स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर का अधिकार (I)
मेरी पिछली अनेक सभाएँ परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के विषय में थीं। इन सभाओं को सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को एहसास होता है कि तुम सबने परमेश्वर के स्वभाव की समझ और ज्ञान को प्राप्त किया है? कितनी बड़ी समझ और ज्ञान को प्राप्त किया है? क्या तुम लोग उसे एक संख्या दे सकते हो? क्या इन सभाओं ने तुम सभी को परमेश्वर की और गहरी समझ दी है?
क्या ऐसा कहा जा सकता है कि यह समझ परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर का यह ज्ञान और समझ परमेश्वर के सम्पूर्ण सार-तत्व, और जो उसके पास है और जो वह है उसका ज्ञान है? नहीं, बिलकुल नहीं! यह इसलिए है क्योंकि ये सभाएँ केवल परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप के एक भाग की समझ प्रदान करती हैं - न कि इसके सब कुछ की, या उसकी सम्पूर्णता की। ये सभाएँ परमेश्वर के द्वारा किसी समय किए गए कार्य के एक भाग को समझने के लिए तुम लोगों को सक्षम करती हैं, जिसके द्वारा तुम सभी परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप के, साथ ही साथ जो कुछ उसने किया है उस हर एक चीज़ के पीछे क्या पहुँच एवं सोच है, उसे देखते हो। परन्तु यह केवल परमेश्वर की शाब्दिक एवं मौखिक समझ है, और तुम सब अपने हृदय में अनिश्चित बने रहते हो कि इसका कितना भाग सच्चा है। वह कौन सी चीज़ है जो मुख्य रूप से यह निर्धारित करती है कि ऐसी चीज़ों के प्रति लोगों की समझ में कोई वास्तविकता है या नहीं? यह इससे निर्धारित होता है कि उन सबने अपने वास्तविक अनुभवों के दौरान परमेश्वर के वचनों और स्वभाव का वास्तव में कितना अनुभव किया है, और वे सभी इन वास्तविक अनुभवों के दौरा कितना उसे देख या समझ पाये हैं। "पिछली कई सभाओं ने हमें परमेश्वर के द्वारा की गई चीज़ों, परमेश्वर के विचारों, और इसके अतिरिक्त, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति, और उसके कार्यों के आधार, साथ ही उसके कार्यों के सिद्धांतों को समझने की अनुमति दी है। और इस प्रकार हमने परमेश्वर के स्वभाव को समझा है, और हम परमेश्वर की सम्पूर्णता को जान पाए हैं।" क्या कभी किसी ने ऐसे वचन कहे हैं? क्या ऐसा कहना सही है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। और मैं क्यों कहता हूँ कि ऐसा नहीं है? परमेश्वर का स्वभाव, और जो उसके पास है और जो वह है, उन कार्यों के द्वारा जो उसने किए हैं और उन वचनों के द्वारा जो उसने कहे हैं, प्रगट होते हैं। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा किये गये कार्यों व उसके द्वारा बोले गये वचनों के द्वारा, परमेश्वर के दर्शन कर सकता है, परन्तु इससे बस यही कहा जा सकता है कि उसके द्वारा किये गये कार्यों और उसके वचनों से मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव व जो उसके पास है और जो वह है, उसके एक अंश को ही समझने में सक्षम हो सकता है। परमेश्वर के स्वभाव व जो उसके पास है और जो वह है, यदि मनुष्य परमेश्वर की और अधिक तथा और गहरी समझ प्राप्त करने की अभिलाषा करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर के कार्य और वचनों का और गहनता से अनुभव करना होगा। यद्यपि जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों और कार्य का आंशिक रूप से अनुभव करता है तो उसे परमेश्वर की समझ का एक आंशिक भाग ही प्राप्त होता है, क्या यह आंशिक समझ परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को दर्शाती है? क्या यह परमेश्वर के सार-तत्व को दर्शाती है? हाँ, वास्तव में यह परमेश्वर के स्वभाव, और परमेश्वर के सार-तत्व को दर्शाता है, और इसमें कोई सन्देह नहीं है। समय या स्थान की परवाह किए बगैर, परमेश्वर किस रीति से अपना काम करता है, या किस रूप में मनुष्य के सामने प्रगट होता है, या किस रीति से अपनी इच्छा को प्रकट करता है, वह सब कुछ जो वह प्रकाशित एवं प्रगट करता है, वह स्वयं परमेश्वर, परमेश्वर के सार-तत्व और जो उस के पास है और जो वह है उसे दर्शाता है। यह बिलकुल सत्य है कि परमेश्वर अपनी विशेषताओं और अस्तित्व एवं अपनी सच्ची पहचान के साथ अपना कार्य करता है; फिर भी, आज, उसके वचनों के द्वारा, और उस प्रचार को सुनने के द्वारा जो वो सुनते हैं लोगों के पास परमेश्वर की केवल आंशिक समझ है, और इस प्रकार कुछ हद तक, इस समझ को केवल काल्पनिक ज्ञान कहा जा सकता है। अपनी वास्तविक स्थिति का ध्यान रखते हुए, तुम केवल परमेश्वर की समझ या ज्ञान को जिसे तुमने सुना, देखा, या जाना है, और अपने हृदय में समझा है, जाँच सकते हो, यदि तुम में से हर एक इस वास्तविक अनुभव से होकर गुज़रता है और इसे थोड़ा थोड़ा कर के जान पाता है। यदि मैं ने इन शब्दों के साथ तुम लोगों से सहभागिता में विचार विमर्श नहीं किया होता, तो क्या मात्र अपने अनुभवों से तुम सभी परमेश्वर के सच्चे ज्ञान को हासिल कर पाते? मैं डरता हूँ, क्योंकि ऐसा करना बहुत ही अधिक कठिन होता। क्योंकि यदि लोग परमेश्वर के अनुभव को पाना चाहते हैं तो उनके पास पहले परमेश्वर के वचन होने चाहिए। फिर भी लोग परमेश्वर के बहुत से वचनों को खाते हैं, ऐसे लोगों की संख्या है जो वास्तव में उन का अनुभव कर सकते हैं। परमेश्वर के वचन आगे की ओर पथ प्रदर्शन करते और मनुष्य को उसके अनुभव में मार्गदर्शन देते हैं। संक्षेप में, उनके लिए जिनके पास थोड़ा बहुत सच्चा अनुभव है, ये अनेक पिछली सभाएँ सत्य की गहरी समझ और परमेश्वर के और अधिक वास्तविक ज्ञान को हासिल करने में उनकी सहायता करेंगी। परन्तु उनके लिए जिनके पास कुछ भी वास्तविक अनुभव नहीं है, या वे जिन्होंने बस अभी अभी अपना अनुभव शुरू किया है, या बस अभी अभी वास्तविकता को स्पर्श करना प्रारम्भ किया है, यह एक बड़ी परीक्षा है।
क्या ऐसा कहा जा सकता है कि यह समझ परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर का यह ज्ञान और समझ परमेश्वर के सम्पूर्ण सार-तत्व, और जो उसके पास है और जो वह है उसका ज्ञान है? नहीं, बिलकुल नहीं! यह इसलिए है क्योंकि ये सभाएँ केवल परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप के एक भाग की समझ प्रदान करती हैं - न कि इसके सब कुछ की, या उसकी सम्पूर्णता की। ये सभाएँ परमेश्वर के द्वारा किसी समय किए गए कार्य के एक भाग को समझने के लिए तुम लोगों को सक्षम करती हैं, जिसके द्वारा तुम सभी परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप के, साथ ही साथ जो कुछ उसने किया है उस हर एक चीज़ के पीछे क्या पहुँच एवं सोच है, उसे देखते हो। परन्तु यह केवल परमेश्वर की शाब्दिक एवं मौखिक समझ है, और तुम सब अपने हृदय में अनिश्चित बने रहते हो कि इसका कितना भाग सच्चा है। वह कौन सी चीज़ है जो मुख्य रूप से यह निर्धारित करती है कि ऐसी चीज़ों के प्रति लोगों की समझ में कोई वास्तविकता है या नहीं? यह इससे निर्धारित होता है कि उन सबने अपने वास्तविक अनुभवों के दौरान परमेश्वर के वचनों और स्वभाव का वास्तव में कितना अनुभव किया है, और वे सभी इन वास्तविक अनुभवों के दौरा कितना उसे देख या समझ पाये हैं। "पिछली कई सभाओं ने हमें परमेश्वर के द्वारा की गई चीज़ों, परमेश्वर के विचारों, और इसके अतिरिक्त, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति, और उसके कार्यों के आधार, साथ ही उसके कार्यों के सिद्धांतों को समझने की अनुमति दी है। और इस प्रकार हमने परमेश्वर के स्वभाव को समझा है, और हम परमेश्वर की सम्पूर्णता को जान पाए हैं।" क्या कभी किसी ने ऐसे वचन कहे हैं? क्या ऐसा कहना सही है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। और मैं क्यों कहता हूँ कि ऐसा नहीं है? परमेश्वर का स्वभाव, और जो उसके पास है और जो वह है, उन कार्यों के द्वारा जो उसने किए हैं और उन वचनों के द्वारा जो उसने कहे हैं, प्रगट होते हैं। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा किये गये कार्यों व उसके द्वारा बोले गये वचनों के द्वारा, परमेश्वर के दर्शन कर सकता है, परन्तु इससे बस यही कहा जा सकता है कि उसके द्वारा किये गये कार्यों और उसके वचनों से मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव व जो उसके पास है और जो वह है, उसके एक अंश को ही समझने में सक्षम हो सकता है। परमेश्वर के स्वभाव व जो उसके पास है और जो वह है, यदि मनुष्य परमेश्वर की और अधिक तथा और गहरी समझ प्राप्त करने की अभिलाषा करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर के कार्य और वचनों का और गहनता से अनुभव करना होगा। यद्यपि जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों और कार्य का आंशिक रूप से अनुभव करता है तो उसे परमेश्वर की समझ का एक आंशिक भाग ही प्राप्त होता है, क्या यह आंशिक समझ परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को दर्शाती है? क्या यह परमेश्वर के सार-तत्व को दर्शाती है? हाँ, वास्तव में यह परमेश्वर के स्वभाव, और परमेश्वर के सार-तत्व को दर्शाता है, और इसमें कोई सन्देह नहीं है। समय या स्थान की परवाह किए बगैर, परमेश्वर किस रीति से अपना काम करता है, या किस रूप में मनुष्य के सामने प्रगट होता है, या किस रीति से अपनी इच्छा को प्रकट करता है, वह सब कुछ जो वह प्रकाशित एवं प्रगट करता है, वह स्वयं परमेश्वर, परमेश्वर के सार-तत्व और जो उस के पास है और जो वह है उसे दर्शाता है। यह बिलकुल सत्य है कि परमेश्वर अपनी विशेषताओं और अस्तित्व एवं अपनी सच्ची पहचान के साथ अपना कार्य करता है; फिर भी, आज, उसके वचनों के द्वारा, और उस प्रचार को सुनने के द्वारा जो वो सुनते हैं लोगों के पास परमेश्वर की केवल आंशिक समझ है, और इस प्रकार कुछ हद तक, इस समझ को केवल काल्पनिक ज्ञान कहा जा सकता है। अपनी वास्तविक स्थिति का ध्यान रखते हुए, तुम केवल परमेश्वर की समझ या ज्ञान को जिसे तुमने सुना, देखा, या जाना है, और अपने हृदय में समझा है, जाँच सकते हो, यदि तुम में से हर एक इस वास्तविक अनुभव से होकर गुज़रता है और इसे थोड़ा थोड़ा कर के जान पाता है। यदि मैं ने इन शब्दों के साथ तुम लोगों से सहभागिता में विचार विमर्श नहीं किया होता, तो क्या मात्र अपने अनुभवों से तुम सभी परमेश्वर के सच्चे ज्ञान को हासिल कर पाते? मैं डरता हूँ, क्योंकि ऐसा करना बहुत ही अधिक कठिन होता। क्योंकि यदि लोग परमेश्वर के अनुभव को पाना चाहते हैं तो उनके पास पहले परमेश्वर के वचन होने चाहिए। फिर भी लोग परमेश्वर के बहुत से वचनों को खाते हैं, ऐसे लोगों की संख्या है जो वास्तव में उन का अनुभव कर सकते हैं। परमेश्वर के वचन आगे की ओर पथ प्रदर्शन करते और मनुष्य को उसके अनुभव में मार्गदर्शन देते हैं। संक्षेप में, उनके लिए जिनके पास थोड़ा बहुत सच्चा अनुभव है, ये अनेक पिछली सभाएँ सत्य की गहरी समझ और परमेश्वर के और अधिक वास्तविक ज्ञान को हासिल करने में उनकी सहायता करेंगी। परन्तु उनके लिए जिनके पास कुछ भी वास्तविक अनुभव नहीं है, या वे जिन्होंने बस अभी अभी अपना अनुभव शुरू किया है, या बस अभी अभी वास्तविकता को स्पर्श करना प्रारम्भ किया है, यह एक बड़ी परीक्षा है।
पिछली अनेक सभाओं की मुख्य विषयवस्तु परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के कार्य, और स्वयं परमेश्वर से संबंधित थी। जो कुछ भी मैं ने कहा था तुम सबने उसके मुख्य और केन्द्रीय भाग में क्या देखा था? इन सभाओं के द्वारा, क्या तुम लोग यह पहचान सकते हो कि वह जिसने यह काम किया था, और इन स्वभावों को प्रगट किया था, वह स्वयं एक अद्वितीय परमेश्वर है, जो सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है? यदि तुम सबका उत्तर हाँ है, तो किस बात ने तुम लोगों को ऐसे निष्कर्ष तक पहुँचाया? किस पहलू के द्वारा तुम सभी इस निष्कर्ष तक पहुँचे? क्या कोई मुझे बता सकता है? मैं जानता हूँ कि पिछली सहभागिता ने तुम सबको गहराई से प्रभावित किया था, और परमेश्वर को जानने के लिए तुम लोगों के हृदय में एक नई शुरूआत प्रदान की थी, जो महान है। यद्यपि तुम सबने पहले की तुलना में परमेश्वर को समझने के लिए एक बड़ी छलाँग लगाई है, परन्तु परमेश्वर की पहचान की तुम लोगों की परिभाषा को अभी भी यहोवा, व्यवस्था के युग के परमेश्वर, अनुग्रह के युग के प्रभु यीशु मसीह, और राज्य के युग के सर्वशक्तिमान परमेश्वर जैसे नामों से भी कहीं बढ़कर और अधिक उन्नत होना है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के कार्य, और स्वयं परमेश्वर के बारे में इन सभाओं ने तुम सबको परमेश्वर द्वारा किसी समय बोले गए कुछ वचनों, और परमेश्वर के द्वारा किसी समय किए गए कार्य, और परमेश्वर के द्वारा किसी समय प्रकाशित किए गए उसके अस्तित्व और व्यावहारिक गुणों की समझ दी है, तो भी तुम सभी "परमेश्वर'' शब्द की सही परिभाषा और सटीक शुरूआती जानकारी प्रदान करने में असमर्थ हो। न ही तुम लोगों के पास स्वयं परमेश्वर की स्थिति एवं पहचान की, दूसरे शब्दों में तुम सबके पास सभी चीज़ों एवं सम्पूर्ण सृष्टि के मध्य परमेश्वर की हैसियत की सच्ची और सटीक शुरूआती जानकारी तथा ज्ञान नहीं है। यह इसलिए है, क्योंकि स्वयं परमेश्वर व परमेश्वर के स्वभाव के विषय में पिछली सभाओं में, सभी सन्दर्भ परमेश्वर के पूर्व प्रगटीकरण और प्रकाशन पर आधारित थे जो बाईबिल में लिखित हैं। फिर भी मनुष्य के लिए उसके अस्तित्व और उसके व्यावहारिक गुणों की खोज करना कठिन है, जिन्हें परमेश्वर द्वारा मानवजाति के प्रबन्ध और उद्धार के दौरान, या उसके बाहर, प्रकाशित और प्रगट किया गया है। अतः, भले ही तुम लोग परमेश्वर के अस्तित्व और उसके व्यावहारिक गुणों को समझते हो जो उस कार्य में प्रकाशित हुए थे जिसे उसने किसी समय किया था, फिर भी परमेश्वर की पहचान और स्थिति की तुम सबकी परिभाषा उस अद्वितीय परमेश्वर से अभी भी बहुत दूर है, जो सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है, और उस रचयिता से कहीं अलग है। पिछली अनेक सभाओं ने सब को ठीक ऐसा ही महसूस करवाया था मनुष्य परमेश्वर के विचारों को कैसे जान सकता है? यदि कोई वास्तव में जाननेवाला था, तो वह शख्स निश्चित रूप से परमेश्वर ही होगा, क्योंकि केवल परमेश्वर ही अपने विचारों को जानता है, और केवल परमेश्वर ही अपने कार्यों को करने का तरीका व उसका आधार जानता है। इस रीति से परमेश्वर की पहचान को जानना तुम लोगों को उचित और तर्कसंगत लग सकता है, परन्तु परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के कार्य से कौन यह बता सकता है कि यह वास्तव में स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और मनुष्य का कार्य नहीं है, ऐसा कार्य जो परमेश्वर के बदले मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता है? कौन यह देख सकता है कि यह कार्य उसकी संप्रभुता में आता है जिसके पास परमेश्वर की हस्ती और सामर्थ है? दूसरे शब्दों में, किन विशेषताओं या हस्ती के जरिए तुम सब यह पहचानोंगे कि वह स्वयं परमेश्वर है, किसके पास परमेश्वर की पहचान है, और वो कौन है जो सब चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है? क्या तुम सबने इसके बारे में कभी सोचा है? यदि तुम लोगों ने नहीं सोचा है तो इससे एक बात साबित होती हैः कि पिछली अनेक सभाओं ने तुम लोगों को बस इतिहास के एक टुकड़े, और उस कार्य के दौरान परमेश्वर की पहुँच, उसके प्रकटीकरण, और उसके प्रकाशन की कुछ समझ दी है जिसमें परमेश्वर ने अपना काम किया था। हालाँकि ऐसी समझ सन्देह से परे तुम सभी में से हर एक को यह पहचान करवाती है कि वह जिसने कार्य के दोनों स्तरों को पूरा किया वह स्वयं परमेश्वर है जिसमें तुम लोग विश्वास करते हो और उसका अनुसरण करते हो, और जिसका तुम सबको हमेशा अनुसरण करना चाहिए, फिर भी तुम लोग अब भी यह पहचानने में असमर्थ हो कि यह वही परमेश्वर है जो सृष्टि के समय से अस्तित्व में है, और जो अनन्तकाल तक अस्तित्व में बना रहेगा, और तुम लोग यह भी पहचानने में समर्थ नहीं हो कि यह वही है जो तुम सबकी अगुवाई करता है और समूची मानवजाति में सर्वोच्च है। तुम लोगों ने निश्चित रूप से इस समस्या के बारे में कभी नहीं सोचा था। वह यहोवा हो या प्रभु यीशु, हस्ती और प्रकटीकरण के किन पहलुओं के द्वारा तुम यह पहचान सकते हो कि वह न केवल वो परमेश्वर है जिसका तुम्हें अनुसरण करना होगा, बल्कि वह है जो मानवजाति को आज्ञा देता है और मनुष्यों की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता है, इसके अतिरिक्त कौन स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है जो स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीज़ों के ऊपर संप्रभुता रखता है? किन माध्यमों से तुम यह विश्वास करोगे कि वह जिस में तुम विश्वास करते हो और जिसका अनुसरण करते हो वह स्वयं परमेश्वर है जो सब वस्तुओं के ऊपर संप्रभुता रखता है? किन माध्यमों से तुम लोग उस परमेश्वर को जिस पर तुम विश्वास करते हो उस परमेश्वर से जोड़ सकते हो जो मानवजाति की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता है? ऐसी कौन सी बात है जो यह पहचानने में तुम लोगों को अनुमति देती है कि वह परमेश्वर जिस पर तुम विश्वास करते हो स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है, जो स्वर्ग और पृथ्वी, और सब में है? यह वह समस्या है जिसका समाधान मैं अगले खंड में करूँगा।
ऐसी समस्याएँ जिनके बारे में तुम सबने कभी भी नहीं सोचा है और न ही उनके विषय में सोच सकते हो कि ख़ास तौर पर ऐसी समस्याएँ हो सकती हैं जो परमेश्वर को जानने में बहुत महत्वपूर्ण हैं, और इनमें उन सच्चाईयों को खोजा जा सकता है जिनकी गहराई मनुष्य नहीं नाप सकता। जब ये समस्याएँ तुम्हारे ऊपर आती हैं, और तुम लोगों को इनका सामना करना अवश्य है, और तुम्हें एक चुनाव करना होता है, यदि तुम सब अपनी मूर्खता और अज्ञानता के कारण पूरी तरह से उनका समाधान करने में असमर्थ हो, या इसलिए क्योंकि तुम्हारे अनुभव बिलकुल दिखावटी हैं और तुम लोगों में परमेश्वर के सच्चे ज्ञान की कमी है, तो परमेश्वर पर विश्वास करने की राह पर वे सबसे बड़े अवरोधक और सबसे बड़ी बाधा बन जाएँगे। और इस प्रकार मैं यह महसूस करता हूँ कि इस विषय के संबंध में तुम लोगों के साथ सभा में विचार विमर्श करना सबसे अधिक ज़रूरी है। क्या तुम सभी जानते हो कि अब तुम्हारी समस्या क्या है? क्या तुम लोग उन समस्याओं के विषय में स्पष्ट हो जिनके बारे में मैं बात करता हूँ? क्या ये वो समस्याएँ हैं जिनका तुम लोग सामना करोगे? क्या ये ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें तुम लोग नहीं समझते हो? क्या ऐसी समस्याएँ हैं जो तुम्हारे साथ कभी घटित नहीं हुई हैं? क्या ये समस्याएँ तुम लोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं? क्या ये वास्तव में समस्याएँ हैं? यह मामला तुम लोगों के लिए भ्रमित होने का एक बड़ा स्रोत है, जो यह दिखाता है कि तुम्हारे पास उस परमेश्वर की सही समझ नहीं है जिस पर तुम सब विश्वास करते हो, और यह कि तुम लोग उसे गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते हो। कुछ लोग कहते हैं, "मैं जानता हूँ कि वह परमेश्वर है, इसलिए मैं उसका अनुसरण करता हूँ, क्योंकि उसका वचन परमेश्वर का प्रकटीकरण है। बस इतना काफी है। और कितने सबूत की ज़रूरत है? निश्चित रूप से हमें परमेश्वर के बारे में सन्देह उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है? निश्चित रूप से हमें परमेश्वर की परीक्षा नहीं करनी चाहिए? निश्चित रूप से हमें परमेश्वर की हस्ती और स्वयं परमेश्वर की पहचान पर प्रश्न नहीं करना चाहिए?" इसके बावजूद कि तुम लोग इस तरह से सोचते हो या नहीं, किन्तु परमेश्वर के बारे में तुम लोगों को और भ्रमित करने के लिए, या उसे परखने हेतु तुम सबको उकसाने के लिए, और परमेश्वर की पहचान और उसकी हस्ती के विषय में तुम्हारे भीतर सन्देह उत्पन्न करने के लिए मैं ऐसे प्रश्नों को तो बिलकुल भी आगे नहीं रखता हूँ। उसके बजाए, मैं ऐसा इसलिए करता हूँ ताकि मैं तुम लोगों को परमेश्वर की हस्ती के विषय में बड़ी समझ, और परमेश्वर की हैसियत के विषय में एक बड़ी निश्चितता व विश्वास के लिए उत्साहित कर सकूँ, जिससे वे सभी जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं परमेश्वर उन सभी के हृदय में निवास करने वाला एकमात्र परमेश्वर हो, और ताकि परमेश्वर की मूल पदस्थिति - सृष्टिकर्ता, सभी चीज़ों का शासक, स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के रूप में - हर जीव के हृदय में पुनः वास करे। यह भी एक मुख्य विषय है जिसके बारे में मैं तुम लोगों से विचार विमर्श करनेवाला हूँ।
आओ हम बाईबिल से निम्नलिखित आयतों को पढ़ना प्रारम्भ करें।
1. परमेश्वर सभी चीज़ों की सृष्टि करने के लिए वचनों को उपयोग करता है
1) (उत्पत्ति 1:3-5) जब परमेश्वर ने कहा, "उजियाला हो", तो उजियाला हो गया। और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अंधियारे से अलग किया। और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अंधियारे को रात कहा। तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया।
2) (उत्पत्ति 1:6-7) फिर परमेश्वर ने कहा, "जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।" तब परमेश्वर ने एक अन्तर कर उसके नीचे के जल को और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।
3) (उत्पत्ति 1:9-11) फिर परमेश्वर ने कहा, "आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे," और वैसा ही हो गया। और परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहाः और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा, "पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं पृथ्वी पर उगें," और वैसा ही हो गया।
4) (उत्पत्ति 1:14-15) फिर परमेश्वर ने कहा, "दिन को रात से अलग करने के लिए आकाश के अन्तर में ज्योंतियाँ हों; और वे चिन्हों, और नियत समयों और दिनों और वर्षों के कारण हों। और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें," और वैसा ही हो गया।
5) (उत्पत्ति 1:20-21) फिर परमेश्वर ने कहा, "जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।" इसलिए परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्टि की: और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
6) (उत्पत्ति 1:24-25) फिर परमेश्वर ने कहा, "पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलु पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों," और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलु पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को भी बनायाः और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
पहले दिन, परमेश्वर के अधिकार के कारण मानवजाति के दिन और रात उत्पन्न हुए और स्थिर बने हुए हैं
आओ हम पहले अंश को देखें: "जब परमेश्वर ने कहा, "उजियाला हो," तो उजियाला हो गया। और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अंधियारे से अलग किया। और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अंधियारे को रात कहा। तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया" (उत्पत्ति 1:3-5)। यह अंश सृष्टि की शुरूआत में परमेश्वर के प्रथम कार्य का विवरण देता है, और पहला दिन जिसे परमेश्वर ने गुज़ारा जिसमें एक शाम और एक सुबह थी। परन्तु वह एक असाधारण दिन थाः परमेश्वर ने सभी चीज़ों के लिए उजियाले को तैयार किया, और इसके अतिरिक्त, उजियाले को अंधियारे से अलग किया। इस दिन, परमेश्वर ने बोलना शुरू किया, और उसके वचन और अधिकार अगल बगल अस्तित्व में थे। सभी चीज़ों के मध्य उसका अधिकार दिखाई देना शुरू हुआ, और उसके वचन के परिणामस्वरूप उसकी सामर्थ सभी चीज़ों में फैल गई। इस दिन के आगे से, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर की सामर्थ के कारण सभी चीजों को बनाया गया और वे स्थिर हो गए, और उन्होंने परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर की सामर्थ की वज़ह से काम करना प्रारम्भ कर दिया। जब परमेश्वर ने वचनों को कहा "उजियाला हो," और उजियाला हो गया। परमेश्वर ने किसी जोखिम के काम का प्रारम्भ नहीं किया था; उसके वचनों के परिणामस्वरूप उजियाला प्रगट हुआ था। यह वो उजियाला था जिसे परमेश्वर ने दिन कहा, और जिस पर आज भी मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए निर्भर रहता है। परमेश्वर की आज्ञाओं के द्वारा, उसकी हस्ती और मूल्य कभी भी नहीं बदले, और वे कभी भी ग़ायब नहीं हुए। उनकी उपस्थिति परमेश्वर के अधिकार और उसकी सामर्थ को दिखाते हैं, और सृष्टिकर्ता के अस्तित्व की घोषणा करते हैं, और बार बार सृष्टिकर्ता की हैसियत और पहचान को दृढ़ करते हैं। यह अस्पृश्य या माया नहीं है, लेकिन एक वास्तविक ज्योति है जिसे मनुष्य के द्वारा देखा जा सकता है। उस समय के उपरान्त, इस खाली संसार में जिसमें "पृथ्वी बेडौल और सुनसान थी; और गहरे जल के ऊपर अंधियारा था," पहली भौतिक वस्तु पैदा हुई। यह वस्तु परमेश्वर के मुँह के वचनों से आई, और परमेश्वर के अधिकार और उच्चारण के कारण सभी वस्तुओं की सृष्टि के प्रथम कार्य के रूप में प्रगट हुई। उसके तुरन्त बाद, परमेश्वर ने उजियाले और अंधियारे को अलग अलग होने की आज्ञा दी ....। परमेश्वर के वचन के कारण हर चीज़ बदल गई और पूर्ण हो गई....। परमेश्वर ने इस उजियाले को "दिन" कहा और अंधियारे को उसने "रात" कहा। उस समय से, संसार में पहली शाम और पहली सुबह हुई जिन्हें परमेश्वर उत्पन्न करना चाहता था, और परमेश्वर ने कहा कि यह पहला दिन था। सृष्टिकर्ता के द्वारा सभी वस्तुओं की सृष्टि का यह पहला दिन था, और सभी वस्तुओं की सृष्टि का प्रारम्भ था, और यह पहली बार था जब सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ इस संसार में जिसे उसने सृजा था प्रकट हुआ था।
इन वचनों के द्वारा, मनुष्य परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर के वचनों का अधिकार, और परमेश्वर की सामर्थ को देखने के योग्य हुआ। क्योंकि परमेश्वर ही ऐसी सामर्थ धारण करता है, और इस प्रकार केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा अधिकार है, और क्योंकि परमेश्वर ऐसे अधिकार को धारण करता है, और इस प्रकार केवल परमेश्वर के पास ही ऐसी सामर्थ है। क्या कोई मनुष्य या पदार्थ ऐसा अधिकार और सामर्थ धारण करता है? क्या तुम लोगों के दिल में कोई उत्तर है? परमेश्वर को छोड़, क्या कोई सृजा गया और न सृजा गया प्राणी ऐसा अधिकार धारण करता है? क्या तुम सबने किसी पुस्तक या पुस्तकों के प्रकाशन में कभी किसी ऐसी चीज़ का उदाहरण देखा है? क्या कोई लेखा जोखा है कि किसी ने आकाश और पृथ्वी और सभी चीज़ों की सृष्टि की थी? यह किसी अन्य पुस्तक या लेखे में पाया नहीं जाता हैः ये वास्तव में केवल परमेश्वर के महिमामय संसार की सृष्टि के विषय में अधिकारयुक्त और सामर्थी वचन हैं, जो बाईबिल में दर्ज हैं, और ये वचन परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार, और परमेश्वर की अद्वितीय पहचान के विषय में बोलते हैं। क्या ऐसे अधिकार और सामर्थ के बारे में कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर की अद्वितीय पहचान के प्रतीक हैं? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर, और सिर्फ परमेश्वर ही उनको धारण किए हुए है? बिना किसी सन्देह के, सिर्फ परमेश्वर ही ऐसा अधिकार और सामर्थ धारण करता है! इस अधिकार और सामर्थ को किसी सृजे गए या न सृजे गए प्राणी के द्वारा धारण नहीं किया जा सकता है और न बदला जा सकता है! क्या यह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के गुणों में से एक है? क्या तुम सब इसके साक्षी बने हो? ये वचन शीघ्रता और स्पष्टता से लोगों को सत्य को समझने की अनुमति देते हैं कि परमेश्वर अद्वितीय अधिकार, और अद्वितीय सामर्थ धारण करता है, और वह सर्वोच्च पहचान और हैसियत धारण किए हुए है। उपर्युक्त बातों की सहभागिता से, क्या तुम लोग कह सकते हो कि वह परमेश्वर जिस पर तुम सब विश्वास करते हो वह अद्वितीय परमेश्वर है?
दूसरे दिन, परमेश्वर के अधिकार ने मनुष्य के जीवित रहने के लिए जल का प्रबन्ध किया, और आसमान, और अंतरीक्ष को बनाया
आओ हम बाइबल के दूसरे अंश को पढ़ें: फिर परमेश्वर ने कहा, "जल के बीच एक अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।" तब परमेश्वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल को और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।(उत्पत्ति 1:6-7)। कौन सा परिवर्तन हुआ जब परमेश्वर ने कहा "जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए?" पवित्र शास्त्र में कहा गया हैः "तब परमेश्वर ने एक अन्तर करके उसके नीचे के जल को और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा हो गया।" जब परमेश्वर ने ऐसा कहा और ऐसा किया तो परिणाम क्या हुआ? इसका उत्तर अंश के आखिरी भाग में हैं: "और ऐसा हो गया।"
इन दोनों छोटे वाक्यों में एक शोभायमान घटना दर्ज है, और एक बेहतरीन दृश्य का चित्रण करता है - एक भयंकर प्रारम्भ जिसमें परमेश्वर ने जल को नियन्त्रित किया, और एक अन्तर को बनाया जिसमें मनुष्य अस्तित्व में रह सकता है ....।
इस तस्वीर में, आकाश का जल परमेश्वर की आँखों के सामने एकदम से प्रगट होता है, और वे परमेश्वर के वचनों के अधिकार के द्वारा विभाजित हो जाते हैं, और परमेश्वर के द्वारा निर्धारित रीति के अनुसार ऊपर के और नीचे के जल के रूप में अलग हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा बनाए गए आकाश ने न केवल नीचे के जल को ढँका बल्कि ऊपर के जल को भी सँभाला ....। इस में, मनुष्य बस टकटकी लगाकर देखने, भौंचक्का होने, और उस दृश्य के वैभव की तारीफ में आह भरने के सिवाए कुछ नहीं कर सकता है, जिसमें सृष्टिकर्ता ने जल को रूपान्तरित किया, और अपने अधिकार की सामर्थ से जल को आज्ञा दी, और आकाश को बनाया। परमेश्वर के वचनों, और परमेश्वर की सामर्थ, और परमेश्वर के अधिकार के द्वारा परमेश्वर ने एक और महान आश्चर्यकर्म को अंजाम दिया। क्या यह सृष्टिकर्ता की सामर्थ नहीं है? आओ हम परमेश्वर के कामों का बखान करने के लिए पवित्र शास्त्र का उपयोग करें: परमेश्वर ने अपने वचनों को कहा, और परमेश्वर के इन वचनों के द्वारा जल के मध्य में आकाश बन गया। उसी समय, परमेश्वर के इन वचनों के द्वारा आकाश के अन्तर में एक भयंकर परिवर्तन हुआ, और यह सामान्य रूप से परिवर्तित नहीं हुआ, बल्कि एक प्रकार का प्रतिस्थापन था जिसमें कुछ नहीं से कुछ बन गया। यह सृष्टिकर्ता के विचारों से उत्पन्न हुआ था, और सृष्टिकर्ता के बोले गए वचनो के द्वारा कुछ नहीं से कुछ बन गया, और, इसके अतिरिक्त, इस बिन्दु से आगे यह अस्तित्व में रहेगा और स्थिर बना रहेगा, और सृष्टिकर्ता के विचारों के मेल के अनुसार, यह सृष्टिकर्ता के लिए बदल जाएगा, और परिवर्तित होगा, और नया हो जाएगा। यह अंश सम्पूर्ण संसार की सृष्टि में सृष्टिकर्ता के दूसरे कार्य का उल्लेख करता है। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ का एक और प्रदर्शन था, और सृष्टिकर्ता के एक और पहले कदम की शुरूआत थी। यह दिन जगत की नींव डालने के समय से लेकर दूसरा दिन था जिसे सृष्टिकर्ता ने बिताया था, और वह उसके लिए एक और बेहतरीन दिन थाः वह उजियाले के बीच में चला, आकाश को लाया, उसने जल का प्रबन्ध किया, और उसके कार्य, उसका अधिकार, और उसकी सामर्थ उस नए दिन में काम करने के लिए एक हो गए थे.....।
परमेश्वर के द्वारा इन वचनों को कहने से पहले क्या आकाश जल के मध्य में था? बिलकुल नहीं! और परमेश्वर के ऐसा कहने के बाद क्या हुआ "फिर परमेश्वर ने कहा कि जल के बीच में एक ऐसा अन्तर हो?" परमेश्वर के द्वारा इच्छित चीज़ें प्रगट हो गई थीं; जल के मध्य में आकाश था, और जल विभाजित हो गया क्योंकि परमेश्वर ने कहा था "कि जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो जाए कि जल दो भाग हो जाए।" इस तरह से, परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करके, परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ के परिणामस्वरूप दो नए पदार्थ, नई जन्मीं दो चीज़ें सब वस्तुओं के मध्य प्रगट हुईं। और इन दो नई चीज़ों के प्रकटीकरण से तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या तुम सब सृष्टिकर्ता की सामर्थ की महानता का एहसास करते हो? क्या तुम सब सृष्टिकर्ता के अद्वितीय और असाधारण बल का एहसास करते हो? ऐसे बल और सामर्थ की महानता परमेश्वर के अधिकार के कारण है, और यह अधिकार स्वयं परमेश्वर का प्रदर्शन है और स्वयं परमेश्वर का एक अद्वितीय गुण है।
क्या यह अंश तुम लोगों को परमेश्वर की अद्वितीयता का एक और गहरा एहसास देता है? परन्तु यह पर्याप्तता से कहीं बढ़कर है; सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ इससे कहीं दूर तक जाता है। उसकी अद्वितीयता मात्र इसलिए नहीं है क्योंकि वह किसी अन्य जीव से अलग हस्ती धारण किए हुए है, परन्तु क्योंकि उसका अधिकार और सामर्थ असाधारण है, साथ ही असीमित, सबसे बढ़कर, और चमत्कार करने वाला है, और, उससे भी बढ़कर, उसका अधिकार और जो उसके पास है और उसका अस्तित्व जीवन की सृष्टि कर सकता है और चमत्कारों को बना सकता है, और वह प्रत्येक और हर एक कौतुहलपूर्ण और असाधारण मिनट और सैकण्ड की सृष्टि कर सकता है, और उसी समय में, वह उस जीवन पर शासन करने में सक्षम है जिसकी वह सृष्टि करता है, और चमत्कारों और हर मिनट और सैकण्ड जिसे उसने बनाया उसके ऊपर संप्रभुता रखता है।
तीसरे दिन, परमेश्वर के वचनों ने पृथ्वी और समुद्रों की उत्पत्ति की, और परमेश्वर के अधिकार ने संसार को जीवन से लबालब भर दिया
आगे आईए हम उत्पत्ति 1:9-11 के पहले वाक्य को पढ़ें: "फिर परमेश्वर ने कहा, आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे।" जब परमेश्वर ने साधारण रूप से कहा तो क्या परिवर्तन हुआ, "फिर परमेश्वर ने कहा, आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे।" और इस अन्तर में उजियाले और आकाश के अलावा क्या था? पवित्र शास्त्र में ऐसा लिखा हैः "और परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा; तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा" और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। दूसरे शब्दों में, अब इस अन्तर में भूमि और समुद्र थे, और भूमि और समुद्र विभाजित हो गए थे। इन दो नई चीज़ों के प्रकटीकरण ने परमेश्वर की मुँह की आज्ञा का पालन किया, "और ऐसा हो गया।" क्या पवित्र शास्त्र इस प्रकार वर्णन करता है कि जब परमेश्वर यह सब कर रहा था तब बहुत व्यस्त था? क्या यह ऐसा वर्णन करता है कि परमेश्वर शारीरिक परिश्रम में लगा हुआ था? तब, परमेश्वर के द्वारा सब कुछ कैसे किया गया था? परमेश्वर ने इन नई वस्तुओं को उत्पन्न कैसे किया? स्वतः प्रगट है, परमेश्वर ने इन सब को पूरा करने के लिए, और इसकी सम्पूर्णता की सृष्टि करने के लिए वचनों का उपयोग किया।
उपर्युक्त तीन अंशों में, हम ने तीन बड़ी घटनाओं के घटित होने के बारे में सीखा। ये तीन घटनाएँ प्रगट हुईं, और उन्हें परमेश्वर के वचनों के द्वारा अस्तित्व में लाया गया, और ऐसा एक के बाद एक उसके वचनों के द्वारा हुआ, जो परमेश्वर की आँखों के सामने प्रगट हुए थे। इस प्रकार ऐसा कहा जा सकता है कि "परमेश्वर कहेगा, और वह पूरा हो जाएगा; वह आज्ञा देगा, और वह बना रहेगा" और वे खोखले वचन नहीं हैं। परमेश्वर की यह हस्ती उसी पल दृढ़ हो गई थी जब उसने विचार धारण किया था, और उसकी हस्ती पूर्णतया प्रतिबिम्बित हो गई थी जब परमेश्वर ने बोलने के लिए अपना मुँह खोला था।
आओ हम इस अंश के अन्तिम वाक्य में आगे बढ़ें: "फिर परमेश्वर ने कहा, पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार होते हैं पृथ्वी पर उगें; और वैसा ही हो गया।" जब परमेश्वर बोल रहा था, परमेश्वर के विचारों का अनुसरण करते हुए ये सभी चीज़ें अस्तित्व में आ गईं, और एक क्षण में ही, अलग अलग प्रकार की छोटी छोटी नाज़ुक ज़िन्दगियाँ बेतरतीब ढंग से मिट्टी से बाहर आने के लिए अपने सिरों को ऊपर उठाने लगीं, और इससे पहले कि वे अपने शरीरों से थोड़ी सी धूल भी झाड़ पातीं वे उत्सुकता से एक दूसरे का अभिनन्दन करते हुए यहाँ वहाँ मँडराने, सिर हिला हिलाकर संकेत देने और इस संसार पर मुस्कुराने लगीं थीं। उन्होंने सृष्टिकर्ता को उस जीवन के लिए धन्यवाद दिया जो उसने उन्हें दिया था, और संसार को यह घोषित किया कि वे भी इस संसार की सभी चीज़ों के एक भाग हैं, और उन में से प्रत्येक सृष्टिकर्ता के अधिकार को दर्शाने के लिए अपना जीवन समर्पित करेगा। जैसे ही परमेश्वर के वचन कहे गए, भूमि रसीली और हरीभरी हो गई, सब प्रकार के सागपात जिनका मनुष्यों के द्वारा आनन्द लिया जा सकता था अँकुरित हो गए, और भूमि को भेदकर बाहर निकले, और पर्वत और तराईयाँ वृक्षों एवं जंगलों से बहुतायत से भर गए.....। इस बंजर संसार में, जिसमें जीवन का कोई निशान नहीं था, शीघ्रता से घास, सागपात, और वृक्षों एवं उमड़ती हुई हरीयाली की बहुतायत से भर गए ......। घास की महक और मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू हवा में फैल गई, और सुसज्जित पौधों की कतारें हवा के चक्र के साथ एक साथ साँस लेने लगीं, और बढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई। उसी समय, परमेश्वर के वचन के कारण और परमेश्वर के विचारों का अनुसरण करके, सभी पौधों ने अपनी सनातन जीवन यात्रा शुरू कर दी जिसमें वे बढ़ने, खिलने, फल उत्पन्न करने, और बहुगुणित होने लगे। वे अपने अपने जीवन पथों से कड़ाई से चिपके रहे, और सभी चीज़ों में अपनी अपनी भूमिकाओं को अदा करना शुरू कर दिया .....। वे सभी सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण उत्पन्न हुए, और जीवन बिताया। वे सृष्टिकर्ता के कभी न खत्म होनेवाली भोजन सामग्री और पोषण को प्राप्त करेंगे, और परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ को दर्शाने के लिए भूमि के किसी भी कोने में दृढ़संकल्प के साथ ज़िन्दा रहेंगे, और वे हमेशा उस जीवन शक्ति को दर्शाते रहेंगे जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया है ....।
सृष्टिकर्ता का जीवन असाधारण है, उसके विचार असाधारण हैं, और उसका अधिकार असाधारण है, और इस प्रकार, जब उसके वचन उच्चारित किए गए थे, तो उसका अन्तिम परिणाम था "और ऐसा हो गया।" स्पष्ट रूप से, जब परमेश्वर कार्य करता है तो उसे अपने हाथों से काम करने की आवश्यकता नहीं होती है; वह बस आज्ञा देने के लिए अपने विचारों का और आदेश देने के लिए अपने वचनों का उपयोग करता है, और इस रीति से कार्यों को पूरा किया जाता है। इस दिन, परमेश्वर ने जल को एक साथ एक जगह पर इक्ट्ठा किया, और सूखी भूमि दिखाई दी, उसके बाद परमेश्वर ने भूमि से घास को उगाया, और छोटे छोटे पौधे जो बीज उत्पन्न करते थे, और पेड़ जो फल उत्पन्न करते थे उग आए, और परमेश्वर ने प्रजाति के अनुसार उनका वर्गीकरण किया, और हर एक में उसका स्वयं का बीज दिया। यह सब कुछ परमेश्वर के विचारों और परमेश्वर के वचनों की आज्ञाओं के अनुसार वास्तविक हुआ है और इस नए संसार में हर चीज़ एक के बाद एक प्रगट होती है।
जब वह अपना काम शुरू करनेवाला था, परमेश्वर के पास पहले से ही एक तस्वीर थी जिसे वह अपने मस्तिष्क में पूर्ण करना चाहता था, और जब परमेश्वर ने इन चीज़ों को पूर्ण करना प्रारम्भ किया, ऐसा तब भी हुआ जब परमेश्वर ने इस तस्वीर की विषयवस्तु के बारे में बोलने के लिए अपना मुँह खोला था, तो परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ के कारण सभी चीज़ों में बदलाव होना प्रारम्भ हो गया था। इस पर ध्यान न देते हुए कि परमेश्वर ने इसे कैसे किया, या किस प्रकार अपने अधिकार का इस्तेमाल किया, सब कुछ कदम दर कदम परमेश्वर की योजना के अनुसार और परमेश्वर के वचन के कारण पूरा किया गया था, और परमेश्वर के वचनों और उसके अधिकार के कारण कदम दर कदम आकाश और पृथ्वी के बीच में परिवर्तन होने लगा था। ये सभी परिवर्तन और घटनाएँ परमेश्वर के अधिकार, और सृष्टिकर्ता के जीवन की असाधारणता और सामर्थ की महानता को दर्शाते हैं। उसके विचार सामान्य युक्तियाँ नहीं हैं, या खाली तस्वीर नहीं है, परन्तु अधिकार हैं जो जीवनशक्ति और असाधारण ऊर्जा से भरे हुए हैं, और वे ऐसी सामर्थ हैं जो सभी चीज़ों को परिवर्तित कर सकते हैं, पुनः सुधार कर सकते हैं, फिर से नया बना सकते हैं, और नष्ट कर सकते हैं। और इसकी वजह से, उसके विचारों के कारण सभी चीज़ें कार्य करती हैं, और, उसके मुँह के वचनों के कारण, उसी समय, पूर्ण होते हैं ....।
सभी वस्तुओं के प्रकट होने से पहले, परमेश्वर के विचारों में एक सम्पूर्ण योजना बहुत पहले से ही बन चुकी थी, और एक नया संसार बहुत पहले ही आकार ले चुका था। यद्यपि तीसरे दिन भूमि पर हर प्रकार के पौधे प्रकट हुए, किन्तु परमेश्वर के पास इस संसार की सृष्टि के कदमों को रोकने का कोई कारण नहीं था; उसने लगातार अपने शब्दों को बोलना चाहा ताकि हर नई चीज़ की सृष्टि को निरन्तर पूरा कर सके। वह बोलेगा, और अपनी आज्ञाओं को देगा, और अपने अधिकार का इस्तेमाल करेगा और अपनी सामर्थ को दिखाएगा, और उसने सभी चीज़ों और मानवजाति के लिए वह सब कुछ बनाया जिन्हें बनाने की उसने योजना बनाई थी और उनकी सृष्टि करने की अभिलाषा की थी ....।
चौथे दिन, जब परमेश्वर ने एक बार फिर से अपने अधिकार का उपयोग किया तो मानवजाति के लिए मौसम, दिन, और वर्ष अस्तित्व में आ गए
सृष्टिकर्ता ने अपनी योजना को पूरा करने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल किया, और इस तरह से उसने अपनी योजना के पहले तीन दिनों को गुज़ारा। इन तीन दिनों के दौरान, परमेश्वर इधर उधर के कामों में व्यस्त, या अपने प में थका हुआ दिखाई नहीं दिया; इसके विपरीत, उसने अपनी योजना के तीन बेहतरीन दिनों को गुज़ारा, और संसार के मूल रूपान्तरण के महान कार्य को पूरा किया। एक बिलकुल नया संसार उसकी आँखों में दृष्टिगोचर हुआ, और अंश अंश कर के वह ख़ूबसूरत तस्वीर जो उसके विचारों में मुहरबन्द थी अंततः परमेश्वर के वचनों में प्रगट हो गई। हर चीज़ का प्रकटीकरण एक नए जन्मे हुए बच्चे के समान था, और सृष्टिकर्ता उस तस्वीर से आनंदित हुआ जो एक समय उसके विचारों में था, परन्तु जिसे अब जीवन्त कर दिया गया था। उसी समय, उसके हृदय ने चाँन्दी की सी संतुष्टि प्राप्त की, परन्तु उसकी योजना बस अभी शुरू ही हुई थी। आँखों के पलक झपकते ही, एक नया दिन आ गया था - और सृष्टिकर्ता की योजना में अगला पृष्ठ क्या था? उसने क्या कहा था? और उसने अपने अधिकार का इस्तेमाल कैसे किया था? और, उसी समय, इस नए संसार में कौन सी नई चीज़ें आ गईं? सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुसरण करते हुए, हमारी निगाहें चौथे दिन पर आ टिकीं जिसमें परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, एक ऐसा दिन जिसमें एक और नई शुरूआत होने वाली थी। वास्तव में, यह सृष्टिकर्ता के लिए निःसन्देह एक और बेहतरीन दिन था, और आज की मानवजाति के लिए यह एक और अति महत्वपूर्ण दिन था। यह, वास्तव में, एक बहुमूल्य दिन था। वह इतना बेहतरीन क्यों था, वह इतना महत्वपूर्ण क्यों था, और वह इतना बहुमूल्य कैसे था? आओ सबसे पहले सृष्टिकर्ता के द्वारा बोले गए वचनों को सुनें.....।
"फिर परमेश्वर ने कहा, दिन को रात से अलग करने के लिए आकाश के अन्तर में ज्योंतियाँ हों; और वे चिन्हों और नियत समयों, और दिनों और वर्षों के कारण हों। और वे ज्योंतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें; और वैसा ही हो गया" (उत्पत्ति 1:14-15)। सूखी भूमि और उसके पौधों की सृष्टि के बाद यह परमेश्वर के अधिकार का एक और उद्यम था जो सृजी गई चीज़ों के द्वारा दिखाया गया था। परमेश्वर के लिए ऐसा कार्य उतना ही सरल था, क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसी सामर्थ है; परमेश्वर अपने वचन के समान ही भला है, और उसके वचन पूरे होंगे। परमेश्वर ने ज्योतियों को आज्ञा दी कि वे आकाश में प्रगट हों, और ये ज्योतियाँ न केवल पृथ्वी के ऊपर आकाश में रोशनी देती थीं, बल्कि दिन और रात, और ऋतुओं, दिनों, और वर्षों के लिए भी चिन्ह के रूप में कार्य करते थे। इस प्रकार, जब परमेश्वर ने अपने वचनों को कहा, हर एक कार्य जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता था वह परमेश्वर के अभिप्राय और जिस रीति से परमेश्वर ने उन्हें नियुक्त किया था उसके अनुसार पूरा हो गया।
आकाश में जो ज्योतियाँ हैं वे आसमान के पदार्थ हैं जो प्रकाश को इधर उधर फैला सकते हैं; वे आकाश को ज्योतिर्मय कर सकती हैं, और भूमि और समुद्र को प्रकाशमय कर सकती हैं। वे परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार लय एवं तीव्रता में परिक्रमा करती हैं, और विभिन्न समयकालों पर भूमि पर प्रकाश देती हैं, और इस रीति से, ज्योतियों की परिक्रमा के चक्र के कारण भूमि के पूर्वी और पश्चिमी छोर पर दिन और रात होते हैं, और वे न केवल दिन और रात के लिए चिन्ह हैं, बल्कि इन विभिन्न चक्रों के द्वारा वे मानवजाति के लिए त्योहारों और विशेष दिनों को भी चिन्हित करती हैं। वे चारों ऋतुओं के पूर्ण पूरक और सहायक हैं - बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु, और शीत ऋतु - जिन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा जाता है, जिस से ज्योतियाँ एकरूपता के साथ मानवजाति के लिए चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों, और सालों के लिए एक निरन्तर और सटीक चिन्ह के रूप में एक साथ कार्य करती हैं। यद्यपि यह केवल कृषि के आगमन के बाद ही हुआ जब मानवजाति ने समझना प्रारम्भ किया और परमेश्वर द्वारा बनाई गई ज्योतियों द्वारा चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों, और वर्षों के विभाजन का सामना किया, और वास्तव में चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों, और वर्षों को जिन्हें मनुष्य आज समझता है वे बहुत पहले ही चौथे दिन प्रारम्भ हो चुके थे जब परमेश्वर ने सभी वस्तुओं की सृष्टि की थी, और इस प्रकार अपने आप में बदलनेवाले बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु, और शीत ऋतु के चक्र भी जिन्हें मनुष्य के द्वारा अनुभव किया जाता है वे बहुत पहले ही चौथे दिन प्रारम्भ हो चुके थे जब परमेश्वर ने सभी वस्तुओं की सृष्टि की थी। परमेश्वर के द्वारा बनाई गई ज्योतियों ने मनुष्य को इस योग्य बनाया कि वे लगातार, सटीक ढंग से, और साफ साफ दिन और रात के बीच अन्तर कर सकें, और दिनों को गिन सकें, और साफ साफ चन्द्रमा की स्थितियों और वर्षों का हिसाब रख सकें। (पूर्ण चन्द्रमा का दिन एक महिने की समाप्ति को दर्शाता था, और इससे मनुष्य जान गया कि ज्योतियों के प्रकाशन ने एक नए चक्र की शुरूआत की थी; अर्ध चन्द्रमा का दिन आधे महीने की समाप्ति को दर्शाता था, जिसने मनुष्य को यह बताया कि चन्द्रमा की एक नई स्थिति शुरू हुई है, इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि चन्द्रमा की एक स्थिति में कितने दिन और रात होते हैं, और एक ऋतु में चन्द्रमा की कितनी स्थितियाँ होती हैं, और एक साल में कितनी ऋतुएँ होती हैं, और सब कुछ लगातार प्रदर्शित हो रहा था।) और इस प्रकार, मनुष्य ज्योतियों की परिक्रमाओं के चिन्हाँकन से आसानी से चन्द्रमा की स्थितियों, दिनों, और सालों का पता लगा सकता था। इस बिन्दु के आगे से, मानवजाति और सभी चीज़ें एहसास न करते हुए दिन एवं रात के क्रमानुसार परस्पर परिवर्तन और ज्योतियों की परिक्रमाओं से उत्पन्न ऋतुओं के बदलाव के मध्य जीवन बिताने लगे। यह सृष्टिकर्ता की सृष्टि का महत्व था जब उसने चौथे दिन ज्योतियों की सृष्टि की थी। उसी प्रकार, सृष्टिकर्ता के इस कार्य के उद्देश्य और महत्व अभी भी उसके अधिकार और सामर्थ से अविभाजित थे। और इस प्रकार, परमेश्वर के द्वारा बनाई गई ज्योतियाँ और वह मूल्य जो वे शीघ्र ही मनुष्य के लिए लानेवाले थे, वे सृष्टिकर्ता के अधिकार के इस्तेमाल में एक और महानतम कार्य थे।
इस नए संसार में, जिसमें मानवजाति अभी तक प्रकट नहीं हुआ था, सृष्टिकर्ता ने "साँझ और सवेरे," "आकाश," "भूमि और समुद्र," "घास, सागपात और विभिन्न प्रकार के वृक्ष," और "ज्योतियों, ऋतुओं, दिनों, और वर्षों" को उस नए जीवन के लिए बनाया जिसे वह शीघ्र उत्पन्न करने वाला था। सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ हर उस नई चीज़ में प्रगट हुआ जिसे उसने बनाया था, और उसके वचन और उपलब्धियाँ बिना किसी लेश मात्र विरोद्ध, और बिना किसी लेश मात्र अन्तराल के एक साथ घटित होती हैं। इन सभी नई चीज़ों का प्रकटीकरण और जन्म सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ के प्रमाण थे; वह अपने वचन के समान ही भला है, और उसका वचन पूरा होगा, और जो पूर्ण हुआ है वो हमेशा बना रहेगा। यह सच्चाई कभी नहीं बदलीः यह भूतकाल में ऐसा था, यह वर्तमान में ऐसा है, और पूरे अनंतकाल के लिए भी ऐसा ही बना रहेगा। जब तुम लोग पवित्र शास्त्र के उन वचनों को एक बार और देखते हो, तो क्या वे तुम्हें तरोताज़ा दिखाई देते हो? क्या तुम सबने नए ब्योरों को देखा है, और नई नई खोज की है? यह इसलिए है क्योंकि सृष्टिकर्ता के कार्यों ने तुम लोगों के हृदय को उकसा दिया है, और अपने अधिकार और सामर्थ की दिशा में तुम सबके ज्ञान का मार्गदर्शन किया है, और सृष्टिकर्ता के लिए तुम लोगों की समझ के द्वार को खोल दिया है, और उसके कार्य और अधिकार ने इन वचनों को जीवन दिया है। और इस प्रकार इन वचनों में मनुष्य ने सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक वास्तविक, स्पष्ट प्रकटीकरण देखा है, और सचमुच में सृष्टिकर्ता की सर्वोच्चता के गवाह बने हैं, और सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ की असाधारणता को देखा है।
सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ ने चमत्कार के ऊपर चमत्कार किया है, और उसने मनुष्य के ध्यान को आकर्षित किया है, और मनुष्य उसके अधिकार के उपयोग से पैदा हुए आश्चर्यजनक कार्यों को टकटकी लगाकर देखने के सिवाए कुछ नहीं कर सकता है। उसकी प्रगट सामर्थ आनंद के बाद आनंद लेकर आती है, और मनुष्य भौंचक्का हो जाता है और अतिउत्साह से भर जाता है, और प्रशंसा में आहें भरता है, और भय से ग्रसित, और हर्षित हो जाता है; और इससे अधिक क्या, मनुष्य दृश्यमान रूप से कायल हो जाता है, और उस में आदर, सम्मान, और लगाव उत्पन्न होने लग जाता है। मनुष्य के आत्मा के ऊपर सृष्टिकर्ता के अधिकार और कार्यों का एक बड़ा प्रभाव होता है, और मनुष्य के आत्मा को शुद्ध कर देता है, और, इसके अतिरिक्त, मनुष्य के आत्मा को स्थिर कर देता है। उसके हर एक विचार, उसके हर एक बोल, और उसके अधिकार का हर एक प्रकाशन सभी चीज़ों में अति उत्तम रचना हैं, और यह एक महान कार्य है और सृजी गई मानवजाति की गहरी समझ और ज्ञान के लिए बहुत ही योग्य है। जब हम सृष्टिकर्ता के वचनों से सृजे गए हर एक जीवधारी की गणना करते हैं, तो हमारा आत्मा परमेश्वर की सामर्थ के आश्चर्य की ओर खींचा चला जाता है, और हम अगले दिन अपने आप को सृष्टिकर्ता के कदमों के निशानों के पीछे पीछे चलते हुए पाते हैं: सभी चीज़ों की सृष्टि का पाँचवा दिन।
जब हम सृष्टिकर्ता के और कार्यों को देखते हैं, तो आओ हम अंश अंश करके पवित्र शास्त्र को पढ़ना प्रारम्भ करें।
पाँचवे दिन, जीवन के विविध और विभिन्न रूप अलग अलग तरीकों से सृष्टिकर्ता के अधिकार को प्रदर्शित करते हैं।
पवित्र शास्त्र कहता है, "फिर परमेश्वर ने कहा, जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें। इसलिए परमेश्वर ने जाति जाति बड़े बड़े जल जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया और एक एक जातियों के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्टि कीः और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है" (उत्पत्ति 1:20-21)। पवित्र शास्त्र साफ साफ कहता है कि, इस दिन, परमेश्वर ने जल के जन्तुओं और आकाश के पक्षियों को बनाया, कहने का तात्पर्य है कि उसने विभिन्न प्रकार की मछलियों और पक्षियों को बनाया, और उनकी प्रजाति के अनुसार उन्हें वर्गीकृत किया। इस तरह, परमेश्वर की सृष्टि से पृथ्वी, आकाश, और जल समृद्ध हो गए ....।
जैसे ही परमेश्वर के वचन कहे गए, नई ज़िन्दगियाँ, हर एक अलग आकार में, सृष्टिकर्ता के वचनों के मध्य एकदम से जीवित हो गईं। वे इस संसार में अपने स्थान के लिए एक दूसरे को धकेलते, कूदते और आनंद से खेलते हुए आ गए ....। हर प्रकार एवं आकार की मछलियाँ जल के आर-पार तैरने लगीं, और सभी किस्मों की सीप वाली मछलियाँ रेत में उत्पन्न होने लगीं, कवचधारी, सीप वाली, और बिना रीढ़ वाले जीव जन्तु, चाहे बड़े हों या छोटे, लम्बे हों या छोटे, विभिन्न रूपों में जल्दी से प्रगट हो गए। विभिन्न प्रकार के समुद्री पौधे शीघ्रता से उगना शुरू हो गए, विविध प्रकार के समुद्री जीवन के बहाव में बहने लगे, लहराते हुए, स्थिर जल को उत्तेजित करते हुए, मानो उनसे कहना चाहते हैं: अपना एक पैर हिलाओ! अपने मित्रों को लेकर आओ! क्योंकि तुम सभी फिर अकेले नहीं रहोगे! उस घड़ी जब परमेश्वर के द्वारा बनाए गए जीवित प्राणी जल में प्रगट हुए, प्रत्येक नए जीवन ने उस जल में जीवन शक्ति डाल दी जो इतने लम्बे समय से शांत था, और एक नए युग से परिचय किया....। उस समय के बाद से, वे एक दूसरे के आस पास रहने लगे, और एक दूसरे की सहभागिता की, और एक दूसरे के साथ कोई भेद नहीं किया। अपने भीतर के जीवधारियों के लिए जल अस्तित्व में आया था, और हर एक जीवन की जो उसकी बाँहों में आया था उसका पोषण करने लगा, और प्रत्येक जीवन जल और उसके पोषण के कारण अस्तित्व में बना रहा। प्रत्येक ने दूसरे को जीवन दिया, और उसी समय, हर एक ने, उसी रीति से, सृष्टिकर्ता की सृष्टि की अद्भुतता और महानता और सृष्टिकर्ता के अधिकार और अद्वितीय सामर्थ के लिए गवाही दी।
जैसे समुद्र अब शांत न रहा, उसी प्रकार जीवन ने आकाश को भरना प्रारम्भ कर दिया। एक के बाद, छोटे और बड़े पक्षी, भूमि से आकाश में उड़ने लगे। समुद्र के जीवों से अलग, उनके पास पंख और पर थे जो उनके दुबले और आर्कषक आकारों को ढँके हुए थे। उन्होंने अपने पंखों को फड़फड़ाया, और गर्व और अभिमान से अपने परों के आकर्षक लबादे को और अपनी विशेष क्रियाओं और कुशलताओं को प्रदर्शित करने लगे जिन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें प्रदान किया गया था। वे स्वतन्त्रता के साथ हवा में लहराने लगे, और कुशलता से आकाश और पृथ्वी के बीच, घास के मैदानों और जंगलों के आर पार यहाँ वहाँ उड़ने लगे ....। वे हवा के प्रियतम थे, वे हर चीज़ के प्रियतम थे। वे जल्द ही स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में एक बन्धन बननेवाले थे, और जल्द ही उन सन्देशों को सभी चीज़ों तक पहुँचानेवाले थे ....। वे गीत गाने लगे, वे आनंद के साथ यहाँ वहाँ झपट्टा मारने लगे, वे हर्षोल्लास एवं हँसी लेकर आए, और एक समय ख़ाली पड़े संसार में कम्पन पैदा किया .....। उन्होंने अपने स्पष्ट, एवं मधुर गीतों का उपयोग किया, और अपने हृदय के शब्दों का उपयोग कर उस जीवन के लिए सृष्टिकर्ता की प्रशंसा की जो उसने उन्हें दिया था। उन्होंने सृष्टिकर्ता की पूर्णता और अद्भुतता को प्रदर्शित करने के लिए हर्षोल्लास के साथ नृत्य किया, और वे, उस विशेष जीवन के द्वारा जो उसने उन्हें दिया था, सृष्टिकर्ता के अधिकार की गवाही देते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन को समर्पित कर देंगे।
इसके बावजूद कि वे जल में थे या आकाश में, सृष्टिकर्ता की आज्ञा के द्वारा, जीवित प्राणियों की यह अधिकता जीवन के विभिन्न रूपों में मौजूद थी, और सृष्टिकर्ता की आज्ञा के द्वारा, वे अपनी अपनी प्रजाति के अनुसार इकट्ठे हो गए - और यह व्यवस्था और यह नियम किसी भी जीवधारी के लिए अपरिवर्तनीय था। और उनके लिए सृष्टिकर्ता के द्वारा जो भी सीमाएँ बनाई गई थीं उन्होंने कभी भी उसके पार जाने की हिम्मत नहीं की, और न ही वे ऐसा करने में समर्थ थे। जैसा सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किया गया था, वे जीवित और बहुगुणित होते रहे, और सृष्टिकर्ता के द्वारा बनाए गए जीवन क्रम और व्यवस्था से कड़ाई से चिपके रहे, और सचेतता से उसकी अनकही आज्ञाओं, स्वर्गीय आदेशों और नियमों में बने रहे जो उसने उन्हें तब से लेकर आज तक दिया था। वे सृष्टिकर्ता से अपने एक विशेष अन्दाज़ में बात करते थे, और सृष्टिकर्ता के अर्थ की प्रशंसा करने और उसकी आज्ञा मानने के लिए आए थे। किसी ने कभी भी सृष्टिकर्ता के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया, और उनके ऊपर उसकी संप्रभुता और आज्ञाओं का उपयोग उसके विचारों के तहत हुआ था; कोई वचन नहीं दिए गए थे, परन्तु वह अधिकार जो सृष्टिकर्ता के लिए अद्वितीय था उसने उससे ख़ामोशी से सभी चीज़ों का नियन्त्रण किया जिसमें भाषा की कोई क्रिया नहीं थी, और मानवजाति से भिन्न था। इस विशेष रीति से उसके अधिकार के इस्तेमाल ने नए ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को बाध्य किया, और सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार की एक नई व्याख्या की। यहाँ, मुझे तुम्हें बताना होगा कि इस नए दिन में, परमेश्वर के अधिकार के इस्तेमाल ने एक बार और सृष्टिकर्ता की अद्वितीयता का प्रदर्शन किया।
आगे, आओ हम पवित्र शास्त्र के इस अंश के अंतिम वाक्य पर एक नज़र डालें: "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।" तुम लोग क्या सोचते हो कि इसका अर्थ क्या है? इन वचनों में परमेश्वर की भावनाएं भरी हैं। परमेश्वर ने उन सभी चीज़ों को देखा जिन्हें उसने बनाया था जो उसके वचनों के कारण अस्तित्व में आए और स्थिर बने रहे, और धीरे धीरे परिवर्तित होने लगे। उसी समय, परमेश्वर ने अपने वचनों के द्वारा जिन विभिन्न चीज़ों को बनाया था, और वे विभिन्न कार्य जिन्हें उसने पूरा किया था क्या वह उनसे सन्तुष्ट था? उत्तर है कि "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।" तुम लोग यहाँ क्या देखते हो? इससे क्या प्रकट होता है कि "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है?" यह किसकी ओर संकेत करता है? इसका अर्थ है कि जो कुछ परमेश्वर ने योजना बनाया और निर्देश दिया था उसे पूरा करने के लिए, और उन उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए जिन्हें वह पूरा करने निकला था परमेश्वर के पास सामर्थ और बुद्धि थी। जब परमेश्वर ने हर एक कार्य को पूरा कर लिया, तो क्या वह खेदित हुआ? उत्तर अभी भी यही है "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।" दूसरे शब्दों में, उसने कोई खेद महसूस नहीं किया, बल्कि उसके बजाए वह सन्तुष्ट था। इसका मतलब क्या था कि उसे कोई खेद महसूस नहीं हुआ? इसका मतलब है कि परमेश्वर की योजना पूर्ण है, उसकी सामर्थ और बुद्धि पूर्ण है, और यह कि सिर्फ उसकी सामर्थ के द्वारा ही ऐसी पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है। जब कोई मुनष्य कार्य करता है, तो परमेश्वर के समान, क्या वह देख सकता है, कि वह अच्छा है? क्या हर चीज़ जो मनुष्य करता है उसमें पूर्णता होती है? क्या मनुष्य किसी चीज़ को पूरी अनंतता के लिए पूरा कर सकता है? जैसा मनुष्य कहता है, "कोई भी पूर्ण नहीं है, बस थोड़ा बेहतर होता है," ऐसा कुछ भी नहीं है जो मनुष्य करे और वह पूर्णता को प्राप्त करे। जब परमेश्वर ने देखा कि जो कुछ उसने बनाया और पूर्ण किया वह अच्छा था, परमेश्वर के द्वारा बनाई गई हर वस्तु उसके वचन के द्वारा स्थिर हुई, कहने का तात्पर्य है कि, जब "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है," तब जो कुछ भी उसने बनाया उसे चिरस्थायी रूप में स्वीकृति दी, उसके किस्मों के अनुसार उन्हें वर्गीकृत किया गया, और उन्हें पूरी अनंतता के लिए एक दृढ़ स्थिति, उद्देश्य, और कार्यप्रणाली दी गई। इसके अतिरिक्त, सब वस्तुओं के बीच उनकी भूमिका, और वह यात्रा जिन से उन्हें परमेश्वर की सब वस्तुओं के प्रबन्ध के दौरान गुज़रना था, उन्हें परमेश्वर के द्वारा पहले से ही नियुक्त कर दिया गया था, और वे बदलनेवाले नहीं थे। यह वह स्वर्गीय नियम था जिसे सब वस्तुओं के सृष्टिकर्ता के द्वारा दिया गया था।
"परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है," इन सामान्य, कम महत्व के शब्दों की कई बार उपेक्षा की जाती है, परन्तु ये स्वर्गीय नियम और स्वर्गीय आदेश हैं जिन्हें सभी प्राणियों को परमेश्वर के द्वारा दिया गया है। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक और मूर्त रूप है, जो अधिक व्यावहारिक, और अति गंभीर है। अपने वचनों के जरिए, सृष्टिकर्ता न केवल वह सबकुछ हासिल करने में सक्षम हुआ जिसे वह हासिल करने निकला था, और सब कुछ प्राप्त किया जिसे वह प्राप्त करने निकला था, बल्कि जो कुछ भी उसने सृजा था, उसका नियन्त्रण कर सकता था, और जो कुछ उसने अपने अधिकार के अधीन बनाया था उस पर शासन कर सकता था, और, इसके अतिरिक्त, सब कुछ क्रमानुसार और निरन्तर बने रहनेवाला था। सभी वस्तुएँ उसके वचन के द्वारा जीवित हुईं और मर भी गईं और, उसके अतिरिक्त उसके अधिकार के कारण वे उसके द्वारा बनाई गई व्यवस्था के मध्य अस्तित्व में बने रहे, और कोई भी नहीं छूटा! यह व्यवस्था बिलकुल उसी घड़ी शुरू हो गई थी जब "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है," और वह बना रहेगा, और जारी रहेगा, और परमेश्वर के प्रबंधकीय योजना के लिए उस दिन तक कार्य करता रहेगा जब तक वह सृष्टिकर्ता के द्वारा रद्द न कर दिया जाए! सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार न केवल सब वस्तुओं को बनाने, और सब वस्तुओं के अस्तित्व में आने की आज्ञा की काबिलियत में प्रकट हुआ, बल्कि सब वस्तुओं पर शासन करने और सब वस्तुओं पर संप्रभुता रखने, और सब वस्तुओं में चेतना और जीवन देने, और, इसके अतिरिक्त, सब वस्तुओं को पूरी अनंतता के लिए बनाने की उसकी योग्यता में भी प्रगट हुआ था जिसे वह अपनी योजना में बनाना चाहता था ताकि वे एक ऐसे संसार में प्रगट हो सकें और अस्तित्व में आ जाएँ जिन्हें उसके द्वारा एक पूर्ण आकार, और एक पूर्ण जीवन संरचना, और एक पूर्ण भूमिका में बनाया गया था। यह भी इस तरह से सृष्टिकर्ता के विचारों में प्रकट हुआ जो किसी विवशता के अधीन नहीं था, और समय, अंतरिक्ष, और भूगोल के द्वारा सीमित नहीं किए गए थे। उसके अधिकार के समान, सृष्टिकर्ता की अद्वितीय पहचान अनंतकाल से लेकर अनंतकाल तक अपरिवर्तनीय बनी रहेगी। उसका अधिकार सर्वदा उसकी अद्वितीय पहचान का एक प्रदर्शन और प्रतीक बना रहेगा, और उसका अधिकार हमेशा उसकी अद्वितीय पहचान के अगल बगल बना रहेगा!
छठवें दिन, सृष्टिकर्ता ने कहा, और हर प्रकार के जीवित प्राणी जो उसके मस्तिष्क में थे एक के बाद एक अपने आप को प्रगट करने लगे
स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर न होते हुए, सब वस्तुओं को बनाने के लिए सृष्टिकर्ता का कार्य लगातार पाँचवे दिन तक चलता रहा, उसके तुरन्त बाद सृष्टिकर्ता ने सब वस्तुओं की सृष्टि के छठवें दिन का स्वागत किया। यह दिन एक और नई शाम थी, तथा एक और असाधारण दिन था। तब, इस नए दिन की शाम के लिए सृष्टिकर्ता की क्या योजना थी? कौन से नए जीव जन्तुओं को उसने उत्पन्न, और पैदा करना चाहा? ध्यान से सुनो, यह सृष्टिकर्ता की आवाज़ है....।
"फिर परमेश्वर ने कहा, पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलु पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों; और वैसा ही हो गया। सो परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वनपशुओं को, और जाति जाति के घरेलु पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को भी बनायाः और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है" (उत्पत्ति 1:24-25)। इन में कौन कौन से जीवित प्राणी शामिल हैं? पवित्र शास्त्र कहता हैः पालतु जानवर, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के जाति जाति के जंगली पशु। कहने का तात्पर्य है कि, उस दिन वहाँ पृथ्वी के सब प्रकार के जीवित प्राणी ही नहीं थे, परन्तु उन सभों को प्रजाति के अनुसार वर्गीकृत किया गया था, और, उसी प्रकार, "परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।"
पिछले पाँच दिनों के दौरान, उसी लय में होकर, छ्ठे दिन सृष्टिकर्ता ने अपने इच्छित प्राणियों के जन्म का आदेश दिया, और हर एक अपनी अपनी प्रजाति के अनुसार पृथ्वी पर प्रकट हुआ। जब सृष्टिकर्ता ने अपने अधिकार का इस्तेमाल किया, उसके कोई भी वचन व्यर्थ में नहीं बोले गए, और इस प्रकार, छ्ठे दिन, हर प्राणी, जिसको उसने बनाने की इच्छा की थी, समय पर प्रकट हो गए। जैसे ही सृष्टिकर्ता ने कहा "पृथ्वी से एक एक जाति के प्राणी, उत्पन्न हों," पृथ्वी तुरन्त जीवन से भर गई, और पृथ्वी के ऊपर अचानक ही हर प्रकार के प्राणियों की श्वास प्रकट हुई....। हरे भरे घास के जंगली मैदानों में, हृष्ट पुष्ट गाएँ, अपनी पूछों को इधर उधर हिलाते हुए, एक के बाद एक प्रगट होने लगीं, मिमियाती हुई भेड़ें झुण्डों में इकट्ठे होने लगीं, और हिनहिनाते हुए घोड़े सरपट दौड़ने लगे....। एक पल में ही, शांत घास के मैदानों की विशालता में जीवन अंगड़ाई लेने लगा....। पशुओं के इन विभिन्न झुण्डों का प्रकटीकरण निश्चल घास के मैदान का एक सुन्दर दृश्य था, और अपने साथ असीमित जीवन शक्ति लेकर आया था....। वे घास के मैदानों के साथी, और घास के मैदानों के स्वामी होंगे, और प्रत्येक एक दूसरे पर निर्भर होगा; वे भी इन घास के मैदानों के संरक्षक और रखवाले होंगे, जो उनका स्थायी निवास होगा, जो उन्हें उनकी सारी ज़रूरतों को प्रदान करेगा, और उनके अस्तित्व के लिए अनंत पोषण का स्रोत होगा...
उसी दिन जब ये विभिन्न मवेशी सृष्टिकर्ता के वचनों द्वारा अस्तित्व में आए थे, ढेर सारे कीड़े मकौड़े भी एक के बाद एक प्रगट हुए। भले ही वे सभी जीवधारियों में सबसे छोटे थे, परन्तु उनकी जीवन शक्ति अभी भी सृष्टिकर्ता की अद्भुत सृष्टि थी, और वे बहुत देरी से नहीं आए थे.....। कुछ ने अपने पंखों को फड़फड़ाया, जबकि कुछ अन्य धीर धीरे रेंगने लगे; कुछ उछलने और कूदने लगे, और कुछ अन्य लड़खड़ाने लगे, कुछ आगे बढ़कर खोल में घुस गए, जबकि अन्य जल्दी से पीछे लौट गए; कुछ दूसरी ओर चले गए, कुछ अन्य ऊँची और नीची छलांग लगाने लगे....। वे सभी अपने लिए घर ढूँढ़ने के प्रयास में व्यस्त हो गएः कुछ ने घास में घुसकर अपना रास्ता बनाया, कुछ ने भूमि खोदकर छेद बनाना शुरू कर दिया, कुछ उड़कर पेड़ों पर चढ़ गए, और जंगल में छिप गए.....। यद्यपि वे आकार में छोटे थे, परन्तु वे खाली पेट की तकलीफ को सहना नहीं चाहते थे, और अपने घरों को बनाने के बाद, वे अपना पोषण करने के लिए भोजन की तलाश में चल पड़े। कुछ घास के कोमल तिनकों को खाने के लिए उस पर चढ़ गए, कुछ ने धूल से अपना मुँह भर लिया और अपना पेट भरा, और स्वाद और आनंद के साथ खाने लगे (उनके लिए, धूल भी एक स्वादिष्ट भोजन था); कुछ जंगल में छिप गए, परन्तु आराम करने के लिए नहीं रूके, क्योंकि चमकीले गहरे हरे पत्तों के भीतर के रस ने रसीला भोजन प्रदान किया....। सन्तुष्ट होने के बाद भी कीड़े मकौड़ों ने अपनी गतिविधियों को समाप्त नहीं किया, भले ही वे आकार में छोटे थे, फिर भी वे भरपूर ऊर्जा और असीमित उत्साह से भरे हुए थे, और उसी प्रकार सभी जीवधारी भी, वे सबसे अधिक सक्रिय, और सबसे अधिक परिश्रमी थे। वे कभी आलसी न हुए, और न कभी आराम से पड़े रहे। एक बार संतृप्त होने के बाद, उन्होंने फिर से अपने भविष्य के लिए परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया, अपने आने वाले कल के लिए अपने आपको व्यस्त रखा, और जीवित बने रहने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ते गए....। उन्होंने मधुरता से विभिन्न प्रकार की धुनों और सुरों को गुनगुनाकर अपने आपको आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया। उन्होंने घास, वृक्षों, और ज़मीन के हर इन्च में आनंद का समावेश किया, और हर दिन और हर वर्ष को अद्वितीय बना दिया....। अपनी भाषा और अपने तरीकों से, उन्होंने भूमि के सभी प्राणियों तक जानकारी पहुँचायी। और अपने स्वयं के विशेष जीवन पथक्रम का उपयोग करते हुए, उन्होंने सब वस्तुओं को जिनके ऊपर उन्होंने निशान छोड़े थे चिन्हित किया....। उनका मिट्टी, घास, और जंगलों के साथ घनिष्ठ संबंध था, और वे मिट्टी, घास, और वनों में शक्ति और जीवन चेतना लेकर आए, और सभी प्राणियों को सृष्टिकर्ता का प्रोत्साहन और अभिनंदन पहुँचाया....।
सृष्टिकर्ता की निगाहें सब वस्तुओं पर पड़ीं जिन्हें उसने बनाया था, और इस पल उसकी निगाहें जंगलों और पर्वतों पर आकर ठहर गईं, और उसका मस्तिष्क मोड़ ले रहा था। जैसे ही उसके वचन घने जंगलों, और पहाड़ों के ऊपर बोले गए, इस प्रकार के पशु प्रगट हुए जो पहले कभी नहीं आए थेः वे "जंगली जानवर" थे जो परमेश्वर के वचन के द्वारा बोले गए थे। लम्बे समय से प्रतीक्षारत, उन्होंने अपने अनोखे चेहरे के साथ अपने अपने सिरों को हिलाया और हर एक ने अपनी अपनी पूंछ को लहराया। कुछ के पास रोंएदार लबादे थे, कुछ हथियारों से लैस थे, कुछ के खुले हुए ज़हरीले दाँत थे, कुछ के पास घातक मुस्कान थी, कुछ लम्बी गर्दन वाले थे, कुछ के पास छोटी पूँछ थी, कुछ के पास ख़तरनाक आँखें थीं, कुछ डर के साथ देखते थे, कुछ घास खाने के लिए झुके हुए थे, कुछ के पूरे मुँह में ख़ून लगा हुआ था, कुछ दो पाँव से उछलते थे, कुछ चार खुरों से धीरे धीरे चलते थे, कुछ पेड़ों के ऊपर से दूर तक देखते थे, कुछ जंगलों में इन्तज़ार में लेटे हुए थे, कुछ आराम करने के लिए गुफाओं की खोज में थे, कुछ मैदानों में दौड़ते और उछलते थे, कुछ शिकार के लिए जंगलों में गश्त लगा रहे थे.....; कुछ गरज रहे थे, कुछ हुँकार भर रहे थे, कुछ भौंक रहे थे, कुछ रो रहे थे.....; कुछ ऊँचे सुर , कुछ नीची सुर वाले, कुछ खुले गले वाले, कुछ साफ साफ और मधुरस्वर वाले थे....; कुछ भयानक थे, कुछ सुन्दर थे, कुछ बड़े अजीब से थे, और कुछ प्यारे-से थे, कुछ डरावने थे, कुछ बहुत ही आकर्षक थे....। एक के बाद एक वे आने लगे। देखिए कि वे गर्व से कितने फूले हुए थे, उन्मुक्त-जीव थे, एक दूसरे से बिलकुल उदासीन थे, एक दूसरे को एक झलक देखने की भी परवाह नहीं करते थे....। प्रत्येक उस विशेष जीवन को जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया था, और अपनी बर्बरता, और क्रूरता को धारण किए हुए, जंगलों और पहाड़ियों के ऊपर प्रगट हो गए। सबसे घृणित, पूरी तरह ढीठ - किसने उन्हें पहाड़ियों और जंगलों का सच्चा स्वामी बना दिया था? उस घड़ी से जब से सृष्टिकर्ता ने उनके आविर्भाव को स्वीकृति दी थी, उन्होंने जंगलों पर "दावा किया," और पहाड़ों पर भी "दावा किया," क्योंकि सृष्टिकर्ता ने पहले से ही उनकी सीमाओं को ठहरा दिया था और उनके अस्तित्व के पैमाने को निश्चित कर दिया था। केवल वे ही जंगलों और पहाड़ों के सच्चे स्वामी थे, इसलिए वे इतने प्रचण्ड और ढीठ थे। उन्हें पूरी तरह "जंगली जानवर" इसी लिए कहा जाता था क्योंकि, सभी प्राणियों में, वे ही थे जो इतने जंगली, क्रूर, और वश में न आने योग्य थे। उन्हें पालतू नहीं बनाया जा सकता था, इस प्रकार उनका पालन पोषण नहीं किया जा सकता था और वे मानवजाति के साथ एकता से नहीं रह सकते थे या मानवजाति के बदले परिश्रम नहीं कर सकते थे। यह इसलिए था क्योंकि उनका पालन पोषण नहीं किया जा सकता था, वे मानवजाति के लिए काम नहीं कर सकते थे, और यह कि उन्हें मानवजाति से दूर रहकर जीवन बिताना था, और मनुष्य उनके पास नहीं आ सकते थे, और यह इसलिए था क्योंकि वे मानवजाति से दूरी पर जीवन बिताते थे। और मनुष्य उनके पास नहीं आ सकते थे, वे उन ज़िम्मेदारियों को निभा सकते थे जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दी गई थी: अर्थात् पर्वतों और जंगलों की सुरक्षा करना। उनके जंगलीपन ने पर्वतों की सुरक्षा की और जंगलों की हिफाज़त की, और उनके अस्तित्व और बढोतरी के लिए सबसे बेहतरीन सुरक्षा और आश्वासन था। उसी समय, उनकी बर्बरता ने सब वस्तुओं के मध्य सन्तुलन को कायम और सुनिश्चित किया। उनका आगमन पर्वतों और जंगलों के लिए सहयोग और टिके रहने के लिए सहारा लेकर आया; उनके आगमन ने शांत तथा रिक्त पर्वतों और जंगलों में शक्ति और जीवन चेतना का संचार किया। उसके बाद से, पर्वत और जंगल उनके स्थायी निवास बन गए, और वे अपने घरों से कभी वंचित नहीं रहेंगे, क्योंकि पर्वत और पहाड़ उनके लिए प्रगट हुए और अस्तित्व में आए थे, और जंगली जानवर अपने कर्तव्य को पूरा करेंगे, और उनकी हिफाज़त करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। इस प्रकार, जंगली जानवर भी सृष्टिकर्ता के प्रोत्साहन के द्वारा दृढ़ता से रहना चाहते थे ताकि अपने सीमा क्षेत्र को थामे रह सकें, और सब वस्तुओं के सन्तुलन को कायम रखने के लिए अपने जंगली स्वभाव का निरन्तर उपयोग कर सकें जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा स्थापित किया गया था, और सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ को प्रकट कर सकें!
सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन, सभी चीज़ें पूर्ण हैं
परमेश्वर के द्वारा सब वस्तुओं की सृष्टि की गई, जिन में वे शामिल हैं जो चल फिर सकते थे और वे जो चल फिर नहीं सकते थे, जैसे पक्षी और मछलियाँ, जैसे वृक्ष और फूल, और जिसमें पशुओं का झुण्ड, कीड़े मकौड़े, और छठवें दिन बनाए गए जंगली जानवर भी शामिल थ—वे सभी परमेश्वर के साथ अच्छे से थे, और, इसके अतिरिक्त, परमेश्वर की निगाहों में ये वस्तुएँ उसकी योजना के अनुरूप थे, और पूर्णता के शिखर को प्राप्त कर चुके थे, और एक ऐसे स्तर तक पहुँच गए थे जिस तक पहुँचाने की परमेश्वर ने अभिलाषा की थी। कदम दर कदम, सृष्टिकर्ता ने उन कार्यों को किया जो वह अपनी योजना के अनुसार करने का इरादा रखता था। एक के बाद दूसरा, जो कुछ उसने बनाने का इरादा किया था प्रगट होते गए, और प्रत्येक का प्रकटीकरण सृष्टिकर्ता के अधिकार का प्रतिबिम्ब था, और उसके अधिकार के विचारों का ठोस रूप था, और विचारों के इन ठोस रूपों के कारण, सभी जीवधारी सृष्टिकर्ता के अनुग्रह, और सृष्टिकर्ता के प्रयोजन के लिए धन्यवादित होने के सिवाए कुछ नहीं कर सकते थे। जैसे ही परमेश्वर के चमत्कारी कार्यों ने अपने आपको प्रगट किया, यह संसार अंश अंश कर के परमेश्वर के द्वारा सृजी गई सब वस्तुओं से फैल गया, और यह बर्बादी और अँधकार से स्वच्छता और जगमगाहट में बदल गया, घातक निश्चलता से जीवन्त और असीमित जीवन चेतना में बदल गया। सृष्टि की सब वस्तुओं के मध्य, बड़े से लेकर छोटे तक, और छोटे से लेकर सूक्ष्म तक, ऐसा कोई भी नहीं था जो सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ के द्वारा सृजा नहीं गया था, और हर एक जीवधारी के अस्तित्व की एक अद्वितीय और अंतर्निहित आवश्यकता और मूल्य था। उनके आकार और ढांचे के अन्तर के बावजूद भी, उन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा बनाया जाना था ताकि सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन अस्तित्व में बने रहें। कई बार लोग एक ऐसे कीड़े को देखेंगे जो बहुत घृणित है और कहेंगे, "वह कीड़ा बहुत भद्दा है, ऐसा हो ही नहीं सकता कि ऐसे घृणित चीज़ को परमेश्वर के द्वारा बनाया जा सकता था" - ऐसा हो ही नहीं सकता कि परमेश्वर किसी घृणित चीज़ को बनाए। कितना मूर्खतापूर्ण नज़रिया है! इसके बजाय उन्हें यह कहना चाहिए, "भले ही यह कीड़ा इतना भद्दा है, उसे परमेश्वर के द्वारा बनाया गया था, और इस प्रकार उसके पास उसका अपना अनोखा उद्देश्य होगा।" परमेश्वर के विचारों में, विभिन्न जीवित प्राणी जिन्हें उसने बनाया था, वह उन्हें हर प्रकार का और हर तरह का रूप, और हर प्रकार की कार्य प्रणालियाँ और उपयोगिताएँ देना चाहता था, और इस प्रकार परमेश्वर के द्वारा बनाए गए वस्तुओं में से कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे उस साँचे से अलग किया गया था। उनकी बाहरी संरचना से लेकर भीतरी संरचना तक, उनके जीने की आदतों से लेकर उनके निवास तक जिन में वे रहते थे - हर एक चीज़ अलग थी। गायों के पास गायों का रूप था, गधों के पास गधों का रूप था, हिरनों के पास हिरनों का रूप था, हाथियों के पास हाथियों का रूप था। क्या तुम कह सकते हो कि कौन सबसे अच्छा दिखता था, और कौन सबसे भद्दा दिखता था? क्या तुम कह सकते हो कि कौन सबसे अधिक उपयोगी था, और किसकी उपस्थिति की आवश्यकता सबसे कम थी? कुछ लोगों को हाथियों का रूप अच्छा लगता है, परन्तु कोई भी खेती के लिए हाथियों का इस्तेमाल नहीं करता है; कुछ लोग शेरों और बाघों के रूप को पसंद करते हैं, क्योंकि उनका रूप सब वस्तुओं में सबसे अधिक प्रभावकारी है, परन्तु क्या तुम उन्हें पालतु जानवर की तरह रख सकते हो? संक्षेप में, जब सब वस्तुओं की बात आती है, तो मनुष्य सृष्टिकर्ता के अधिकार के अनुसार अन्तर कर सकता है, दूसरे शब्दों में, सब वस्तुओं के सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किए गए क्रम के अनुसार अन्तर कर सकता है; यह सबसे सही मनोवृत्ति है। सृष्टिकर्ता के मूल अभिप्रायों को खोजने और उसके प्रति आज्ञाकारी होने की एकमात्र मनोवृति ही सृष्टिकर्ता के अधिकार की सच्ची स्वीकार्यता और निश्चितता है। यह परमेश्वर के साथ अच्छा है, तो मनुष्य के पास दोष ढूँढ़ने का कौन सा कारण है?
अतः, सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन सब वस्तुएँ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के लिए सुर में सुर मिलाकर गाती हो, और उसके नए दिन के कार्य के लिए एक बेहतरीन भूमिका का काम करती हैं, और इस समय सृष्टिकर्ता भी अपने कार्य के प्रबन्ध में एक नया पृष्ठ खोलेगा! बसंत ऋतु के अँकुरों, ग्रीष्म ऋतु की परिपक्वता, शरद ऋतु की कटनी, और शीत ऋतु के भण्डारण की व्यवस्था के अनुसार जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किया गया था, सब वस्तुएँ सृष्टिकर्ता की प्रबंधकीय योजना के साथ प्रतिध्वनित होंगे, और वे अपने स्वयं के नए दिन, नई शुरूआत, और नए जीवन पथक्रम का स्वागत करेंगे, और वे सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता के अधीन हर दिन का अभिनन्दन करने के लिए कभी न खत्म होनेवाले अनुक्रम के अनुसार जल्द ही पुनः उत्पन्न करेंगे।…
कोई भी सृजा और अनसृजा प्राणी सृष्टिकर्ता की पहचान को बदल नहीं सकता है
जब से उसने सब वस्तुओं की सृष्टि की शुरूआत की, परमेश्वर की सामर्थ प्रगट होने, और प्रकाशित होने लगी थी, क्योंकि सब वस्तुओं को बनाने के लिए परमेश्वर ने अपने वचनों का इस्तेमाल किया था। इसके बावजूद कि उसने किस रीति से उनको सृजा था, इसके बावजूद कि उसने उन्हें क्यों सृजा था, परमेश्वर के वचनों के कारण हीसभी चीज़ें अस्तित्व में आईं थीं और स्थिर बनी रहीं, और यह सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार है। इस संसार में मानवजाति के प्रगट होने के समय से पहले, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के लिए सब वस्तुओं को बनाने के लिए अपने अधिकार और सामर्थ का इस्तेमाल किया, और मानवजाति के लिए उपयुक्त जीवन्त वातावरण तैयार करने के लिए अपनी अद्वितीय पद्धतियों का उपयोग किया था। जो कुछ भी उसने किया वह मानवजाति की तैयारी के लिए था, जो जल्द ही श्वास प्राप्त करनेवाले थे। दूसरे शब्दों में, मानवजाति की सृष्टि से पहले, सभी जीवधारियों में परमेश्वर का अधिकार प्रकट हुआ जो मानवजाति से अलग था, ऐसी वस्तुओं में जो स्वर्ग, ज्योतियों, समुद्रों, और भूमि के समान ही महान थे, और छोटे से छोटे पशुओं और पक्षियों में, साथ ही हर प्रकार के कीड़े मकौड़ों और सूक्ष्म जीवों में, जिन में विभिन्न प्रकार के जीवाणु भी शामिल थे जो नंगी आँखों से देखे नहीं जा सकते थे। प्रत्येक को सृष्टिकर्ता के वचनों के द्वारा जीवन दिया गया था, हर एक सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण उगने लगे थे, और प्रत्येक सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन जीवन बिताने लगे। यद्यपि उन्होंने सृष्टिकर्ता की श्वास को प्राप्त नहीं किया था, फिर भी वे उस जीवन व चेतना कोदर्शाने लगे थे जो सृष्टिकर्ता द्वारा उन्हें अलग अलग रूपों और आकारों के द्वारा दिया गया था; भले ही उन्हें बोलने की काबिलियत नहीं दी गई थी जैसा सृष्टिकर्ता के द्वारा मनुष्यों को दी गयी थी, फिर भी उन में से प्रत्येक ने अपने जीवन की अभिव्यक्ति का एक अन्दाज़ प्राप्त किया जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया था, और वो मनुष्यों की भाषा से अलग था। सृष्टिकर्ता के अधिकार ने न केवल दृष्टिगोचर भौतिक पदार्थों को जीवन की चेतना दी, जिससे वे कभी भी विलुप्त न हों, बल्कि इसके अतिरिक्त, पुनः उत्पन्न करने और बहुगुणित होने के लिए हर जीवित प्राणियों को अंतःज्ञान दिया, ताकि वे कभी भी विलुप्त न हों, और इसलिए वे पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रहने के सिद्धांतों को आगे बढ़ाते जाएँगे जो सृष्टिकर्ता के द्वारा उन्हें दिया गया था। जिस रीति से सृष्टिकर्ता अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है वह अतिसूक्ष्म और अतिविशाल दृष्टिकोण से कड़ाई से चिपके नहीं रहता, और किसी आकार से सीमित नहीं होता है; वह विश्व के संचालन को अधिकार में रखने के योग्य है, और सभी चीज़ों के जीवन और मृत्यु के ऊपर प्रभुता रखता है, और इसके अतिरिक्त सब वस्तुओं को भली भाँति सँभाल सकता है जिस से परमेश्वर की सेवा कर सकें; वह पर्वतों, नदियों, और झीलों के सब कार्यों का प्रबन्ध कर सकता है, और उनके साथ सब वस्तुओं पर शासन कर सकता है, और इससे बढ़कर क्या, वह सब वस्तुओं के लिए जो आवश्यक है उसे प्रदान कर सकता है। यह मानवजाति के अलावा सब वस्तुओं के मध्य सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार का प्रकटीकरण है। ऐसा प्रकटीकरण मात्र एक जीवनकाल के लिए नहीं है, और यह कभी नहीं रूकेगा, न थमेगा, और किसी व्यक्ति या चीज़ के द्वारा बदला या तहस नहस नहीं किया जा सकता है, और न ही उस में किसी व्यक्ति या चीज़ के द्वारा जोड़ा या घटाया जा सकता है - क्योंकि कोई भी सृष्टिकर्ता की पहचान को बदल नहीं सकता है, और इसलिए सृष्टिकर्ता के अधिकार को किसी सृजे गए प्राणी के द्वारा बदला नहीं जा सकता है, और किसी भी न सृजे गए प्राणी के द्वारा उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के सन्देशवाहकों और स्वर्गदूतों को देखिए। उनके पास परमेश्वर की सामर्थ नहीं है, और सृष्टिकर्ता का अधिकार तो उनके पास बिलकुल भी नहीं है, और उनके पास परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ क्यों नहीं है उसका कारण है क्योंकि उन्होंने सृष्टिकर्ता की हस्ती को धारण नहीं किया है। न सृजे गए प्राणी, जैसे परमेश्वर के सन्देशवाहक और स्वर्गदूत, हालांकि वे परमेश्वर की तरफ से कुछ कर सकते हैं, परन्तु वे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं। यद्यपि वे परमेश्वर की कुछ सामर्थ को धारण किए हुए हैं जिन्हें मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है, फिर भी उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं है, सब वस्तुओं को बनाने, सब वस्तुओं को आज्ञा देने, और सब वस्तुओं के ऊपर सर्वोच्चता रखने के लिए उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं है। और इस प्रकार परमेश्वर की अद्वितीयता को किसी न सृजे गए प्राणी द्वारा बदला नहीं जा सकता है, और उसी प्रकार किसी न सृजे गए प्राणी के द्वारा परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ को बदला नहीं जा सकता है। क्या तुमने बाईबिल में परमेश्वर के किसी सन्देशवाहक के बारे में पढ़ा है जिस ने सभी चीज़ों की सृष्टि की? और परमेश्वर ने सभी चीज़ों के सृजन के लिए किसी संदेशवाहक या स्वर्गदूत को क्यों नहीं भेजा? क्योंकि उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं था, और इस प्रकार उनके पास परमेश्वर के अधिकार का इस्तेमाल करने की योग्यता भी नहीं थी। सभी जीवधारियों के समान, वे सभी सृष्टिकर्ता की प्रभुता के अधीन हैं, और सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन हैं, और इस प्रकार, इसी रीति से, सृष्टिकर्ता उनका परमेश्वर भी है, और उनका शासक भी। उन में से हर एक के बीच में—भले ही वे उच्च श्रेणी के हों या निम्न, बड़ी सामर्थ की हों या छोटी—ऐसा कोई भी नहीं है जो परमेश्वर के अधिकार से बढ़कर हो सके, और इस प्रकार उनके बीच में, ऐसा कोई भी नहीं है जो सृष्टिकर्ता की पहचान को बदल सके। उनको कभी भी परमेश्वर नहीं कहा जाएगा, और वे कभी भी सृष्टिकर्ता नहीं बन पाएँगे। ये न बदलनेवाली सच्चाईयाँ और वास्तविकताएँ हैं!
उपरोक्त सभा के विचार विमर्श के जरिए, क्या हम दृढ़तापूर्वक निम्नलिखित बातों को कह सकते हैं: केवल सब वस्तुओं के सृष्टिकर्ता और शासक, वह जिसके पास अद्वितीय अधिकार और अद्वितीय सामर्थ है, क्या उसे स्वयं अद्वितीय परमेश्वर कहा जा सकता है? इस समय, शायद तुम लोग महसूस करोगे कि ऐसा प्रश्न बहुत ही गंभीर है। तुम सब, कुछ पल के लिए, उसे समझने में असमर्थ हो, और उसके भीतर के सार-तत्व का एहसास नहीं कर सकते हो, और इस प्रकार इस पल तुम लोग एहसास करते हो कि उसका उत्तर देना कठिन है। ऐसी स्थिति में, मैं अपनी सभा के विचार विमर्श को जारी रखूँगा। आगे, मैं तुम लोगों को मंजूरी दूँगा कि तुम सब सिर्फ परमेश्वर के द्वारा धारण किए गए सामर्थ और अधिकार के कई पहलुओं के वास्तविक कार्यों को देखो, और इस प्रकार मैं तुम लोगों को स्वीकृति दूँगा कि तुम सब सचमुच में समझो, प्रशंसा करो और परमेश्वर की अद्वितीयता, और परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार के अर्थ को जानो।
2. परमेश्वर ने मनुष्य के साथ एक वाचा बाँधने के लिए अपने वचनों को उपयोग किया।
(उत्पत्ति 9:11-13) "और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नाश न होंगे। और पृथ्वी के नाश करने के लिए फिर जलप्रलय न होगा।" फिर परमेश्वर ने कहा, "जो वाचा मैं तुम्हारे साथ, और जितने जीवित प्राणी तुम्हारे संग हैं उन सब के साथ भी युग युग की पीढ़ियों के लिए बाँधता हूँ, उसका यह चिन्ह हैः मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है, वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिन्ह होगा।"
जब उसने सभी चीज़ों को बनाया उसके पश्चात्, सृष्टिकर्ता का अधिकार दृढ़ हो गया और एक बार फिर "मेघधनुष की वाचा" में दिखाई दिया
सृष्टिकर्ता का अधिकार हमेशा सभी जीवधारियों पर प्रकट और इस्तेमाल होता है, और वह न केवल सब वस्तुओं की नियति पर शासन करता है, बल्कि मानवजाति पर भी शासन करता है, एक विशेष जीवधारी जिसे उसने स्वयं अपने हाथों से बनाया था, और जिसकी एक अलग जीवन संरचना है और जीवन के एक अलग रूप में अस्तित्व में बना रहता है। सब वस्तुओं को बनाने के बाद, सृष्टिकर्ता अपने अधिकार और सामर्थ को प्रकट करने से नहीं रूका; उसके लिए, वह अधिकार जिस के तहत वह सभी चीज़ों और सम्पूर्ण मानवजाति की नियति के ऊपर संप्रभुता रखता था, वह केवल तब औपचारिक रूप से शुरू हुआ जब मानवजाति ने सच में उसके हाथों से जन्म लिया था। वह मानवजाति का प्रबन्ध, और उन पर शासन करना चाहता था, वह मानवजाति को बचाना चाहता था, मानवजाति को सचमुच में पाना चाहता था, वह ऐसी मानवजाति को पाना चाहता था जो सभी चीज़ों पर राज्य कर सके, और वह ऐसी एक मानवजाति बनाना चाहता था जो उसके अधिकार की आधीनता में रह सके, और उसके अधिकार को जान सके, और उसके अधिकार का पालन कर सके। इस प्रकार, परमेश्वर ने अपने वचनों का इस्तेमाल करके अपने अधिकार को मनुष्य के बीच में अधिकारिक रूप से प्रकट करना प्रारम्भ किया, और अपने वचनों को पूर्ण करने के लिए अपने अधिकार का उपयोग करना प्रारम्भ किया। वास्तव में, इस प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर का अधिकार सभी स्थानों में दिखाई देने लगा; मैं ने बस यूँ ही कुछ विशेष, जाने माने उदाहरणों को लिया है जिस से तुम सब परमेश्वर की अद्वितीयता को समझ और जान सको, और परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार को समझ और जान सको।
उत्पत्ति 9:11-13 के अंश और उपर्युक्त अंशों में परमेश्वर द्वारा संसार की सृष्टि के लेखे के संबंध में एक समानता है, फिर भी उनमें एक अन्तर भी है। समानता क्या है? समानता परमेश्वर के द्वारा इस्तेमाल हुए वचनों में निहित है ताकि वह उन कामों को कर सके जिसकी उसने इच्छा की थी, और अन्तर यह है कि यह अंश मनुष्य के साथ परमेश्वर का वार्तालाप है, जिसमें वह मनुष्य के साथ एक वाचा बाँधता है, और मनुष्य से उसके बारे में कहता है जो वाचा में समाहित है। मनुष्य के साथ हुए उसके संवाद के दौरान परमेश्वर के अधिकार का यह उद्यम पूरा हुआ, कहने का तात्पर्य है कि, मानवजाति की सृष्टि से पहले, परमेश्वर का वचन निर्देश, और आदेश थे, जिन्हें उन जीवधारियों के लिए जारी किया गया था जिन्हें वह बनाना चाहता था। परन्तु अब यहाँ कोई परमेश्वर के वचनों को सुननेवाला था, और इस प्रकार उसके वचन मनुष्यों के साथ एक संवाद, और साथ ही मनुष्य के लिए एक प्रोत्साहन एवं चेतावनी भी थे, और इसके अतिरिक्त सभी चीज़ों को सौंपी गई आज्ञाएँ थीं जिन में उसका अधिकार था।
इस अंश में परमेश्वर की कौन सी गतिविधि दर्ज है? इस में वह वाचा दर्ज है जिसे परमेश्वर ने जल प्रलय से संसार के विनाश के बाद मनुष्य के साथ बाँधा था, यह वाचा मनुष्य को बताती है कि परमेश्वर ऐसी तबाही को फिर से संसार पर नहीं डालेगा, और अंत में, परमेश्वर ने इसके लिए एक चिन्ह ठहराया - और यह चिन्ह क्या था? पवित्र शास्त्र में ऐसा कहा गया है कि "मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिन्ह होगा।" ये सृष्टिकर्ता के द्वारा मनुष्यजाति को बोले गए मूल वचन हैं। जैसे ही उसने इन शब्दों को कहा, एक मेघधनुष मनुष्य की आँखों के सामने प्रगट हो गया, जहाँ वो आज तक मौजूद है। हर किसी ने ऐसे मेघधनुष को देखा है, और जब तुम उसे देखते हो, तो क्या तुम जानते हो कि यह कैसे प्रगट होता है? विज्ञान इसे साबित करने में, या उसके स्रोत को ढूँढ़ने में, या उसके उद्गम स्थान को पहचानने में नाकाम है। यह इसलिए है क्योंकि मेघधनुष उस वाचा का चिन्ह है जो सृष्टिकर्ता और मनुष्य के बीच में बांधी गयी थी; इसके लिए किसी वैज्ञानिक आधार की आवश्यकता नहीं है, यह मनुष्य के द्वारा नहीं बनाया गया था, न ही मनुष्य इसे बदलने में सक्षम है। अपने वचनों को कहने के बाद यह सृष्टिकर्ता के अधिकार की निरन्तरता है। मनुष्य और अपनी प्रतिज्ञा के साथ अपनी वाचा में बने रहने के लिए सृष्टिकर्ता ने अपनी स्वयं की विशिष्ट पद्धति का उपयोग किया, और इस प्रकार उसने वाचा के चिन्ह के रूप में मेघधनुष का उपयोग किया जिसे उसने एक स्वर्गीय आदेश और व्यवस्था ठहराया है जो हमेशा अपरिवर्तनीय बना रहेगा, भले ही वह सृष्टिकर्ता के संबंध में हो या सृजे गए मानवजाति के संबंध में। फिर भी, ऐसा कहना ही होगा, कि यह अपरिवर्तनीय व्यवस्था, सभी चीज़ों की सृष्टि के बाद सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक और सच्चा प्रकटीकरण है, और यह भी कहना होगा कि सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ असीमित है; उसके द्वारा मेघधनुष को एक चिन्ह के रूप में इस्तेमाल करना सृष्टिकर्ता के अधिकार की निरन्तरता और विस्तार है। अपने वचनों को इस्तेमाल करते हुए यह परमेश्वर द्वारा किया गया एक और कार्य था, और अपने वचनों को इस्तेमाल करते हुए परमेश्वर ने मनुष्य के साथ जो वाचा बाँधी थी यह उसका एक चिन्ह था। जो उसने प्रकट करने का दृढ़ निश्चय किया था उसने उसे मनुष्य को बताया, और यह भी कि वह किस रीति से पूर्ण और प्राप्त होगा, और इस तरह से परमेश्वर के मुख के वचनों से वह विषय पूरा हो गया। केवल परमेश्वर के पास ही ऐसी सामर्थ है, और आज इन वचनों के बोले जाने के कई हज़ारों साल बाद भी मनुष्य परमेश्वर के मुख से बोले गए मेघधनुष को देख सकता है। क्योंकि परमेश्वर के द्वारा वे वचन बोले गए थे, यह मेघधनुष बिना किसी बदलाव और परिवर्तन के आज तक ऊपर आकाश में अस्तित्व में बना हुआ है। इस मेघधनुष को कोई भी हटा नहीं सकता है, कोई भी इसके नियमों को बदल नहीं सकता है, और यह सिर्फ परमेश्वर के वचनों के लिए ही अस्तित्व में बना हुआ है। यह बिलकुल सही अर्थ में परमेश्वर का अधिकार है। "परमेश्वर अपने वचन के समान ही भला है, और उसका वचन पूरा होगा, और जो कुछ पूरा हो गया है वह सर्वदा बना रहेगा।" ऐसे वचन यहाँ पर साफ साफ प्रकट किए गए हैं, और परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ का स्पष्ट चिन्ह और गुण हैं। ऐसा चिन्ह और गुण सृजे गए प्राणियों में से किसी के भी पास नहीं हैं और न ही देखे गए हैं, और न ही इसे न-सृजे गए प्राणियों में से किसी के भी पास देखा गया है। यह केवल अद्वितीय परमेश्वर से संबंधित है, और केवल सृष्टिकर्ता के द्वारा धारण किए गए पहचान और हस्ती को अन्य जीवधारियों से पृथक करता है। इसके अलावा परमेश्वर को छोड़, सृजे गए या न सृजे गए प्राणियों में से कोई भी, परमेश्वर के ठहराये चिन्ह से आगे नहीं बढ़ सकता है।
परमेश्वर के द्वारा मनुष्य के साथ वाचा बाँधना एक अति महत्वपूर्ण कार्य था, और एक ऐसा कार्य था जिसका उपयोग वह मनुष्य तक एक सच पहुँचाने और मनुष्य को अपनी इच्छा बताने के लिए करना चाहता था, और आखिर में उसने एक अद्वितीय पद्धति का इस्तेमाल करते हुए, मनुष्य के साथ वाचा बाँधने के लिए एक विशिष्ट चिन्ह का उपयोग किया, जो मनुष्य के साथ बांधी गयी वाचा का एक चिन्ह था। अतः क्या इस वाचा का ठहराया जाना एक बड़ी घटना थी? और वह घटना कितनी बड़ी थी? वास्तव में यही वह बात है जो इस वाचा को विशेष बनाती हैः यह एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच, या एक समूह और दूसरे समूह के बीच, या एक देश और दूसरे देश के बीच ठहराई गई वाचा नहीं है, परन्तु सृष्टिकर्ता और सम्पूर्ण मानवजाति के बीच ठहराई गई वाचा है, और यह तब तक प्रमाणित बनी रहेगी जब तक सृष्टिकर्ता सब वस्तुओं का उन्मूलन न कर दे। इस वाचा का प्रतिपादन करनेवाला सृष्टिकर्ता है, और इसको बनाए रखनेवाला भी सृष्टिकर्ता ही है। संक्षेप में, मानवजाति के साथ ठहराई गई "मेघधनुष की वाचा" की सम्पूर्णता सृष्टिकर्ता और मानवजाति के मध्य हुए संवाद के अनुसार पूर्ण और प्राप्त हुई थी, और आज तक ऊपर आकाश में अस्तित्व में बनी हुई है। सृजे गए जीवधारी समर्पण करने, और आज्ञा मानने, और विश्वास करने, और प्रशंसा करने, और गवाही देने, और सृष्टिकर्ता के अधिकार की स्तुति करने के सिवाए और क्या कर सकते हैं? और कोई नहीं किन्तु अद्वितीय परमेश्वर के पास ही ऐसी वाचा को ठहराने का अधिकार है। मेघधनुष का प्रकटीकरण बार बार मानवजाति के लिए घोषणा करता है और उसके ध्यान को सृष्टिकर्ता और मानवजाति के मध्य बांधी गयी वाचा की ओर खींचता है। सृष्टिकर्ता और मानवजाति के मध्य ठहराई गयी वाचा के निरन्तर प्रकटीकरण में, मेघधनुष या वाचा को प्रगट नहीं किया जाता, वरन सृष्टिकर्ता का अधिकार प्रगट किया जाता है। समय समय पर मेघधनुष का प्रकटीकरण छिपे हुए स्थानों में सृष्टिकर्ता के भयंकर और अद्भुत कार्यों को दर्शाता है, और उसी समय यह सृष्टिकर्ता के अधिकार का अति आवश्यक प्रतिबिम्ब है, और कभी नहीं बदलेगा। क्या यह सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार के एक और पहलू का प्रकटीकरण नहीं है?
3. परमेश्वर की आशीषें
1) (उत्पत्ति 17:4-6) "देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिए तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिए अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँग, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।
2) (उत्पत्ति 18:18-19) अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी। क्योंकि मैं जानता हूँ, कि वह अपने पुत्रों और परिवार को जो उसके पीछे रह जाएँगे आज्ञा देगा कि वे यहोवा के मार्गों में अटल बने रहें, और धर्म और न्याय करते रहें; इसलिए कि जो कुछ यहोवा ने अब्राहम के विषय में कहा है उसे पूरा करें।"
3) (उत्पत्ति 22:16-18 ) ".... कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन अपने एकलौते पुत्र को भी, नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगीः क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।"
4) (अय्यूब 42:12) यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं।
सृष्टिकर्ता के कथनों की अद्वितीय रीति और गुण सृष्टिकर्ता के अधिकार और अद्वितीय पहचान का एक प्रतीक हैं
बहुत से लोग परमेश्वर की आशीषों को ढूँढ़ना, और पाना चाहते हैं, परन्तु हर कोई उसे प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि परमेश्वर के पास उसके स्वयं के सिद्धांत हैं, और वह अपने तरीके से मनुष्यों को आशीष देता है। वे प्रतिज्ञाएँ जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और अनुग्रह की वह मात्रा जो वह मनुष्य को देता है, वे मनुष्यों के विचारों और कार्यों के आधार पर बाँटे जाते हैं। और इस प्रकार परमेश्वर की आशीषों के द्वारा क्या प्रदर्शित होता है? वे हमें क्या बताते हैं? इस बिन्दु पर, इस वादविवाद को दरकिनार करें कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को आशीष देता है, या मनुष्यों को आशीष देने के लिए परमेश्वर के सिद्धांत क्या हैं। उसके बजाए, आईए हम परमेश्वर के अधिकार को जानने के उद्देश्य के साथ, और परमेश्वर के अधिकार को जानने के दृष्टिकोण से मनुष्य के विषय में परमेश्वर की आशीष को देखें।
ऊपर दिए गए पवित्र शास्त्र के सभी चार अंश मनुष्य के विषय में परमेश्वर की आशीष के बारे में लिखित दस्तावेज़ हैं। वे परमेश्वर की आशीषों के प्राप्तकर्ताओं के बारे में, जैसे अब्राहमऔर अय्यूब, साथ ही साथ उन कारणों के बारे में भी विस्तृत विवरण देते हैं कि परमेश्वर क्यों अपनी आशीषों को प्रदान करता है, और इसके विषय में कि इन आशीषों में क्या शामिल था। परमेश्वर के कथनों का अन्दाज़ और ढंग, और वह यथार्थ दृष्टिकोण और स्थिति जिसके तहत उसने कहा, लोगों को उसकी प्रशंसा करने की स्वीकृति देता है जो आशीषों को देता है, और ऐसी आशीषों को पानेवाले बिलकुल ही अलग पहचान, हैसियत और हस्ती के थे। इन बोले गए वचनों का अन्दाज़ और ढंग, और वह स्थिति जिसके तहत वे बोले गए थे, परमेश्वर के लिए अद्वितीय हैं, जो सृष्टिकर्ता की पहचान को धारण किया हुए हैं। उसके पास अधिकार और सामर्थ है, साथ ही साथ सृष्टिकर्ता का सम्मान, और गौरव भी जो किसी मनुष्य के सन्देह को बर्दाश्त नहीं सकता है।
पहले आओ हम उत्पत्ति 17:4-6 को देखें: "देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिए तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिए अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँग, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।" यह वचन वह वाचा थी जो परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधी थी, साथ ही साथ परमेश्वर के द्वारा अब्राहम को आशीष देने की वाचा भी थीः परमेश्वर अब्राहम को जातियों का पिता बनाएगा, और उसे बहुत ही अधिक फलवंत करेगा, और उससे अनेक जातियाँ बनाएगा, और उसके वंश में राजा पैदा होंगे। क्या तुम इन वचनों में परमेश्वर के अधिकार को देखते हो? और ऐसे अधिकार को कैसे देखते हो? तुम परमेश्वर के अधिकार की हस्ती के किस पहलु को देखते हो? इन वचनों को नज़दीक से पढ़ने से, यह पता करना कठिन नहीं है कि परमेश्वर का अधिकार और पहचान परमेश्वर के कथनों में स्पष्टता से प्रकाशित है। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर ने कहा "देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिए तू.... मैं ने तुझे ठहरा दिया .... मैं तुझे बनाऊँगा" जैसे वाक्यांश "इसलिए तू" और "मैं करूँगा," जिसके वचन परमेश्वर की पहचान और अधिकार के दृढ़ निश्चय को लिए हुए हैं, और एक मायने में, सृष्टिकर्ता की विश्वासयोग्यता का संकेत है; दूसरे मायने में, वे परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए गए विशिष्ट वचन हैं, जिनमें सृष्टिकर्ता की पहचान है—साथ ही साथ रूढ़िगत शब्दावली का एक भाग भी है। यदि कोई कहता है कि वे आशा करते हैं कि एक फलाना व्यक्ति बहुतायत से फलवंत होगा, और उससे जातियाँ उत्पन्न होंगी, और उसके वंश में राजा पैदा होंगे, तब निःसन्देह यह एक प्रकार की अभिलाषा है, और यह आशीष की प्रतिज्ञा नहीं है। और इस प्रकार, यह कहने की लोगों की हिम्मत नहीं होगी, "कि मैं तुम्हें ऐसा बनाऊँगा, और तुम ऐसे हो ...," क्योंकि वे जानते हैं कि उनके पास ऐसी सामर्थ नहीं है; यह उनके ऊपर निर्भर नहीं है, और भले ही वे ऐसी बातें कहें, उनके शब्द खोखले और बेतुके होंगे, जो उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के द्वारा उकसाए गए होंगे। यदि वे महसूस करें कि वे अपनी अभिलाषाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं तो क्या किसी में हिम्मत है कि ऐसे विशाल अन्दाज़ में बात करे? हर कोई अपने वंशों के लिए अभिलाषा करता है, और यह आशा करता है कि वे दूसरों से आगे बढ़ जाएँगे और बड़ी सफलता का आनंद उठाएँगे। उन में से कोई महाराजा बन जाए तो उसके लिए क्या ही सौभाग्य की बात होगी! यदि कोई एक हाकिम बन जाए तो अच्छा होगा, वह भी - जब तक वे एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। यह सब मनुष्य की अभिलाषाएँ हैं, परन्तु लोग केवल अपने वंशों के ऊपर आशीषों की अभिलाषा कर सकते हैं, और किसी भी प्रतिज्ञा को पूर्ण और सच्चा साबित नहीं कर सकते हैं। अपने हृदयों में, हर कोई जानता है कि उसके पास ऐसी चीज़ों को प्राप्त करने के लिए सामर्थ नहीं है, क्योंकि उनका सब कुछ उनके नियन्त्रण से बाहर है, और इस प्रकार वे कैसे दूसरों की तक़दीर का फैसला कर सकते हैं? परमेश्वर क्यों ऐसे वचनों को कह सकता है उसका कारण यह है क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है, और सभी प्रतिज्ञाएँ जो उसने मनुष्य से की हैं वह उन्हें पूर्ण और साकार करने, और सारी आशीषें जिन्हें वह मनुष्य को देता है उन्हें उन तक पहुँचाने में सक्षम है। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा सृजा गया था, और किसी को बहुतायत से फलवंत करना परमेश्वर के लिए बच्चों का खेल है; किसी के वंश को समृद्ध करने के लिए सिर्फ उसके एक वचन की आवश्यकता होगी। उसे अपने लिए ऐसे कार्य करने हेतु पसीना बहाने, या अपने मस्तिष्क की माथापच्ची करने या उसके साथ अपने आप को गठानों में बाँधने की कभी आवश्यकता नहीं होगी; यह परमेश्वर की ही सामर्थ, और परमेश्वर का ही अधिकार है।
उत्पत्ति 18:18 में "अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी" इसे पढ़ने के बाद, क्या तुम लोग परमेश्वर के अधिकार को महसूस सकते हो। क्या तुम सब सृष्टिकर्ता की असाधारणता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम सब सृष्टिकर्ता की सर्वोच्चता का एहसास कर सकते हो? परमेश्वर के वचन निश्चित हो। परमेश्वर सफलता में अपने आत्मविश्वास के कारण, या सफलता के प्रदर्शन के लिए इन वचनों को नहीं कहता है; इसके बजाए, वे परमेश्वर के कथनों के अधिकार के प्रमाण हैं, और एक आज्ञा है जो परमेश्वर के वचन को पूरा करते हैं। यहाँ पर दो प्रकटीकरण हैं जिन के ऊपर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। जब परमेश्वर ने कहा, "अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी" तो क्या इन वचनों में अनिश्चितता का कोई तत्व है? क्या चिंता की कोई बात है? क्या इस में भय की कोई बात है? परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों में "निश्चय होगा" और "होगा" जैसे शब्दों के कारण, इन तत्वों ने, जो मनुष्यों के लिए विशिष्ट हैं और अक्सर उन में प्रदर्शित होते हैं, सृष्टिकर्ता से कभी कोई रिश्ता नहीं बनाया है। किसी के पास यह हिम्मत नहीं होगी कि किसी को शुभकामना देते समय इन शब्दों का इस्तेमाल करे, किसी के पास यह हिम्मत नहीं होगी कि ऐसी निश्चितता के साथ किसी दूसरे को एक महान और सामर्थी जाति बनने की आशीष दे, या प्रतिज्ञा करे कि पृथ्वी की सारी जातियाँ उस में आशीष पाएँगी। परमेश्वर के वचन जितने अधिक निश्चित होंगे, उतने ही अधिक वे किसी चीज़ को साबित करेंगे - और वह कोई चीज़ क्या है? वे साबित करेंगे कि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है, कि उसका अधिकार इन चीज़ों को पूरा कर सकता है, और उनका पूरा होना अनिवार्य है। परमेश्वर अपने हृदय में निश्चित था, उसे किसी बात का कोई संकोच या संन्देह नहीं था, उन सब बातों के विषय में भी जिन के द्वारा उसने अब्राहम को आशीष दी थी। इसके आगे, इसकी सम्पूर्णता उसके वचन के अनुसार पूरी हो जाएगी, और कोई भी ताकत उसकी पूर्णता को बदलने, बाधित करने, चोट पहुँचाने, या परेशान करने में सक्षम नहीं होगा। जो हुआ उसके बावजूद, परमेश्वर के वचनों की पूर्णता और उपलब्धि को कोई भी रद्द नहीं कर सकता है। यह सृष्टिकर्ता के मुँह से बोले गए वचनों की सामर्थ है, और सृष्टिकर्ता का अधिकार ही है जो मनुष्य के इन्कार को सह नहीं सकता है! इन शब्दों का पढ़ने के बाद, क्या तुम अभी भी सन्देह महसूस करते हो? इन वचनों को परमेश्वर के मुँह से कहा गया था, और परमेश्वर के वचनों में सामर्थ, प्रताप, और अधिकार है। ऐसी शक्ति और अधिकार को, और प्रमाणित तथ्यों की पूर्णता की अनिवार्यता को, किसी भी सृजे गए प्राणी और न सृजे गए प्राणी द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है, और न ही कोई सृजा प्राणी और न अनसृजा प्राणी उससे बढ़कर उत्कृष्ट हो सकता है। केवल सृष्टिकर्ता ही मानवजाति के साथ ऐसे अन्दाज़ और ऊँची और नीची आवाज़ में बात कर सकता है, और प्रमाणित तथ्यों ने साबित किया है कि उसकी प्रतिज्ञाएँ खोखले शब्द, या बेकार की घमण्ड की बातें नहीं हैं, परन्तु अद्वितीय अधिकार का प्रदर्शन हैं जिस से कोई व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ बढ़कर नहीं हो सकता है।
परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और मनुष्य द्वारा बोले गए वचनों में क्या अन्तर है? जब तुम परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों को पढ़ते हो, तुम परमेश्वर के वचनों की शक्ति, और परमेश्वर के वचनों के अधिकार का एहसास करते हो। जब तुम लोगों को ऐसी बातें करते सुनते हो तो तुम को कैसा लगता है? क्या तुम्हें महसूस होता है कि वे बहुत अधिक अभिमानी, या घमण्ड से भरे हुए हैं, और खुद का दिखावा करते हैं? क्योंकि उनके पास ऐसी सामर्थ नहीं है, उनके पास ऐसा अधिकार भी नहीं है, और इस प्रकार वे ऐसी चीज़ों को प्राप्त करने में पूरी तरह असमर्थ हैं। भले ही वे अपनी प्रतिज्ञाओं के प्रति इतने निश्चित हैं परन्तु उनकी टिप्पणियाँ केवल लापरवाही को दर्शाती हैं। यदि कोई ऐसे शब्दों को कहता है, तो वे निःसन्देह अभिमानी, और अति आत्मविश्वासी होंगे, और अपने आप को प्रधान स्वर्गदूत के स्वभाव के अति उत्तम उदाहरण के रूप में प्रकट कर रहे होंगे। ये वचन परमेश्वर के मुँह से आए हैं; क्या तुम इन में अभिमान की कोई बात पाते हो? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन बस एक मज़ाक हैं? परमेश्वर के वचन अधिकार हैं, परमेश्वर के वचन प्रमाणित सत्य हैं, और उसके मुँह से वचन के निकलने से पहले ही, दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर कुछ करने का निर्णय लेता है, तब ही उस चीज़ को पहले से ही पूरा करा जा चुका होता है। ऐसा कहा जा सकता है कि जो कुछ परमेश्वर ने अब्राहम से कहा था वह एक वाचा थी जिसे परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधा था, और परमेश्वर के द्वारा अब्राहम से की गई प्रतिज्ञा थी। यह प्रतिज्ञा एक दृढ़ सच्चाई थी, साथ ही एक पूर्ण सच्चाई, और इन सच्चाईयों को परमेश्वर की योजना के अनुसार, परमेश्वर के विचारों में धीरे धीरे पूरा किया गया। अतः, परमेश्वर द्वारा ऐसी बातों को कहने का यह मतलब नहीं है कि उसके पास एक अभिमानी स्वभाव है, क्योंकि परमेश्वर ऐसी चीज़ों को पूरा करने में सक्षम है। उसके पास ऐसी सामर्थ और अधिकार है, और ऐसे कार्यों को पूरा करने में पूर्णतया सक्षम है, और उनका पूर्ण होना पूरी तरह उसकी योग्यता के दायरे में हैं। जब परमेश्वर के मुख से ऐसे वचन बोले जाते हैं, तो वे परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का प्रकाशन एवं प्रकटीकरण होते हैं, वे परमेश्वर की हस्ती एवं अधिकार का एक पूर्ण प्रकाशन एवं प्रदर्शन होते हैं, और ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर की पहचान के प्रमाण के रूप में कहीं अधिक सही और उचित होता है। बोले गए ऐसे कथनों की रीति, अन्दाज़, और शब्द सृष्टिकर्ता की पहचान के बिलकुल उचित चिन्ह हैं, और परमेश्वर की खुद की पहचान के प्रकटीकरण से पूरी तरह से मेल खाते हैं, और उसमें कोई झूठा दिखावा, या अशुद्धता नहीं है; वे पूरी और सम्पूर्ण रीति से सृष्टिकर्ता के अधिकार और हस्ती का पूर्ण प्रदर्शन हैं। जहाँ तक जीवधारियों की बात है, उनके पास न तो यह अधिकार है, और न ही यह हस्ती, और परमेश्वर के द्वारा दिए गए अधिकार तो उनके पास बिलकुल भी नहीं हैं। यदि मनुष्य ऐसे व्यवहार से धोखा देता है, तो यह निश्चित रूप से उसके दूषित स्वभाव का घमण्ड है, और यह मनुष्य के अभिमान और अनियन्त्रित महत्वकांक्षाओं का निम्न स्तर का प्रभाव होगा, तथा किसी और का नहीं बल्कि दुष्ट आत्मा की नीच इच्छाओं का खुला प्रदर्शन होगा, अर्थात् शैतान का जो लोगों को धोखा देना चाहता है, और परमेश्वर को धोखा देने के लिए लोगों को बहकाना चाहता है। और परमेश्वर उस पर कैसे ध्यान देगा जिसे ऐसी भाषा के द्वारा प्रकट किया गया है? परमेश्वर कहेगा कि तुम अन्याय से उसका स्थान पाना चाहते हो और यह कि तुम उसका रूप धारण करना और उसे उसके स्थान से हटाना चाहते हो। जब तुम परमेश्वर के बोले गए वचनों के अन्दाज़ का अनुकरण करते हो, तो तुम्हारा इरादा होता है कि लोगों के हृदयों से परमेश्वर के स्थान को हटा दें, और मानवजाति के जीवन के उस स्थान पर अवैध कब्ज़ा कर लें जो सचमुच में परमेश्वर का है। सीधे और सरल रूप में, यह शैतान है; यह प्रधान स्वर्गदूत के वंशों के कार्य हैं; जो स्वर्ग के लिए असहनीय है! तुम लोगों के बीच में, क्या कोई है जिसने कभी लोगों को गुमराह करने और धोखा देने के इरादे से, किसी निश्चित तरीके से, कुछ वचनों को कहने के द्वारा परमेश्वर का अनुकरण किया हो, और उन्हें यह एहसास दिलाया हो मानो इस व्यक्ति के वचनों और कार्यों में परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ था, मानो इस व्यक्ति की हस्ती एवं पहचान अद्वितीय थे, और यहाँ तक कि मानो इस व्यक्ति के बोलने का अन्दाज़ भी परमेश्वर के समान था? क्या तुम सबने कभी इसके समान कुछ किया है? क्या तुम लोगों ने कभी अपने सन्देशों में परमेश्वर के अन्दाज़ का अनुकरण किया है, ऐसी भाव भंगिमाओं और उस अनुमानित शक्ति और अधिकार के साथ जो परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं? क्या तुम लोगों में से अधिकतर अक्सर इस तरह से अभिनय करते हैं, या अभिनय करने की योजना बनाते हैं? अब, जब तुम लोग सचमुच में सृष्टिकर्ता के अधिकार को देखते, एहसास करते और जानते हो, और पीछे मुड़कर देखते हो कि तुम लोग क्या किया करते थे, और अपने आपको प्रकट किया करते थे, तो क्या तुम लोग शर्मिन्दी महसूस करते हो? क्या तुम सब अपनी नीचता और निर्लज्जता का एहसास करते हो? ऐसे लोगों के स्वभाव और हस्ती को टुकड़े टुकड़े करने के बाद, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि वे नरक के शापित मनुष्य की सन्ताने हैं। क्या ऐसा कहा जा सकता है कि हर कोई जो ऐसा करता है वह अपने ऊपर लज्जा लेकर आता है? क्या तुम सब इस प्रवृति की गम्भीरता को पहचानते हो? और यह कितना गम्भीर है? जो इस प्रकार कार्य करते उन लोगों का इरादा परमेश्वर का अनुकरण करना होता है। वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, और लागों से परमेश्वर के रूप में अपनी आराधना करवाना चाहते हैं। वे लागों के हृदयों से परमेश्वर के स्थान को हटा देना चाहते हैं, और ऐसे परमेश्वर से छुटकारा पाना चाहते हैं जो मनुष्य के बीच में कार्य करता है, ताकि लोगों को नियन्त्रित करने, लोगों को निगलने, और उनकी सम्पत्ति को हड़पने के मकसद को पूरा कर सकें। हर किसी के पास ऐसी अर्द्धसचेत इच्छा और महत्वाकांक्षा होती है, और हर कोई ऐसे दूषित शैतानी हस्ती में जीवन बिताता है और ऐसे शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता है जिसमें वे परमेश्वर के शत्रु होते हैं, और परमेश्वर को धोखा देते हैं, और परमेश्वर बनना चाहते हैं। परमेश्वर के अधिकार के शीषर्क के ऊपर मेरे सभा के विचार विमर्श का अनुसरण करते हुए, क्या तुम लोग अभी भी परमेश्वर का रूप धारण करने की इच्छा और आकांक्षा करते हो, या परमेश्वर की नकल करना चाहते हो? और क्या तुम लोग अभी भी ईश्वर होने की इच्छा रखते हो? क्या तुम सब अभी भी परमेश्वर बनना चाहते हो? मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अधिकार की नकल नहीं की जा सकती है, और मनुष्य के द्वारा परमेश्वर की पहचान और हैसियत का रूप धारण नहीं किया जा सकता है। यद्यपि तुम परमेश्वर के बोलने के अन्दाज़ की नकल करने में सक्षम हो, किन्तु तुम परमेश्वर की हस्ती की नकल नहीं कर सकते हो। हालांकि तुम परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने और उसका भेष बदलने में सक्षम हो, किन्तु तुम कभी वह सब कुछ नहीं कर पाओगे जो परमेश्वर करने की इच्छा करता है, और कभी सभी चीज़ों पर शासन नहीं कर पाओगे और न ही उनको आज्ञा दे पाओगे। परमेश्वर की नज़रों में, तुम हमेशा एक छोटे से जीव बने रहोगे, और इसके बावजूद कि तुम्हारी कुशलताएँ और योग्ताएँ कितनी महान हों, इसके बावजूद कि तुम्हारे पास कितने सारे वरदान हों, तुम सम्पूर्ण रूप से सृष्टिकर्ता के शासन के अधीन हो। यद्यपि तुम कुछ प्रभावकारी शब्द बोलने में सक्षम हो, इससे न तो यह दिखाई देता है कि तुम्हारे पास सृष्टिकर्ता की हस्ती है, और न ही यह प्रदर्शित करता है कि तुम्हारे पास सृष्टिकर्ता का अधिकार है। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ स्वयं परमेश्वर की हस्ती है। उन्हें सीखा, या बाहर से जोड़ा नहीं गया था, किन्तु वे स्वयं परमेश्वर की हस्ती के स्वाभाविक मुख्य भाग हैं। इस प्रकार सृष्टिकर्ता और जीवधारियों के मध्य संबंध को कभी भी पलटा नहीं जा सकता है। जीवधारियों में से एक होने के कारण, मनुष्य को स्वयं अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा, और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा, और जो उसे सृष्टिकर्ता के द्वारा सौंपा गया है कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करना होगा। एक मनुष्य को लीक से हटकर, या उसकी क्षमता के दायरे से बाहर होकर काम नहीं करना चाहिए, या ऐसी चीज़ों को नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर के लिए घृणित हैं। मनुष्य को महान, या अद्भुत, या दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करनी चाहिए। इसीलिए लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान और अद्भुत बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है, और यह नीचता है। जो काम तारीफ के काबिल है, और जिसे किसी भी चीज़ से ज्यादा प्राणियों को थामे रहना चाहिए, वह है एक अच्छा जीवधारी बनना; यह ही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए।
सृष्टिकर्ता के अधिकार को समय, स्थान, या भूगोल द्वारा विवश नहीं किया जा सकता है, और न ही उसके अधिकारों का मूल्यांकन किया जा सकता है
आओ हम उत्पत्ति 22:17-18 को देखें। यह यहोवा परमेश्वर के द्वारा बोला गया एक और अंश है, जिसमें उसने अब्राहम से कहा, "इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के बालू के समान अनगिनत करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा। और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगीः क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।" यहोवा परमेश्वर ने अब्राहम को कई बार आशीष दी कि उसके वंश के लोग बहुगुणित होंगे - और किस सीमा तक बहुगुणित होंगे? उस सीमा तक जितना पवित्र शास्त्र में लिखा हैः "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के बालू के समान।" कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर अब्राहम को आकाश के तारों के समान अनगिनित, और समुद्र के तीर के रेत के किनकों के समान ढेर सारा वंश देना चाहता था। परमेश्वर ने कल्पना का इस्तेमाल करते हुए कहा था, और इस कल्पना से यह देखना कठिन नहीं है कि परमेश्वर अब्राहम को मात्र एक, दो, या हज़ार वंश नहीं देगा, किन्तु गणना से बाहर, इतना कि वे जातियों का एक समूह बन जाएँगे, क्योंकि परमेश्वर ने अब्राहम से प्रतिज्ञा की थी कि वो बहुत सी जातियों का पिता होगा। और, क्या उस संख्या का निर्धारण मनुष्य द्वारा किया गया था, या परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया गया था? एक मनुष्य के पास जितने वंश होते हैं क्या वह उनको नियन्त्रित कर सकता है? क्या यह उसके बस की बात है? यह मनुष्य के बस की बात भी नहीं है कि वह इस बात का निर्धारण कर सके कि उसके पास अनेक वंश होंगे या उसका अकेले का वंश ही "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के किनकों के समान" होंगे। कौन अपनी संतानों के लिए ऐसी इच्छा न करेगा कि वे तारों के समान अनगिनित हो जाएँ? दुर्भाग्यवश, चीज़ें वैसी घटित नहीं होती हैं जैसा तुम चाहते हो। मनुष्य के कुशल और योग्य होने के बावजूद भी, यह उसके बस की बात नहीं है; कोई भी उस सीमा से बाहर खड़ा नहीं हो सकता है जिसे परमेश्वर द्वारा ठहरा दिया गया है। जितना वह तुम्हें अनुमति देता है, उतना ही तुम्हारे पास होगाः यदि परमेश्वर तुम्हें थोड़ा देता है, तब तुम्हारे पास कभी भी बहुत ज़्यादा नहीं होगा, और यदि परमेश्वर तुम्हें बहुत ज़्यादा देता है, तो इस में तुम्हें बुरा नहीं मानना चाहिए कि तुम्हारे पास कितना है। क्या ऐसा ही नहीं है? यह सब कुछ परमेश्वर के ऊपर है, मनुष्य के ऊपर नहीं! मनुष्य के ऊपर परमेश्वर द्वारा शासन किया जाता है, और कोई बच नहीं सकता है।
जब परमेश्वर ने कहा, "मैं तेरे वंश को....अनगिनित करूँगा," तो यह वह वाचा थी जिसे परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधी थी, और "मेघधनुष की वाचा" के समान, इसे अनंतकाल के लिए पूरा किया जाएगा, और यह परमेश्वर द्वारा अब्राहम को दी गई प्रतिज्ञा थी। केवल परमेश्वर ही ऐसी प्रतिज्ञा को पूरा करने में योग्य और सक्षम है। इसके बावजूद कि मनुष्य इस पर विश्वास करता है या नहीं, इसके बावजूद कि मनुष्य इसे स्वीकार करता है या नहीं, और इसके बावजूद कि मनुष्य इसे किस नज़रिए से देखता है, और इसे कितना महत्व देता है, यह सब कुछ परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों के अनुसार शब्दशः पूरा हो जाएगा। मनुष्य की इच्छा और विचारधारा में हुए परिवर्तन के कारण परमेश्वर के वचनों को बदला नहीं जाएगा, और न ही किसी व्यक्ति, और किसी वस्तु या तत्व में हुए बदलाव के द्वारा इसे पलटा जाएगा। सभी चीज़ें विलुप्त हो सकती हैं, परन्तु परमेश्वर के वचन सर्वदा बने रहेंगे। इसके विपरीत, जिस दिन सभी चीज़ें विलुप्त हो जाएँगी यह बिलकुल वही दिन होगा जब परमेश्वर के वचन सम्पूर्ण रीति से पूरे हो जाएँगे, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है, और उसके पास सृष्टिकर्ता का अधिकार है, और सृष्टिकर्ता की सामर्थ है, और वह सब वस्तुओं और सम्पूर्ण जीवन शक्ति को नियन्त्रित करता है; वह शून्य से कुछ भी बना सकता है, या कुछ भी को शून्य बना सकता है, और वह जीवितों से लेकर मुर्दों तक सभी चीज़ों के रूपान्तरण को नियन्त्रित करता है, और इस प्रकार परमेश्वर के लिए, किसी व्यक्ति के वंश को बहुगुणित करने से अधिक आसान कुछ भी नहीं हो सकता है। यह मनुष्य को परियों की कहानी के समान बहुत बढ़िया सुनाई देता है, परन्तु जब परमेश्वर किसी कार्य को करने का निर्णय ले लेता है, और उसे करने की प्रतिज्ञा करता है, तो यह काल्पनिक नहीं है और न ही परियों की कहानी है। उसके बजाए यह एक सच्चाई है जिसे परमेश्वर ने पहले से ही देख लिया है, और वह निश्चय घटित होगा। क्या तुम लोग इसकी तारीफ करते हो? क्या ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि अब्राहम के वंश अनगिनित थे? और कितने अनगिनित? "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के बालू के समान" इतने अनगिनित जितना परमेश्वर के द्वारा कहा गया था? क्या वे सब जातियों और प्रदेशों में, या संसार में हर जगह फैल गए थे? और इस तथ्य को किसने पूरा किया था? क्या यह परमेश्वर के वचनों के अधिकार के द्वारा पूरा किया गया था? परमेश्वर के वचनों को कहने के बाद, सैकड़ों और हज़ारों सालों से परमेश्वर के वचन लगातार पूरे होते गए, और निरन्तर प्रमाणित तथ्य बन रहे हैं; यह परमेश्वर के वचनों की शक्ति, और परमेश्वर के अधिकार की पहचान है। जब परमेश्वर ने आदि में सब वस्तुओं की सृष्टि की, परमेश्वर ने कहा उजियाला हो, और उजियाला हो गया। यह बहुत जल्द ही हो गया, और बहुत कम समय में ही पूरा हो गया, और उसकी प्राप्ति और सम्पूर्णता में कोई देरी नहीं हुई थी; परमेश्वर के वचन के प्रभाव त्वरित थे। दोनों ही परमेश्वर के अधिकार का प्रदर्शन थे, परन्तु जब परमेश्वर ने अब्राहम को आशीष दी, तो उसने मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार की हस्ती के दूसरे पहलू को देखने की मंजूरी दी, और उसने मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार की बहुमूल्यता को देखने की अनुमति दी, और इसके अतिरिक्त, मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक अधिक वास्तविक, अति उत्तम पहलू देखने का अवसर प्रदान किया।
जब एक बार परमेश्वर के वचन बोल दिए जाते हैं, परमेश्वर का अधिकार इस कार्य की कमान अपने हाथ में ले लेता है, और वह तथ्य जिसकी प्रतिज्ञा परमेश्वर के मुँह के द्वारा की गई थी धीर धीरे वास्तविक बनना प्रारम्भ हो जाता है। परिणामस्वरूप सभी चीज़ों में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है, जैसे बसंत के आगमन पर घास हरी हो जाती है, फूल खिलने लग जाते हैं, पेड़ों में कोपलें फूटने लग जाती हैं, पक्षी गाना शुरू कर देते हैं, कालहँस लौट आते हैं, मैदान लोगों से भर जाता है....। बसंत के आगमन के साथ ही सभी चीज़ें नई हो जाती हैं, और यह सृष्टिकर्ता का आश्चर्यकर्म है। जब परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करता है, स्वर्ग और पृथ्वी में सब वस्तुएँ परमेश्वर के वचन के अनुसार नई हो जाती हैं और बदल जाते हैं - कोई भी इससे अछूता नहीं रहता है। जब परमेश्वर के मुँह से समर्पण और प्रतिज्ञा के वचनों को बोल दिया जाता है, सभी चीज़ें उसे पूरा करने के लिए कार्य करती हैं, और उसकी पूर्णता के लिए कुशलता से कार्य करते हैं, और सभी जीवधारियों को सृष्टिकर्ता के शासन के अधीन सावधानी से प्रदर्शित और क्रमागत किया जाता है, और वे अपनी अपनी भूमिकाओं को निभाते हैं, और अपने अपने कार्य को करते हैं। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार का प्रकटीकरण है। तुम इस में क्या देखते हो? तुम परमेश्वर के अधिकार को कैसे जानोगे? क्या परमेश्वर के अधिकार का एक दायरा है? क्या कोई समय सीमा है? क्या इसे एक निश्चित ऊँचाई, या एक निश्चित लम्बाई तक कहा जा सकता है? क्या इसे किसी निश्चित आकार या बल के तहत कहा जा सकता है? क्या इसे मनुष्य के आयामों के द्वारा नापा जा सकता है? परमेश्वर का अधिकार रूक रूककर जगमगाता नहीं है, आता जाता नहीं, और कोई नहीं है जो यह नाप सके कि उसका अधिकार कितना महान है। इसके बावजूद कि कितना समय बीत चुका है, जब परमेश्वर एक मनुष्य को आशीष देता है, तो यह आशीष बनी रहेगी, और इसकी निरन्तरता परमेश्वर के अधिकार की बहुमूल्यता की गवाही को धारण किए हुए है, और मानवजाति को परमेश्वर के पुनः प्रकट होने वाले और कभी न बुझनेवाली जीवन शक्ति को बार बार देखने की अनुमति देगी। उसके अधिकार का प्रत्येक प्रकटीकरण उसके मुँह के वचनों का पूर्ण प्रदर्शन है, और इसे सब वस्तुओं और मानवजाति के सामने प्रदर्शित किया गया है। इससे अधिक क्या, उसके अधिकार के द्वारा प्राप्त सब कुछ तुलना से परे उत्कृष्ट है, और उस में कुछ भी दोष नहीं है। दूसरे शब्दों में उसके विचार, उसके वचन, उसका अधिकार, और सभी कार्य जो उसने पूरा किया है वे अतुल्य रूप से एक सुन्दर तस्वीर हैं, जहाँ तक जीवधारियों की बात है, वह मानवजाति की भाषा उसके महत्व और मूल्य के स्पष्ट उच्चारण में असमर्थ है। जब परमेश्वर एक व्यक्ति से प्रतिज्ञा करता है, तो चाहे वे जहाँ भी रहते हों, या जो भी करते हों, प्रतिज्ञा को प्राप्त करने के पहले या उसके बाद की उनकी पृष्ठभूमि, या उनके रहने के वातावरण में चाहे जितने बड़े उतार चढ़ाव आए हों - यह सब कुछ परमेश्वर के लिए उतने ही चिरपरिचित हैं जितना उसके हाथ का पिछला भाग। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर के वचनों को कहने के बाद कितना ही समय क्यों न बीत गया हो, उसके लिए यह ऐसा है मानो उन्हें अभी अभी बोला गया है। दूसरे शब्दों में परमेश्वर के पास सामर्थ है और उसके पास ऐसा अधिकार है, जिससे वह हर एक प्रतिज्ञा की जो वह मानवजाति के साथ करता है, लगातार सुधि ले सकता है, नियन्त्रण कर सकता है और उनका एहसास कर सकता है, इसके बावजूद कि प्रतिज्ञा क्या है, इसके बावजूद कि इसे सम्पूर्ण रीति से पूरा होने में कितना लम्बा समय लगता है, और, इसके अतिरिक्त, इसके बावजूद कि उसका दायरा कितना व्यापक है जिस पर उसकी परिपूर्णता असर डालती है - उदाहरण के लिए, समय, भूगोल, जाति, इत्यादि - इस प्रतिज्ञा को पूरा किया जाएगा, और इसका एहसास किया जाएगा, और, इसके आगे, उसके पूर्ण होने या एहसास करने में उसे ज़रा सी भी कोशिश करने की आवश्यकता नहीं होगी। इससे क्या साबित होता है? यह कि परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की व्यापकता सम्पूर्ण विश्व, और सम्पूर्ण मानवजाति को नियन्त्रित करने के लिए काफी है। परमेश्वर ने उजियाले को बनाया, इसका मतलब यह नहीं कि वह केवल उजियाले का ही प्रबन्ध करता है, या यह कि वह केवल जल का ही प्रबन्ध करता है क्योंकि उसने जल को सृजा, और बाकी सब कुछ परमेश्वर से संबंधित नहीं है। क्या यह ग़लतफहमी नहीं है? यद्यपि सैकड़ों सालों बाद अब्राहम के लिए परमेश्वर की आशीषें धीरे धीरे मनुष्य की यादों में धूमिल हो चुकी थीं, फिर भी परमेश्वर के लिए वह प्रतिज्ञा जस की तस बनी रही। यह तब भी पूरा होने की प्रक्रिया में था, और कभी रूका नहीं था। मनुष्य ने न तो कभी जाना और न सुना कि परमेश्वर ने किस प्रकार अपने अधिकार का इस्तेमाल किया था, और किस प्रकार सभी चीज़ों को प्रदर्शित और क्रमागत किया था, और इस समय के दौरान परमेश्वर द्वारा सब वस्तुओं की सृष्टि के बीच कितनी ढेर सारी कहानियाँ घटित हुईं थीं, किन्तु परमेश्वर के अधिकार के प्रकटीकरण और उसके कार्यों के प्रकाशन के प्रत्येक बेहतरीन अंश को सभी चीज़ों तक पहुँचाया गया और उनके बीच महिमावान्वित किया गया था, सब वस्तुएँ सृष्टिकर्ता के अद्भुत कार्यों को दिखाते और उनके बारे में बात करते थे, और सभी चीज़ों के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की प्रत्येक लोकप्रिय कहानी को सभी चीज़ों के द्वारा सर्वदा घोषित किया जाएगा। वह अधिकार जिस के तहत परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है, और परमेश्वर की सामर्थ, सभी चीज़ें को दिखाते हैं कि परमेश्वर सभी समयों में हर जगह उपस्थित है। जब तुम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की सर्वउपस्थिति के साक्षी बन जाते हो, तो तुम देखोगे कि परमेश्वर सभी समयों में हर जगह उपस्थित है। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ समय, भूगोल, स्थान, या किसी व्यक्ति, तत्व या वस्तु की विवशता से अलग है। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की व्यापकता मनुष्य की कल्पनाओं से श्रेष्ठ हैः यह मनुष्य के लिए अथाह है, मनुष्य के लिए अकल्पनीय है, और इसे कभी भी मनुष्य के द्वारा पूरी तरह जाना नहीं जा सकता है।
कुछ लोग अनुमान लगाना और कल्पना करना चाहते हैं, परन्तु एक मनुष्य की कल्पनाएँ कहाँ तक पहुँच सकती हैं? क्या वह इस संसार के परे जा सकती हैं? क्या मनुष्य परमेश्वर के अधिकार की प्रमाणिकता और सटीकता का अनुमान लगाने और कल्पना करने में सक्षम है? क्या मनुष्य के अनुमान और कल्पना उसे परमेश्वर के अधिकार के ज्ञान को प्राप्त करने की अनुमति दे सकते हैं? क्या वे मनुष्य से परमेश्वर के अधिकार की सचमुच में तारीफ और उसके प्रति समर्पण करवा सकते हैं? तथ्य इस बात को साबित करते हैं कि मनुष्य के अनुमान और कल्पना मात्र मनुष्य की बुद्धिमत्ता का फल है, और मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार को जानने में ज़रा सी भी मदद या लाभ नहीं पहुँचाते हैं। विज्ञान की कल्पनाओं को पढ़ने के बाद, कुछ लोग चन्द्रमा, और तारे किस प्रकार दिखते हैं उसकी कल्पना कर सकते हैं। फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्य के पास परमेश्वर के अधिकार की कोई समझ है। मनुष्य की कल्पना बस ऐसी ही हैः कोरी कल्पना। इन वस्तुओं के तथ्यों के विषय में, दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के अधिकार से उनके संबंध के विषय में, उसके पास बिलकुल भी समझ़ नहीं है। अतः क्या हुआ यदि तुम चन्द्रमा में गए हो? क्या इससे यह साबित हो जाता है कि तुम्हारे पास परमेश्वर के अधिकार की बहुआयामी समझ है? क्या यह दिखाता है कि तुम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की व्यापकता की कल्पना करने में सक्षम हो? जबकि मनुष्य का अनुमान और कल्पना उसे परमेश्वर के अधिकार को जानने की मंजूरी देने में असमर्थ है, तो मनुष्य को क्या करना चाहिए? अनुमान और कल्पना न करना ही सबसे उत्तम विकल्प होगा, कहने का तात्पर्य है कि जब परमेश्वर के अधिकार को जानने की बात आती है, मनुष्य को कभी भी कल्पना पर भरोसा, और अनुमान पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मैं असल में यहाँ पर तुम सब से क्या कहना चाहता हूँ? परमेश्वर के अधिकार का ज्ञान, परमेश्वर की सामर्थ, परमेश्वर की स्वयं की पहचान, और परमेश्वर की हस्ती को तुम्हारी कल्पनाओं पर भरोसा करके प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जबकि तुम परमेश्वर के अधिकार को जानने के लिए कल्पनाओं पर भरोसा नहीं कर सकते हो। तो तुम किस रीति से परमेश्वर के अधिकार के सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर सकते हो? परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के द्वारा, संगति के द्वारा, और परमेश्वर के वचनों के अनुभवों के द्वारा, तुम्हारे पास परमेश्वर के अधिकार का एक क्रमिक अनुभव और प्रमाणीकरण होगा और इस प्रकार तुम उसकी एक क्रमानुसार समझ और निरन्तर बढ़नेवाले ज्ञान को प्राप्त करोगे। यह परमेश्वर के अधिकार के ज्ञान को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका है; और कोई छोटा रास्ता नहीं है। तुम लोग कल्पना न करो कहने का अर्थ यह नहीं है कि तुम सबको शिथिलता से विनाश के इन्तज़ार में बैठा दिया जाए, या तुम सबको कुछ करने से रोका जाए। सोचने और कल्पना करने के लिए अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल न करने का मतलब अनुमान लगाने के लिए अपने तर्क का इस्तेमाल न करना, विश्लेषण करने के लिए ज्ञान का इस्तेमाल न करना, विज्ञान को आधार के रूप में इस्तेमाल न करना, परन्तु इसके बजाए प्रशंसा करना, जाँच करना, और प्रमाणित करना है कि वह परमेश्वर जिसमें तुम विश्वास करते हो उसके पास अधिकार है, और प्रमाणित करना है कि वह तुम्हारी नियति के ऊपर प्रभुता करता है, और यह कि उसकी सामर्थ ने सभी समयों में यह साबित किया है परमेश्वर के वचनों के द्वारा, सच्चाई के द्वारा, उन सब के द्वारा जिसका तुम अपने जीवन में सामना करते हो, वह स्वयं सच्चा परमेश्वर है। यही वह एकमात्र तरीका है जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति परमेश्वर की समझ को प्राप्त कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि वे इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक सरल तरीके की खोज करना चाहते हैं, किन्तु क्या तुम लोग ऐसे किसी तरीके के बारे में सोच सकते हो? मैं तुम्हें बताता हूँ, सोचने की आवश्यकता ही नहीं हैः और कोई तरीके नहीं हैं! एकमात्र तरीका है कि हर एक वचन जिसे वह प्रकट करता है और हर एक चीज़ जिसे वह करता है उसके जरिए सचेतता और स्थिरता से जो परमेश्वर के पास है और जो वह है उसे जानें और प्रमाणित करें। क्या यह परमेश्वर को जानने का एकमात्र तरीका है? क्योंकि जो परमेश्वर के पास है और जो वह है, और परमेश्वर का सब कुछ, वह सब खोखला या खाली नहीं है - परन्तु वास्तविक है।
सभी चीज़ों व प्राणियों के ऊपर सृष्टिकर्ता के नियन्त्रण और प्रभुत्व की सच्चाई सृष्टिकर्ता के अधिकार के सच्चे अस्तित्व के विषय में बोलते हैं
उसी प्रकार से, अय्यूब के ऊपर यहोवा की आशीष अय्यूब की पुस्तक में दर्ज है। परमेश्वर ने अय्यूब को क्या दिया था? "और यहोवा ने अय्यूब के पिछले दिनों में उसको अगले दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं" (अय्यूब 42:12)। मनुष्य के नज़रिए से, अय्यूब को दी गई ये चीज़ें क्या थीं? क्या वे मनुष्य की सम्पत्ति थी? इन सम्पत्तियों के द्वारा क्या अय्यूब उस युग में बहुत अधिक धनी हो गया था? उसे ऐसी सम्पत्तियाँ कैसे प्राप्त हुईं थीं? उसका धन कैसे बढ़ा था? यहाँ पर यह बात कही नहीं जा रही है कि परमेश्वर की आशीष के लिए धन्यवाद जिस से अय्यूब ने इन सम्पत्तियों को प्राप्त किया? अय्यूब इन सम्पत्तियों को किस नज़रिए से देखता था, और वह परमेश्वर की आशीषों को किस प्रकार महत्व देता था, ये वो बातें नहीं हैं जिन के भीतर हम जाएँगे। जब भी परमेश्वर की आशीषों की बात होती है, सभी लोग दिन और रात परमेश्वर से आशीषित होने की लालसा करते हैं, परन्तु मनुष्य के पास इसके ऊपर नियन्त्रण नहीं होता है कि वह अपने जीवनकाल के दौरान कितनी सम्पत्तियाँ प्राप्त कर सकता है, और यह कि वह परमेश्वर से आशीषों को प्राप्त करेगा भी कि नहीं - और यह एक निर्विवादित सत्य है! परमेश्वर के पास अधिकार है, और उसके पास मनुष्य को किसी भी प्रकार की सम्पत्ति देने की सामर्थ है, जिससे वह मनुष्य को किसी भी प्रकार के लाभ को प्राप्त करने की स्वीकृति दे सके, फिर भी परमेश्वर की आशीषों का एक सिद्धांत है। परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को आशीष देता है? ऐसे लोगों को जिन को वह पसंद करता है, बिलकुल सही! अब्राहम और अय्यूब दोनों को परमेश्वर के द्वारा आशीषित किया गया था, फिर भी वे आशीषें जिन्हें उन्होंने प्राप्त किया था एक समान नहीं थी। परमेश्वर ने अब्राहम को रेत और तारों के समान अनगिनित वंशों से आशीषित किया था। जब परमेश्वर ने अब्राहम को आशीष दी, तो उसने एक मनुष्य के वंश, एक जाति को सामर्थी और समृद्ध किया। इस में, परमेश्वर के अधिकार ने मानवजाति पर शासन किया, जिस ने सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों में परमेश्वर की श्वास को फूँक दिया था। परमेश्वर के अधिकार की संप्रभुता के अधीन, यह मानवजाति उस दायरे के अंतर्गत उस गति से तेजी से बढ़ी और अस्तित्व में आ गई जिसे परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया था। विशेष रूप से, इस जाति की जीवन योग्यता, फैलाव की गति, और जीवन की आशा सब कुछ परमेश्वर के इन्तज़ामों के भाग थे, और इन सब का सिद्धांत पूर्णतया उस प्रतिज्ञा पर आधारित था जिसे परमेश्वर ने अब्राहम को दिया था। कहने का तात्पर्य है कि, परिस्थितियों के बावजूद, परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ बिना किसी बाधा के आगे बढेंगी और परमेश्वर के अधिकार के प्रयोजन के अधीन उनका एहसास किया जाएगा। उस प्रतिज्ञा में जो परमेश्वर ने अब्राहम से की थी, संसार के उथल पुथल के बावजूद, उस युग के बावजूद, मानवजाति के द्वारा झेली गई महाविपत्तियों के बावजूद भी, अब्राहम का वंश सम्पूर्ण विनाश के जोखिम का सामना नहीं करेगा, और उनकी जाति कभी खत्म नहीं होगी। लेकिन, अय्यूब के ऊपर परमेश्वर की आशीषों ने उसे बहुत ज़्यादा धनी बना दिया था। जो परमेश्वर ने उसे दिया वह जीवित, और साँस लेते हुए जीवधारियों का संग्रह था, जिनमें से ख़ास थे - उनकी संख्या, विस्तार की उनकी गति, जीवित रहने की दशाएँ, उनके ऊपर चर्बी की मात्रा, और इत्यादि - उन्हें भी परमेश्वर के द्वारा नियन्त्रित किया गया था। यद्यपि इन जीवित प्राणियों के पास बोलने की योग्यता नहीं थी, परन्तु वे भी सृष्टिकर्ता के प्रबन्ध के भाग थे, और परमेश्वर के प्रबन्ध का सिद्धांत उस आशीष के अनुसार था जिस की प्रतिज्ञा परमेश्वर ने अय्यूब से की थी। उन आशीषों के अंतर्गत जिन्हें परमेश्वर ने अब्राहम और अय्यूब को दिया था, हालांकि जिसकी प्रतिज्ञा की गई थी वह अलग थी, फिर भी वह अधिकार जिसके द्वारा सृष्टिकर्ता सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों पर शासन करता है वह एक समान था। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ का प्रत्येक विवरण अब्राहम और अय्यूब को दी गई उनकी अलग अलग प्रतिज्ञाओं और आशीषों में प्रकट था, और एक बार फिर से मानवजाति को दिखाता है कि परमेश्वर का अधिकार मनुष्य की कल्पनाओं से परे है। ये विवरण एक बार फिर मानवजाति को बताते हैं कि यदि वह परमेश्वर के अधिकार को जानना चाहता है, तो यह केवल परमेश्वर के वचनों के द्वारा और परमेश्वर के कार्यों को अनुभव करने के द्वारा ही हो सकता है।
सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर के अधिकार की संप्रभुता मनुष्य को एक तथ्य देखने की अनुमति देती हैः परमेश्वर का अधिकार न केवल इन वचनों में समाविष्ट है "परमेश्वर ने कहा, कि उजियाला हो, और उजियाला हो गया, और, आकाश बन जाए, और आकाश बन गया, और भूमि दिखाई दे, और भूमि दिखाई देने लगी," बल्कि, इसके अतिरिक्त, वह इस बात से भी प्रगट होता है कि उसने किस प्रकार उजियाले को कायम रखा, आकाश को विलुप्त होने से बचाए रखा, और भूमि को हमेशा जल से अलग रखा, साथ ही साथ उस विवरण में भी है कि उसने किस प्रकार सृजी गई चीज़ों के ऊपर शासन किया और उनका प्रबन्ध कियाः उजियाला, आकाश, और भूमि। परमेश्वर के द्वारा मानवजाति को दी गई आशीषों में तुम सब और क्या देखते हो? स्पष्ट रीति से, परमेश्वर के द्वारा अब्राहम और अय्यूब को आशीष दिए जाने के बाद परमेश्वर के कदम नहीं रुके, क्योंकि उसने तो बस अपने अधिकार का उपयोग करना प्रारम्भ ही किया था, और वह अपने हर एक वचन को वास्तविक बनाना चाहता था, और इस प्रकार, आनेवाले सालों में अपने हर एक विवरण को जिसे उसने कहा था सही साबित करने के लिए, वह लगातार सब कुछ करता रहा जिसकी उसने इच्छा की थी। क्योंकि परमेश्वर के पास अधिकार है, कदाचित् मनुष्य को ऐसा प्रतीत हो कि परमेश्वर तो केवल बोलता है, और सब बातों और चीज़ों को पूरा करने के लिए उसे उंगली उठाने की आवश्यकता नहीं है। मुझे कहना है कि इस प्रकार कल्पना करना थोड़ा बकवास है! यदि तुम वचनों का इस्तेमाल करते हुए परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के साथ ठहराई गई वाचा, और वचनों का उपयोग करते हुए परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों की पूर्णता का केवल एक पक्षीय दृष्टिकोण लेते हो, और तुम विभिन्न चिन्हों और तथ्यों को देखने में असमर्थ हो कि परमेश्वर का अधिकार सभी चीज़ों के अस्तित्व के ऊपर प्रभुता रखता है, तो परमेश्वर के अधिकार की तुम्हारी समझ कहीं ज़्यादा खोखली और बकवास है! यदि मनुष्य परमेश्वर की इस प्रकार कल्पना करता है, तो ऐसा कहना होगा, कि परमेश्वर के विषय में मनुष्य का ज्ञान आखिरी पड़ाव में चला गया है, और खतरनाक मोड़ तक पहुँच चुका है, क्योंकि वह परमेश्वर जिसकी मनुष्य कल्पना करता है वह एक मशीन के सिवाए और कुछ नहीं है जिसे वह आदेश देता है, और ऐसा परमेश्वर नहीं है जिस के पास अधिकार है। तुमने अब्राहम और अय्यूब के उदाहरणों के द्वारा क्या देखा है? क्या तुमने परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ का सच्चा पहलू देखा है? परमेश्वर के द्वारा अब्राहम और अय्यूब को आशीष देने के बाद, परमेश्वर वहाँ खड़ा न रहा जहाँ पर वह था, न ही उसने अपने सन्देशवाहकों को काम पर लगाया जिस समय वह यह देखने के लिए इन्तज़ार कर रहा था कि इसका परिणाम क्या होगा। इसके विपरीत, जैसे ही परमेश्वर ने अपने वचनों को कहा, तो परमेश्वर के अधिकार के मार्गदर्शन के अधीन, सभी चीज़ें उस कार्य के साथ मेल खाना शुरू हो गईं जिसे परमेश्वर करना चाहता था, और लागों, चीज़ों, और तत्वों को तैयार किया गया जिनकी परमेश्वर को आवश्यकता थी। कहने का तात्पर्य है कि, जैसे ही परमेश्वर के मुख से वचन बोले गए, परमेश्वर के अधिकार ने पूरी भूमि के आर पार काम करना प्रारम्भ कर दिया, और उसने अब्राहम और अय्यूब से की गई प्रतिज्ञाओं को प्राप्त करने और उन्हें पूरा करने के लिए एक क्रम ठहरा दिया, इसी बीच उसने सब के लिए हर प्रकार की उचित योजना बनाई और तैयारियाँ की जिसे पूरा करने की उसने योजना बनाई थी जो हर एक कदम और हर एक मुख्य चरण के लिए जरूरी था। इस समय के दौरान, परमेश्वर ने न केवल अपने सन्देशवाहकों को कुशलता से इस्तेमाल किया, बल्कि सभी चीज़ों को भी कुशलता से इस्तेमाल किया जिन्हें उसके द्वारा बनाया गया था। कहने का तात्पर्य है कि वह दायरा जिसके भीतर परमेश्वर के अधिकार को इस्तेमाल किया गया था उसमें न केवल सन्देशवाहक शामिल थे, वरन, वे सभी चीज़ें भी शामिल थीं, जिन्हें उस कार्य के मेल में कुशलता से उपयोग किया गया था जिसे वह पूरा करना चाहता था; ये वे विशेष रीतियाँ थीं जिन के तहत परमेश्वर के अधिकार का इस्तेमाल किया गया था। तुम लोगों की कल्पनाओं में, कुछ लोगों के पास परमेश्वर के अधिकार की निम्नलिखित समझ हो सकती हैः परमेश्वर के पास अधिकार है, और परमेश्वर के पास सामर्थ है, और इस प्रकार परमेश्वर को केवल तीसरे स्वर्ग में रहने की ज़रूरत है, या एक ही स्थिर जगह में रहने की जरूरत है, और किसी व्यावहारिक कार्य को करने की जरूरत नहीं है, और परमेश्वर का सम्पूर्ण कार्य उसके विचारों के भीतर ही पूरा होता है। कुछ लोग यह भी विश्वास कर सकते हैं, कि यद्यपि परमेश्वर ने अब्राहमको आशीष दी थी, फिर भी परमेश्वर को और कुछ करने की जरूरत नहीं थी, और उसके लिए मात्र अपने वचनों को कहना ही काफी था। क्या ऐसा वास्तव में हुआ था? साफ तौर पर नहीं! यद्यपि परमेश्वर के पास अधिकार और सामर्थ है, फिर भी उसका अधिकार सही और वास्तविक है, खाली नहीं। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की प्रमाणिकता और वास्तविकता धीरे धीरे उसकी सृष्टि की सभी चीज़ों, और सभी चीज़ों पर उसके नियन्त्रण, और उस प्रक्रिया में प्रकाशित और साकार हो रहे हैं, जिनके द्वारा वह मानवजाति की अगुवाई और उनका प्रबन्ध करता है। हर पद्धति, हर दृष्टिकोण, और मानवजाति और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता का हर विवरण, और वे सब कार्य जो उसने पूरा किया है, साथ ही सभी चीज़ों की उसकी समझ - उन सभी ने शाब्दिक रूप से यह साबित किया है कि परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ खोखले शब्द नहीं हैं। उसका अधिकार और सामर्थ निरन्तर, और सभी चीज़ों में प्रदर्शित और प्रकाशित हुए हैं। ये प्रकटीकरण और प्रकाशन परमेश्वर के अधिकार के वास्तविक अस्तित्व के बारे में बात करते हैं, क्योंकि वह अपने कार्य को जारी रखने, और सभी चीज़ों को आज्ञा देने, और हर घड़ी सभी चीज़ों पर शासन करने के लिए अपने अधिकार और सामर्थ का इस्तेमाल कर रहा है, और उसका अधिकार और सामर्थ स्वर्गदूतों के द्वारा, या परमेश्वर के सन्देशवाहकों के द्वारा बदला नहीं जा सकता है। परमेश्वर ने निर्णय लिया था कि वह किस प्रकार की आशीषों को अब्राहम और अय्यूब को देगा - यह परमेश्वर पर निर्भर था। भले ही परमेश्वर के सन्देशवाहकों ने व्यक्तिगत रूप से अब्राहम और अय्यूब से मुलाकात की, फिर भी उनकी गतिविधियाँ परमेश्वर के वचन के अनुसार थीं, और परमेश्वर के अधिकार के अधीन थीं, और वे परमेश्वर की संप्रभुता के भी अधीन थे। यद्यपि मनुष्य परमेश्वर के सन्देशवाहकों को अब्राहम से मिलते हुए देखता है, और यहोवा परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से बाईबिल के लेखों में कुछ करते हुए नहीं देख पाता है, वास्तव में, परमेश्वर स्वयं ही अधिकार और सामर्थ का सचमुच में उपयोग करता है, और किसी मनुष्य से कोई सन्देह बर्दाश्त नहीं कर सकता है! यद्यपि तुम देख चुके हो कि स्वर्गदूतों और सन्देशवाहकों के पास बड़ी सामर्थ होती है, और उन्होंने चमत्कार किए हैं, या परमेश्वर के आदेशानुसार कुछ चीज़ों को किया है, और उनके कार्य मात्र परमेश्वर के आदेशों को पूरा करने के लिए होते हैं, और किसी भी अर्थ में परमेश्वर के अधिकार का प्रदर्शन नहीं हैं - कि किसी भी मनुष्य या तत्व के पास सभी चीज़ों को बनाने और सभी चीज़ों पर शासन करने के लिए सृष्टिकर्ता का अधिकार नहीं है, और न ही वे उन्हें धारण करते हैं और इस प्रकार कोई मनुष्य और तत्व सृष्टिकर्ता के अधिकार का इस्तेमाल या उसे प्रकट नहीं कर सकता है।
सृष्टिकर्ता का अधिकार अपरिवर्तनीय है और उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है
तुम सब ने पवित्र शास्त्र के इन तीन अंशों में क्या देखा है? क्या तुम लोगों ने देखा कि यहाँ एक सिद्धांत है जिसके द्वारा परमेश्वर अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है? उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने मनुष्य के साथ वाचा बाँधने के लिए मेघधनुष का इस्तेमाल किया, जिसमें उसने बादलों में एक मेघधनुष रखा जिससे मनुष्य को बता सके कि वह संसार को नाश करने के लिए फिर से जलप्रलय का इस्तेमाल कभी नहीं करेगा। क्या जिस मेघधनुष को लोग आज देखते हैं वही है जिसे परमेश्वर के मुँह द्वारा कहा गया था? क्या उसका स्वभाव और अर्थ बदल चुका है? बिना किसी सन्देह के, यह नहीं बदला है। परमेश्वर ने अपने कार्य को करने के लिए अपने अधिकार का इस्तेमाल किया है, और वह वाचा जिसे उसने मनुष्य के साथ ठहराया था वह आज तक जारी है, और वह समय जब इस वाचा को बदल दिया जाएगा, वास्तव में, सिर्फ परमेश्वर के ऊपर निर्भर है। परमेश्वर के ऐसा कहने के बाद, "बादल में मेरा धनुष स्थापित करो," परमेश्वर आज तक इस वाचा के साथ स्थिर बना रहा है। तुम इस में क्या देखते हो? यद्यपि परमेश्वर के पास अधिकार और सामर्थ है, फिर भी वह अपने कार्यों में बहुत अधिक कठोर और सैद्धांतिक है, और अपने वचनों के प्रति सच्चा बना रहता है। उसकी कड़ाई, और उसके कार्यों के सिद्धांत सृष्टिकर्ता के अधिकार का उल्लंघन न किए जाने की क्षमता को और सृष्टिकर्ता के अधिकार की अजेयता को दर्शाता है। यद्यपि उसके पास सर्वोच्च अधिकार है, और सब कुछ उसके प्रभुत्व के अधीन है, और यद्यपि उसके पास सभी चीज़ों पर शासन करने का अधिकार है, फिर भी परमेश्वर ने कभी भी अपनी योजना को नुकसान नहीं पहुँचाया है और न ही बिखराया है, और जब भी वह अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है, तो यह कड़ाई से उसके अपने सिद्धांतों के मेल में होता है, और जो कुछ उसके मुँह से निकलता है उसका ठीक ठीक अनुसरण करता है, और अपनी योजना के क्रम और उद्देश्य का अनुसरण करता है। ऐसा कहने की कोई आवश्यकता नहीं है, सभी चीज़ों पर परमेश्वर के द्वारा शासन किया जाता है साथ ही उन सिद्धांतों का भी पालन किया जाता है जिनके द्वारा परमेश्वर के अधिकार का इस्तेमाल किया जाता है, उसके अधिकार के प्रबन्धों से कोई मनुष्य या चीज़ बच नहीं सकती है, और न ही वे उन सिद्धांतों को बदल सकते हैं जिनके द्वारा उसके अधिकार का इस्तेमाल किया जाता है। परमेश्वर की निगाहों में, जिन्हें आशीषित किया जाता है वे उसके अधिकार द्वारा लाए गए अच्छे सौभाग्य को प्राप्त करते हैं, और जो शापित हैं वे परमेश्वर के अधिकार के कारण अपने दण्ड को सहते हैं। परमेश्वर के अधिकार की संप्रभुता के अधीन, कोई मनुष्य या चीज़ उसके अधिकार के इस्तेमाल से बच नहीं सकती है, और न ही वे उन सिद्धांतों को बदल सकते हैं जिनके द्वारा उसके अधिकार का इस्तेमाल किया जाता है। किसी भी कारक में परिवर्तन की वजह से सृष्टिकर्ता के अधिकार को बदला नहीं जा सकता है, और उसी प्रकार वे सिद्धांत जिनके द्वारा उसके अधिकार को दिखाया जाता है किसी भी वजह से परिवर्तित नहीं होते हैं। स्वर्ग और पृथ्वी बड़े उथल पुथल से होकर गुज़र सकते हैं, परन्तु सृष्टिकर्ता का अधिकार नहीं बदलेगा; सभी चीज़ें विलुप्त हो सकती हैं, परन्तु सृष्टिकर्ता का अधिकार कभी अदृश्य नहीं होगा। यह सृष्टिकर्ता के अपरिवर्तनीय और उल्लंघन न किए जा सकनेवाले अधिकार की हस्ती है, और यह सृष्टिकर्ता की वही अद्वितीयता है!
नीचे दिए गए वचन परमेश्वर के अधिकार को जानने के लिए अति आवश्यक हैं, और उन का अर्थ नीचे सभा के विचार विमर्श में दिया गया है। आओ हम निरन्तर पवित्र शास्त्र को पढ़ते रहें।
4. शैतान को परमेश्वर की आज्ञा
(अय्यूब 2:6) यहोवा ने शैतान से कहा, "सुन, वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना।"
शैतान ने कभी सृष्टिकर्ता के अधिकार का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं की है, और इसी वजह से, सभी जीवित प्राणी व्यवस्था के अनुसार रहते हैं
यह अय्यूब की पुस्तक में से एक लघु अंश है, और इन वचनों में "वह" शब्द अय्यूब की ओर संकेत करता है। हालांकि यह वाक्य छोटा सा है, फिर भी यह वाक्य बहुत सारे विषयों पर प्रकाश डालता है। यह आत्मिक संसार में परमेश्वर और शैतान के बीच वार्तालाप की व्याख्या करता है, और हमें यह बताता है कि परमेश्वर के वचनों का उद्देश्य शैतान था। यह इस बात को भी दर्शाता है कि यह वाक्य परमेश्वर द्वारा विशेष रूप से क्यों कहा गया था। परमेश्वर का वचन शैतान के लिए एक आज्ञा और आदेश है। इस विशेष आदेश का वर्णन अय्यूब के प्राण को छोड़ देने और अय्यूब के जीवन में शैतान के बर्ताव में एक रेखा खींचे जाने से सम्बन्धित है - शैतान को अय्यूब के प्राण को छोड़ देना था। पहली बात जो हम इस वाक्य से सीखते हैं वह यह है कि ये परमेश्वर के द्वारा शैतान को कहे गए वचन थे। अय्यूब की पुस्तक के मूल पाठ के अनुसार, यह हमें निम्नलिखित बातों एवं ऐसे शब्दों की पृष्ठभूमि के बारे में बताता हैः शैतान अय्यूब पर दोष लगाना चाहता था, और इस प्रकार उसकी परीक्षा लेने से पहले उसे परमेश्वर से सहमति लेना था। अय्यूब की परीक्षा लेने हेतु परमेश्वर से सहमति लेते समय, परमेश्वर ने शैतान के सामने निम्नलिखित शर्तें रखीं: "सुन, वह तेरे हाथ में हैं; केवल उसका प्राण छोड़ देना।" इन शब्दों की प्रकृति क्या है? वे स्पष्ट रीति से एक आज्ञा है, एक आदेश है। इन शब्दों के स्वभाव को समझने के बाद, तुम वास्तव में यह आभास कर सकते हो कि आज्ञा देने वाला परमेश्वर है, और आज्ञा को पाने वाला और उसका पालन करने वाला वह शैतान है। ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं है, कि इस आदेश में परमेश्वर और शैतान के बीच का रिश्ता उसके सामने प्रकट है जो इन वचनों को पढ़ता है। वास्तव में, यह आत्मिक संसार में परमेश्वर और शैतान के बीच का रिश्ता भी है, और परमेश्वर और शैतान की पहचान और स्थिति के बीच का अन्तर भी है, जिन्हें पवित्र शास्त्र में परमेश्वर और शैतान के बीच हुए वार्तालाप के लेखों में प्रदान किया गया है, और अब तक यह विशिष्ट उदाहरण और पाठ संबंधी लेखा जोखा है जिसमें मनुष्य परमेश्वर और शैतान की पहचान और हैसियत के मध्य के निश्चित अन्तर को सीख सकता है। इस बिन्दु पर, मुझे कहना होगा कि इन वचनों का लेखा जोखा मानवजाति द्वारा परमेश्वर की पहचान व है सियत को जानने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है, और यह मानवजाति को परमेश्वर के ज्ञान की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। आत्मिक संसार में सृष्टिकर्ता और शैतान के मध्य हुए वार्तालाप से, मनुष्य सृष्टिकर्ता के अधिकार के एक और विशिष्ट पहलू को समझने में सक्षम हो गया है। ये वचन सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार की एक और गवाही है।
बाहरी रूप से, वे यहोवा परमेश्वर और शैतान के बीच हुए वार्तालाप हैं। उनकी हस्ती यह है कि वह मनोवृत्ति जिसके तहत यहोवा परमेश्वर बात करता है, और वह पदवी जिस में हो कर वह बात करता है, वे शैतान से बढ़कर हैं। अर्थात् यह कि यहोवा परमेश्वर आदेश देने के अन्दाज़ में शैतान को आज्ञा दे रहा है, और शैतान को बता रहा है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है, अय्यूब पहले से ही उसके हाथ में है, और यह कि जैसा वह चाहता है अय्यूब के साथ वैसा बर्ताव कर सकता है - परन्तु उसका प्राण नहीं ले सकता है। सहायक पाठ यह है, यद्यपि अय्यूब को शैतान के हाथों में छोड़ दिया गया, परन्तु उसका जीवन शैतान को सौंपा नहीं गया; परमेश्वर के हाथों से अय्यूब के प्राण को कोई नहीं ले सकता है जब तक परमेश्वर इस की अनुमति नहीं देता है। शैतान को दी गई इस आज्ञा में परमेश्वर की मनोवृत्ति को स्पष्ट रीति से व्यक्त किया गया है, और यह आज्ञा उस गौरवपूर्ण पदवी को भी प्रकट और प्रकाशित करता है जिसमें होकर यहोवा परमेश्वर शैतान से बातचीत करता है। इस में, यहोवा परमेश्वर ने न केवल उस परमेश्वर का दर्जा प्राप्त किया है जिस ने उजियाला, और हवा, और सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों को बनाया है, और उस परमेश्वर का जो सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों के ऊपर प्रधान है, बल्कि उस परमेश्वर का भी दर्जा प्राप्त किया है जो मानवजाति को आज्ञा देता है, और अधोलोक को आज्ञा देता है, और उस परमेश्वर का जो सभी जीवित प्राणियों के जीवन और मरण को नियन्त्रित करता है। आत्मिक संसार में, परमेश्वर के अलावा किसके पास हिम्मत है कि शैतान को ऐसा आदेश दे? और परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से शैतान को अपना आदेश क्यों दिया? क्योंकि मनुष्य का जीवन, जिसमें अय्यूब भी शामिल है, परमेश्वर के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब को नुकसान पहुँचाने या उसके प्राण लेने की अनुमति नहीं दी थी, अर्थात् यह कि परमेश्वर द्वारा शैतान को अय्यूब की परीक्षा लेने की अनुमति देने के बस पहले से ही, परमेश्वर को स्मरण था कि उसे विशेष तौर पर एक आज्ञा देना है, और एक बार फिर से उसने शैतान को आज्ञा दी कि वह अय्यूब का प्राण नहीं ले सकता है। शैतान की कभी भी यह हिम्मत नहीं हुई है कि वह परमेश्वर के अधिकार का उल्लंघन करे, और इसके अतिरिक्त, उसने हमेशा परमेश्वर के आदेशों और विशेष आज्ञाओं को सावधानीपूर्वक सुना है और उनका पालन किया है, उनको चुनौती देने की कभी हिम्मत नहीं की है, और वास्तव में, परमेश्वर की किसी आज्ञा को कभी खुल्लमखुल्ला पलटने की हिम्मत नहीं की है। वे सीमाएँ ऐसी ही हैं जिन्हें परमेश्वर ने शैतान के लिए निर्धारित किया, और इस प्रकार शैतान ने कभी इन सीमाओं को लाँघने की हिम्मत नहीं की है। क्या यह परमेश्वर के अधिकार की शक्ति नहीं है? क्या यह परमेश्वर के अधिकार की गवाही नहीं है? कि परमेश्वर के प्रति कैसा आचरण करें, और परमेश्वर को कैसे देखें, शैतान के पास मानवजाति से कहीं अधिक स्पष्ट आभास हैं, और इस प्रकार, आत्मिक संसार में, शैतान परमेश्वर के अधिकार व उसके स्थान को बिलकुल साफ साफ देखता है, और उसके पास परमेश्वर के अधिकार की शक्ति और उसके अधिकार के इस्तेमाल के पीछे के सिद्धांतों की गहरी समझ है। उन्हें नज़रअन्दाज़ करने की हिम्मत वह बिलकुल भी नहीं करता है, न ही वह उन्हें किसी भी तरीके से तोड़ने की हिम्मत करता है, या न ही वह ऐसा कुछ करता है जिस से परमेश्वर के अधिकार का उल्लंघन हो, और वह किसी भी रीति से परमेश्वर के क्रोध को चुनौती देने की हिम्मत नहीं करता है। यद्यपि वह अपने स्वभाव में बुरा और घमण्डी है, फिर भी उसने परमेश्वर के द्वारा उसके लिए निर्धारित सीमाओं को लाँघने की कभी हिम्मत नहीं की है। लाखों सालों से, वह कड़ाई से इन सीमाओं में बना रहा, और परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए हर आज्ञा और आदेश के साथ बना रहा, और कभी उस निशान के पार पैर रखने की हिम्मत नहीं की। यद्यपि वह डाह करनेवाला है, तो भी शैतान पतित मानवजाति से ज़्यादा "चतुर" है; वह सृष्टिकर्ता की पहचान को जानता है, और अपनी स्वयं की सीमाओं को जानता है। शैतान के "आज्ञाकरी" कार्यों से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ स्वर्गीय आदेश है जिनका उल्लंघन शैतान के द्वारा नहीं किया जा सकता है, और यह उचित मायने में परमेश्वर के अधिकार और अद्वितीयता के कारण है कि सभी चीज़ें क्रमागत रीति से बदलती और बढ़ती हैं, क्योंकि मानवजाति परमेश्वर द्वारा ठहराए गए जीवन क्रम के भीतर रह सकते हैं और बहुगुणित हो सकते हैं, और कोई व्यक्ति या तत्व इस व्यवस्था में उथल पुथल नहीं कर सकता है, और कोई व्यक्ति या तत्व इस नियम को बदलने में सक्षम नहीं है - क्योंकि वे सभी सृष्टिकर्ता के हाथों, और सृष्टिकर्ता के आदेश और अधिकार से आते हैं।
केवल परमेश्वर ही, जिसके पास सृष्टिकर्ता की पहचान है, अद्वितीय अधिकार रखता है
शैतान की "विशिष्ट" पहचान ने बहुत से लागों से उसके विभिन्न पहलुओं के प्रकटीकरण में गहरी रूचि का प्रदर्शन करवाया है। यहाँ तक कि बहुत से मूर्ख लोग भी हैं जो यह विश्वास करते हैं कि, परमेश्वर के साथ ही साथ, शैतान भी आधिकार रखता है, क्योंकि शैतान आश्चर्यकर्म करने में सक्षम है, और ऐसी चीज़ें करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए असंभव हैं। और इस प्रकार, परमेश्वर की आराधना करने के अतिरिक्त, मानवजाति अपने हृदय में शैतान के लिए भी एक स्थान आरक्षित रखता है, और परमेश्वर के रूप में शैतान की भी आराधना करता है। ये लोग दयनीय और घृणित दोनों हैं। उनकी अज्ञानता के कारण वे दयनीय हैं, और अपनी झूठी शिक्षाओं और अंतर्निहित बुराई के तत्व के कारण घृणित हैं। इस बिन्दु पर, मैं महसूस करता हूँ कि तुम लोगों को जानकारी दूँ कि अधिकार क्या है, और यह किस की ओर संकेत करता है, और यह किसे दर्शाता है। व्यापक रूप से कहें, परमेश्वर स्वयं ही अधिकार है, उसका अधिकार उसकी श्रेष्ठता और हस्ती की ओर संकेत करती है, और स्वयं परमेश्वर का अधिकार परमेश्वर के स्थान और पहचान को दर्शाता है। इस स्थिति में, क्या शैतान यह कहने की हिम्मत करता है कि वह स्वयं परमेश्वर है? क्या शैतान यह कहने की हिम्मत करता है कि उसने सभी चीज़ों को बनाया है; और सभी चीज़ों के ऊपर प्रधान है? वास्तव में बिलकुल नहीं! क्योंकि वह किसी भी चीज़ को बनाने में असमर्थ है; अब तक, उसने परमेश्वर के द्वारा सृजी गई वस्तुओं में से कुछ भी नहीं बनाया है, और कभी ऐसा कुछ नहीं बनाया है जिसमें जीवन हो। क्योंकि उसके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं है, इसलिए उसके लिए कभी भी परमेश्वर की हैसियत और पहचान प्राप्त करना सम्भव नहीं होगा, और यह उसकी हस्ती के द्वारा निश्चित होता है। क्या उसके पास परमेश्वर के समान सामर्थ है? वास्तव में उसके पास बिलकुल नहीं है! हम शैतान के ऐसे कार्यों को, और शैतान द्वारा प्रदर्शित चमत्कारों को क्या कहते हैं? क्या यह सामर्थ है? क्या इसे अधिकार कहा जा सकता है? वास्तव में नहीं! शैतान बुराई की लहर को दिशा देता है, और परमेश्वर के कार्य के हर एक पहलू में अस्थिरता, बाधा, और रूकावट डालता है। पिछले कई हज़ार सालों से, मानवजाति को बिगाड़ने और शोषित करने, और भ्रष्ट करने हेतु लुभाने और धोखा देने, और परमेश्वर का तिरस्कार करने के अलावा उसने क्या किया है, इसलिए मनुष्य अँधकार से भरी मृत्यु की घाटी की ओर चला जाता है, क्या शैतान ने ऐसा कुछ किया है जिससे वह मनुष्य के द्वारा उत्सव मनाने, तारीफ करने, या दुलार पाने हेतु ज़रा सा भी योग्य है? यदि शैतान के पास अधिकार और सामर्थ होता, तो क्या उससे मानवजाति भ्रष्ट हो जाती? यदि शैतान के पास अधिकार और सामर्थ होता, तो क्या उससे मानवजाति को नुकसान पहुँचा दिया गया होता? यदि शैतान के पास अधिकार और सामर्थ होता, तो क्या मनुष्य परमेश्वर को छोड़कर मृत्यु की ओर मुड़ जाता? जबकि शैतान के पास कोई अधिकार और सामर्थ नहीं है, तो वह सब कुछ जो वह करता है उनकी हस्ती के विषय में हमें क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए? ऐसे लोग भी हैं जो यह अर्थ निकालते हैं कि जो कुछ भी शैतान करता है वह महज एक छल है, फिर भी मैं विश्वास करता हूँ कि ऐसी परिभाषा उतनी उचित नहीं है। क्या मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए उसके बुरे कार्य महज एक छल हैं? वह बुरी शक्ति जिसके द्वारा शैतान ने अय्यूब का शोषण किया, और उसका शोषण करने और उसे नष्ट करने की उसकी प्रचण्ड इच्छा को, संभवतः महज छल के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती था। पीछे मुड़कर देखने से, हम एक पल में यह देखते हैं कि अय्यूब के पशुओं का झुण्ड और समूह, पहाड़ों और पर्वतों में दूर दूर तक फैल हुआ है, और एक पल में; सब कुछ चला गया, अय्यूब का महान सौभाग्य ग़ायब हो गया। क्या इसे महज छल के द्वारा प्राप्त किया जा सकता था? उन सब कार्यों का स्वभाव जो शैतान करता है वे नकारात्मक शब्दों जैसे अड़चन डालना, रूकावट डालना, नुकसान पहुँचाना, बुराई, ईष्या, और अँधकार के साथ मेल खाते हैं और बिलकुल सही बैठते हैं, और इस प्रकार उन सबका घटित होना अधर्म और बुरा है और इसे पूरी तरह शैतान के कार्यों के साथ जोड़ा जाता है, और इसे शैतान के बुरी हस्ती से जुदा नहीं किया जा सकता है। इसके बावजूद कि शैतान कितना "सामर्थी" है, इसके बावजूद कि वह कितना ढीठ और महत्वाकांक्षी है, इसके बावजूद कि नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता कितनी बड़ी है, इसके बावजूद कि उसकी तकनीक का दायरा कितना व्यापक है जिससे वह मनुष्य को बिगाड़ता और लुभाता है, इसके बावजूद कि उसके छल और प्रपंच कितने चतुर हैं जिससे वह मनुष्य को डराता है, इसके बावजूद कि वह रूप जिसमें वह अस्तित्व में रहता है कितना परिवर्तनशील है, वह एक भी जीवित प्राणी को बनाने में कभी सक्षम नहीं हुआ है, और सभी चीज़ों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाओं और नियमों को लिखने में कभी सक्षम नहीं हुआ है, और किसी तत्व, चाहे जीवित हो या निर्जीव, पर शासन और नियन्त्रण करने में भी कभी सक्षम नहीं हुआ है। पूरे विश्व के व्यापक फैलाव में, एक भी व्यक्ति या तत्व नहीं है जो उससे उत्पन्न हुआ है, या उसके द्वारा अस्तित्व में बना हुआ है; एक भी व्यक्ति या तत्व नहीं है जिस पर उसके द्वारा शासन किया जाता है, या उसके द्वारा नियन्त्रण किया जाता है। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन जीना है, किन्तु, इसके अतिरिक्त, उसे परमेश्वर के सारे आदेशों और आज्ञाओं को भी मानना होगा। परमेश्वर की आज्ञा के बिना शैतान के लिए पानी की एक बूँद या रेत के एक कण को जो भूमि की सतह पर है छूना भी कठिन है; परमेश्वर की आज्ञा के बिना, शैतान के पास इतनी भी आज़ादी नहीं है कि वह भूमि की सतह पर से एक चींटी को हटा सके-यह काम केवल मनुष्य कर सकता है, जिसे परमेश्वर द्वारा सृजा गया था। परमेश्वर की नज़रों में शैतान पहाड़ों के सोसन फूलों, हवा में उड़ते हुए पक्षियों, समुद्र की मछलियों, और पृथ्वी के कीड़े मकौड़ों से भी कमतर है। सभी चीज़ों के बीच में उसकी भूमिका है कि वह सभी चीज़ों की सेवा करे, और मानवजाति के लिए सेवा करे, और परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधकीय योजना की सेवा करे। इसके बावजूद कि उसका स्वभाव कितना ईर्ष्यालु है, और उसकी हस्ती कितनी बुरी है, एकमात्र कार्य जो वो कर सकता है वह है आज्ञाकारिता से अपने कार्यों के साथ बना रहेः परमेश्वर की सेवा में लगा रहे, और परमेश्वर के कार्यों में सुर में सुर मिलाए। शैतान का सार-तत्व और हैसियत ऐसा ही है। उसकी हस्ती जीवन से जुड़ी हुई नहीं है, सामर्थ से जुड़ा हुआ नहीं है, अधिकार से जुड़ा हुआ नहीं है; वह परमेश्वर के हाथों में मात्र एक खिलौना है, परमेश्वर की सेवा में मात्र एक मशीन!
शैतान के वास्तविक चेहरे को समझने के बाद भी, बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि अधिकार क्या है, मैं तुम्हें बताता हूँ! स्वयं अधिकार को परमेश्वर की सामर्थ के रूप में वर्णन नहीं किया जा सकता है। पहले, यह निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि अधिकार और सामर्थ दोनों सकारात्मक हैं। उन का किसी नकारात्मक चीज़ से कोई संबंध नहीं है, और किसी भी सृजे गए प्राणी और न सृजे गए प्राणी से जुड़ा हुआ नहीं हैं। परमेश्वर अपनी सामर्थ से किसी भी तरह की चीज़ की सृष्टि कर सकता है जिनके पास जीवन और चेतना हो, और यह परमेश्वर के जीवन के द्वारा निर्धारित होता है। परमेश्वर जीवन है, इस प्रकार वह सभी जीवित प्राणियों का स्रोत है। इसके आगे, परमेश्वर का अधिकार सभी जीवित प्राणियों को परमेश्वर के हर एक वचन का पालन करवा सकता है, अर्थात् परमेश्वर के मुँह के वचनों के अनुसार अस्तित्व में आना, और परमेश्वर की आज्ञाओं के अनुसार जीना और पुनः उत्पन्न करना, उसके बाद परमेश्वर सभी जीवित प्राणियों पर शासन करता और आज्ञा देता है, और उस में कभी कोई भूल नहीं होगी, हमेशा हमेशा के लिए। किसी व्यक्ति या तत्व में ये चीज़ें नहीं हैं; केवल सृष्टिकर्ता ही ऐसी सामर्थ को धारण करता और रखता है, और इसलिए इसे अधिकार कहा जाता है। यह सृष्टिकर्ता का अनोखापन है। इस प्रकार, इसके बावजूद कि वह शब्द स्वयं "अधिकार" है या इस अधिकार की हस्ती, प्रत्येक को सिर्फ सृष्टिकर्ता के साथ ही जोड़ा जा सकता है, क्यों क्योंकि यह सृष्टिकर्ता की अद्वितीय पहचान व हस्ती का एक प्रतीक है, और यह सृष्टिकर्ता की पहचान और हैसियत को दर्शाता है; सृष्टिकर्ता के अलावा, किसी भी व्यक्ति या तत्व को इस शब्द "अधिकार" के साथ जोड़ा नहीं जा सकता है। यह सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार का अर्थ है।
यद्यपि शैतान अय्यूब को लालच भरी नज़रों से देख रहा था, परन्तु बिना परमेश्वर की इजाज़त के उसके पास अय्यूब के शरीर के एक बाल को भी छूने की हिम्मत नहीं थी। यद्यपि वह स्वाभाविक रूप से बुरा और निर्दयी है, किन्तु परमेश्वर के द्वारा उसे आज्ञा देने के बाद, शैतान के पास उसकी आज्ञा में बने रहने के सिवाए और कोई विकल्प नहीं था। और इस प्रकार, जब शैतान अय्यूब के पास आया, परन्तु उसने परमेश्वर द्वारा तय की गई सीमाओं को भूलने की हिम्मत नहीं की,और जो कुछ भी उसने किया उसमें उसने परमेश्वर के आदेशों को तोड़ने की हिम्मत नहीं की, और शैतान को परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों और सीमाओं से दूर जाने की हिम्मत नहीं हुई - क्या यह एक प्रमाणित सत्य नहीं है? इससे यह देखा जा सकता है कि शैतान को यहोवा परमेश्वर के किसी भी वचनों का विरोध करने की हिम्मत नहीं हुई। शैतान के लिए, परमेश्वर के मुँह का हर एक वचन एक आदेश है, और एक स्वर्गीय नियम है, और परमेश्वर के अधिकार का प्रकटीकरण है - क्योंकि परमेश्वर के हर एक वचन के पीछे, उनके लिए जो परमेश्वर के आदेशों को तोड़ते हैं, और जो स्वर्गीय व्यवस्थाओं की अनाज्ञाकारिता और विरोध करते हैं, परमेश्वर का दण्ड निहित है। शैतान स्पष्ट रीति से जानता है कि यदि उसने परमेश्वर के आदेशों को तोड़ा, तो उसे परमेश्वर के अधिकार के उल्लंघन करने, और स्वर्गीय व्यवस्थाओं का विरोध करने का परिणाम स्वीकार करना होगा। और ये परिणाम क्या हैं? ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं है, वास्तव में ये परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए दण्ड हैं। अय्यूब के खिलाफ शैतान के कार्य उसके द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता का एक छोटा सा दृश्य था, और जब शैतान इन कार्यों को अन्जाम दे रहा था, तब वे सीमाएँ जिन्हें परमेश्वर ने ठहराया था और वे आदेश जिन्हें उसने शैतान को दिया था, वे जो कुछ शैतान करता है उन सब के पीछे के सिद्धांतों की महज एक छोटी सी झलक थी। इसके अतिरिक्त, इस मामले में शैतान की भूमिका और पद परमेश्वर के प्रबन्ध के कार्य में उसकी भूमिका और पद का मात्र एक छोटा सा दृश्य था, और शैतान के द्वारा अय्यूब की परीक्षा में परमेश्वर के प्रति उसकी सम्पूर्ण आज्ञाकारिता की महज एक छोटी सी तस्वीर थी कि किस प्रकार शैतान ने परमेश्वर के प्रबन्ध के कार्य में परमेश्वर के विरूद्ध ज़रा सा भी विरोध करने का साहस नहीं किया। ये सूक्ष्म दर्शन तुम लोगों को क्या चेतावनी देते हैं? शैतान समेत सभी चीजों में से ऐसा कोई व्यक्ति या चीज़ नहीं है जो सृष्टिकर्ता द्वारा निर्धारित स्वर्गीय कानूनों और संपादनों का उल्लंघन कर सकती है, और किसी व्यक्ति या तत्व की इतनी हिम्मत नहीं है जो सृष्टिकर्ता द्वारा स्थापित की गयी इन स्वर्गीय व्यवस्थाओं और आदेशों को तोड़ सके, क्योंकि ऐसा कोई व्यक्ति या तत्व नहीं है जो उस दण्ड को पलट सके या उससे बच सके जिसे सृष्टिकर्ता उसकी आज्ञा न मानने वाले लोगों को देगा। केवल सृष्टिकर्ता ही स्वर्गीय व्यवस्थाओं और आदेशों को बना सकता है, केवल सृष्टिकर्ता के पास ही उन्हें प्रभाव में लाने की सामर्थ है, और किसी व्यक्ति या तत्व के द्वारा मात्र सृष्टिकर्ता की सामर्थ का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। यह सृष्टिकर्ता की अद्वितीय सामर्थ है, यह सामर्थ सभी चीज़ों में सर्वोपरि है, और इस प्रकार, यह कहना नामुमकिन है कि “परमेश्वर सबसे महान है, और शैतान दूसरे नम्बर में है।” उस सृष्टिकर्ता को छोड़ जिस के पास अद्वितीय अधिकार है, और कोई परमेश्वर नहीं है!
क्या अब तुम लोगों के पास परमेश्वर के अधिकार का एक नया ज्ञान है? पहला, परमेश्वर का अधिकार जिसका अभी जिक्र किया गया, और मनुष्य की सामर्थ में एक अन्तर है। और वह अन्तर क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि दोनों के बीच कोई तुलना नहीं की जा सकती है। यह सही है! यद्यपि लोग कहते हैं कि दोनों के बीच में कोई तुलना नहीं की जा सकती है, फिर भी मनुष्य के विचारों और धारणाओं में कई बार उन दोनों को अगल बगल रखकर तुलना करते हुए मनुष्य की सामर्थ अकसर अधिकार के साथ भ्रम में पड़ जाती है। यहाँ पर क्या हो रहा है? क्या लोग असावधानी से एक को दूसरे से बदलने की ग़लती नहीं कर रहे हैं? ये दोनों जुड़े हुए नहीं हैं, उनके बीच में कोई तुलना नहीं है, फिर भी लोग अपने आपकी सहायता नहीं कर सकते हैं। इस का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? यदि तुम सचमुच में एक समाधान चाहते हो, तो उसका एकमात्र तरीका परमेश्वर के अधिकार को समझना और जानना है। सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ को समझने और जानने के बाद, तुम एक ही साँस में मनुष्य की सामर्थ और परमेश्वर के अधिकार का जिक्र नहीं करोगे।
मनुष्य की सामर्थ किस की ओर संकेत करती है? सरल रीति से कहें, यह एक योग्यता या कुशलता है जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव, उसकी इच्छा और महत्वाकांक्षा को अति विशाल मात्रा में फैलाने या पूरा करने में सक्षम बनाती है। क्या इसे अधिकार के रूप में गिन सकते हैं? इसके बावजूद कि मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ कितने फूले हुए या हितकारी हैं, उस व्यक्ति के विषय में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसके पास अधिकार है; कम से कम, इस प्रकार का फूलना और सफलता मनुष्यों के बीच शैतान के हँसी ठट्ठे का महज एक प्रदर्शन है, कम से कम यह एक हँसी ठिठोली है जिसमें शैतान अपने स्वयं के पूर्वज के समान कार्य करता है जिससे परमेश्वर बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा कर सके।
अब तुम कितनी सटीकता से परमेश्वर के अधिकार को देखते हो? अब इन शब्दों पर सभा में विचार विमर्श किया जा चुका है, तुम्हारे पास में परमेश्वर के अधिकार का एक नया ज्ञान होना चाहिए। अतः मैं तुम लोगों से पूछता हूँ: परमेश्वर का अधिकार किस का प्रतीक है? क्या वह स्वयं परमेश्वर की पहचान का प्रतीक है? क्या वह स्वयं परमेश्वर की सामर्थ का प्रतीक है? क्या वह स्वयं परमेश्वर की अद्वितीय हैसियत का प्रतीक है? सभी चीज़ों के मध्य, तुमने किस में परमेश्वर के अधिकार को देखा है? तुमने उसे कैसे देखा है? मनुष्यों के द्वारा अनुभव किए गए चार ऋतुओं के सन्दर्भ में, क्या कोई बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु, शीत ऋतु के मध्य आपस में परिवर्तन के नियमों को बदल सकता है? बसंत ऋतु में वृक्ष फूलते और फलते हैं; ग्रीष्म ऋतु में वे पत्तों से भर जाते हैं; शरद ऋतु में वे फल उत्पन्न करते हैं, और शीत ऋतु में पत्ते झड़ते हैं। क्या कोई इन नियमों को पलट सकता है? क्या यह परमेश्वर के एक पहलू को प्रतिबिम्बित करता है? "परमेश्वर ने कहा उजियाला हो," और उजियाला हो गया। क्या यह उजियाला अभी भी है? वह किस वजह से अस्तित्व में बना हुआ है? यह वास्तव में परमेश्वर के वचन के कारण, और परमेश्वर के अधिकार के कारण अस्तित्व में बना हुआ है। जिस वायु को परमेश्वर ने बनाया था क्या अब भी अस्तित्व में बनी हुई है? क्या वह वायु जिसमें मनुष्य साँस लेता है परमेश्वर से आयी है? क्या कोई उन चीज़ों को अलग कर सकता है जो परमेश्वर से आते हैं? क्या कोई उनकी हस्ती और कार्य को पलट सकता है? क्या कोई परमेश्वर के द्वारा नियुक्त रात और दिन को, और परमेश्वर के आदेशानुसार रात व दिन के नियम को भ्रमित कर सकता है? क्या शैतान ऐसा कुछ कर सकता है? भले ही तुम रात में न सोओ, और रात को दिन के समान लो, तौभी यह विचार करना एक दुःस्वप्न है; कि तुम्हारी दिनचर्या बदल सकती है, वरन तुम रात और दिन के बीच हुए आपस के परिवर्तन के नियम को बदलने में असमर्थ हो - और इस प्रमाणित सच्चाई को किसी भी व्यक्ति के द्वारा पलटा नहीं जा सकता है, क्या ऐसा नहीं है? क्या कोई बैल के समान शेर का उपयोग कर भूमि पर हल जोतने में सक्षम हो सकता है? क्या कोई एक हाथी को एक गधे में बदलने में सक्षम हो सकता है? क्या कोई एक मुर्गी को एक बाज के समान आकाश में हवा में लहराने में सक्षम हो सकता है? क्या कोई एक भेड़िऐ को एक भेड़ के समान घास खिलाने में सक्षम हो सकता है? क्या कोई जल की मछली को सूखी भूमि पर रहने के योग्य बनाने में सक्षम हो सकता है? और क्यों नहीं? क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें पानी में रहने की आज्ञा दी है, और इस प्रकार वे पानी में रहते हैं। वे भूमि पर जीवित रहने में सक्षम नहीं हैं, और मर जाएँगीं; वे परमेश्वर की आज्ञाओं की सीमाओं का उल्लंघन करने में असमर्थ हैं। सभी चीज़ों के पास उनके अस्तित्व के लिए नियम और सीमा है, और उनमें हर एक के पास उनका स्वयं का अंतःज्ञान है। इन्हें सृष्टिकर्ता के द्वारा नियुक्त किया गया है, और किसी मनुष्य के द्वारा उन्हें पलटा और उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, शेर हमेशा मनुष्य के समुदायों से दूर जंगल में ही रहेगा, और बैल के समान, जो मनुष्य के साथ रहता है और मनुष्य के लिए काम करता है, कभी भी पालतु और विश्वासयोग्य नहीं हो सकता है। यद्यपि हाथी और गधे दोनों जानवर हैं, और दोनों के पास चार पैर हैं, और ऐसे जीव हैं जो साँस लेते हैं, फिर भी वे अलग अलग प्रजातियाँ हैं, क्योंकि उन्हें दो प्रकार से बाँटा गया है, उनमें से प्रत्येक के पास उनका अपना सहज ज्ञान है, और इस प्रकार उन्हें कभी भी आपस में बदला नहीं जाएगा। यद्यपि मुर्गी के पास दो पैर है, और बाज के समान पंख भी हैं, फिर भी वह कभी हवा में उड़ नहीं पाएगी वह कम से कम एक पेड़ पर उड़ सकती है-और यह उसके सहज ज्ञान के द्वारा निर्धारित किया गया है। ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं है, पर यह सब कुछ परमेश्वर के अधिकार और आज्ञाओं के कारण हुआ है।
आज के मानवजाति के विकास में, मानवजाति के विज्ञान को "प्रगतिशील" कहा जा सकता है, और मनुष्य के वैज्ञानिक अनुसन्धानों की उपलब्धियों को "प्रभावशील" कहा जा सकता है। मनुष्य की काबिलियत के बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि वह हमेशा की तरह बढ़ रहा है, परन्तु एक अति महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे मानवजाति हासिल करने में असमर्थ हैः मानवजाति ने हवाई जहाज़, मालवाहक विमान, और परमाणु बम बनाया है, मानवजाति अंतरिक्ष में जा चुका है, चन्द्रमा पर चल चुका है, इंटरनेट का अविष्कार किया है, और बहुत ही ऊँची जीवन शैली में जीवन बिताता है, फिर भी, मानवजाति एक साँस लेते हुए जीव को बनाने में असमर्थ है। प्रत्येक जीवित प्राणी का सहज ज्ञान और वे नियम जिन के द्वारा वे जीते हैं, और हर प्रकार के जीवित प्राणी के जीवन और मृत्यु का जीवन चक्र-यह सब कुछ मनुष्य के विज्ञान के द्वारा असम्भव और नियन्त्रण के बाहर है। इस बिन्दु पर, ऐसा कहना होगा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति ने कितनी ही ऊँचाईयों को क्यों न छू लिया हो, उसकी तुलना सृष्टिकर्ता के किसी भी विचार से नहीं की जा सकती है, और वे सृष्टिकर्ता की सृष्टि की अद्भुतता, और उसके अधिकार की शक्ति को परखने में असमर्थ हैं। पृथ्वी के ऊपर कितने सारे महासागर हैं, फिर भी उन्होंने कभी भी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया, और अपनी इच्छा से भूमि पर नहीं आए, और ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने उनमें से प्रत्येक के लिए सीमाओं को ठहरा दिया है; वे वहीं ठहर गए जहाँ उसने उन्हें ठहरने की आज्ञा दी थी, और बिना परमेश्वर की आज्ञा के वे यहाँ वहाँ स्वतन्त्रता से जा नहीं सकते हैं। बिना परमेश्वर की आज्ञा के, वे एक दूसरे की सरहदों पर अतिक्रमण नहीं सकते हैं, और तभी आगे बढ़ सकते हैं जब परमेश्वर ऐसा करने लिए कहता है, और वे कहाँ जाएँगे और कहाँ ठहरेंगे यह परमेश्वर के अधिकार के द्वारा निर्धारित होता है।
इसे साफ तौर पर कहें तो, "परमेश्वर के अधिकार" का अर्थ है कि यह परमेश्वर के ऊपर निर्भर है। परमेश्वर के पास यह निर्णय लेने का अधिकार है कि किसी कार्य को कैसे करें, और जैसा वह चाहता है उसे उसी रीति से किया जाता है। सभी चीज़ों के नियम परमेश्वर के ऊपर निर्भर है, और मनुष्य के ऊपर निर्भर नहीं है; और न ही उसे मनुष्य के द्वारा पलटा जा सकता है। उसे मनुष्य की इच्छा के द्वारा हटाया नहीं जा सकता है, परन्तु इसके बजाए उसे परमेश्वर के विचारों, और परमेश्वर की बुद्धि, और परमेश्वर के आदेशों द्वारा बदला जा सकता है, और यह प्रमाणित तथ्य है जिस का इनकार मनुष्य नहीं कर सकता है। स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीज़ें, विश्व, और सितारों से जगमगाता हुआ आसमान, साल की चार ऋतुएँ, वह जो मनुष्य के लिए दृश्य और अदृश्य है - वे सभी परमेश्वर की आधीनता में, परमेश्वर के आदेशों के अनुसार, परमेश्वर की आज्ञाओं के अनुसार, और सृष्टि की उत्पत्ति के नियमों के अनुसार बिना किसी ग़लती के अस्तित्व में बने रहते हैं, कार्य करते हैं, और परिवर्तित होते हैं। कोई व्यक्ति या तत्व उनके नियमों को नहीं बदल सकता, या उनके स्वाभाविक क्रम जिस के तहत वे कार्य करते हैं उन्हें बदल सकता है; वे परमेश्वर के अधिकार के कारण अस्तित्व में आए, और परमेश्वर के अधिकार के कारण नाश हो जाते हैं। यही है परमेश्वर का अधिकार। अब जबकि इतना सब कुछ कहा जा चुका है, क्या तुम महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर का अधिकार परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर की हैसियत का प्रतीक है? क्या किसी सृजे गए प्राणी या न सृजे गए प्राणी द्वारा परमेश्वर के अधिकार को धारण किया जा सकता है? क्या किसी व्यक्ति, वस्तु, या तत्व द्वारा उसका अनुकरण, रूप धारण, या परिवर्तन किया जा सकता है?
सृष्टिकर्ता की पहचान अद्वितीय है, और तुम्हें बहुईश्वरवाद के विचार को श्रेय नहीं देना चाहिए
यद्यपि मनुष्य की अपेक्षा शैतान की कुशलताएँ और योग्यताएँ कहीं बढ़कर हैं, यद्यपि वह ऐसी चीज़ें कर सकता है जिन्हें मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है, फिर भी इसके बावजूद कि जो शैतान करता है उससे तुम ईर्ष्याकरते हो या उसकी आकांक्षा करते हो इसके बावजूद कि तुम उससे नफरत या घृणा करते हो, इसके बावजूद कि तुम उसे देखने में सक्षम हो या नहीं हो, और इसके बावजूद कि शैतान कितना हासिल कर सकता है, या वह कितने लोगों को उसकी आराधना करने में और उसे पवित्र मानने के लिए धोखा दे सकता है, और इसके बावजूद कि तुम इसे किस प्रकार परिभाषित करते हो, संभवतः तुम यह नहीं कह सकते हो कि उसके पास परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ है। तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर ही परमेश्वर है, और सिर्फ एक ही परमेश्वर है, और इसके अतिरिक्त, तुम्हें यह जानना चाहिए कि सिर्फ परमेश्वर के पास ही अधिकार है, और सभी चीज़ों के ऊपर शासन करने और उन पर नियन्त्रण करने की सामर्थ है। सिर्फ इसलिए क्योंकि शैतान के पास लोगों को धोखा देने की क्षमता है, वह परमेश्वर का रूप धारण कर सकता है, परमेश्वर द्वारा किए गए चिन्हों और चमत्कारों की नकल कर सकता है, और उसने परमेश्वर के समान ही कुछ समानान्तर चीज़ों को किया है, तो तुम भूलवश विश्वास करने लग जाते हो कि परमेश्वर अद्वितीय नहीं है, यह कि बहुत सारे ईश्वर हैं, यह कि उनके पास महज कुछ कम या कुछ ज़्यादा कुशलताएँ हैं, और यह कि उस सामर्थ का विस्तार अलग अलग है जिसे वे काम में लाते हैं। उनके आगमन के क्रम, और उनके युग के अनुसार तुम उनकी महानता को आँकते हो, और तुम भूलवश यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर से अलग कुछ अन्य देवता हैं, और यह सोचते हो कि परमेश्वर की सामर्थ और उसका अधिकार अद्वितीय नहीं है। यदि तुम्हारे पास ऐसे विचार हैं, यदि तुम परमेश्वर की अद्वितीयता को पहचान नहीं सकते हो, यह विश्वास नहीं करते हो कि सिर्फ परमेश्वर के पास ही ऐसा अधिकार है, और यदि तुम बहुईश्वरवाद को महत्व देते हो, तो मैं कहूँगा कि तुम जीवधारियों के मल हो, तुम शैतान का साकार रूप हो, और तुम निश्चित तौर पर एक बुरे इंसान हो! क्या तुम समझ रहे हो कि मैं इन शब्दों को कहने के द्वारा तुम्हें क्या सिखाने की कोशिश कर रहा हूँ? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि समय, स्थान या तुम्हारी पृष्ठभूमि क्या है, तुम परमेश्वर को किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु, या पदार्थ के साथ लेकर भ्रमित मत हो। इसके बावजूद कि तुम यह महसूस करो कि स्वयं परमेश्वर का अधिकार और परमेश्वर की हस्ती कितनी अज्ञात और अगम्य है, इसके बावजूद कि शैतान के कार्य और शब्द तुम्हारी अवधारणा और कल्पना से कितना मेल खाते हैं, इसके बावजूद कि वे तुम्हें कितनी संतुष्टि प्रदान करते हैं, मूर्ख न बनो, इन धारणाओं में भ्रमित मत हो, परमेश्वर के अस्तित्व का इनकार मत करो, परमेश्वर की पहचान और हैसियत का इनकार मत करो, परमेश्वर को दरवाज़े के बाहर मत धकेलो और "परमेश्वर" को हटाकर शैतान को अपना ईश्वर बनाने के लिए अपने हृदय के भीतर मत लाओ। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि तुम ऐसा करने के परिणामों की कल्पना करने में समर्थ हो!
यद्यपि मानवजाति को भ्रष्ट किया जा चुका है, फिर भी वह सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता के अधीन रहता है
शैतान हज़ारों सालों से मानवजाति को भ्रष्ट करता आया है। उसने बेहिसाब मात्रा में बुराईयाँ की हैं, पीढ़ियों के बाद पीढ़ियों को धोखा दिया है, और संसार में जघन्य अपराध किए हैं। उसने मनुष्य का ग़लत इस्तेमाल किया है, मनुष्य को धोखा दिया है, परमेश्वर का विरोध करने के लिए मनुष्य को बहकाया है, और ऐसे ऐसे बुरे कार्य किए हैं जिन्होंने बार बार परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना को भ्रमित और बाधित किया है। फिर भी, परमेश्वर के अधिकार के अधीन सभी चीज़ें और जीवित प्राणी परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित नियमों और व्यवस्थाओं के अनुसार निरन्तर बने हुए हैं। परमेश्वर के अधिकार की तुलना में, शैतान का बुरा स्वभाव और अनियन्त्रित विस्तार बहुत ही गन्दा है, बहुत ही घिनौना और नीच है, और बहुत ही छोटा और आसानी से प्रभावित होनेवाला है। यद्यपि शैतान उन सभी चीज़ों के बीच भ्रमण करता है जिन्हें परमेश्वर द्वारा बनाया गया था, फिर भी वह परमेश्वर की आज्ञा के द्वारा ठहराए गए लोगों, वस्तुओं, या पदार्थों में ज़रा सा भी परिवर्तन नहीं कर सकता है। कई हज़ार साल बीत गए हैं, और अभी भी मनुष्य परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए उजियाले और वायु का आनन्द उठाता है, स्वयं परमेश्वर के द्वारा फूँके गए श्वास के द्वारा साँस लेता है, अभी भी परमेश्वर के द्वारा सृजे गए फूलों, पक्षियों, मछलियों और कीड़े मकौड़ों का आनन्द उठाता है, और परमेश्वर के द्वारा प्रदान की गई सभी चीज़ों का मज़ा लेता है; दिन और रात अभी भी लगातार एक दूसरे का स्थान ले रहे हैं; चार ऋतुएँ हमेशा की तरह आपस में बदल रही हैं; आसमान में उड़नेवाले कालहँस इस शीत ऋतु मे उड़ जाएँगे, और अगले बसंत में फिर वापस भी आएँगे; जल की मछलियाँ नदियों और झीलों को - जो उनका घर है कभी भी नहीं छोड़ती हैं, ज़मीन के कीटपतिंगे (शलभ) गर्मी के दिनों में अपना दिल खोलकर गाते हैं; घास के झींगुर शरद ऋतु के दौरान हवा के साथ समय समय पर धीमे स्वर में गुनगुनाते हैं; कालहंस समूहों में इकट्ठे हो जाते हैं, जबकि बाज एकान्त में अकेले ही रहते हैं, शेरों के कुनबे शिकार करने के द्वारा अपने आपको बनाए रखते हैं; बत्तखें घास और फूलों से दूर नहीं जाते .....। सभी चीज़ों के मध्य हर प्रकार के जीवधारी चले जाते हैं फिर आते हैं, और फिर चले जाते हैं, पलक झपकते ही लाखों परिवर्तन होते हैं - परन्तु जो बदलता नहीं है वह है उनका सहज ज्ञान और जिन्दा रहने के नियम। वे परमेश्वर के प्रयोजन और परमेश्वर के पालन पोषण के अधीन जीते हैं, और कोई उनके सहज ज्ञान को बदल नहीं सकता है, और न ही कोई उनके ज़िन्दा रहने के नियमों में बाधा डाल सकता है। यद्यपि मानवजाति को, जो सभी चीज़ों के बीच में जीवन बिताता है, शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, फिर भी मनुष्य परमेश्वर के द्वारा बनाए गए जल, परमेश्वर द्वारा बनाई गई वायु, परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीज़ों को ग्रहण न करने का निर्णय नहीं ले सकता है, और मनुष्य फिर भी जीवित रहता है और परमेश्वर द्वारा बनाए गए इस समयकाल में बढ़ता रहता है। मनुष्य का अन्तःज्ञान नहीं बदला है। मनुष्य अभी भी देखने के लिए आँखों पर, सुनने के लिए कानों पर, सोचने के लिए अपने मस्तिष्क पर, समझने के लिए अपने हृदय पर, चलने के लिए अपने पैरों पर, काम करने के लिए अपने हाथों, और इत्यादि पर निर्भर है; परमेश्वर ने सब प्रकार का सहज ज्ञान मनुष्य को दिया है जिससे वह इस बात को स्वीकार कर सके कि परमेश्वर का प्रयोजन अपरिवर्तनीय बना रहता है, वे योग्यताएँ जिनके द्वारा मनुष्य परमेश्वर के साथ सहयोग करता है कभी भी नहीं बदली हैं, एक सृजे गए प्राणी का कर्तव्य निभाने की मानवजाति की योयग्यता नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता के द्वारा उद्धार पाने हेतु मानवजाति की लालसा नहीं बदली है। अपनी उत्पत्ति का पता लगाने की मानवजाति की इच्छा नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता द्वारा बचाए जाने की मानवजाति की इच्छा नहीं बदली है। मनुष्य की वर्तमान परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं, जो परमेश्वर के अधिकार के अधीन रहता है, और जिसने शैतान के द्वारा किए गए रक्तरंजित विध्वंस को सहा है। यद्यपि मानवजाति शैतान के अत्याचार की आधीनता में आ गयी थी, और वे अब सृष्टि के प्रारम्भ के आदम और हव्वा नहीं थे, और ऐसी चीज़ों से भरपूर होने के बावजूद भी जो परमेश्वर के विरूद्ध हैं, जैसे ज्ञान, कल्पनाएँ, विचार, और इत्यादि, और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से भरपूर होने के बावजूद भी, परमेश्वर की दृष्टि में मानवजाति अभी भी वही मानवजाति थी जिसे उसने सृजा था। परमेश्वर के द्वारा अभी भी मानवजाति पर शासन किया जाता है और जटिलता से उसका प्रबन्ध किया जाता है, और परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित पथक्रम के अनुसार वह अभी भी जीवन बिताती है, और इस प्रकार परमेश्वर की दृष्टि में, मानवजाति, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, वह महज गड़गड़ाहट करनेवाले पेट के साथ, ऐसी प्रतिक्रियाओं के साथ जो थोड़ी धीमी हैं, और ऐसी यादों के साथ जो इतनी अच्छी नहीं हैं जितना वे हुआ करती थीं, और थोड़े अधिक उम्र के साथ तनाव में घिरी हुई है - परन्तु मनुष्य के सारे कार्य और सहज ज्ञान पूरी तरह सुरक्षित है। यह वह मानवजाति है जिसे परमेश्वर बचाने की इच्छा करता था। इस मानवजाति को और कुछ नहीं बस सृष्टिकर्ता की बुलाहट को सुनना है, और सृष्टिकर्ता की आवाज़ को सुनना है, और वह खड़ी होगी और इस आवाज़ की स्थिति के स्रोत का पता लगाने के लिए फुर्ती करेगी। इस मानवजाति को और कुछ नहीं बस सृष्टिकर्ता के रूप को देखना है और वह अन्य सभी चीज़ों की परवाह नहीं करेगी, और सब कुछ छोड़ देगी, जिस से अपने आप को परमेश्वर के प्रति समर्पित कर सके, और अपने जीवन को भी उसके लिए दे देगी। जब मानवजाति का हृदय सृष्टिकर्ता के हृदय में महसूस किए गए वचनों को समझेगा, तो मानवजाति शैतान को ठुकराकर और सृष्टिकर्ता की ओर आ जाएगी; जब मानवजाति अपने शरीर से गन्दगी को पूरी तरह धो देगी, और एक बार फिर से सृष्टिकर्ता के प्रयोजन और पालन पोषण को प्राप्त करेगी, तब मानवजाति की स्मरण शक्ति पुनः वापस आ जाएगी, और इस समय मानवजाति सचमुच में सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में वापस आ चुकी होगी।
21 अक्टूबर 2014
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