लोग महसूस करते हैं कि वे केवल अपने कलीसिया जीवन में ही परिवर्तित हो सकते हैं, और कि यदि वे कलीसिया के अंतर्गत अपने जीवन को नहीं जी रहे हैं, तो परिवर्तन संभव नहीं है, कि वे अपने वास्तविक जीवन में परिवर्तन को प्राप्त करने में असमर्थ हैं। क्या तुम लोग पहचान सकते हो कि यह कौन सी समस्या है? मैं परमेश्वर को वास्तविक जीवन में प्रवेश कराने के विषय में बात कर चुका हूँ, और यह मार्ग उनके लिए है जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं।
वास्तव में, कलीसिया का जीवन मनुष्यों को सिद्ध बनाने का एक सीमित तरीका ही है। मनुष्यों को सिद्ध बनाने का प्राथमिक वातावरण अभी भी वास्तविक जीवन है। यही वह वास्तविक अभ्यास और वास्तविक प्रशिक्षण है जिसके विषय में मैंने बात की थी, जो मनुष्यों को सामान्य मनुष्यत्व के जीवन को प्राप्त करने और दैनिक जीवन के दौरान एक सच्चे व्यक्ति की समानता में जीने की अनुमति देता है। एक पहलू यह है कि एक व्यक्ति को अपने शैक्षणिक स्तर को ऊँचा उठाने, परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम होने, और समझने की क्षमता को प्राप्त करने के लिए शिक्षित होना आवश्यक है। दूसरा पहलू यह है कि सामान्य मनुष्यत्व कीअंतर्दृष्टि और विवेक को प्राप्त करने के लिए एक मनुष्य के रूप में जीवन जीने हेतु एक व्यक्ति के पास अपेक्षित आधारभूत ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य में इन क्षेत्रों का लगभग पूरी तरह से अभाव पाया जाता है। इसके साथ-साथ, एक व्यक्ति को कलीसियाई जीवन के द्वारा परमेश्वर के वचनों का स्वाद लेने के लिए भी आना आवश्यक है, जिससे धीरे-धीरे उस सत्य की स्पष्ट समझ प्राप्त हो जाए।ऐसा क्यों कहा जाता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने में परमेश्वर को वास्तविक जीवन में लाना आवश्यक है? न केवल कलीसिया का जीवन मनुष्य को परिवर्तित कर सकता है, परंतु इससे भी महत्वपूर्ण रूप में, मनुष्य को वास्तविक जीवन की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। अनेक विषयों में प्रशिक्षण कीउपेक्षा करते हुए, और इसके साथ-साथ उनमें स्वयं के प्रवेश करने की उपेक्षा करते हुए, तुमलोग हमेशा अपनी आत्मिक दशा और आत्मिक विषयों के बारे में बात किया करते थे। तुमलोग हर दिन लिखते थे, तुम हर दिन सुनते थे,और तुम हर दिन पढ़ते थे। तुम सबने खाना बनाते-बनाते प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! तू मेरे भीतर मेरा जीवन बन जा। मैं यह दिन कैसे बिताऊँ? कृपया मुझे आशीष दे, प्रकाशित कर। जो भी तू आज मुझ पर प्रकशित करता है, कृपया मुझे उसे इसक्षण समझने की अनुमति दे, ताकि तेरे वचन मेरे जीवन के रूप में कार्य करें।" तुम लोगों ने भोजन करते समय भी प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! तूने यह भोजन हमें दिया है। तू हमें आशीष दे। आमीन! हमारे जीवनों के लिए कृपया तुझ पर निर्भर रहने की अनुमति दे। तू हमारे साथ रह। आमीन!" भोजन समाप्त करने के बाद जब तुम बर्तन धो रहे थे, तो तुम फिर से बोलने लगे, "हे परमेश्वर, मैं यह कटोरा हूँ। इस कटोरे के इस्तेमाल के बाद यह हमारे समान बन गया है,शैतान द्वारा भ्रष्ट,और अब इसका जल से धोया जाना आवश्यक है, और तू जल है, तेरे वचन जीवन का जल है जो मेरे जीवन की जरूरतों को पूरा करता है।" ऐसा कहने के बाद जब सोने का समय आया, तो तुमने फिर बोलना आरंभ किया: "हे परमेश्वर! तूने पूरे दिनभर मुझे आशीष दी है और मेरी अगुवाई की है। मैं सचमुच तेरे प्रति आभारी हूँ…।" इस रीति से तुमने अपने दिन को व्यतीत किया और सोने चले गए। अधिकाँश लोग हर दिन ऐसे ही जीते हैं, और यहाँ तक कि अब तक उन्होंने वास्तविक प्रवेश पर ध्यान नहीं दिया ह, बल्कि अपनी प्रार्थनाओं में केवल मुँह के शब्दों पर ही ध्यान दिया है। यह मनुष्य का पिछला जीवन है - यह उनका पुराना जीवन है। अधिकाँश लोग ऐसे ही हैं, उनमें वास्तविक प्रशिक्षण की कमी है, और उनमें बहुत ही कम वास्तविक परिवर्तन होते हैं।वे अपनी प्रार्थनाओं में केवल शब्दों को बोलते हैं, केवल अपने शब्दों के द्वारा परमेश्वर के समक्ष जाते हैं परंतु उनकी समझ में परिवर्तनों की कमी पाई जाती है। आइए एक साधारण सा उदाहरण लें - अपने घर को साफ़ करना। तुम देखते हो कितुम्हारा घर बहुत गंदा है, इसलिए तुम वहां बैठकर प्रार्थना करते हो: "हे परमेश्वर! इस गंदगी की ओर देख जो शैतान इस घर पर लेकर आया है। हे परमेश्वर! मैं तेरी स्तुति करता हूँ और तुझे धन्यवाद देता हूँ। मैं इस घर के जितना ही गंदा हूँ, और तेरे उद्धार और प्रकाशन के बिना मैं इस वास्तविकता को समझ भी नहीं पाता।" तुम केवल बैठकर बोलते रहते हो, लंबे समय तक प्रार्थना करते हो, और फिर तुम ऐसे कार्य करते हो जैसे कि कुछ भी नहीं हुआ, और बड़बड़ाने वाली एक बुजुर्ग स्त्री के समान व्यवहार करते हो। तुम बहुत अधिक सतही क्रियाओं के साथ वास्तविकता में बिना किसी प्रवेश के इस तरह से अपने आत्मिक जीवन को बिताते हो! वास्तविकता में प्रवेश करने के प्रशिक्षण में लोगों के वास्तविक जीवन शामिल होते हैं, और उसमें उनकी व्यवहारिक कठिनाइयाँ शामिल होती हैं - केवल यही उन्हें परिवर्तित कर सकता है। वास्तविक जीवन के बिना मनुष्य परिवर्तित नहीं हो सकते, तो फिर अपनी प्रार्थनाओं में केवल मुँह के शब्दों को बोलने का क्या मतलब है? मनुष्यों की प्रकृति को समझे बिना, सब कुछ समय की बर्बादी है, और अभ्यास के मार्ग के बिना सब प्रयासों की बर्बादी है! सही प्रार्थना लोगों में सही दशा को बनाए रख सकती है, परंतु यह उन्हें पूरी तरह से परिवर्तित नहीं कर सकती। मानवीय स्व-धार्मिकता, घमंड, अहंकार, अभिमान और भ्रष्ट स्वभाव को जानना - इन बातों का ज्ञान प्रार्थनाओं के द्वारा नहीं आता, परंतु परमेश्वर के वचनों का स्वाद लेने के द्वारा उन्हें देखा जा सकता है, और उन्हें वास्तविक जीवन में पवित्र आत्मा के प्रकाशन के द्वारा जाना जा सकता है। आजकल लोग बहुत अच्छी तरह से बोल सकते हैं, और उन्होंने उत्कृष्ट प्रचारों को भी सुना है, अब तक का दूसरों से अधिक उत्कृष्ट प्रचार भी सुना है, फिर भी वास्तविकता में उसमें से बहुत कम उनके वास्तविक जीवन में लागू होता है। कहने का अर्थ है, लोगों के वास्तविक जीवन में परमेश्वर है ही नहीं, और वे परिवर्तन के बाद के नए मनुष्य के जीवन की कमी को महसूस करते ह। उनके लिए वास्तविक जीवन में सच्चाई के साथ जीना कुछ है ही नहीं, और न ही वास्तविक जीवन में वे परमेश्वर को लाते हैं। लोगों के जीवन ऐसे जीए जाते हैं जैसे कि वे नरक की संतान हों। क्या यह एक स्पष्ट भटकाव नहीं है?
वास्तव में, कलीसिया का जीवन मनुष्यों को सिद्ध बनाने का एक सीमित तरीका ही है। मनुष्यों को सिद्ध बनाने का प्राथमिक वातावरण अभी भी वास्तविक जीवन है। यही वह वास्तविक अभ्यास और वास्तविक प्रशिक्षण है जिसके विषय में मैंने बात की थी, जो मनुष्यों को सामान्य मनुष्यत्व के जीवन को प्राप्त करने और दैनिक जीवन के दौरान एक सच्चे व्यक्ति की समानता में जीने की अनुमति देता है। एक पहलू यह है कि एक व्यक्ति को अपने शैक्षणिक स्तर को ऊँचा उठाने, परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम होने, और समझने की क्षमता को प्राप्त करने के लिए शिक्षित होना आवश्यक है। दूसरा पहलू यह है कि सामान्य मनुष्यत्व कीअंतर्दृष्टि और विवेक को प्राप्त करने के लिए एक मनुष्य के रूप में जीवन जीने हेतु एक व्यक्ति के पास अपेक्षित आधारभूत ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य में इन क्षेत्रों का लगभग पूरी तरह से अभाव पाया जाता है। इसके साथ-साथ, एक व्यक्ति को कलीसियाई जीवन के द्वारा परमेश्वर के वचनों का स्वाद लेने के लिए भी आना आवश्यक है, जिससे धीरे-धीरे उस सत्य की स्पष्ट समझ प्राप्त हो जाए।ऐसा क्यों कहा जाता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने में परमेश्वर को वास्तविक जीवन में लाना आवश्यक है? न केवल कलीसिया का जीवन मनुष्य को परिवर्तित कर सकता है, परंतु इससे भी महत्वपूर्ण रूप में, मनुष्य को वास्तविक जीवन की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। अनेक विषयों में प्रशिक्षण कीउपेक्षा करते हुए, और इसके साथ-साथ उनमें स्वयं के प्रवेश करने की उपेक्षा करते हुए, तुमलोग हमेशा अपनी आत्मिक दशा और आत्मिक विषयों के बारे में बात किया करते थे। तुमलोग हर दिन लिखते थे, तुम हर दिन सुनते थे,और तुम हर दिन पढ़ते थे। तुम सबने खाना बनाते-बनाते प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! तू मेरे भीतर मेरा जीवन बन जा। मैं यह दिन कैसे बिताऊँ? कृपया मुझे आशीष दे, प्रकाशित कर। जो भी तू आज मुझ पर प्रकशित करता है, कृपया मुझे उसे इसक्षण समझने की अनुमति दे, ताकि तेरे वचन मेरे जीवन के रूप में कार्य करें।" तुम लोगों ने भोजन करते समय भी प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! तूने यह भोजन हमें दिया है। तू हमें आशीष दे। आमीन! हमारे जीवनों के लिए कृपया तुझ पर निर्भर रहने की अनुमति दे। तू हमारे साथ रह। आमीन!" भोजन समाप्त करने के बाद जब तुम बर्तन धो रहे थे, तो तुम फिर से बोलने लगे, "हे परमेश्वर, मैं यह कटोरा हूँ। इस कटोरे के इस्तेमाल के बाद यह हमारे समान बन गया है,शैतान द्वारा भ्रष्ट,और अब इसका जल से धोया जाना आवश्यक है, और तू जल है, तेरे वचन जीवन का जल है जो मेरे जीवन की जरूरतों को पूरा करता है।" ऐसा कहने के बाद जब सोने का समय आया, तो तुमने फिर बोलना आरंभ किया: "हे परमेश्वर! तूने पूरे दिनभर मुझे आशीष दी है और मेरी अगुवाई की है। मैं सचमुच तेरे प्रति आभारी हूँ…।" इस रीति से तुमने अपने दिन को व्यतीत किया और सोने चले गए। अधिकाँश लोग हर दिन ऐसे ही जीते हैं, और यहाँ तक कि अब तक उन्होंने वास्तविक प्रवेश पर ध्यान नहीं दिया ह, बल्कि अपनी प्रार्थनाओं में केवल मुँह के शब्दों पर ही ध्यान दिया है। यह मनुष्य का पिछला जीवन है - यह उनका पुराना जीवन है। अधिकाँश लोग ऐसे ही हैं, उनमें वास्तविक प्रशिक्षण की कमी है, और उनमें बहुत ही कम वास्तविक परिवर्तन होते हैं।वे अपनी प्रार्थनाओं में केवल शब्दों को बोलते हैं, केवल अपने शब्दों के द्वारा परमेश्वर के समक्ष जाते हैं परंतु उनकी समझ में परिवर्तनों की कमी पाई जाती है। आइए एक साधारण सा उदाहरण लें - अपने घर को साफ़ करना। तुम देखते हो कितुम्हारा घर बहुत गंदा है, इसलिए तुम वहां बैठकर प्रार्थना करते हो: "हे परमेश्वर! इस गंदगी की ओर देख जो शैतान इस घर पर लेकर आया है। हे परमेश्वर! मैं तेरी स्तुति करता हूँ और तुझे धन्यवाद देता हूँ। मैं इस घर के जितना ही गंदा हूँ, और तेरे उद्धार और प्रकाशन के बिना मैं इस वास्तविकता को समझ भी नहीं पाता।" तुम केवल बैठकर बोलते रहते हो, लंबे समय तक प्रार्थना करते हो, और फिर तुम ऐसे कार्य करते हो जैसे कि कुछ भी नहीं हुआ, और बड़बड़ाने वाली एक बुजुर्ग स्त्री के समान व्यवहार करते हो। तुम बहुत अधिक सतही क्रियाओं के साथ वास्तविकता में बिना किसी प्रवेश के इस तरह से अपने आत्मिक जीवन को बिताते हो! वास्तविकता में प्रवेश करने के प्रशिक्षण में लोगों के वास्तविक जीवन शामिल होते हैं, और उसमें उनकी व्यवहारिक कठिनाइयाँ शामिल होती हैं - केवल यही उन्हें परिवर्तित कर सकता है। वास्तविक जीवन के बिना मनुष्य परिवर्तित नहीं हो सकते, तो फिर अपनी प्रार्थनाओं में केवल मुँह के शब्दों को बोलने का क्या मतलब है? मनुष्यों की प्रकृति को समझे बिना, सब कुछ समय की बर्बादी है, और अभ्यास के मार्ग के बिना सब प्रयासों की बर्बादी है! सही प्रार्थना लोगों में सही दशा को बनाए रख सकती है, परंतु यह उन्हें पूरी तरह से परिवर्तित नहीं कर सकती। मानवीय स्व-धार्मिकता, घमंड, अहंकार, अभिमान और भ्रष्ट स्वभाव को जानना - इन बातों का ज्ञान प्रार्थनाओं के द्वारा नहीं आता, परंतु परमेश्वर के वचनों का स्वाद लेने के द्वारा उन्हें देखा जा सकता है, और उन्हें वास्तविक जीवन में पवित्र आत्मा के प्रकाशन के द्वारा जाना जा सकता है। आजकल लोग बहुत अच्छी तरह से बोल सकते हैं, और उन्होंने उत्कृष्ट प्रचारों को भी सुना है, अब तक का दूसरों से अधिक उत्कृष्ट प्रचार भी सुना है, फिर भी वास्तविकता में उसमें से बहुत कम उनके वास्तविक जीवन में लागू होता है। कहने का अर्थ है, लोगों के वास्तविक जीवन में परमेश्वर है ही नहीं, और वे परिवर्तन के बाद के नए मनुष्य के जीवन की कमी को महसूस करते ह। उनके लिए वास्तविक जीवन में सच्चाई के साथ जीना कुछ है ही नहीं, और न ही वास्तविक जीवन में वे परमेश्वर को लाते हैं। लोगों के जीवन ऐसे जीए जाते हैं जैसे कि वे नरक की संतान हों। क्या यह एक स्पष्ट भटकाव नहीं है?
एक सामान्य व्यक्ति की समानता को पुनर्स्थापित करने के लिए, अर्थात् सामान्य मनुष्यत्व को प्राप्त करने के लिए लोग केवल अपने शब्दों से परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते। ऐसा करने के द्वारा वे स्वयं को नुकसान पहुंचा रहे हैं, और यह उनके प्रवेश और परिवर्तन को कोई लाभ नहीं पहुँचाता। अतः परिवर्तन को प्राप्त करने के लिए लोगों को थोड़ा-थोड़ा करके अभ्यास करना, धीरे-धीरे प्रवेश करना, थोड़ा-थोड़ा करके खोजना और जांचना, सकारात्मकता से प्रवेश करना, और सत्य के व्यावहारिक जीवन को जीना, अर्थात् पवित्र लोगों के जीवन को जीना आवश्यक है। अब से, इसमें वास्तविक विषय, वास्तविक बातें, और वास्तविक वातावरण शामिल होगा, जिससे लोगों को व्यावहारिक प्रशिक्षण मिलेगा। इसमें लोगों को केवल अपने मुँह से शब्दों को बोलने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि इसमें वास्तविक वातावरणों में प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। लोग यह अनुभव करते हैं कि उनमें क्षमता की कमी है, और फिर वे सही रूप में परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, सही प्रवेश और सही अभ्यास को प्राप्त करते हैं; इस प्रकार से वे वास्तविकता को प्राप्त करते हैं, और इसी प्रकार से प्रवेश और भी अधिक तेजी से हो सकता है। लोगों को परिवर्तित करने के लिए कुछ व्यावहारिकता होनी आवश्यक है, उन्हें वास्तविक विषयों के साथ, वास्तविक बातों के साथ और वास्तविक वातावरणों में अभ्यास करना आवश्यक है। केवल कलीसियाई जीवन पर निर्भर रहने के द्वारा क्या सच्चे प्रशिक्षण को प्राप्त करना संभव है? क्या मनुष्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? नहीं। यदि मनुष्य वास्तविक जीवन में प्रवेश करने में असमर्थ है, तो वह कार्यों को करने और जीवन को जीने के पुराने तरीकों को बदलने में भी असमर्थ है। यह पूरी तरह से मनुष्य के आलस्य या उसकी मजबूत निर्भरता के कारण ही नहीं होता है, बल्कि यह इसलिए होता है क्योंकि मनुष्य के पास जीवन जीने की क्षमता नहीं है, और इससे बढ़कर उसके पास एक सामान्य मनुष्य की समानता के ऐसे स्तर की समझ नहीं है जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। अतीत में, लोग हमेशा बात करते थे, बोलते थे, संगति रखते थे, और वे "वक्ता" भी बन गए थे; फिर भी उनमें से कोई भी अपने जीवन में परिवर्तन को नहीं खोज रहा था; वे केवल मजबूत सिद्धांतों को खोजने पर बल देते थे। अतः, आज तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करने के इस धार्मिक जीवन को बदलना आवश्यक है। तुम्हें एक कार्य, एक विषय, एक व्यक्ति को लक्ष्य बनाने के द्वारा प्रवेश करना है और अभ्यास करना है। तुम्हें ध्यान लगा कर कार्यों को करना है - केवल तभी तुम्हें सही परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। लोगों को बदलने के लिए, यह उनके तत्व से आरंभ होना चाहिए। कार्य का लक्ष्य लोगों के तत्व, उनके जीवन, आलस्य, निर्भरता, और दासत्व पर होना चाहिए, और केवल इस तरीके से वे परिवर्तित हो सकते हैं।
यद्यपि कलीसिया का जीवन कुछ क्षेत्रों में परिणाम ला सकता है, परंतु कुंजी अभी भी यही है कि वास्तविक जीवन लोगों को परिवर्तित कर सकता है, और उनका पुराना स्वभाव वास्तविक जीवन के बिना परिवर्तित नहीं हो सकता। आइए अनुग्रह के युग में यीशु के कार्य को देखें। जब यीशु ने पुराने नियमों को हटाया और नए युग की आज्ञाओं को स्थापित किया, तो उसने वास्तविक जीवन के उदाहरणों से बात की। जब यीशु अपने चेलों को एक रविवार के दिन गेहूँ के खेत से होते हुए ले गया, और जब चेलों को भूख लगी और उन्होंने गेहूं की बालें तोड़कर खाईं, तो अविश्वासियों ने वह देखा और कहा कि उन्होंने सब्त के दिन का पालन नहीं किया। उन्होंने यह भी कहा कि लोगों को सब्त के दिन गड्ढे में गिरे बछड़ों को बचाने की अनुमति भी नहीं है, उनका कहना था कि सब्त के दिन कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिए। यीशु ने नए युग की आज्ञाओं कोधीरे-धीरे लागू करने के लिएइन घटनाओं का प्रयोग किया। उस समय, लोगों को समझाने और परिवर्तित करने के लिए उसने बहुत से व्यावहारिक विषयों का प्रयोग किया। यही वह सिद्धांत है जिसके द्वारा पवित्र आत्मा कार्य करता है, और केवल यही तरीका है जो लोगों को बदल सकता है। जब व्यवहारिक विषयों के ज्ञान की कमी हो तो लोग केवल सैद्धांतिक रूप से ही समझ को प्राप्त कर सकते हैं और वे केवल बौद्धिक रूप से बातों को समझ सकते हैं - यह लोगों को परिवर्तित करने का प्रभावशाली तरीका नहीं है।प्रशिक्षण के द्वारा बुद्धि और अंतर्दृष्टि कोप्राप्त करने के बारे में बात करना, यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है?क्या मनुष्य केवल सुनने, पढ़ने, और अपने ज्ञान को बढ़ाने से बुद्धि और अंतर्दृष्टि को प्राप्त कर सकता है? यह किस प्रकार बुद्धि और अंतर्दृष्टि प्राप्त करने की ओर अगुवाई करता है? मनुष्य को वास्तविक जीवन के द्वारा समझने और अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए। अतः प्रशिक्षण में कमी नहीं होनी चाहिए और एक व्यक्ति वास्तविक जीवन से हट नहीं सकता। मनुष्य को विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए और भिन्न पहलुओं में उसके पास प्रवेश होने चाहिए: शैक्षणिक स्तर, अभिव्यक्ति, चीजों को देखने की योग्यता, विवेक, परमेश्वर के वचनों को समझने की योग्यता, व्यावहारिक ज्ञान, और मनुष्यजाति के नियम, और मनुष्यजाति से संबंधित अन्य बातें जिनसे मनुष्य को परिपूर्ण होना चाहिए। समझ को प्राप्त करने के बाद मनुष्य को प्रवेश पर ध्यान देना चाहिए, और केवल तभी परिवर्तन को प्राप्त किया जा सकता है। यदि मनुष्य ने समझ को प्राप्त कर लिया हो परंतु फिर भी अभ्यास की उपेक्षा की हो, तो परिवर्तन कैसे हो सकता है? अब, मनुष्य ने बहुत कुछ समझ लिया है, परंतु वह वास्तविकता को नहीं जीता, इसलिए उसके पास परमेश्वर के वचनों की केवल थोड़ी सी मूलभूत समझ होती है। तुम केवल आंशिक रूप से प्रकाशित हुएहो; तुमने केवल पवित्र आत्मा से केवल थोड़ा सा प्रकाशन पाया है, फिर भी वास्तविक जीवन में तुम्हारा प्रवेश नहीं हुआ है, या शायद तुमप्रवेश की परवाह भी नहीं करते, इस प्रकार,तुममें केवल थोड़ा सा परिवर्तन होगा। इतने लंबे समय के बाद, लोगों ने बहुत कुछ समझ लिया है और वे सिद्धांतों के अपने ज्ञान के बारे में बहुत कुछ बोल सकते हैं, परंतु उनका बाहरी स्वभाव वैसे ही रहता है, और उनकी मूल क्षमता थोड़ी सी भी नहीं बढ़ती और वहीं बनी रहती है। यदि ऐसा है तो तुम अंततः कब प्रवेश करोगे?
कलीसियाई जीवन केवल इस प्रकार का जीवन है जहाँ मनुष्य परमेश्वर के वचनों का स्वाद लेने के लिए एकत्र होते हैं,और यह एक व्यक्ति के जीवन का छोटा सा भाग ही होता है। यदि एक व्यक्ति का वास्तविक जीवन भी कलीसियाई जीवन के जैसा हो, जिसमें उचित आत्मिक जीवन भी शामिल हो, परमेश्वर के वचनों का सही रूप से स्वाद लिया जाए, सही रीति से प्रार्थना की जाए और परमेश्वर के निकट रहा जाए, एक ऐसा वास्तविक जीवन जीया जाए जहाँ सब कुछ परमेश्वर की इच्छाकेअनुसार हो, एक ऐसा वास्तविक जीवन जीया जाए जहाँ सब कुछ सत्य के अनुसार हो, प्रार्थना करने का वास्तविक जीवन जीया जाए और परमेश्वर के समक्ष शांत रहा जाए, गीतों का गाया जाना और नृत्य किये जानेका अभ्यास हो, तो केवल ऐसा जीवन ही मनुष्य को परमेश्वर के वचनों के जीवन में लेकर आएगा। अधिकाँश लोग केवल अपने कलीसियाई जीवन के कई घंटों पर ही ध्यान देते हैं, और वे उन घंटों की सीमा से बाहर अपने जीवन की "सुधि" नहीं रखते, जैसे कि इनकी उनको कोई परवाह न हो। ऐसे भी कई लोग हैं जो केवल परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय, गीतों को गाते और प्रार्थना करते समय ही पवित्र लोगों के जीवन में प्रवेश करते हैं, उसके बाद वे उन समयों से बाहर अपने पुराने व्यक्तित्वों में लौट जाते हैं। ऐसे जीवन लोगों को बदल नहीं सकते, और वे उन्हें परमेश्वर को जानने की अनुमति नहीं देंगे। परमेश्वर पर विश्वास करने में, यदि मनुष्य अपने स्वभाव में परिवर्तन की चाहत रखता है, तो उसे वास्तविक जीवन से स्वयं को अलग नहीं करना चाहिए। वास्तविक जीवन में नियमित परिवर्तन को प्राप्त करने से पहले तुम्हें स्वयं को जानने की, स्वयं को त्यागने की, सत्य का अभ्यास करने की, और साथ ही सब बातों में सिद्धांतों, व्यावहारिक ज्ञान और अपने आचरण के नियमों को समझने की आवश्यकता है। यदि तुम केवल सिद्धांतों के ज्ञान पर ही ध्यान लगाते हो, और वास्तविकता की गहराई में प्रवेश किए बिना, वास्तविक जीवन में प्रवेश किये बिना धार्मिक अनुष्ठानों के बीच ही जीते हो, तो तुम कभी वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे, तुम कभी स्वयं को, सत्य को या परमेश्वर को नहीं जान पाओगे, और तुम सदैव अंधे और अनजान ही बने रहोगे। मनुष्य में परमेश्वर के कार्य करने का उद्देश्य यह नहीं है कि वह पूरे दिन में से कुछ घंटों के लिए उसे उचित मानवीय जीवन को रखने की अनुमति दे और बाकी समय वह शरीर के कार्यों के अनुसार बिताए। और यह सिद्धांतों के विषय में मनुष्य के ज्ञान को परिवर्तित करने के लिए नहीं है। बल्कि, यह उसके पुराने स्वभाव को बदलने के लिए है, उसके सम्पूर्ण पुराने जीवन को बदलने के लिए है, उसकी सारी पुरानी विचारधाराओं और उसके मानसिक दृष्टिकोण को बदलने के लिए है। केवल कलीसियाई जीवन पर ध्यान देने से मनुष्य के जीवन की पुरानी आदतें या लंबे समय तक जीए पुराने तरीके नहीं बदलेंगे। कुछ भी हो, मनुष्य को वास्तविक जीवन से अलग नहीं बनना चाहिए। परमेश्वर चाहता है कि लोग वास्तविक जीवन में सामान्य मनुष्यत्व को जीएँ, न केवल कलीसियाई जीवन में; कि वे वास्तविक जीवन में सत्य को जीएँ, न केवल कलीसियाई जीवन में; कि वे वास्तविक जीवन में अपने कार्य को पूरा करें, न केवल कलीसियाई जीवन में। वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए एक व्यक्ति को सब कुछ वास्तविक जीवन की ओर मोड़ देना चाहिए। यदि परमेश्वर पर विश्वास करने वाले वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं कर सकते और स्वयं को नहीं जान सकते या वास्तविक जीवन में सामान्यमनुष्यत्व को नहीं जी सकते, तो वे विफल हो जाएँगे। वे जो परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानते वे सब ऐसे लोग हैं जो वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं कर सकते। वे सब ऐसे लोग हैं जो मनुष्यत्व के बारे में बात करते हैं परंतु दुष्टात्माओं की प्रकृति में जीते हैं। वे सब ऐसे लोग हैं जो सत्य के बारे में बात करते हैं परंतु उसके स्थान पर धर्मसिद्धांतों को जीते हैं। जो वास्तविक जीवन में सत्य के साथ नहीं जी सकते, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास तो करते हैं परंतु वे उसके द्वारा घृणित और अस्वीकृत माने जाते हैं। तुम्हें वास्तविक जीवन में प्रवेश करने का अभ्यास करना है, अपनी कमियों, अवज्ञाकारिता, और अज्ञानता को जानना है, और अपने असामान्य मनुष्यत्व और अपनी कमियों को जानना है। इस तरह से, तुम्हारा सारा ज्ञान तुम्हारी वास्तविक परिस्थिति और कठिनाइयों के साथ एकीकृत हो जाएगा। केवल इस प्रकार का ज्ञान वास्तविक होता है और तुम्हें स्वयं की दशा को सच्चाई के साथ समझने और तुम्हारे स्वभाव-संबंधी परिवर्तनों को प्राप्त करने की अनुमति दे सकता है।
अब जबकि मनुष्यजाति को पूर्ण बनाने की प्रक्रिया औपचारिक रूप से आरंभ हो चुकी है, इसलिए वास्तविक जीवन में प्रवेश किया जाना आवश्यक है। अतः परिवर्तन को प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को वास्तविक जीवन में प्रवेश के साथ आरंभ करना चाहिए औरथोड़ा-थोड़ा करके परिवर्तित होना चाहिए। यदि तुम मनुष्य के सामान्य जीवन को नजरअंदाज करते हो और केवल आत्मिक विषयों के बारे में बात करते हो, तो चीज़ें सूखी और सतही हो जाती हैं, वे बनावटी हो जाती हैं, और फिर मनुष्य कैसे परिवर्तित हो सकता है? अब तुम्हें अभ्यास करने के लिए वास्तविक जीवन में प्रवेश करने को कहा गया है, ताकि तुम सच्चे अनुभव में प्रवेश करने की नींव को स्थापित करो। यह ऐसा एक कार्य है जो मनुष्य को करना चाहिए। पवित्र आत्मा का कार्य मुख्य रूप से अगुवाई करना है, जबकि बाकी कार्य लोगों के अभ्यास और प्रवेश पर निर्भर करता है। प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न मार्गों से वास्तविक जीवन में प्रवेश को प्राप्त कर सकता है, जैसे कि वे परमेश्वर को वास्तविक जीवन में ला सकते हैं और वास्तविक सामान्य मनुष्यत्व को जी सकते हैं। केवल यही अर्थपूर्ण जीवन है!
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