढ़कर, उन्होंने परमेश्वर को जानने के पथ को भी पा लिया है और परमेश्वर के विषय में अपने ज्ञान की गवाही देना भी प्रारम्भ कर दिया है। क्रमिक प्रगति की प्रक्रिया के दौरान, उनके पास परमेश्वर की इच्छा, मानवता की सृष्टि करने में परमेश्वर की इच्छा, और मानवता का प्रबंधन करने में परमेश्वर की इच्छा की क्रमिक समझ और उसका ज्ञान होता है; इसके अतिरिक्त, साथ ही उनके पास क्रमशः हस्ती के सम्बन्ध में परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की समझ और ज्ञान भी होता है। कोई मानवीय अवधारणा या कल्पना इस ज्ञान का स्थान नहीं ले सकती है। जबकि कोई नहीं कह सकता है कि पांचवी अवस्था में किसी व्यक्ति का जीवन पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है या इस व्यक्ति को धर्मी या पूर्ण कहा जाता है, क्योंकि इस प्रकार के व्यक्ति ने जीवन में परिपक्वता की अवस्था की ओर पहले से ही एक कदम बढ़ा लिया है; यह व्यक्ति परमेश्वर के सामने आने के लिए, परमेश्वर के वचन के आमने सामने खड़े होने के लिए और परमेश्वर के आमने सामने खड़े होने के लिए पहले से ही समर्थ है। क्योंकि इस प्रकार के व्यक्ति ने परमेश्वर के वचनों का इतना कुछ अनुभव कर लिया है, अनगिनित परीक्षाओं का अनुभव कर लिया है और परमेश्वर से अनुशासन, न्याय और ताड़ना की असंख्य घटनाओं का अनुभव कर लिया है, तो परमेश्वर के प्रति उनका समर्पण रिश्तों से सम्बन्धित नहीं है किन्तु सम्पूर्ण है। परमेश्वर के विषय में उनका ज्ञान अर्द्धचेतनावस्था से स्पष्ट एवं सटीक ज्ञान में, छिछलेपन से गहराई में, धुंधलेपन एवं अस्पष्टता से अति सतर्कता एवं स्पृश्यता में रूपान्तरित हो गया है, और वे ढीठ फूहड़पन एवं निष्क्रिय प्रयासों से सरल ज्ञान और प्रतिक्रियाशील गवाही में बदल गए हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि लोगों ने इस अवस्था में परमेश्वर के वचन की सच्चाई की वास्तविकता को धारण किया है, और यह कि उन्होंने पतरस के समान पूर्णता के पथ पर कदम रख दिया है। यह पांचवे प्रकार का व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति जो परिपक्व होने की दशा में जीवन व्यतीत करता है - बालिग अवस्था।
30 अक्टूबर 2014
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