सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है (IV)
आज, हम एक खास विषय पर बातचीत कर रहे हैं। तुम लोगों में से प्रत्येक के लिये, केवल दो ही बातें हैं जिनके विषय में तुम्हें जानना, अनुभव करना और समझना आवश्यक है-और ये दो बातें क्या हैं? पहली बात है, लोगों का जीवन में व्यक्तिगत रूप से प्रवेश, और दूसरी, परमेश्वर को जानने के विषय से संबंधित है। आज मैं तुम्हें विकल्प देता हूं: एक को चुनो। क्या तुम लोग ऐसे विषय के बारे में सुनना पसंद करोगे, जो लोगों के व्यक्तिगत जीवन के विषय से संबंधित है, या स्वयं परमेश्वर को जानने के बारे में सुनना चाहोगे? और मैं तुम्हें ऐसा विकल्प क्यों देता हूँ?
क्योंकि आज मेरे मन में आया है कि मैं तुम्हें परमेश्वर को जानने के विषय में कुछ नई बातों की जानकारी दूं। परन्तु, इन सब बातों को छोड़, मैं पहले तुम्हें दो बातों में से चुनने का अवसर दूँगा जिनके विषय में मैनें अभी बोला है। (मैं उसको चुनता हूँ जो परमेश्वर को जानने के विषय में है।) (हम भी सोचते हैं कि परमेश्वर के ज्ञान के विषय में बात करना बेहतर है।) क्या तुम्हारे विचार में अभी हाल ही में हम परमेश्वर को जानने के विषय में जो बातें करते रहे हैं वे साध्य हैं? (जब परमेश्वर ने पहली बार बातचीत का आयोजन किया, तो हमें ऐसा नहीं लगा। उसके पश्चात्, परमेश्वर ने कई बार और भी बातचीत के आयोजन किए, और परमेश्वर द्वारा रचे गये वातावरणों में, जब हम पहली बातचीत पर वापस गए, तो भाइयों और बहनों ने इस क्षेत्र में अनुभव करने की ओर ध्यान दिया।) यह कहना उचित होगा कि यह अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर है। इन बातों से तुम लोग शायद आश्वस्त न हुए हो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम लोग उन बातों को सुन रहे थे जिन्हें मैं पहले कह रहा था, चाहे मैंने उसे किसी भी प्रकार से कहा हो, या किन्हीं भी शब्दों में कहा हो, जब तुमने उसे सुना, शाब्दिक और सैद्धांतिक रूप में, तो तुम लोग जानते थे कि मैं क्या कह रहा था, परन्तु तुम्हारे साथ एक अत्यन्त गंभीर समस्या यह थी, कि तुमने नहीं समझा कि मैंने इन बातों को क्यों कहा, क्यों मैंने इन विषयों पर बोला। यह समस्या का मूल है। और इसलिए, यद्यपि इन बातों को सुनने से परमेश्वर और उसके कार्यों के प्रति तुम्हारी समझ में वृद्धि और समृद्धि हुई है, क्यों अभी भी तुम लोगों को परमेश्वर को जानने के संबंध में कठिनाई हो रही है? कारण यह हैः जो कुछ मैंने कहा उसे सुनने के बाद, तुम लोगों में से अधिकांश नहीं समझते कि मैंने ऐसा क्यों कहा, और परमेश्वर को जानने से इसका क्या संबंध है। क्या यह ऐसा नहीं है? परमेश्वर को जानने से इसके संबंध को समझने की तुम्हारी असमर्थता किससे जुड़ी हुई है? क्या तुम लोगों ने इसके विषय में कभी विचार किया है? शायद नहीं। तुम लोग इन बातों को नहीं समझते इसका कारण है कि तुम लोगों के जीवन का अनुभव अत्यधिक सतही है। यदि परमेश्वर के वचन के विषय में लोगों का ज्ञान और अनुभव निचले स्तर पर ही बना हुआ है, तो परमेश्वर के विषय में उनका अधिकतर ज्ञान अधूरा और अमूर्त होगा-वह प्राथमिक, मत-संबंधी और सैद्धान्तिक होगा। सैद्धांतिक रूप में, यह तर्कसंगत और उचित प्रतीत होता है, परन्तु अधिकांश लोगों के मुख से निकला हुआ परमेश्वर का ज्ञान खोखला होता है। और मैं क्यों ऐसा कहता हूँ कि यह खोखला होता है? क्योंकि यह वास्तव में तुम लोगों के मन में स्पष्ट नहीं है कि परमेश्वर को जानने के संबंध में जो शब्द तुम्हारे मुख से निकलते हैं, वे सही हैं अथवा नहीं, कि वे विशुद्ध हैं कि नहीं। और इसलिये, यद्यपि अधिकांश लोगों ने परमेश्वर को जानने के संबंध में बहुत सी जानकारी और विषयों के बारे में सुना है, फिर भी परमेश्वर के विषय में उनके ज्ञान को अभी भी सिद्धान्त और अस्पष्ट और भावात्मक सिद्धान्त से परे जाने की आवश्यकता है।
क्योंकि आज मेरे मन में आया है कि मैं तुम्हें परमेश्वर को जानने के विषय में कुछ नई बातों की जानकारी दूं। परन्तु, इन सब बातों को छोड़, मैं पहले तुम्हें दो बातों में से चुनने का अवसर दूँगा जिनके विषय में मैनें अभी बोला है। (मैं उसको चुनता हूँ जो परमेश्वर को जानने के विषय में है।) (हम भी सोचते हैं कि परमेश्वर के ज्ञान के विषय में बात करना बेहतर है।) क्या तुम्हारे विचार में अभी हाल ही में हम परमेश्वर को जानने के विषय में जो बातें करते रहे हैं वे साध्य हैं? (जब परमेश्वर ने पहली बार बातचीत का आयोजन किया, तो हमें ऐसा नहीं लगा। उसके पश्चात्, परमेश्वर ने कई बार और भी बातचीत के आयोजन किए, और परमेश्वर द्वारा रचे गये वातावरणों में, जब हम पहली बातचीत पर वापस गए, तो भाइयों और बहनों ने इस क्षेत्र में अनुभव करने की ओर ध्यान दिया।) यह कहना उचित होगा कि यह अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर है। इन बातों से तुम लोग शायद आश्वस्त न हुए हो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम लोग उन बातों को सुन रहे थे जिन्हें मैं पहले कह रहा था, चाहे मैंने उसे किसी भी प्रकार से कहा हो, या किन्हीं भी शब्दों में कहा हो, जब तुमने उसे सुना, शाब्दिक और सैद्धांतिक रूप में, तो तुम लोग जानते थे कि मैं क्या कह रहा था, परन्तु तुम्हारे साथ एक अत्यन्त गंभीर समस्या यह थी, कि तुमने नहीं समझा कि मैंने इन बातों को क्यों कहा, क्यों मैंने इन विषयों पर बोला। यह समस्या का मूल है। और इसलिए, यद्यपि इन बातों को सुनने से परमेश्वर और उसके कार्यों के प्रति तुम्हारी समझ में वृद्धि और समृद्धि हुई है, क्यों अभी भी तुम लोगों को परमेश्वर को जानने के संबंध में कठिनाई हो रही है? कारण यह हैः जो कुछ मैंने कहा उसे सुनने के बाद, तुम लोगों में से अधिकांश नहीं समझते कि मैंने ऐसा क्यों कहा, और परमेश्वर को जानने से इसका क्या संबंध है। क्या यह ऐसा नहीं है? परमेश्वर को जानने से इसके संबंध को समझने की तुम्हारी असमर्थता किससे जुड़ी हुई है? क्या तुम लोगों ने इसके विषय में कभी विचार किया है? शायद नहीं। तुम लोग इन बातों को नहीं समझते इसका कारण है कि तुम लोगों के जीवन का अनुभव अत्यधिक सतही है। यदि परमेश्वर के वचन के विषय में लोगों का ज्ञान और अनुभव निचले स्तर पर ही बना हुआ है, तो परमेश्वर के विषय में उनका अधिकतर ज्ञान अधूरा और अमूर्त होगा-वह प्राथमिक, मत-संबंधी और सैद्धान्तिक होगा। सैद्धांतिक रूप में, यह तर्कसंगत और उचित प्रतीत होता है, परन्तु अधिकांश लोगों के मुख से निकला हुआ परमेश्वर का ज्ञान खोखला होता है। और मैं क्यों ऐसा कहता हूँ कि यह खोखला होता है? क्योंकि यह वास्तव में तुम लोगों के मन में स्पष्ट नहीं है कि परमेश्वर को जानने के संबंध में जो शब्द तुम्हारे मुख से निकलते हैं, वे सही हैं अथवा नहीं, कि वे विशुद्ध हैं कि नहीं। और इसलिये, यद्यपि अधिकांश लोगों ने परमेश्वर को जानने के संबंध में बहुत सी जानकारी और विषयों के बारे में सुना है, फिर भी परमेश्वर के विषय में उनके ज्ञान को अभी भी सिद्धान्त और अस्पष्ट और भावात्मक सिद्धान्त से परे जाने की आवश्यकता है।
अतः इस समस्या को किस प्रकार सुलझाया जा सकता है? क्या तुम लोगों ने इस विषय में कभी सोचा है? यदि कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो क्या वे वास्तविकता से सम्पन्न हो सकते है? (वे नहीं हो सकते हैं।) निश्चित रूप से वे नहीं हो सकते हैं। यदि कोई सच्चाई का अनुसरण नहीं करता है, तब निर्विवाद रूप से वे वास्तविकता रहित हैं और इसलिये निश्चित रूप से उन्हें परमेश्वर के वचन का ज्ञान और अनुभव नहीं है। और क्या वे जो परमेश्वर के वचन को नहीं जानते, वे परमेश्वर को जान सकते है? बिल्कुल नहीं! दोनों आपस में जुड़े हैं। इस प्रकार अधिकांश लोग कहते हैं, "परमेश्वर को जानना इतना कठिन किस प्रकार हो सकता है? यह इतना कठिन क्यों है? मैं क्यों परमेश्वर के ज्ञान के विषय में कुछ कह नहीं सकता?" जब तुम स्वयं को जानने के विषय में बात करते हो तो तुम घण्टों तक बोल सकते हो, परन्तु जब परमेश्वर को जानने की बात उठती है तो तुम्हारे पास शब्दों का अभाव हो जाता है। यदि तुम थोड़ा-बहुत बोल भी सकते हो, तो वह जबरन और उबाऊ होता है-जब तुम इस विषय पर स्वयं को बोलते हुए सुनते हो तो स्वयं तुम्हें बड़ा अटपटा लगता है। ये स्रोत है। यदि तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को जानना अत्यन्त कठिन है, तुम्हारे लिये यह अत्यन्त थकाऊ है, तुम्हारे पास बोलने के लिये कुछ नहीं है-लोगों से बात करने और देने के लिये, और स्वयं को देने के लिए असल कुछ नहीं है-तो यह प्रमाणित करता है कि तुम उनमें से नहीं हो जिसने परमेश्वर के वचन का अनुभव किया हो। परमेश्वर के वचन क्या हैं? क्या परमेश्वर के वचन परमेश्वर के स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं हैं? यदि तुमने परमेश्वर के वचन का अनुभव नहीं किया है, तो क्या तुम परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान पा सकते हो? निश्चित रूप से नहीं, ठीक है न? ये सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। यदि तुम्हें परमेश्वर के वचन का कोई भी अनुभव नहीं है तो तुम परमेश्वर की इच्छा को ग्रहण नहीं कर सकते, और उसका स्वभाव क्या है वह नहीं जान पाओगे, उसे क्या पसंद है, वह किस बात से घृणा करता है, मनुष्य के लिये उसकी क्या अपेक्षाएं हैं, अच्छे लोगों के प्रति उसका रवैया क्या है, और उनके प्रति जो दुष्ट हैं-ये सब बातें निश्चित रूप से तुम्हारे लिए अस्पष्ट और धुंधली होंगी। यदि इस तरह की अस्पष्टता के बीच तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, जब तुम कहते हो कि तुम उनमें से एक हो जो सच्चाई की खोज करता और परमेश्वर का अनुसरण करता है, तो क्या ये शब्द वास्तविक हैं? नहीं हैं। इसलिये अब तुम अपना विकल्प चुनो: आज तुम कौन-सा विषय चुनते हो। (जीवन में प्रवेश और जीवन के विषय में अपना व्यक्तिगत अनुभव) (हम जीवन में प्रवेश चुनते हैं) जीवन में प्रवेश के विषय में तुम कौन से क्षेत्र में कमी पाते हो? क्या तुम्हारा हृदय तुम्हें कुछ बता रहा है? तुम अभी भी नहीं जानते, है ना? अन्य भाई-बहन कौन से विषय को चुनते हैं? क्या तुम लोग परमेश्वर के ज्ञान के विषय में सुनना चाहते हो या जीवन के अनुभव के विषय में? (हम परमेश्वर को जानने के विषय में सुनना चाहते हैं।) (परमेश्वर को जानने के विषय में), ठीक है, तुम में से अधिकांश ने परमेश्वर के विषय में जानने को चुना है, इसलिये आओ हम परमेश्वर के ज्ञान के बारे में बात करते हैं।
आज हम जिस विषय पर बात करेंगे उसे तुम सभी सुनने के लिये उत्सुक हो, ठीक है न? आज हम जिस विषय पर बात करने जा रहे हैं वह "सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है" से भी संबंधित है जिसकी हम हाल ही में बात करते रहे हैं। हमने "सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है" विषय पर कई बार बात की है, जिसका उद्देश्य उन विभिन्न साधनों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके लोगों को यह बताना था कि किस प्रकार परमेश्वर सब वस्तुओं पर शासन करता है, किन साधनों द्वारा वह सब वस्तुओं पर शासन करता है, और किन नियमों के द्वारा वह सब बातों का प्रबंध करता है, ताकि वे इस ग्रह पर बने रहें जिसकी सृष्टि परमेश्वर ने की है। हमने इस विषय पर भी काफी बातें की हैं कि परमेश्वर किस प्रकार मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है: किन साधनों से परमेश्वर मानवजाति की आपूर्ति करता है, वह मानवजाति को जीने के लिए किस प्रकार का वातावरण देता है, और किन साधनों और प्रेरणा शक्ति से वह मनुष्य के जीवित रहने के लिये स्थिर वातारण देता है। यद्यपि मैंने सीधे रुप में सब वस्तुओं पर परमेश्वर के आधिपत्य, सब वस्तुओं के ऊपर उसके प्रशासन और उसके प्रबंधन में संबंध की बात नहीं कही, मैंने परोक्ष रुप में कहा कि वह क्यों इस प्रकार सब चीजों को चलाता है, और क्यों इस प्रकार मनुष्यों चीज़ों का प्रावधान करता है, और उनका पोषण करता है-इन सब बातों का संबंध परमेश्वर के प्रबंधन से है। जिन बातों की हमने चर्चा की, उनका क्षेत्र बहुत विस्तृत हैः विस्तृत वातावरण से लेकर काफी छोटी-छोटी बातों तक जैसे लोगों की मूलभूत आवश्यकताएँ और भोजन तक, परमेश्वर किस प्रकार सब वस्तुओं पर शासन करता है, और उन्हें नियमित रूप से चलाता है, से लेकर सही और उचित वातावरण के निर्माण तक जो उसने संसार के हर वर्ग और रंग के लोगों के लिये बनाया, इत्यादि। ये सारी विस्तृत बातें इन चीज़ों से जुड़ी हैं कि किस प्रकार मनुष्य देह में रहता है। कहने का तात्पर्य है कि, यह सब कुछ भौतिक संसार की चीज़ों से जुड़ा है जो खुली आँखों को दिखती हैं, और जिनका लोग अनुभव कर सकते हैं, उदाहरण के लिये पर्वत, नदियां, समुद्र, मैदान ..... ये वे वस्तुएं हैं जिन्हें छुआ और देखा जा सकता है। जब मैं वायु और तापमान की बात करता हूं, तो तुम अपनी श्वास का उपयोग कर सीधे वायु के अस्तित्व का अनुभव कर सकते हो, और अपने शरीर से यह ज्ञात कर सकते हो कि तापमान उच्च है अथवा निम्न। वृक्ष, घास और पक्षी और वन के पशु, आकाश में उड़ने वाले और धरती पर चरने वाले जीव, और विभिन्न छोटे-छोटे जानवर जो बिलों से निकलते हैं, इन सबको लोगों की आखों से देखा और कानों से सुना जा सकता है। यद्यपि ऐसी सारी वस्तुओं का क्षेत्र अति विस्तृत है-सारी वस्तुओं के बीच वे केवल भौतिक संसार का प्रतिनिधित्व करती हैं। लोगों के लिये, वे कौन-सी वस्तुएं हैं जिन्हें वे देख सकते हैं? वे भौतिक वस्तुएं हैं। भौतिक वस्तुएं वे हैं जिन्हें लोग देख और अनुभव कर सकते हैं। कहने का आशय है, कि जब तुम इन्हें छूओगे तो, तुम उनका अनुभव करोगे, और जब तुम्हारे नेत्र उन्हें देखेंगे तो तुम्हारा दिमाग उनकी एक छाया, एक चित्र तुम्हारे समक्ष रखेगा। ये वे वस्तुएं हैं जो वास्तविक और सच्ची हैं; तुम्हारे लिये वे भावात्मक नहीं है, अपितु उनके आकार और रुप हैं; वे वर्गाकार, या वृताकार, या ऊंची या नीची, बड़ी या छोटी हो सकती हैं और प्रत्येक एक भिन्न छाप छोड़ती है। ये सारी वस्तुएं उन सब वस्तुओं के भाग को दर्शाती हैं जो भौतिक संसार की हैं। और इसलिये "सारी वस्तुओं पर परमेश्वर का प्रभुत्व" में कौन कौन सी "सारी वस्तुएं" परमेश्वर के लिए सम्मिलित हैं? उनमें केवल वे ही वस्तुएं नहीं हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं और छू सकते हैं, बल्कि वे भी जो अदृश्य और अस्पर्शनीय हैं। ये सभी वस्तुओं पर परमेश्वर के प्रभुत्व के असली अर्थों में से एक है। यद्यपि ये चीज़ें लोगों के लिए अदृश्य और अस्पर्शनीय हैं, ये ऐसे तथ्य भी हैं जिनका अस्तित्व है। परमेश्वर के लिये जहां तक वे उसकी आंखों से देखी जा सकती हैं और उसके प्रभुत्व के दायरे में हैं, वे वास्तविक रुप में अस्तित्व में हैं। हालांकि, लोगों के लिए वे अमूर्त और अकल्पनीय हैं – हालांकि, वे अदृश्य और अस्पर्शनीय हैं – परमेश्वर के लिए वास्तविकता में और सच में उनका अस्तित्व है। परमेश्वर जिन सभी चीज़ों पर राज्य करता है उसकी दूसरी दुनिया ऐसी है, और यह उन सभी वस्तुओं के क्षेत्र का दूसरा भाग है जिसके ऊपर परमेश्वर का शासन है। यह वह विषय है जिस पर हम आज बात कर रहे हैं-किस प्रकार परमेश्वर आत्मिक संसार पर शासन और प्रबंध करता है। चूंकि यह विषय बताता है कि किस प्रकार परमेश्वर समस्त वस्तुओं पर शासन करता और उनका प्रबंध करता है यह सांसारिकता के संसार के बाहर की दुनिया-आत्मिक संसार-के विषय में बताता है और इस लिए यह हमारे लिये सर्वाधिक आवश्यक है कि इसे समझें। केवल इस विषयवस्तु पर संवाद करने और समझ लेने के बाद ही लोग सच्चे अर्थो में-"परमेश्वर सब वस्तुओं के लिये जीवन का स्रोत है", शब्दों के सही अर्थ समझ सकते हैं। और इस विषय का उद्देश्य मूल विषय को पूर्ण करना है कि "परमेश्वर का शासन सब वस्तुओं पर है और परमेश्वर सब चीजों का प्रबंध करता है", को पूर्ण करना है। शायद जब तुम इस विषय को सुनो, तो यह तुम्हें अजीब और अविश्वासनीय लगे परन्तु इस बात की परवाह किये बिना कि तुम कैसा अनुभव करते हो, चूंकि आत्मिक जगत इन सब चीजों का एक भाग है जो परमेश्वर के अधीन है, तुम्हें इस विषय का कुछ अंश अवश्य ही सीखना चाहिये। सीख लेने के पश्चात् "परमेश्वर सब चीजों के लिये जीवन का स्रोत है" शब्दों के प्रति तुम्हारी सराहना, समझ और ज्ञान और अधिक गहन हो जाएगा।
1. परमेश्वर किस प्रकार आत्मिक संसार पर शासन करता है और उसे चलाता है
भौतिक संसार के लिये यदि लोग कुछ बातों या असाधारण घटनाओं को नहीं समझते हैं तो वे एक पुस्तक खोल सकते हैं और आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं अन्यथा वे विभिन्न माध्यमों का उपयोग उनके मूल को और उनके पीछे की कहानी को जानने के लिए कर सकते हैं। परन्तु बात जब उस दूसरे संसार की होती है जिसके विषय में हम आज बात कर रहे हैं-अर्थात् आत्मिक संसार जिसका अस्तित्व भौतिक संसार के बाहर है-लोगों के पास बिल्कुल भी कोई साधन या माध्यम नहीं हैं कि भीतर की बातों और उसकी सच्चाई को जानें। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि, मनुष्यों की दुनिया में, भौतिक संसार की हर एक बात मनुष्य के भौतिक अस्तित्व से पृथक नहीं हो सकती है और क्योंकि लोगों को ऐसा लगता है कि भौतिक संसार की प्रत्येक चीज भौतिक जीवन शैली और भौतिक जीवन से पृथक किये जाने योग्य नहीं है, अधिकांश लोग केवल उनकी जानकारी रखते हैं, या उन्हें देखते हैं, जो भौतिक वस्तुएं हैं, जो चीज़ें उन्हें दिखाई पड़ती हैं। फिर भी जब आत्मिक संसार की बात होती है – कहने का तात्पर्य है, जो भी चीज़ दूसरी दुनिया की है-कहना उचित होगा कि अधिकांश लोग विश्वास नहीं करते। ऐसा इसलिये है क्योंकि वह उन्हें दिखाई नहीं देती, और वे विश्वास करते हैं कि उसे समझने की आवश्यकता नहीं है, ना ही उसके विषय में कुछ जानने की, ना कुछ कहने की कि आत्मिक संसार भौतिक संसार से किस प्रकार पूरी तरह से भिन्न है। परमेश्वर के लिये, यह खुला है, लेकिन मानवजाति के लिए यह छुपा हुआ है और खुला नहीं है, और इसलिये लोगों को एक माध्यम खोजने में कठिनाई होती है जिसके द्वारा वे इस संसार के विभिन्न पहलुओं को समझ सकें। आत्मिक संसार के संबंध में जो बाते मैं कहने जा रहा हूं उनका संबंध केवल परमेश्वर के प्रशासन और प्रभुत्व से है। बेशक, वे मनुष्य के परिणाम और गंतव्य से भी जुड़ी हुई हैं-परन्तु मैं रहस्यों का प्रकाशन नहीं कर रहा हूँ, न ही मैं तुम्हें वे रहस्य बता रहा हूँ, जिन्हें तुम खोजना चाहते हो, क्योंकि इसका संबंध परमेश्वर के प्रभुत्व से है, परमेश्वर के प्रशासन, और परमेश्वर के प्रबंध से है, और ऐसी परिस्थिति में, मैं केवल उस भाग के विषय में बोलूंगा जिसको जानना तुम्हारे लिये आवश्यक है।
पहले, मैं तुम से एक प्रश्न पूछता हूं: तुम्हारे मन में आत्मिक संसार क्या है? मोटे तौर पर बोला जाए तो यह भौतिक संसार से बाहर एक दुनिया है, एक ऐसी दुनिया जो अदृश्य और लोगों के लिये अस्पर्शनीय है। परन्तु तुम्हारी कल्पना में, आत्मिक संसार को किस प्रकार का होना चाहिये? शायद न देख पाने के कारण, तुम इसकी कल्पना करने योग्य नहीं हो परन्तु जब इसके बारे में दन्त कथाएं सुनते हो, तो तुम फिर भी सोचने लगते हो, तुम स्वयं को रोक नहीं पाते हो। और मैं ऐसा क्यों कहता हूं? कुछ ऐसी बात हैं जो बहुत से लोगों के साथ होती हैं जब वे युवा होते हैं: जब कोई उन्हें कोई डरावनी कहानी सुनाता है – भूतों और आत्माओं के बारे में-वे अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं। और वे क्यों भयभीत हैं? क्योंकि वे इन बातों के विषय में कल्पना कर रहे हैं, यद्यपि वे उन्हें नहीं देख सकते, उन्हें ऐसा लगता है कि वे उनके कमरे के चारों ओर हैं, कमरे में कहीं छिपे हुए, या कहीं अन्धकार में और वे इतने डरे हुये होते हैं कि उनकी सोने की हिम्मत नहीं होती। विशेषकर रात के समय, वे अपने कमरे में या अकेले आंगन में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। यह तुम्हारी कल्पना का आत्मिक संसार है, और यह एक ऐसा संसार है जिसके बारे में लोग सोचते हैं कि यह भयावह है। प्रत्येक के पास थोड़ी बहुत कल्पना होती है, और हर कोई थोड़ा बहुत अनुभव कर सकता है।
आओ, हम आत्मिक संसार से प्रारम्भ करें। एक आत्मिक संसार क्या है? मैं तुम्हें एक छोटा और सरल स्पष्टीकरण देता हूं। आत्मिक संसार एक महत्वपूर्ण स्थान है, एक ऐसा स्थान है जो भौतिक संसार से भिन्न है। और मैं क्यों कहता हूँ कि यह महत्वपूर्ण है? हम इसके विषय में विस्तार से बात करने जा रहे हैं। आत्मिक संसार का अस्तित्व मनुष्य के भौतिक संसार से अभिन्न रूप से जुड़ा है। सब वस्तुओं के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व में वह मनुष्य जीवन और मृत्यु चक्र में एक बड़ी भूमिका निभाता है; यह इसकी भूमिका है, और उन कारणों में से एक है कि क्यों इसका अस्तित्व महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह एक ऐसा स्थान है जो पांच इंद्रियों के लिये अगोचर है, कोई भी इस बात का निर्णय नहीं कर सकता कि इसका अस्तित्व है अथवा नहीं। आत्मिक संसार की सतत प्रक्रियाएं मनुष्य के अस्तित्व के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं, और उसका परिणाम ये है कि मनुष्य जिस प्रकार से रहता है, वह भी आत्मिक जगत से बेहद प्रभावित होता है। क्या यह परमेश्वर के प्रभुत्व से संबंधित है? हां, यह संबंधित है। जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो तुम समझते हो कि मैं क्यों इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहा हूँ: क्योंकि यह परमेश्वर के प्रभुत्व से और उसके प्रशासन से संबंध रखता है। एक संसार में जैसा कि यह है-जो लोगों के लिए अदृश्य है-इसकी प्रत्येक स्वर्गीय आज्ञा, आदेश और प्रशासनिक रीति भौतिक संसार के किसी भी देश के कानून और रीति से कहीं उच्च है और संसार में रहने वाला कोई भी प्राणी उनका उल्लंघन करने या झूठा दावा करने का साहस नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की प्रभुता और प्रशासन से संबंधित है? इस संसार में, स्पष्ट प्रशासनिक आदेश, स्पष्ट स्वर्गीय आज्ञाएं और स्पष्ट नियम हैं। विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में, दूत पूर्णरुप से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, और कायदे कानून का पालन करते है, क्योंकि एक स्वर्गीय आज्ञा के उल्लंघन का परिणाम क्या होता है, इसे वे जानते हैं। वे भली-भांति जानते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर दुष्टों को दण्ड और भले लोगों को इनाम देता है, और वह किस प्रकार चीज़ पर शासन करता है, वह किस प्रकार हर चीज़ पर अधिकार रखता है। और, इसके अतिरिक्त, वे स्पष्ट रुप से देखते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर अपने स्वर्गीय आदेशों और नियमों को कार्यान्वित करता है। क्या ये उस भौतिक संसार, जिसमें मनुष्य रहते हैं, से भिन्न हैं? वे व्यापक रुप से भिन्न हैं। वह एक ऐसा संसार है जो भौतिक संसार से सर्वथा भिन्न है। चूंकि वहां स्वर्गीय आदेश और नियम हैं, उसका संबंध परमेश्वर के प्रभुत्व, प्रशासन, और इसके अतिरिक्त परमेश्वर के स्वभाव तथा स्वरूप से है। इतना कुछ सुनने के पश्चात् भी क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह मेरे लिये बहुत जरुरी है कि मैं इस विषय पर बोलूं? क्या तुम इसमें निहित भेदों को सीखना नहीं चाहते? आत्मिक संसार की अवधारणा ऐसी ही है इसका अस्तित्व भौतिक संसार के साथ-साथ है, साथ ही परमेश्वर के प्रभुत्व और प्रशासन के अधीन है फिर भी, भौतिक संसार की अपेक्षा इस संसार के लिये परमेश्वर का प्रशासन और प्रभुत्व बहुत सख्त है। जब विस्तारपूर्वक कहने की बात आती है तो हमें इस प्रकार आरम्भ करना चाहिये कि आत्मिक संसार किस प्रकार मनुष्य के जीवन-मरण चक्र के कार्य के प्रति उत्तरदायी है, क्योंकि यह कार्य आत्मिक संसार में रहने वालों के कार्य का एक बड़ा भाग है।
मनुष्यों में, लोगों को तीन प्रकार से वर्गीकृत करता हूं। पहले प्रकार के लोग अविश्वासी हैं, ये वे हैं जो धार्मिक विश्वास-रहित हैं उन्हें अविश्वासी कहते हैं। अविश्वासियों की बहुत बड़ी संख्या केवल धन में विश्वास रखती है। वे केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, वे भौतिकवादी हैं और उनका विश्वास केवल भौतिक संसार में है। वे न तो जीवन-मरण चक्र में और न ही देवताओं और भूत-प्रेतों की कथाओं में विश्वास रखते हैं। मैं उन्हें अविश्वासियों के रुप में वर्गीकृत करता हूँ, और वे पहला प्रकार हैं। दूसरा प्रकार अविश्वासियों से अलग विभिन्न मतों के मानने वाले लोगों का है। मनुष्यों के बीच, मैं इन विश्वासी लोगों को अनेक मुख्य प्रकारों में विभाजित करता हूं: पहले यहूदी हैं, दूसरे कैथोलिक हैं, तीसरे ईसाई हैं, चौथे मुस्लिम और पांचवें बौद्ध हैं, ये पांच प्रकार हैं। ये विश्वासी लोगों के विभिन्न प्रकार हैं। तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो आपसे संबंधित हैं। ये ऐसे प्रकार के विश्वासी हैं जो आज परमेश्वर को मानते हैं। ये लोग दो प्रकार में विभाजित किये जाते हैं: परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवकाई करने वाले लोग। ठीक है! प्रमुख प्रकारों में स्पष्ट रुप से भिन्नताएं दर्शा दी गई हैं। तो अब तुम अपने मन में मनुष्यों के प्रकारों और स्तरों में स्पष्ट रुप से अंतर कर सकते हो। पहले अविश्वासी हैं। मैं कह चुका हूं कि अविश्वासी कौन हैं। बहुत से अविश्वासी केवल वृद्ध मनुष्य, जो आकाश में है, उसमें विश्वास करते हैं कि वायु, वर्षा और आकाशीय बिजली आकाश में इस वृद्ध मनुष्य द्वारा नियंत्रित की जाती हैं, जिस पर वे फसल बोने और काटने के लिये निर्भर करते हैं-फिर भी परमेश्वर पर विश्वास करने की चर्चा करने पर वे अनिच्छुक बन जाते हैं। क्या इसे परमेश्वर में विश्वास कहा जा सकता है? ऐसे लोग अविश्वासियों में सम्मिलित हैं। जिनका विश्वास परमेश्वर में नहीं बल्कि केवल आकाश के किसी वृद्ध मनुष्य में है, वे सब अविश्वासी हैं वे सब जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते, अविश्वासी हैं दूसरे प्रकार के वे हैं जिनका संबंध पांच बड़े धर्मो से है जो अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। तीसरे प्रकार के वे हैं जो व्यवहारिक परमेश्वर में विश्वास करते हैं जो अंतिम दिनों में देहधारी हुआ है-जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। और मैंने क्यों सारे मनुष्यों को इन प्रकारों में विभाजित किया है? (क्योंकि उनके गंतव्य और अन्त भिन्न हैं।) यह एक पहलू है। क्योंकि, जब ऐसी विभिन्न जातियां और इस प्रकार के लोग आत्मिक संसार में लौटते हैं, तो उनमें से प्रत्येक भिन्न-भिन्न स्थान पर जाएगा, उनपर जीवन-मृत्यु चक्र के भिन्न-भिन्न नियम लागू होंगे, और यही कारण है कि मैंने मनुष्यों को इन मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया है।
1) अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र
आइये हम अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र से आरम्भ करते हैं। किसी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात्, आत्मिक संसार का एक दूत उसे ले जाता है। और उनका कौन-सा भाग ले जाया जाता है? उनका शरीर नहीं, बल्कि उनकी आत्मा। जब उनकी आत्मा ले जायी जाती है, तब वे एक स्थान पर आते हैं जो आत्मिक संसार की एक शाखा है, एक ऐसा स्थान जो हाल ही में मरे लोगों की आत्मा को ग्रहण करता है। (टिप्पणी: किसी के भी मरने के बाद पहला स्थान जहाँ वे जाते हैं, आत्मा के लिए अजनबी होता है।) जब उन्हें इस स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक अधिकारी पहला निरीक्षण करता है, उनका नाम, पता, आयु और उन्होंने अपने जीवन में क्या किया, इन सबकी पुष्टि करता है। जो कुछ उन्होंने अपने जीवन में किया उसे एक पुस्तक में लिखा जाता है और विशुद्धता के लिए उसकी पुष्टि की जाती है। इन सब निरीक्षण के पश्चात् उस मनुष्य का व्यवहार और कार्य जो उन्होंने जीवन भर किया उसके ज़रिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि क्या वे दंडित किये जायेंगे या फिर से मनुष्य के रूप में जन्म लेंगे। यह पहला चरण है। क्या यह पहला चरण भयावह है? यह अत्यधिक भयावह नहीं है, क्योंकि इसमें केवल इतना हुआ है कि मनुष्य एक अन्धकारमय अन्जान स्थान में पहुँचा है जो अत्यधिक भयावह नहीं है।
दूसरे चरण में, यदि इस मनुष्य ने जीवनभर बुरे कार्य किये हैं, यदि उसने अनेक दुष्टता के कार्य किये हैं, तब उसे दण्ड देने के स्थान पर दण्ड देने ले जाया जाएगा। यह वो स्थान होगा जहां उन्हें ले जाया जाएगा, यह लोगों को दण्ड देने का नियत स्थान है। किस प्रकार के दण्ड उन्हें दिये जाने हैं यह उनके द्वारा किये गये पापों पर निर्भर करता है। और इस बात पर कि मृत्यु पूर्व उन्होंने कितने दुष्टतापूर्ण कार्य किये-द्वितीय चरण में होने वाली यह पहली स्थिति है। उनकी मृत्यु पूर्व उनके द्वारा किये गये कार्य और दुष्टताएं जो उन्होंने कीं, दण्डस्वरुप जब वे पुनः जन्म लेते हैं-जब वे एक बार फिर से भौतिक संसार में जन्म लेते हैं-कुछ लोग मनुष्य बने रहेंगे, और कुछ पशु बन जायेंगे। कहने का अर्थ है कि आत्मिक संसार में किसी व्यक्ति के लौटने के पश्चात उन्हें उनके दुष्टता के कार्यों के कारण दण्डित किया जाता है, इसके अतिरिक्त क्योंकि उन्होंने दुष्टता के कार्य किये, अपने अगले जन्म में वे मनुष्य नहीं बनते, बल्कि पशु बनते हैं। अब पशुओं की योनि में वे क्या बन सकते थे, उसमें गाय, घोड़े, सूअर, और कुत्ते सम्मिलित हैं। छ लोग आकाश के पक्षी बन सकते हैं या एक बत्तख या कलहंस ... जब वे पशुओं के रुप में पुनर्जन्म ले लेते हैं तो मरने के बाद पहले की तरह, आत्मिक संसार में लौट जाते हैं और मरने से पहले उनके व्यवहार के अनुसार, आत्मिक संसार तय करेगा कि वे मनुष्य के रुप में पुनर्जन्म लेंगे अथवा नहीं।
अधिकांश लोग बहुत अधिक दुष्ट कार्य करते हैं, उनके पाप अत्यन्त गंभीर होते हैं, और इसलिये जब उनका जन्म होता है तो वे सात से बारह बार तक पशु बनते हैं। सात से बारह बार, क्या यह एक भयावह स्थिति नहीं है? तुम्हें क्या चीज़ डरा रही है? एक मनुष्य का पशु बनना, यह भयावह है और एक मनुष्य के लिये, एक पशु बनने में सर्वाधिक दुःखदायी बात क्या है? किसी भाषा का ना होना, केवल कुछ साधारण विचार होना, केवल वही कार्य कर पाना जो पशु करते हैं और केवल वहीं खा पाना जो पशु खाते हैं, बौद्धिक क्षमता और शारीरिक क्रियाकलाप एक साधारण पशु के समान होना। सीधे चलने योग्य न होना, मनुष्यों के साथ वार्तालाप न कर पाना, और मनुष्यों के किसी भी व्यवहार और गतिविधियों का पशुओं से कोई सम्बन्ध ना होना। कहने का आशय है कि सब बातों में, पशु होना तुम्हें जीवधारियों में निम्नतम कोटि का बना देता है, और यह मनुष्य होने से कहीं अधिक दुःखदायी होता है। जिन्होंने बहुत अधिक दुष्टता के कार्य किये हैं और बड़े बड़े पापों को अन्जाम दिया है, उनके लिये यह आत्मिक संसार में दण्ड पाने का एक पक्ष है। जब दण्ड की प्रचण्डता की बात होती है तो यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार के पशु बनते हैं। उदाहरण के लिये, क्या एक कुत्ता बनने की अपेक्षा एक सूअर बनना अधिक अच्छा है? क्या एक सूअर एक कुत्ते से अधिक अच्छा जीवन जीता है या बुरा?
निश्चय ही अधिक बुरा। यदि लोग गाय या घोड़ा बनते हैं, तो क्या वे एक सूअर की अपेक्षा अधिक अच्छा जीवन जियेंगे या बुरा? (बेहतर)। ऐसा प्रतीत होता है मानो यदि चुनने का अवसर दिया जाये, तो तुम्हारी रुचि होगी। यदि कोई बिल्ली बनता है तो क्या यह अधिक आरामदायक होगा? गाय या घोड़ा बनने की अपेक्षा यह कहीं आरामदायक होगा। यदि तुम्हें पशुओं में से चुनाव करने दिया जाये, तो तुम बिल्ली बनना पसंद करोगे, और वह अधिक आरामदायक है क्योंकि तुम अपना अधिकांश समय निद्रा में गुज़ार सकोगे। गाय या घोड़ा बनना अधिक मेहनत वाला काम है, और इसलिये यदि लोग गाय या घोड़े के रुप में जन्म लेते हैं, तो उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ता है-जो एक कष्टप्रद दण्ड प्रतीत होता है। गाय या घोड़ा बनने की अपेक्षा कुत्ता बनना कुछ अधिक अच्छा है, क्योंकि एक कुत्ते के अपने स्वामी के साथ निकट के संबंध होते हैं। बड़ी बात यह है कि आजकल बहुत से लोग कुत्ता पालते हैं और तीन से पांच वर्ष पश्चात वह उनकी कही हुई कई बातें समझने लगता है। क्योंकि एक कुत्ता अपने मालिक के बहुत से शब्द समझ सकता है, उसे अपने मालिक की अच्छी समझ होती है, और वह अपने आपको अपने स्वामी के मिज़ाज और आवश्यकताओं के अनुरुप ढाल सकता है। इसलिये स्वामी कुत्ते के साथ ज्यादा अच्छा व्यवहार करता है, और कुत्ता ज्यादा अच्छा खाता-पीता है, और जब वह तकलीफ में होता है तो उसकी अधिक अच्छी देखभाल की जाती है। तो क्या कुत्ता एक अधिक खुशी का जीवन व्यतीत नहीं करता? इसलिये कुत्ता होना एक गाय या घोड़ा होने से ज्यादा अच्छा है। अत: मनुष्य को मिले दण्ड की प्रचण्डता निर्धारित करती है कि वे कितनी बार पशु के रूप में जन्म लेंगे और किस प्रकार के पशु के रूप में वे जन्म लेंगे। तुम लोग समझ गए ना?
चूंकि जब वे जीवित थे, उन्होनें बहुत अधिक पाप किये, कुछ लोगों को सात से बारह बार पशु के रूप में जन्म लेने का दण्ड दिया जाएगा। अनेक बार दण्डित होने के पश्चात, जब वे आत्मिक संसार मे लौटते हैं तो उन्हें अन्यत्र ले जाया जाता है। इस स्थान में विभिन्न आत्माएं पहले ही दण्ड पा चुकी होती हैं, और उस श्रेणी की होती हैं जो मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिये तैयार हो रही हैं। यह स्थान प्रत्येक आत्मा को श्रेणीबद्ध करता है कि उसे किस प्रकार के परिवार में उत्पन्न होना है, जन्म लेने के बाद उनकी क्या भूमिका होगी, आदि। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब इस संसार में आते हैं तो गायक बनेंगे, और इसलिये उन्हें गायकों के मध्य रखा जाता है; कुछ लोग इस संसार में आते हैं तो व्यापारी बनेंगे और इसलिये उन्हें व्यापारियों के बीच में रखा जाता है; और यदि किसी को मनुष्य रूप में आने के बाद विज्ञान अनुसंधानकर्ता बनना है तो उन्हें अनुसंधानकर्ताओं के मध्य रखा जाता है। उनको वर्गीकृत किये जाने के पश्चात, प्रत्येक को एक भिन्न समय और नियुक्त तिथि पर भेज दिया जाता है। जैसे कि आजकल लोग ई-मेल भेजते हैं। इसमें जीवन और मृत्यु का एक चक्र पूरा होगा, और यह अत्यन्त नाटकीय होता है। उस दिन से जब कोई व्यक्ति आत्मिक संसार में पहुँचता है और जब तक उसका दण्ड समाप्त होता है, उन्होंने अनेक बार पशु के रुप में जन्म लिया होगा, तथा वे फिर मनुष्य के रुप में जन्म लेने के लिये तैयार होते हैं; यह एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है।
और क्या वे जिन्होंने दण्ड भोग लिया है और जिन्हें अब पशु के रुप में जन्म नहीं लेना है, शीघ्र ही भौतिक संसार में भेजे जायेंगे कि मनुष्य बनें? या उन्हें मनुष्यों के मध्य आने के लिये कितना समय और लगेगा? वह बारम्बारता क्या है जिसके अनुसार ये लोग मनुष्य बनते हैं? इसके कुछ लौकिक प्रतिबंध हैं। आत्मिक जगत में जो कुछ भी होता है उसके कुछ उचित लौकिक प्रतिबंध और नियम हैं जिन्हें यदि मैं संख्याओं के साथ स्पष्ट करुं, तो तुम समझ सकोगे। उनके लिये जिन्हें अल्पावधि में जन्म दिया गया है, जब वे मरते हैं तो मनुष्य के रुप में उनका पुनर्जन्म तैयार किया जाएगा। लघुत्तम समयावधि तीन दिनों की होती है। कुछ लोगों के लिये यह तीन माह, कुछ लोगों के लिये यह तीन वर्ष, कुछ लोगों के लिये यह तीस वर्ष, कुछ लोगों के लिये यह तीन सौ वर्ष, कुछ के लिये तो यह तीन हजार वर्षो तक भी होती है आदि। तो इन लौकिक नियमों के विषय में क्या कहा जा सकता है, और उनकी क्या विशिष्टताएं हैं? इस भौतिक संसार में जो मनुष्यों का संसार है, आत्मा का आना आवश्यकता पर आधारित होता है: यह उस भूमिका के अनुसार होता है जिसे इस आत्मा को इस संसार में निभाना है। जब लोग साधारण व्यक्ति के रुप में जन्म लेते हैं तो उनमें से अधिकांश अतिशीघ्र जन्म लेते हैं, कि मनुष्य के संसार को ऐसे साधारण लोगों की महती आवश्यकता होती है और इसलिए तीन दिन के पश्चात वे एक ऐसे परिवार में भेज दिए जाते हैं जो उनके मरने से पहले के परिवार से सर्वथा भिन्न होता है। परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें इस संसार में विशेष भूमिका निभानी होती है। "विशेष" का अर्थ है कि उनकी इस मनुष्यों के संसार में बड़ी मांग नहीं है; ऐसी भूमिका के लिये अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं होती और इसलिए उनके पुनर्जन्म में तीन सौ वर्ष का अन्तराल हो सकता है। कहने का तात्पर्य है कि यह आत्मा तीन सौ वर्ष या तीन हजार वर्ष में एक बार आयेगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तीन सौ वर्ष या तीन हज़ार वर्ष तक संसार में ऐसी भूमिका की आवश्यकता नहीं होती है और इसलिये उन्हें आत्मिक संसार के किसी स्थान में रखा जाता है। उदाहरण के लिये कनफ्यूशियस को लें, चीन की संस्कृति पर उसका गहरा प्रभाव था। संभवतः तुम सब उसे जानते हो, उस समय उसके आगमन ने संस्कृति, ज्ञान, परम्परा और लोगों की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। परन्तु ऐसे मनुष्य की हर एक युग में आवश्यकता नहीं होती है, इसलिये उसे पुन: जन्म लेने के लिये आत्मिक संसार में ही तीन सौ या तीन हजार वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। क्योंकि संसार को ऐसे किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसे खाली रहकर प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि उसके जैसे व्यक्ति के लिये बहुत कम भूमिका थी, उसके करने के लिये कुछ काम न था, इसलिये उसे बिना किसी कार्य के अधिकतर समय आत्मिक संसार में ही कहीं रखा गया ताकि मनुष्य के संसार में जब उसकी आवश्यकता पड़े तो उसे भेज दिया जाए। अधिकतर लोगों के बार-बार जन्म लेने के आत्मिक जगत के लौकिक नियम इस प्रकार के हैं। चाहे कोई साधारण है या विशेष, आत्मिक संसार में लोगों के जन्मे लेने की प्रक्रिया के लिये उचित नियम और सही रीति है और ये नियम और अभ्यास परमेश्वर की ओर से आते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा भेजा जाता है उनका निर्णय या नियन्त्रण आत्मिक संसार के किसी दूत या जीव द्वारा नहीं होता। अब तुम समझ गए ना?
किसी आत्मा के लिये जन्म लेने के बाद जो भूमिका वे निभाते हैं-इस जीवन में उनकी भूमिका क्या है-किस परिवार में वे जन्म लेते हैं और उनका जीवन किस प्रकार का है, इन सबका उनके पिछले जीवन से गहरा संबंध होता है। मनुष्य के संसार में हर प्रकार के लोग आते हैं, और उनके द्वारा निभाई गई भूमिकाएं भिन्न-भिन्न होती हैं, उनके द्वारा किये गए कार्य भिन्न होते हैं। ये कौन से कार्य हैं? कुछ लोग अपना कर्ज़ चुकाने आते हैं: अगर उन्होंने पिछली ज़िंदगी में किसी से बहुत पैसा उधार लिया है तो वे उसे चुकाने आते हैं। कुछ लोग अपना ऋण उगाहने आते हैं। वे अपने विगत जीवन में अनेक घोटालों के शिकार हुए हैं, उन्होंने अपार धन गंवाया है और इसलिए जब वे आत्मिक संसार में आते हैं तो उसके बाद आत्मिक संसार उन्हें न्याय देगा और उन्हें इस जीवन में अपना कर्जा उगाहने का अवसर देगा। कुछ लोग एहसान चुकाने आये हैं: अपने विगत जीवन के दौरान-अपनी मृत्यु से पूर्व-कोई उन पर दयावान था और इस जीवन में उन्हें एक बड़ा अवसर प्रदान किया गया है कि वे जन्म लें और उस एहसान का बदला चुका सकें। जबकि अन्य अपने जीवन का मुआवज़ा वसूल करने के लिए जन्म लेते हैं और वे किसके जीवन का मुआवज़ा वसूलते हैं? विगत जीवन में जिस व्यक्ति ने उसके प्राण लिये थे सारांश में, प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन अपने विगत जीवन के साथ प्रगाढ़ रुप से जुड़ा है, वह इस प्रकार जुड़ा है कि पृथक नहीं किया जा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन उसके पूर्व जीवन से गहन रुप में प्रभावित रहता है। उदाहरण के लिये, सांग ने अपनी मृत्यु से पहले ली के साथ एक बड़ी राशि का घोटाला किया। तो क्या सांग ली का ऋणी बन गया? यदि वह ऋणी है तो क्या यह स्वाभाविक है कि ली अपना ऋण सांग से वसूल करे? और इसलिये, उनकी मृत्यु उपरान्त, उनके मध्य एक ऋण है जिसको चुकता किया जाना है और जब वे पुनर्जन्म लेते हैं और सांग मनुष्य बनता है, कहने का अर्थ यह है कि ली सांग के पुत्र के रुप में पुनः उत्पन्न होकर अपना ऋण वसूल करता है, तो ली अपना ऋण कैसे उगाहता है? जिसमें सांग उसका पिता है। इस जीवन में यही होगा, इस वर्तमान जीवन में, ली का पिता सांग खूब धन अर्जित करता है, और वह धन इसके पुत्र ली द्वारा बर्बाद किया जाता है। चाहे सांग कितना भी धन कमाये, उसका पुत्र ली, उसकी "सहायता" उसे व्यय करने में करता है। सांग चाहे कितना भी धन अर्जित करे, वह कभी काफी नहीं होता, इसी बीच उसका पुत्र ली, किसी न किसी कारण से पिता के धन को विभिन्न तरीकों और साधनों से उड़ाता है। सांग असमंजस्य में हैः "यह क्या हो रहा है? क्यों मेरा पुत्र हमेशा से आवारा रहा है? ऐसा क्यों है कि दूसरे लोगों के पुत्र इतने अच्छे हैं? मेरा पुत्र महत्वकांक्षी क्यों नहीं है। वह धन अर्जित करने में इतना बेकार और अयोग्य क्यों है, मुझे क्यों सदा उसकी सहायता करनी पड़ती है? चूंकि मुझे उसे संभालना हैं मैं संभालूंगा, परन्तु ऐसा क्यों है कि चाहे मैं कितना भी धन उसे दूं, वह सदा और अधिक चाहता है? वह कोई ईमानदारी का काम क्यों नहीं करता? वह क्यों एक आवारागर्द है, खाना-पीना, वेश्यावृत्ति और जुएबाजी करना-इन सभी में लगा रहता है? आखिर ये हो क्या हो रहा है?" फिर सांग कुछ समय तक विचार करता है: "कहीं ऐसा तो नहीं कि विगत जीवन में मैं उसका ऋणी रहा हूं? अरे हां, हो सकता था कि विगत जीवन में मैं उसका ऋणी रहा हूँ। तब तो ठीक है, मैं वह कर्ज उतार दूंगा। जब तक मैं पूरा चुकता न कर दूं, यह किस्सा समाप्त होने वाला नहीं है!" वह दिन आ सकता है जब ली ने अपना ऋण वसूल कर लिया हो और जब वह चालीस या पचास वर्ष का हो, तो एक दिन ऐसा आयेगा जब उसे अचानक अक्ल आ जाएगी: "अपने जीवन के पूर्वाद्ध में मैंने एक भी भला काम नहीं किया। मैंने अपने पिता के कमाये हुए धन को लुटाया, मुझे एक अच्छा इन्सान होना चाहिये! मैं स्वयं को मज़बूत बनाऊंगा। मैं एक ऐसा व्यक्ति बनूंगा जो ईमानदार हो और अच्छा जीवन जीता हो। और मैं अपने पिता को कभी दुःख नहीं पहुंचाऊंगा!" वो ऐसा क्यों सोचने लगा? वो अचानक एक बेहतर इंसान कैसे बन गया? क्या इसकी कोई वजह है? क्या वजह है? वास्तव में ऐसा इसलिये है क्योंकि उसने अपना ऋण वसूल कर लिया है, कर्ज चुकता हो चुका है। इसमें कारण और प्रभाव है। कहानी बहुत पहले आरम्भ हुई थी, उन दोनों के पैदा होने से भी पहले, और उनकी ये कहानी वर्तमान तक चली आई। और दोनों में से कोई किसी को दोष नहीं दे सकता। सांग ने अपने पुत्र को चाहे जो सिखाया हो, उसके पुत्र ने कभी नहीं सुना, और एक दिन भी ईमानदारी से कार्य नहीं किया-परन्तु जिस दिन कर्ज चुकता हो गया, उसको सिखाने की कोई आवश्यकता नहीं रही; उसका पुत्र स्वाभाविक रुप से समझ गया। यह एक साधारण-सा उदाहरण है और निःसन्देह ऐसे अनेक उदाहरण हैं। और यह लोगों को क्या संदेश देता है? (कि उन्हें अच्छा बनना चाहिये।) उन्हें कोई बुरा काम नहीं करना चाहिये और उनके बुरे कार्य का प्रतिफल मिलेगा। तुम देख सकते हो कि अधिकांश अविश्वासी बहुत दुष्टता करते हैं और उनकी दुष्टता का उन्हें प्रतिफल भी मिला है, ठीक है? परन्तु क्या यह प्रतिफल एकतरफा है? जिन बातों का प्रतिफल मिलता है उनकी पृष्ठभूमि होती है और एक कारण होता है। क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारे किसी के साथ बेईमानी करने के बाद कुछ नहीं होगा? क्या तुम सोचते हो कि उनके साथ धन संबंधी धोखाधड़ी करने के पश्चात् तुम्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा जबकि तुमने उसका धन हड़प लिया है? यह तो असंभव होगा: जैसा करोगे वैसा भरोगे-यह पूर्णतया सत्य है! कहने का अर्थ है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन हैं, या वे विश्वास करते हैं अथवा नहीं कि परमेश्वर है, प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवहार की जवाबदेही लेनी होगी और अपने कार्यो के परिणामों को भुगतने के लिये तैयार रहना होगा। इस साधारण उदाहरण के संबंध में-सांग को दण्डित किया जाना और ली का ऋण चुकाया जाना-क्या यह उचित है? बिल्कुल उचित है। जब लोग इस प्रकार के कार्य करते हैं तो उसी प्रकार का परिणाम मिलता है। और क्या यह आत्मिक संसार के प्रशासन से अलग कर दिया गया है? यह आत्मिक संसार के प्रशासन से पृथक नहीं किया जा सकता; अविश्वासी होने के बावजूद, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, उनके अस्तित्व को ऐसी स्वर्गीय आज्ञाओं और आदेशों से होकर गुजरना पड़ता है जिनसे कोई बच नहीं सकता; चाहे मानव संसार में उसका पद कितना भी ऊंचा क्यों न हो, इस सच्चाई से कोई बच नहीं सकता।
वे लोग जिन्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं है अक्सर इस गलतफहमी में रहते हैं कि वह प्रत्येक चीज़ जिसे देखा जा सकता है अस्तित्व में है, जबकि प्रत्येक वह चीज जिसे देखा नहीं जा सकता, जो लोगों से बहुत दूरी पर है, उसका अस्तित्व नहीं है। वे इस बात पर विश्वास करना अधिक पंसद करते हैं कि "जीवन और मृत्यु चक्र" जैसी कोई चीज नहीं है और कोई "दण्ड" नहीं है और इसलिए वे बिना किसी खेद या अनुताप के पाप और दुष्टता करते हैं-जिसके बाद वे दण्डित किये जाते हैं और वे पशु के रुप में जन्म लेते हैं। अविश्वासियों में से अधिकतर लोग इस पापमय चक्र में फंस जाते हैं। और ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आत्मिक संसार समस्त जीवधारियों के संबंध में अपने प्रशासन में सख्त है। चाहे तुम विश्वास करो अथवा नहीं, वह सच्चाई तो है, क्योंकि एक भी व्यक्ति या वस्तु परमेश्वर की आंखों के परिक्षेत्र से बच नहीं सकती और एक भी व्यक्ति या वस्तु स्वर्गीय आज्ञाओं और परमेश्वर के आदेशों के नियमों और उनकी सीमाओं से बच नहीं सकता। और इसलिये मैं तुम में से प्रत्येक को यह साधारण उदाहरण देता हूं; तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो अथवा नहीं, पाप करना और दुष्टतापूर्ण कार्य करना अस्वीकार्य है, इनके दुष्परिणाम होते हैं और यह बिल्कुल सुनिश्चित है। जब धोखे से कोई किसी का धन हड़पता है और दण्डित किया जाता है तो ऐसा दण्ड उचित और तर्कसंगत है और धर्मी है। साधारण रुप से देखे जाने वाले व्यवहार जैसे कि यह है, वे आत्मिक संसार से दण्डित किये जाते हैं, स्वर्गीय आज्ञाओं और परमेश्वर के आदेशों से दण्डित होते हैं और इसलिये गंभीर आपराधिक और दुष्टतापूर्ण व्यवहार-बलात्कार करना, लूटपाट करना, धोखाधड़ी और चालाकी, चोरी और डाका डालना, हत्या और आगजनी और इसी प्रकार की अन्य बातें-अलग अलग प्रकार की सख्ती वाले दण्ड की श्रृंखला के दायरे में आते हैं। और इन कठोर दंड के दायरे में क्या-क्या आता है? उनमें से कुछ में सख्ती के स्तरों का निर्धारण करने के लिये समय का प्रयोग करते हैं, कुछ विभिन्न तरीकों को इस्तेमाल करते हैं और अन्य ऐसा उस माध्यम से करते हैं, जहां लोग जन्म के बाद जाते हैं। उदाहरण के लिये, कुछ लोगों के मुख दुष्टतापूर्ण बातों से भरे रहते हैं। यह दुष्टतापूर्ण बातों से मुख भरा रहना किस बात को बताता है? इसका अर्थ होता है दूसरों को गाली देना और भद्दी भाषा का उपयोग करना, वह भाषा जो दूसरों को शाप देती है। यह भद्दी और गन्दी भाषा क्या दर्शाती है? यह दर्शाती है कि किसी का हृदय दुष्टता से भरा है। गन्दी भाषा जो लोगों को शापित करती है, ऐसे ही लोगों के मुख से निकलती है, और ऐसी गन्दी भाषा के साथ सख्त परिणाम जुड़े होते हैं। ऐसे लोग मरने और उचित दण्ड भोगने के पश्चात पुनः गूंगे या मूक उत्पन्न हो सकते हैं। कुछ लोग, जब वे जीवित रहते हैं तो बडे नाप-जोख वाले होते हैं, वे प्रायः दूसरों का लाभ उठाते हैं। विशेषकर उनकी छोटी-छोटी योजनाएं बहुत सोच-विचार करके बनाई गई होती हैं और वे अधिकतर वही कार्य करते हैं जिनसे दूसरों को अधिक हानि पहुंचे। जब उनका पुनर्जन्म होता है तो वह मंदबुद्धि या मानसिक रुप से विकलांग हो सकते हैं। कुछ लोग दूसरों की एकान्तता में ताका-झांकी करते हैं: उनकी आंखें कुछ-कुछ वह सब देख लेती हैं जिसका साक्षी उन्हें नहीं होना चाहिये था और वे इन बातों को जान लेते हैं जिन्हें उन्हें नहीं जानना चाहिये था और इसलिये जब उनका पुनर्जन्म होता है तो अन्धे उत्पन्न हो सकते हैं। कुछ लोग जीवित अवस्था में बहुत फुर्तीले होते हैं। वे प्रायः झगडते हैं और दुष्टता के बहुत से कार्य करते हैं और इस प्रकार जब उनका पुनर्जन्म होता है तो वे विकलांग, लंगड़े, टुंडे या कुबड़े हो सकते हैं, या टेढ़ी गर्दन वाले हो सकते हैं, लचक कर चलने वाले हो सकते हैं या उनका एक पैर दूसरे की अपेक्षा छोटा हो सकता था आदि-आदि। इसमें उन्हें विभिन्न दण्डों को अपनी जीवित अवस्था में किये गये दुष्टता पूर्ण कार्यो के स्तर के अनुसार भोगना पड़ता है। और तुम क्या कहते हो, लोग भैंगे क्यों होते हैं? क्या ऐसे काफी लोग होते हैं? ऐसे आस-पास बहुत से लोग होते हैं। कुछ लोग भैंगे इसलिये होते हैं क्योंकि उन्होंने विगत जीवनकाल में अपनी आँखों का गलत उपयोग किया, उन्होंने अनेक बुरे कार्य किये और इसलिये जब वे इस जीवन में उत्पन्न होते हैं तब उनकी आँखें भैंगी होती हैं और गंभीर मामलों में वे अन्धे भी होते हैं। तुम्हें क्या लगता है कि भैंगी आँख वाले देखने में अच्छे लगते हैं? क्या वे एक अच्छी छाप छोड़ते हैं? देखें उनका चेहरा-मोहरा कितना सुन्दर है, उनकी चमड़ी साफ और उजली है, उनके नेत्र बड़े और पलकें घनी हैं-परन्तु दुर्भाग्यवश उनकी एक आँख भैंगी है, वे किस प्रकार के दिखाई पड़ते हैं? क्या इसका मनुष्य के आचरण पर पूर्णरुप से प्रभाव नहीं पड़ता? और इस प्रभाव के साथ वे किस प्रकार का जीवन जीते हैं? जब वे अन्य लोगों के साथ मिलते हैं, वे अपने आप में सोचते हैं: "अरे, मैं तो भैंगा हूँ! मुझे दूसरे लोगों की ओर अधिक ताकना नहीं चाहिये, मैं नहीं चाहता कि वे मेरी आंखों की ओर देखें। मुझे उनके साथ सिर झुकाकर वार्तालाप करना चाहिए। मैं उनके आमने-सामने होकर नहीं देख सकता।" वे चीज़ो को कैसे देखते हैं, उनकी भैंगी आंखों का उस पर प्रभाव पड़ता है और लोगों की नजरों से नजरें मिलाकर देखने पर भी। इसमें क्या उन्होंने अपनी आंखों के उपयोग को नहीं गंवाया है? और इस प्रकार उनके द्वारा विगत जीवन में की गई ज्यादातियों का निवारण नहीं किया गया है? अत: अगले जीवन में वे इस प्रकार की बुराई करने का साहस नहीं करेंगे। यह प्रतिफल है!
कुछ लोग अपनी मृत्यु पूर्व दूसरों के साथ बहुत अच्छे से निभाते हैं, वे अपने अपने आस-पास के लोगों के साथ बहुत से अच्छे कार्य करते हैं, जैसे जो उनके प्रिय हैं साथी हैं, या वे लोग हैं जो उनसे जुड़े होते हैं। वे दूसरों की सहायता करते हैं, वे दान देते हैं और दूसरों की चिन्ता करते हैं, या आर्थिक रुप से सहायता करते हैं, लोग उनके बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं और जब ऐसे लोग आत्मिक संसार में वापस आते है तब उन्हें दंडित नहीं किया जाता। एक अविश्वासी को जब किसी प्रकार से दण्डित नहीं किया जाता है तो इसका अर्थ है कि वह बहुत ही अच्छा इन्सान था। परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने के बजाय, वे केवल आसमान में एक वृद्ध व्यक्ति पर अपना विश्वास रखते हैं। वे केवल इतना ही विश्वास करते हैं कि एक आत्मा है जो ऊपर है और जो कुछ वे करते हैं उसे देखता है-वे केवल इसी बात में विश्वास करते हैं। और इसका क्या परिणाम होता है? लोगों के साथ उनका व्यवहार काफी बेहतर होता है। ये लोग दयालु और दयावान होते हैं और जब अन्ततः वे आत्मिक संसार में वापस जाते हैं तब आत्मिक संसार उनका स्वागत करता है और वे जल्द ही दुनिया में वापस आते हैं और नया जन्म पाते हैं। और वे किस प्रकार के परिवार में आयेंगे? यद्यपि वह धनी नहीं होगा, लेकिन उसका पारिवारिक जीवन शान्तिमय होगा, परिवार के सदस्यों में सामंजस्य होगा, उनके दिन शांति, खुशहाली में गुज़रेंगे, प्रत्येक जन खुशी से भरा होगा और उनका जीवन अच्छा होगा। जब व्यक्ति प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करेगा, तो वह अनेक पुत्र और पुत्रियां उत्पन्न करेगा और उसका परिवार बड़ा होगा, उसकी संतानें गुणवान होंगी और सफलता उनके कदम चूमेगी, और वह तथा उसका परिवार अच्छे भाग्य का आनन्द उठायेगा-और ऐसा परिणाम व्यक्ति के विगत जीवन से जुड़ा होता है। कहने का आशय है कि एक व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसके मरने के बाद तक, जब वह फिर से जन्म लेता है तो वह कहां जाएगा, पुरुष होंगे अथवा स्त्री, उनका लक्ष्य क्या है, जीवन में वे क्या क्या भोगेंगे, उनकी बाधाएं, वे किन आशीषों का सुख भोगेंगे, वे किनसे मिलेंगे, उनके साथ क्या होगा-कोई इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता, इससे न तो कोई बच सकता है, न ही छिप सकता है। कहने का अर्थ है कि तुम्हारे जीवन के मार्ग के निश्चित हो जाने के पश्चात, तुम्हारे साथ क्या होता है उसमें, तुम इससे चाहे कितना भी बचने का प्रयत्न करो, चाहे किसी साधन द्वारा तुम बचने का प्रयास करो, आत्मिक संसार में परमेश्वर ने तुम्हारे लिये जो मार्ग निर्धारित कर दिया है तुम्हारे पास उसके उल्लंघन का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जब तुम जन्म लेते हो तो तुम्हारा प्रारब्ध पहले ही निश्चित किया जा चुका होता है। चाहे वह अच्छा हो अथवा बुरा, प्रत्येक को इसका सामना करना चाहिये और आगे बढते रहना चाहिये; यह वह विषय है जिससे कोई भी जो इस संसार में जीवित है, बच नहीं सकता, और कोई विषय इससे अधिक वास्तविक नहीं है, ठीक है, तुम इसे पूरी रीति से समझ गये न?
इसे समझ लेने के बाद, क्या तुम देखते हो कि परमेश्वर के पास अविश्वासियों के जीवन-मृत्यु चक्र के लिये बिल्कुल सटीक और कठिन जांच और व्यवस्था है? पहले तो, परमेश्वर ने विभिन्न स्वर्गीय आज्ञाएं, आदेश और रीतियां इस आत्मिक राज्य में स्थापित की हैं, इन स्वर्गीय आज्ञाओं, आदेशों और रीतियों की घोषणा के पश्चात, जैसा कि परमेश्वर ने निर्धारित किया है, आत्मिक संसार में विभिन्न आधिकारिक पदों के द्वारा, उनका कड़ाई से पालन किया जाता है और कोई भी उनका उल्लंघन करने का साहस नहीं करता। और इसलिये मनुष्य के संसार में मानवजाति के जीवन और मृत्यु के चक्र में, चाहे कोई पशु जन्म ले या इंसान, नियम दोनों के लिये हैं। क्योंकि यह नियम परमेश्वर की ओर से आते हैं, उन्हें तोड़ने का कोई साहस नहीं करता, न ही कोई उन्हें तोडने योग्य है। यह केवल परमेश्वर के ऐसे प्रभुत्व के कारण ही है और इस कारण है क्योंकि ऐसे नियम हैं, कि भौतिक संसार जिसे लोग देखते हैं, नियमित और क्रमबद्ध है; यह परमेश्वर की ऐसी सार्वभौमिकता के कारण ही है कि मनुष्य इस योग्य है कि वह शान्ति से उस दूसरे संसार के साथ जो मनुष्य के लिये पूर्णरुप से अदृश्य है, अपना सह-अस्तित्व बनाये रखता है और उसके साथ ताल-मेल बनाकर रहता है-जो पूर्णरुप से परमेश्वर की प्रभुता से अनुलंघनीय है। एक आत्मा के देह छोडने के बाद भी, आत्मा में जीवन रहता है और यदि वह परमेश्वर के प्रशासन से रहित होता तो क्या होगा? आत्मा हर स्थान पर भटकती, हर स्थान में बाधा डालती, और मनुष्य के संसार में जीवधारियों को भी हानि पहुंचाएगी। यह हानि न केवल मनुष्य जाति की ही नहीं होती, बल्कि वनस्पति और पशुओं की ओर भी होती-लेकिन पहली हानि लोगों की होती। यदि ऐसा होता-यदि ऐसी आत्मा व्यवस्थारहित होती, और वाकई लोगों को हानि पहुंचाती, वाकई दुष्ट कार्य करती-तो ऐसे आत्मा को आत्मिक जगत में ठीक से संभाला जाता। यदि मामला गंभीर होता तो आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता, वह नष्ट हो जाती; यदि संभव हो तो, उसे कहीं रखा जायेगा और उसका पुनर्जन्म होगा। कहने का आशय है कि आत्मिक संसार में विभिन्न आत्माओं का प्रशासन व्यवस्थित होता है और चरणबद्ध तथा नियमों के अनुसार होता है। यह ऐसे प्रशासन के कारण है कि मनुष्य के भौतिक संसार में अराजकता नहीं फैली है, भौतिक संसार के मनुष्य में एक सामान्य मानसिकता है, साधारण तर्कशक्ति है और एक अनुशासित दैहिक जीवन है। मानवजाति के ऐसे सामान्य जीवन के बाद ही बाकी जो देह में जीवनयापन कर रहे हैं, फलते-फूलते रह सकेंगे और पीढ़ी दर पीढ़ी संतान उत्पन्न करते सकेंगे।
अभी तुमने जिन बातों को सुना है उनके विषय में तुम क्या सोचते हो? क्या वे तुम्हारे लिये नये हैं? और आज जब मैंने इन बातों को कहा है तो तुम्हें कैसा लगता है? वे बातें नई हैं, इस बात के अतिरिक्त क्या तुम कुछ और महसूस करते हो? मुझे बताओ। (लोगों को अच्छे व्यवहार वाला होना चाहिये, और मैं देखता हूं परमेश्वर महान और भयभीत करने वाला है।) (मैं परमेश्वर के प्रति अधिक भक्ति-भाव अनुभव करता हूं, यदि भविष्य में मुझे कुछ होता है तो मैं अधिक सचेत रहूंगा, मैं जो कहता हूं और जो करता हूं उसके प्रति में अधिक अनुशासित रहूंगा)। (विभिन्न प्रकार के लोगों के अंत से परमेश्वर कैसे निपटता है, इस विषय पर अभी परमेश्वर का संवाद सुनने के बाद, एक तरह से मुझे लगता है कि परमेश्वर का स्वभाव किसी प्रतिरोध की अनुमति नहीं देता, और मुझे उसकी भक्ति करनी चाहिये; और अन्य तरीके से, मैं इस बात को जानता हूं कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को पसंद करता है और किस प्रकार के लोगों को पसंद नहीं करता, और इसलिये मैं उनमें से एक बनना चाहूंगा जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है।) क्या तुम देखते हो कि इस क्षेत्र में परमेश्वर के कार्य सैद्धांतिक हैं? वे कौन से सिद्धांत हैं जिनके द्वारा वह कार्य करता है? (लोग जो कार्य करते हैं, उन्हीं के अनुसार वह लोगों का अन्त तय करता है।) यह अविश्वासियों के विभिन्न अंजामों के विषय में है जिनकी हमने अभी-अभी बात की। जब अविश्वासियों की बात आती है, तो क्या परमेश्वर की कार्यवाइयों की पृष्ठभूमि में भलों को प्रतिफल देने और दुष्टों को दण्ड देने का सिद्धांत है? क्या तुम देखते हो कि परमेश्वर की कार्यवाई के लिये एक सिद्धांत है? तुम्हें यह देखने योग्य होना चाहिये कि एक सिद्धांत है। वास्तव में अविश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे परमेश्वर के आयोजन को नहीं मानते और वे परमेश्वर के प्रभुत्व से अनभिज्ञ हैं, परमेश्वर को स्वीकारने की तो बात ही क्या है। अधिक गंभीर बात यह है कि वे परमेश्वर की निन्दा करते हैं और उसे बुरा भला कहते हैं, और उन लोगों के प्रति हिंसक हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। यद्यपि इन लोगों का परमेश्वर के प्रति ऐसा रवैया है, फिर भी उनके प्रति परमेश्वर की व्यवस्था अपने सिद्धांतो से विचलित नहीं होती; वह अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुरूप व्यवस्थित रूप से उनका प्रबंधन करता है। परमेश्वर उनके हिंसात्मक रवैये को किस प्रकार लेता है? नादानी की तरह! और इसलिए उसने इन लोगों को-अविश्वासियों में से अधिकतर को-एक बार पशु के रूप में जन्म दिया है। तो अविश्वासी परमेश्वर की दृष्टि में क्या है? (मवेशी)। परमेश्वर की दृष्टि में वे इसी प्रकार के हैं, वे मवेशी हैं। परमेश्वर मवेशियों का बंदोबस्त करता है, और वह मनुष्यों का बंदोबस्त करता है और इस प्रकार के लोगों के लिये उसके सिद्धांत एक समान हैं। इन लोगों के प्रशासन में और उनके प्रति परमेश्वर की कार्यवाइयों में, अभी भी परमेश्वर के स्वभाव को और सभी चीज़ों पर उसकी प्रभुता के विषय में कानून को देखा जा सकता है। अत:, क्या तुम उन सिद्धांतों में परमेश्वर की प्रभुता देखते हो जिनके द्वारा वह अविश्वासियों का बन्दोबस्त करता है जिसके विषय में मैंने अभी बताया? क्या तुम परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को देखते हो? (हां, हम देखते हैं।) तुम उसके प्रभुत्व और उसके स्वभाव को देखते हो। और कहने का अर्थ है कि वह किसी भी चीज़ से निपटे, परमेश्वर अपने ही सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। यही परमेश्वर का तत्व है। वह आमतौर पर अपने सिद्धांतों या स्वर्गीय नियमों को नहीं तोड़ता जो उसने स्थापित किए हैं, क्योंकि वह ऐसे लोगों को मवेशी के रूप में देखता है; परमेश्वर ज़रा भी इधर-उधर भटके बिना, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है, किसी भी कारण का उसकी कार्यवाइयों पर बिल्कुल भी प्रभाव नहीं पड़ता, और चाहे वह कुछ भी करे, वह सब उसके सिद्धांतों के अन्तर्गत होता है। इस बात का निर्णय इस तथ्य के द्वारा होता है कि परमेश्वर के पास स्वयं परमेश्वर का तत्व है, जो एक अद्वितीय तत्व, जो किसी रचे गए जीव के पास नहीं होता। परमेश्वर हर वस्तु, हर व्यक्ति, और जो कुछ भी उसने रचा है, उन सभी चीज़ों के मध्य जीव की देखभाल में, नज़रिये में, उनके प्रबंधन में, प्रशासन में न्यायपरायण और उत्तरदायी है, और इसमें वह कभी भी लापरवाह नहीं रहा है। जो अच्छे हैं, वह उनके प्रति अनुग्रही और दयावान है; जो दुष्ट हैं, उन्हें वह निर्ममता से दंड देता है; और विभिन्न जीवों के लिये, वह समयानुकूल और नियमित रूप से, विभिन्न समयों पर मानवजाति के संसार की आवश्यकता अनुसार उचित प्रबंध करता है इस प्रकार करता है कि विभिन्न जीव व्यवस्थित रूप से अपनी-अपनी भूमिकाओं के अनुसार जन्म लेते रहें, और व्यवस्थित रूप से भौतिक जगत और आत्मिक जगत के मध्य आवागमन करते रहें। यही वह है जिसे मनुष्यों को समझना और जानना चाहिये।
एक जीवधारी की मृत्यु-भौतिक जीवन का अंत-ये दर्शाता है कि एक जीवधारी भौतिक संसार से आत्मिक संसार में चला गया है, जबकि एक भौतिक जीवन के जन्म का तात्पर्य ये है कि एक जीवधारी आत्मिक संसार से भौतिक संसार में आया है और उसने अपनी भूमिका ग्रहण कर ली है और उसे निभाना आरम्भ कर दिया है। चाहे एक जीवधारी का आगमन हो अथवा गमन, दोनों आत्मिक जगत के कार्य से अटूट रूप से जुड़े हुए हैं। जब कोई भौतिक संसार में आता है तो परमेश्वर द्वारा आत्मिक जगत में उस परिवार के लिये, जिसमें उसे जाना है उस युग में जिसमें वे आते हैं उस पहर में जिसमें वे आते हैं, और वो भूमिका जो उन्हें निभानी है, उचित प्रबंध और व्याख्याएं पहले ही तैयार की जा चुकी होती हैं। और इसलिए इस व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन-जो काम वह करता है, और जो मार्ग वो चुनता है-आत्मिक संसार की व्यवस्थाओं के अनुसार चलता है, जिसमें लेशमात्र की भी त्रुटि नहीं होती है। जिस समय पर भौतिक जीवन समाप्त होता, और जिस तरह और जिस स्थान पर समाप्त होता है, आत्मिक जगत के सामने वह स्पष्ट और प्रत्यक्ष होता है। परमेश्वर भौतिक संसार पर राज्य करता है, और वह आत्मिक जगत पर राज्य करता है, और वह किसी आत्मा के जीवन और मृत्यु के साधारण चक्र में देरी नहीं करेगा, न ही वह आत्मा के जीवन और मृत्यु चक्र के प्रबंधन में किसी प्रकार की गलती कर सकता है। आत्मिक जगत में आधिकारिक पदों पर आसीन प्रत्येक दूत अपने कार्यों को पूरा करता है, और परमेश्वर के निर्देशों और नियमों के अनुसार जो उसे करना चाहिये उसे करता है। और इसलिये मनुष्यों के संसार में, कोई भी भौतिक घटना व्यवस्थित रूप में घटित होती, और उसमें कोई गडबडी नहीं होती। यह सब कुछ इसलिये है कि सब वस्तुओं के विषय में परमेश्वर के नियम सुचारु हैं, और इसके साथ ही क्योंकि परमेश्वर का आधिपत्य प्रत्येक वस्तु पर है, और जिन चीज़ों पर उसका आधिपत्य है उसमें भौतिक संसार सम्मिलित है जिसमें मनुष्य रहता है और इसके अतिरिक्त, मनुष्य के पीछे का वह अदृश्य आत्मिक जगत भी। और इसलिये, यदि मनुष्य एक अच्छा जीवन चाहता है, और एक अच्छे वातावरण में रहना चाहता है, सम्पूर्ण दृश्य भौतिक जगत के अलावा, जो उसे दिया गया है, मनुष्य को आत्मिक संसार भी दिया जाना चाहिए, जिसे कोई भी देख नहीं सकता, जो मनुष्यों की ओर से प्रत्येक जीवधारी का संचालन करता है और जो सुचारु है। इस प्रकार, जब यह कहा जाता है कि सब वस्तुओं के जीवन के लिये परमेश्वर ही मूल है, तो क्या "सब वस्तुओं" के अर्थ की अपनी जानकारी और समझ में हमने कुछ जोड़ा नहीं है?
2) विभिन्न विश्वासी लोगों के जीवन और मृत्यु का चक्र
हमने अभी अविश्वासियों की पहली श्रेणी के जीवन और मृत्यु चक्र पर चर्चा की। अब आओ हम द्वितीय श्रेणी, आस्था के विभिन्न लोगों पर चर्चा करें। "विभिन्न आस्था रखने वाले लोगों के जीवन और मृत्यु का चक्र" भी एक महत्वपूर्ण विषय है और यह समयोचित है कि इस विषय के संबंध में तुम कुछ समझो। सबसे पहले, आओ हम इस बात को समझें कि "आस्थावान लोगों" में आस्था का अभिप्राय क्या है: इसका अभिप्राय है यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म, इस्लाम और बुद्धधर्म, ये पांच प्रमुख धर्म हैं। अविश्वासियों के अतिरिक्त, जो लोग इन पांच धर्मों में विश्वास रखते हैं उनका संसार की जनसंख्या में एक बड़ा अनुपात है। इन पांच धर्मों के बीच, जिन्होंने अपने विश्वास के चलते एक जीवनवृत्ति बनाई-जो अपने विश्वास के लिये पूर्णकालिक कार्य करते हैं-बहुत कम हैं, फिर भी इन धर्मों में अनेक विश्वासी हैं। उनके विश्वासी मरणोपरान्त भिन्न-भिन्न स्थानों में जाते हैं। किससे "भिन्न"? अविश्वासियों से, वे लोग जिनमें कोई विश्वास नहीं है हम अभी उन्हीं के विषय में बात कर रहे थे। इन पांचों धर्मों के विश्वासी मरने के पश्चात किसी अन्य स्थान में जाते हैं, जो अविश्वासियों के स्थान से भिन्न होता है। आध्यात्मिक या आत्मिक जगत भी मरने के पूर्व जो कुछ उन्होंने किया, इस आधार पर उनका निर्णय करेगा, उसके पश्चात् उसी के अनुसार उन्हें छांटा जायेगा और कार्यवाई की जायेगी। परन्तु कार्यवाई करने हेतु उन्हें किसी अलग स्थान में रखने की क्या जरुरत है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। और वह कारण क्या है? मैं एक उदाहरण से तुम्हें बताऊंगा।
बौद्धमत को लें: तुम्हें एक सच्चाई बताता हूं। पहली बात तो यह है कि एक बौद्धमत को मानने वाला, वह है जो बौद्धमत में आ गया है और वह जानता है कि उसका विश्वास क्या है। जब एक बौद्ध अपने बाल कटवाता है और भिक्षु या भिक्षुणी बन जाता है, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने आपको लौकिक संसार से पृथक कर लिया है और संसार के कोलाहल को बहुत पीछे छोड़ दिया है। प्रतिदिन वे सूत्रों का उच्चारण करते हैं और केवल शाकाहारी भोजन करते हैं, वे तपस्वी जीवन व्यतीत करते हैं। उनके दिन तेल के दिये की ठण्डी क्षीण रोशनी में गुजरते हैं। वे अपना सारा जीवन इसी प्रकार व्यतीत करते हैं। जब उनका भौतिक जीवन समाप्त होता है, वे अपने जीवन का सारांश बनाते हैं, परन्तु अंदर से उन्हें पता नहीं कि मरने के बाद वे कहां जाएंगे, किससे मिलेंगे, और उनका अंत क्या होगा – अपने हृदय में वे इन चीज़ों को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। उन्होंने केवल एक विश्वास का दामन पकड़े हुए अपना सारा जीवन कुछ न करते हुए व्यतीत किया, इसके पश्चात वे इस संसार से अंधी इच्छाओं और आदर्शों के साथ चले जाते हैं। उनके भौतिक जीवन का अन्त इस प्रकार होता है जब वे जीवितों के संसार को छोड़ते हैं और जब उनका शारीरिक जीवन समाप्त हो जाता है, वे अपने मूल स्थान आत्मिक संसार में वापस लौट जाते हैं। क्या पृथ्वी पर वापिस आने और अपना आत्म-विकास करते रहने के लिए इस व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा, यह मृत्यु से पहले के उसके आचरण और आत्म-विकास पर निर्भर करता है। यदि अपने जीवनकाल में उन्होंने कुछ गलत नहीं किया, तो उन्हें शीघ्र ही पुनर्जन्म दिया जाएगा और फिर पृथ्वी पर वापस भेजे जायेंगे, जहां वे एक बार फिर अपने सिर पर उस्तरां फिरवायेंगे और एक भिक्षु या भिक्षुणी बन जाएंगे। वे एक भिक्षु या भिक्षुणी तीन से सात बार तक बनते हैं। पहली बार की कार्यप्रणाली के अनुसार उनके भौतिक शरीर आत्म-विकास होता है, उसके बाद वे मर जाते हैं, वे आत्मिक जगत लौटते हैं जहां उनकी जांच की जाती है, उसके बाद-अगर कोई समस्या नहीं है तो वे एक बार फिर से मानव-जगत में आते हैं और अपना आत्म-विकास जारी रखते हैं, अर्थात वे एक बार फिर से बौद्धधर्म में जन्म ले सकते हैं और आत्म-विकास जारी रख सकते हैं। तीन से सात बार तक पुनर्जन्म होने के बाद, वे एक बार फिर आत्मिक जगत में लौटेंगे, जहां मरने के बाद हर बार वे जाते हैं। मानवीय दुनिया में यदि उनकी विभिन्न योग्यताएं और व्यवहार स्वर्गीय आज्ञाओं से, जो आत्मिक संसार से आती हैं, मिलती हैं, तो इस बिन्दु से आगे की समयावधि में वे वहीं रहेंगे; उन्हें फिर से मनुष्य के रुप में जन्म नहीं दिया जाएगा, ना ही पृथ्वी पर किये गये दुष्ट कार्यों के लिए दण्डित किये जाने का कोई जोखिम होगा। वे इस प्रक्रिया का अनुभव फिर कभी नहीं करेंगे। बल्कि अपनी परिस्थितियों के अनुसार, वे आत्मिक राज्य में एक पद ग्रहण करेंगे, जिसे बौद्ध लोग अमरता की प्राप्ति बताते हैं। अब तुम समझ गये? और बौद्ध धर्म में यह "अमरता की प्राप्ति" किसे बताते हैं? इसका अर्थ है कि आत्मिक संसार का एक अधिकारी बनना, और फिर से जन्म लेने या दण्ड भोगने का आगे कोई अवसर नहीं होगा। इसके अलावा, इसका अर्थ है कि पुनर्जन्म के बाद मनुष्य बनकर कष्ट भोगना समाप्त हो जायेगा। इसलिये क्या अभी भी उनके लिये पशु के रुप में पैदा होने का कोई अवसर है? बिल्कुल नहीं। इसका मतलब क्या है? यानी कि वे कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए आध्यात्मिक जगत में ही रहते हैं और इंसान के रूप में उनका पुनर्जन्म नहीं होता। अमरत्व प्राप्ति का यह एक उदाहरण है।
जो अमरत्व को प्राप्त नहीं करते उनके विषय में क्या? आत्मिक संसार में उनके लौटने पर संबंधित कार्यकर्ताओं द्वारा उनको जांचा और सत्यापित किया जाता है और पाया जाता है कि उन्होंने आत्म-विकास में परिश्रम नहीं किया है या बौद्धमत के अनुसार आदेशित सूत्रों का परायण ठीक प्रकार से नहीं किया, बल्कि दुष्कर्म किए और जो बुरा था वही अधिक किया है। जब वे आत्मिक संसार में लौटते हैं, तो उनके दुष्टता पूर्ण कार्यों के विषय में एक निर्णय लिया जाता है, उसके बाद वे दण्डित किये जाते हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं है। तो कब इस प्रकार का व्यक्ति अमरत्व प्राप्त करता है? उस जीवन में जब वे कोई बुरा कार्य नहीं करते-जब उनके आत्मिक संसार में लौटने के पश्चात, यह देखा जाता है कि उन्होंने मृत्यु पूर्व कुछ गलत नहीं किया था। उनका बार-बार जन्म होना जारी रहता है वे सूत्रों का पारायण जारी रखते हैं, वे अपने दिन तेल के दिये के ठण्डे और क्षीण प्रकाश में गुज़ारते हैं, वे किसी जीवधारी की हत्या नहीं करते, मांस भक्षण नहीं करते, और मनुष्य के संसार में हिस्सा नहीं लेते, अपनी समस्याओं को दरकिनार कर देते हैं और उनका किसी दूसरे मनुष्य के साथ झगड़ा नहीं होता। इस प्रक्रिया के दौरान, वे कोई दुष्टता नहीं करते, इसके पश्चात वे अत्मिक संसार में लौट आते हैं, और उनके समस्त क्रियाकलापों की जांच के बाद उन्हें एक बार पुनः मनुष्य के संसार में भेजा जाता है, एक चक्र के अन्तर्गत जो तीन से सात बार तक चलता है। यदि इस बीच कोई गडबड़ी नहीं हुई, तब उनकी अमरत्व की प्राप्ति अप्रभावित रहेगी, और वे सफल होंगे। यह विश्वासी लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र का एक लक्षण है: वे अमरत्व प्राप्त करने और अत्मिक संसार में कोई भूमिका ग्रहण करने योग्य होते हैं। यही बात है जो उन्हें अविश्वासियों से अलग बनाती है। पहली बात है जब वे पृथ्वी पर जीवित होते हैं, तो उन लोगों का आचरण कैसा होता है जो आत्मिक संसार में पद ग्रहण करने योग्य हैं? उनके लिये जरुरी है कि वे कोई भी दुष्टतापूर्ण कार्य न करें। उन्हें हत्या, आगजनी, बलात्कार, या लूटपाट के कार्य नहीं करने हैं; यदि वे लूटपाट, धोखाधड़ी, चोरी या डकैती करते हैं, तब वे अमरता को प्राप्त नहीं कर सकते। कहने का अर्थ है कि यदि उनका दुष्टता के कार्य से कोई भी संबंध या लगाव है तो वे आत्मिक संसार के दण्ड से बच नहीं सकते। आत्मिक संसार उन बौद्धों के लिये उचित प्रबंध करता है जो अमरत्व को प्राप्त करते हैं: उनको एक काम दिया जा सकता है कि जो लोग बौद्धधर्म में विश्वास करते प्रतीत हों, उनकी देख-रेख करें, ऐसे ही उनकी भी जो आकाशीय वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते प्रतीत होते हैं, और बौद्धों को एक अधिकार-क्षेत्र दिया जाएगा, वे अविश्वासियों की देख-रेख कर सकते हैं, अन्यथा वे एक छोटे-मोटे दूत हो सकते हैं। कार्य का यह बंटवारा इन आत्माओं की प्रकृति के अनुसार होगा। यह बौद्धधर्म का एक उदाहरण है।
हमने जिन पांच धर्मों के विषय में कहा है, उनमें से ईसाई धर्म कुछ विशेष है। और ईसाई धर्म के बारे में क्या विशेष है? ये वे लोग हैं जो सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे जो सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे यहाँ सूचीबद्ध कैसे हो सकते हैं? क्योंकि ईसाईयत केवल इस बात को स्वीकार करती है कि एक परमेश्वर है, और वे परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसके प्रति हिंसक हैं। उन्होंने एक बार फिर मसीह को सूली पर चढ़ा दिया और परमेश्वर के अन्तिम दिनों के कार्यों में स्वयं को उसका शत्रु बना दिया, और नतीजा यह हुआ कि वे उजागर हो गए और एक विश्वासी समूह के रूप में सिमट कर रह गए। चूंकि ईसाईयत एक प्रकार का विश्वास है, तो यह निःसंदेह केवल विश्वास से संबंधित है-यह एक प्रकार की धर्मक्रिया है, एक प्रकार का वर्ग या कोटि, एक प्रकार का धर्म, और कुछ उन लोगों के विश्वास से अलग है जो सच्चाई से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। ईसाईयत को पांच प्रमुख धर्मों में सूचीबद्ध करने का मेरा कारण यह है कि ईसाईयत भी घट कर उसी स्तर पर आ चुकी है जिस स्तर पर यहूदी, बौद्धधर्म और इस्लाम धर्म आ चुके हैं। अधिकतर ईसाई इस बात पर विश्वास नहीं करते कि कोई परमेश्वर है, या इस बात पर कि वह सब पर शासन करता है, यहां तक कि वे इस बात पर भी विश्वास नहीं करते कि उसका अस्तित्व भी है। बल्कि वे केवल धर्म के विषय में बातें करने के लिए धर्मशास्त्रों का उपयोग करते हैं, वे धर्म का उपयोग लोगों को शिक्षा देने में करते हैं कि वे दयालु बनें, कष्टों को सहन करने वाले बनें और वे अच्छे कार्य करें। ईसाईयत धर्म इसी प्रकार का है: यह केवल ईश्वरपरक सिद्धांतो पर ध्यान केन्द्रित करता है, इसका परमेश्वर द्वारा किये जाने वाले मनुष्य संबंधी प्रबंधन या उसको बचाने वाले कार्यों से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता, यह उन लोगों का धर्म है जो ऐसे परमेश्वर का अनुकरण करते हैं जिनको परमेश्वर स्वयं अंगीकार नहीं करता। लेकिन उनके प्रति अपने नज़रिये में परमेश्वर के पास एक सिद्धांत है। वह केवल अनौपचारिक रूप से अपनी मर्जी से उनसे व्यवहार ही नहीं करता, जैसा कि वह अविश्वासियों के साथ करता है। उनके लिए उसका नज़रिया बौद्धों के समान ही हैः यदि जीवित रहते हुए, एक ईसाई में आत्म-अनुशासन होता है, तो वह पूर्णरुप से दस आज्ञाओं और अन्य आज्ञाओं का पालन कर पाता है तथा उन अपेक्षाओं के नियमों का पालन कर पाता है जो वह स्वयं के व्यवहार से करता है-और यदि वे अपने सम्पूर्ण जीवन में इसे कर सकते हैं-तब उन्हें भी उतना ही समय जीवन और मृत्यु के चक्र में से गुजरने में व्यतीत करना होगा इससे पूर्व कि वे वास्तव में तथाकथित स्वर्गारोहण को प्राप्त कर सकें। इस "स्वर्गारोहण" को प्राप्त करने के पश्चात वे आत्मिक संसार में बने रहते हैं, जहां वे एक पद प्राप्त करते हैं और अनेक में से एक दूत बन जाते हैं। इसी प्रकार, यदि पृथ्वी पर वे दुष्टता करते हैं, यदि वे पाप से भरे हैं और बहुत से पाप करते हैं, तब अपरिहार्य रूप से वे दण्डित किये जाएंगे और विभिन्न स्तर की कठोरताओं से अनुशासित किये जायेंगे। बौद्ध धर्म में "अमरत्व" प्राप्त करने का अर्थ है निर्वाण में प्रवेश करना परन्तु ईसाई धर्म में वे इसे क्या कहते है? इसे "स्वर्ग में प्रवेश" करना और "स्वर्गारोहण" होना कहते हैं। वे जो वास्तव में "स्वर्गारोहण" को प्राप्त होते हैं, वे भी जीवन और मृत्यु के चक्र से तीन से सात बार तब गुजरते हैं, उसके पश्चात मर जाने पर वे आत्मिक संसार में आते हैं, मानों वे निद्रा में थे। यदि वे एक विशेष स्तर पर हैं तो वे कोई भूमिका लेने के लिये रह सकते हैं, और पृथ्वी पर के लोगों से अलग, साधारण रीति से या परिपाटी के अनुसार उनका पुनर्जन्म नहीं होगा।
इन सब धर्मों के मध्य, जिस अन्त की वे बात करते हैं या जिसके लिये संघर्ष करते हैं, वैसा ही है जैसे बौद्धमत में अमरत्व को प्राप्त करना-यह बात दूसरी है कि इसे भिन्न-भिन्न साधनों से प्राप्त किया जाता है, उन सभी का एक ही प्रकार है। इन धर्मों के लोगों के लिए जो कि इन धार्मिक विचारधाराओं का कड़ाई से पालन कर पाते हैं, लोगों के इस भाग के लिये, परमेश्वर उन्हें एक उचित गंतव्य, जाने के लिये एक उचित स्थान देता है, और उचित रीति से उनकी देखभाल करता है। यह सब तर्कसंगत है, लेकिन यह ऐसा नहीं जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। अब इस बात को सुनने के बाद कि ईसाईयों का क्या होता है, तुम कैसा अनुभव करते हो? क्या तुम उनके लिये दुःखी हो? क्या तुम उनके साथ सहानुभूति रखते हो? (थोड़ी-सी) उनके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता – इसके लिए वे स्वयं ही ज़िम्मेदार हैं। मै ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर का कार्य सच्चा है, परमेश्वर जीवित है और वास्तविक है और उसके कार्य का लक्ष्य सम्पूर्ण मनुष्य जाति और प्रत्येक मनुष्य है-तो ईसाई लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं करते हैं? वे पागलों की तरह परमेश्वर का विरोध क्यों करते हैं, उसे यातना क्यों देते हैं? वे भाग्यशाली हैं कि कम से कम उनके पास ऐसा अन्त तो है, तो तुम उनके लिये अफसोस क्यों करते हो? उनके लिये इस प्रकार से निपटा जाना बड़ी सहनशक्ति को दर्शाता है। जितने बडे रुप में वे परमेश्वर का प्रतिकार करते हैं, उन्हें नष्ट किया जाना चाहिये-फिर भी परमेश्वर ऐसा नहीं करता और वह ईसाई धर्म के साथ एक साधारण धर्म की तरह व्यवहार करता है। इसलिये क्या अभी भी आवश्यकता है कि अन्य धर्मों में विस्तार से जाया जाए? इन धर्मों का मूल मन्त्र क्या है? लोग दयालु हों और कोई दुष्टता न करें। अधिक से अधिक कठिनाइयों को सहन करें, कोई बुरा काम ना करें, अच्छी बातें बोले, अच्छे काम करें, दूसरों को गाली न दें, दूसरों के विषय में जल्दबाजी में निर्णय न लें, झगडों से स्वयं को दूर रखें, भलाई के काम करें, एक अच्छा इन्सान बनें-अधिकांश धार्मिक शिक्षाएं इसी प्रकार की हैं। और इसलिये, यदि ये विश्वासी लोग-ये विभिन्न धर्मो और वर्ग के लोग-यदि धार्मिक विचारधाराओं का कडाई से पालन करें तो वे पृथ्वी पर अपने निवासकाल में बड़ी-बड़ी त्रुटियां या पाप नहीं करेंगे और तीन से सात बार तक फिर से जन्म लेने के बाद, सामान्यत: ये लोग, जो धार्मिक विचारधाराओं का कड़ाई से पालन करने योग्य हैं, आत्मिक संसार में एक भूमिका लेने के लिये रहेंगे। और क्या ऐसे लोगों की संख्या अधिक है? अच्छे कार्य करना या धार्मिक नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना सहज नहीं है। बौद्ध धर्म लोगों को मांस भक्षण नहीं करने देता-क्या तुम ऐसा कर सकते हो? यदि तुम्हें भूरे वस्त्र पहनकर एक बौद्ध मंदिर में पूरे दिन सूत्रों का जप करना पड़े, क्या तुम ऐसा कर सकते हो? यह आसान नहीं होगा। ईसाई धर्म में दस आज्ञाएं और अन्य आज्ञाएं हैं, क्या इन आज्ञाओं और व्यवस्थाओं का पालन करना सहज है? नहीं है। दूसरों को गाली न दो: लोग इस नियम का पालन नहीं कर पाते, है ना? स्वयं को रोक नहीं पाते - और गाली देने के बाद वे उसे वापस नहीं ले पाते, इसलिये वे क्या करते हैं? रात्रि में वे अपने पापों को स्वीकार करते हैं! वे दूसरों को गाली देने से स्वयं को नहीं रोक पाते और ऐसा करने के बाद उनके दिलों में फिर भी घृणा भरी रहती है, और यहां तक कि वे योजना बनाते हैं कि कब वे उन्हें हानि पहुंचाएंगे। संक्षेप में, उनके लिये जो इस मृत धर्म सिद्धान्तों के मध्य जीते हैं, पाप न करना या दुष्टता न करना सरल नहीं है। और इसलिये प्रत्येक धर्म में, थोडे-से लोग ही अमरत्व प्राप्त कर पाते हैं। तुम सोचते हो कि क्योंकि इतने अधिक लोग इन धर्मों के अनुयायी हैं, इनमें से अनेक इस योग्य होंगे कि स्वर्गीय राज्य में रहकर किसी भूमिका का निर्वाह करें। लेकिन ऐसे लोग अधिक नहीं होते, केवल कुछ ही होते हैं जो इसे प्राप्त कर पाते हैं। विश्वासी लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र में साधारणतः ऐसा ही होता है। जो चीज उन्हें दूसरों से अलग करती है, वह यह है कि वे अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं। अविश्वासियों में और उनमें यही अन्तर है।
3) परमेश्वर का अनुसरण करने वालों का जीवन और मृत्यु-चक्र
आओ, अब हम परमेश्वर के अनुयायियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के विषय में बात करें। इसका संबंध तुम लोगों से है, इसलिये ध्यान दो। पहले विचार करो कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनको किन वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। इसमें दो हैं: परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवकाई करने वाले लोग। पहले हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के विषय में बात करेंगे, जिसमें बहुत कम लोग हैं। "परमेश्वर के चुने हुए लोग" से क्या अभिप्राय है? परमेश्वर ने जब सारी चीज़ों की रचना कर दी और मानवजाति अस्तित्व में आ गई तो परमेश्वर ने उन लोगों का एक समूह चुना जो उसका अनुसरण करते थे, और उन्हें "परमेश्वर के चुने हुए लोग" कहा। परमेश्वर के इन चुने हुए लोगों का एक विशेष दायरा और महत्ता है। वह दायरा यह है कि परमेश्वर जब भी कोई महत्वपूर्ण कार्य करता है तो उनको जरुर आना है-यह पहली बात है जो उन्हें विशेष बनाती है। और उनकी महत्ता या विशेषता क्या है? परमेश्वर द्वारा उन्हें चुने जाने का अर्थ है कि वे महान विशेषता रखने वाले लोग हैं। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर उन्हें सम्पूर्ण बनाना चाहता है और सिद्ध बनाना चाहता है, और उसका प्रबंधन का कार्य पूर्ण होने के पश्चात वह इन्हें जीत लेगा। क्या यह विशेषता महान नहीं है? इस प्रकार, इन चुने हुए लोगों का परमेश्वर के लिये विशेष महत्व है, क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर जीतने का इरादा रखता है। जबकि सेवकाई करने वाले-खैर, आओ हम परमेश्वर के पूर्व निर्धारित लक्ष्य या मंजिल से हट जाएं, और पहले उनके उद्भव के बारे में बात करें। "सेवकाई करने वाले" का शाब्दिक अर्थ है वह जो सेवा करता है। वे जो सेवकाई करने वाले हैं, वे चलायमान हैं, वे लम्बे समय तक ऐसा नहीं करते या हमेशा के लिये नहीं करते, बल्कि उन्हें भाड़े पर लिया जाता है अथवा अस्थाई रुप से नियुक्त किया जाता है। इनमें से अधिकांश का चुनाव अविश्वासियों में से होता है। जब यह आदेश दिया जाता है कि वे परमेश्वर के कार्य में सेवकाई करने वाले की भूमिका निभाएंगे तो वे पृथ्वी पर आते हैं। वे शायद अपने पुराने जीवन में पशु रहे होंगे, परन्तु वे अविश्वासियों में से भी एक रह चुके होंगे। सेवकाई करने वाले मूलत: ऐसे ही लोग हैं।
आओ, हम फिर से परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर आ जाएं। जब वे मरते हैं, तो परमेश्वर के चुने हुए लोग अविश्वासियों से और विश्वास के विभिन्न लोगों से बिल्कुल भिन्न किसी स्थान पर जाते हैं। यह वह स्थान होता है जहां उनके साथ स्वर्गदूत और परमेश्वर के दूतगण रहते हैं, और वह एक ऐसा स्थान होता है जिसका प्रशासन परमेश्वर स्वयं करता है। हालांकि, इस स्थान में, परमेश्वर के चुने लोग उस योग्य नहीं होते हैं कि परमेश्वर को स्वयं अपनी आखों से देख सकें, यह आत्मिक राज्य में किसी भी अन्य स्थान से अलग है; यह वह स्थान है जहां इस भाग के लोग मरने के बाद जाते हैं। जब वे मरते हैं तो उन्हें भी परमेश्वर के दूतों की कड़ी जांच का सामना करना पड़ता है। और किस बात की जांच की जाती है? परमेश्वर के दूत उस मार्ग की जांच करते हैं जो इन लोगों ने परमेश्वर के विश्वास में रहते हुए अपने जीवन भर अपनाया, कि उस समयकाल के दौरान, उन्होंने कभी परमेश्वर का विरोध तो नहीं किया या उसे कोसा तो नहीं, उन्होंने गंभीर पाप या दुष्टता तो नहीं की। यह जांच इस बात का निर्णय करती है कि क्या व्यक्ति जायेगा या रुकेगा। "जाना" किस बात को बताता है? और "रुकना" किस बात को बताता है? "जाना" बताता है कि क्या, अपने व्यवहार के आधार पर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणी में रहेंगे। "रुकना" बताता है कि वे उन लोगों की श्रेणी में रह सकते हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा अन्तिम दिनों के दौरान पूर्ण बनाया जाता है। जो रुकते हैं उनके लिये, परमेश्वर के पास विशेष प्रबंध है। उसके कार्यों की प्रत्येक समयावधि में, परमेश्वर ऐसे लोगों को भेजेगा कि वे प्रेरितों के रुप में कार्य करें या कलीसियाओं का जीर्णोद्धार करें या उनकी सुधि लें। परन्तु जो लोग इस कार्य को करने योग्य हैं वे पृथ्वी पर बार-बार उस तरह से जन्म नहीं लेते जिस तरह से अविश्वासी जन्म लेते हैं; बल्कि वे परमेश्वर के काम की आवश्यकता और उठाये गये कदमों के अनुसार वापस लौटते हैं और बार बार जन्म नहीं लेते। तो क्या उनका पुनर्जन्म कब होगा इस विषय में कोई नियम है ? क्या वे प्रत्येक कुछ वर्षो में एक बार आते हैं? क्या वे ऐसी बारम्बारता में आते हैं? नहीं। यह किस पर आधारित है? यह परमेश्वर के कार्य पर आधारित है, काम से संबंधित उसके कदमों पर, उसकी आवश्यकताओं पर, और इसका कोई नियम नहीं है। वह एक ही नियम क्या है? वह यह है कि जब परमेश्वर अन्तिम दिनों में अपने कार्यों का अन्तिम चरण पूरा करता है, तो ये चुने हुए लोग मनुष्यों के मध्य आयेंगे। जब वे सब आएंगे तो यह उनका अन्तिम बार जन्म होगा। और ऐसा क्यों है? यह परमेश्वर के कार्यों के अन्तिम चरण में प्राप्त किये जाने वाले परिणामों पर आधारित है-क्योंकि कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान, परमेश्वर इन चुने हुए लोगों को सम्पूर्ण रुप से पूर्ण करेगा। इसका क्या अर्थ है? यदि इस अन्तिम चरण में इन लोगों को पूर्णता दी जाती है और वे सिद्ध बनाये जाते हैं तब वे पहले की तरह फिर से जन्म नहीं लेंगे; मनुष्य होने की प्रक्रिया पूर्णतया समाप्त होगी और इसी प्रकार पुनर्जन्म की प्रक्रिया भी। ये उनसे संबंधित है जो ठहरे रहेंगे। तो जो ठहर नहीं सकते वे कहां जाते हैं? जो ठहर नहीं सकते उनके जाने के लिये कोई न कोई उचित स्थान है। पहले तो–जैसा अन्य लोगों के साथ होता है-उनके बुरे कार्यों के परिणाम स्वरुप जो त्रुटियां उन्होंने की, और जो पाप उनके द्वारा किये गये, वे भी दण्डित किए जाते हैं। दण्डित किये जा चुकने के पश्चात परमेश्वर उन्हें आविश्वासियों के मध्य भेजता है; परिस्थितियों के अनुसार, वह उनका प्रंबंध अविश्वासियों के मध्य करेगा, या फिर विभिन्न विश्वासियों के मध्य। कहने का अर्थ है कि उनके पास दो विकल्प हैं: एक है कि शायद दण्डित होने के बाद उन्हें एक विशेष धर्म के मध्य रहना पड़े और दूसरा है कि शायद उन्हें अविश्वासी बनना पड़े। यदि वे एक अविश्वासी व्यक्ति बनते हैं तो फिर उनके हाथ से सारे अवसर चले जाएंगे। यदि वे विश्वासि व्यक्ति बनते हैं-उदाहरण के लिये, यदि वे एक ईसाई बनते हैं-तो उनके पास अभी भी अवसर है कि वे परमेश्वर के चुने हुओं के बीच लौट आयें; इस संबंध में अनेक जटिलताएं हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर का कोई चुना हुआ व्यक्ति ऐसा कोई काम करता है जो परमेश्वर को पसंद नहीं, तो वे अन्य लोगों के समान ही दण्डित किये जायेंगे। उदाहरण के लिये, पौलुस को ही लो, जिसके विषय में हमने विगत समय में बात की थी। पौलुस दण्डित किए जाने वालों का एक उदाहरण है। तुम सब समझ रहे हो न कि मैं किस विषय पर बात कर रहा हूं? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों का सीमाक्षेत्र निश्चित है? (अधिकांशत: निश्चित है) इसमें अधिकतर निश्चित है। परन्तु उसका एक छोटा भाग निश्चित नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि उन्होंने बुराई की है। यहां मैंने सबसे स्पष्ट परिलक्षित उदाहरण बताया है: बुराई करना। जब वे बुराई करते हैं, परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और जब उसे उनकी आवश्यकता नहीं रहती, तो वह उन्हें विभिन्न जातियों और प्रकार के लोगों के बीच फेंक देता है, जो उन्हें बिना किसी आशा के छोड़ देता है और वापस लौटना कठिन बना देता है। यह सब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र से संबंधित है।
आगे सेवकाई करने वालों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में है। हमने अभी-अभी सेवकाई करने वालों के बारे में बातचीत की, उनका मूल क्या है? (उनमें से कुछ अविश्वासी, कुछ जानवर थे।) ये सेवकाई करने वाले अविश्वासियों और जानवरों से पैदा हुए थे। परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण में आने के साथ ही, परमेश्वर ने अविश्वासियों में से ऐसे समूह को चुना है और यह एक बहुत ही खास समूह है। परमेश्वर का ऐसे लोगों को चुनने का उद्देश्य अपने कार्य के लिए उनकी सेवा लेना है। "सेवा" एक बहुत ही शिष्ट सुनाई देने वाला शब्द नहीं है, न ही यह ऐसा शब्द है जिसके लिए कोई भी तैयार हो जाए, परन्तु हमें यह देखना है कि यह किसकी ओर लक्षित किया गया है। परमेश्वर की सेवकाई करने वालों के अस्तित्व का कुछ खास महत्व है। कोई भी उनके स्थान पर कार्य नहीं कर सकता है, क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने चुना है, और यहीं उनकी अस्तित्व की महत्ता है। और इन सेवकाई करने वालों की क्या भूमिका है? परमेश्वर के चुने हुओं की सेवकाई करना। मुख्यतौर पर, उनका मुख्य कार्य परमेश्वर का कार्य करना, परमेश्वर के कार्य में सहयोग देना है और परमेश्वर के चुने हुओं की निष्पत्ति में सहायता करना है। इसकी परवाह किए बगैर कि वे मेहनत कर रहे हैं, कुछ कार्य कर रहे हैं, या कुछ कार्यों को लिए हुए हैं, परमेश्वर की इन लोगों से क्या अपेक्षा है? क्या वह इनसे बहुत अधिक की अपेक्षा कर रहा है? (वह उनसे वफादार होने की अपेक्षा करता है)। सेवकाई करने वालों का वफादार होना भी आवश्यक है। चाहे तुम्हारी उत्पत्ति कहीं से हुई हो, या परमेश्वर ने तुम्हें किसी भी कारणवश चुना हो, तुम्हें वफादार होना होगा: तुम्हें परमेश्वर के प्रति वफादार होना होगा, परमेश्वर के आदेशों के प्रति, साथ ही साथ उस कार्य और दायित्व के प्रति जिनके लिए तुम जिम्मेदार हो। यदि सेवकाई करने वाले निष्ठावान होने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के योग्य हैं, तो उनका अन्त क्या होगा? वे रह पाएंगे। एक सेवकाई करने वाला जो रह जाता है, ऐसा होना क्या एक आशीष है? रहने का क्या अर्थ है? इस आशीष का क्या अर्थ है? हैसियत में वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के समान नहीं दिखते, वे भिन्न दिखाई देते हैं। तथापि, वास्तव में इस जीवन में वे जिस प्रकार जीते हैं, क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों जैसा नहीं हैं? कम से कम इस जीवन में तो वैसा ही है। तुम लोग इससे इंकार नहीं करते, है ना? परमेश्वर के कथन, परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर द्वारा पोषण, परमेश्वर की आशीषें-कौन ऐसा है जो इनका आनन्द नहीं उठाता? इस बहुतायत का सभी आनन्द उठाते हैं। सेवकाई करने वाले की पहचान सेवा करने वाले के रुप में ही है परन्तु परमेश्वर के लिये वे उन चीजों में से एक ही है जिनकी उसने सृष्टि की है-सीधी-सी बात है कि उनकी भूमिका सेवकाई करने वालों की है। परमेश्वर की सृष्टि में से ही एक होने के नाते, तो तुम क्या कहते हो, क्या एक सेवकाई करने वाले में और परमेश्वर के चुने हुए लोग होने में कुछ अन्तर है? प्रभाव में तो नहीं। सामान्यत: देखें तो अन्तर है, सार-तत्व में एक अन्तर है, वे जो भूमिका निभाते हैं उसके अनुसार अन्तर है, परन्तु इन लोगों में परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। तो इन लोगों को सेवकाई करने वालों के रुप में क्यों परिभाषित किया जाता है? इस बात को तुम सबको समझना चाहिये-सेवकाई करने वाले अविश्वासियों में से आते हैं। अविश्वासियों का वर्णन हमें बताता है कि उनका अतीत बुरा था। वे सब नास्तिक हैं, अपने अतीत में वे नास्तिक थे, वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे और वे परमेश्वर के, सच्चाई और सकारात्मक बातों के विरोधी थे। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे और नहीं मानते थे कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तो ये क्या वे परमेश्वर के वचनों को समझने योग्य हैं? यह कहना उचित होगा कि काफी हद तक वे नहीं हैं। जैसे कि पशु मनुष्य के शब्दों को नहीं समझ पाते, ठीक वैसे ही सेवकाई करने वाले भी नहीं समझते कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह क्या चाहता है, उसकी ऐसी अपेक्षा क्यों है-ये बातें उनकी समझ से परे हैं, वे अज्ञानी ही बने रहते हैं। और यही कारण है कि वे उस जीवन को प्राप्त नहीं करते जिसकी हमने बात की। बिना जीवन के, क्या लोग सच्चाई को समझ सकते हैं? क्या उनमें सच्चाई है? क्या उनमें परमेश्वर के वचन का अनुभव और ज्ञान है? निश्चय ही नहीं। यही उन सेवकाई करने वालों का मूल है। परन्तु चूंकि परमेश्वर इन लोगों को सेवकाई करने वाला बनाता है, उनसे उसकी अपेक्षाओं के भी स्तर हैं; वह उन्हें तुच्छ दृष्टि से नहीं देखता और न वह उनके प्रति बेपरवाह ही है। यद्यपि वे उसके वचन को नहीं समझते और बिना जीवन के हैं, फिर भी परमेश्वर उनके प्रति दयावान है और अभी भी उनसे उसकी अपेक्षाओं के मानक हैं। तुम लोगों ने अभी इन स्तरों के विषय में कहाः परमेश्वर के प्रति निष्ठावान बने रहना और वही करना जो वह कहता है। अपनी सेवकाई में तुम्हें वहीं सेवकाई करनी है जहां आवश्यकता हो, और सेवकाई को अन्त तक पूरा करना है। यदि तुम अंत तक सेवकाई कर सको, यदि तुम एक निष्ठावान सेवकाई करने वाले बन सको, और अन्त तक सेवकाई कर सको, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गये कार्य को बिल्कुल भली-भांति पूर्ण करने वाले बन सको, तब तुम एक सार्थक जीवन जियोगे और तुम रह पाओगे। यदि तुम थोड़ा और प्रयास करो, यदि तुम थोड़ा और परिश्रम करो, परमेश्वर को जानने के अपने प्रयास को तुम दोगुना करो, परमेश्वर के ज्ञान के विषय में थोड़ा-बहुत बोल पाओ, परमेश्वर की गवाही दे सको और इसके अतिरिक्त, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को थोड़ा-बहुत समझ सको, परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर सको, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति थोड़ा सचेत रहो, तब तुम, यह सेवकाई करने वाले, अपने भाग्य को बदल पाओगे और भाग्य में यह परिवर्तन किस प्रकार का होगा? तब तुम केवल रहोगे ही नहीं। तुम्हारे आचरण और व्यक्तिगत आकांक्षा और कोशिश के आधार पर, परमेश्वर तुम्हें चुने हुओं में से बनायेगा। यह तुम्हारे भाग्य में परिवर्तन होगा। सेवकाई करने वालों के लिये इस विषय में सर्वोत्तम बात क्या है? वह यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुओं में से एक बन सकते हैं। और यदि वे परमेश्वर के चुने हुओं में से एक बन जाते हैं तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ है कि अब अविश्वासियों के समान पशु के रुप में उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। क्या यह अच्छा है? हां, यह एक अच्छा समाचार है। कहने का तात्पर्य है, सेवकाई करने वालों को ढाला जा सकता है। सेवकाई करने वालों के मामले में ऐसा नहीं है कि जब परमेश्वर तुम्हें सेवकाई के लिये नियुक्त करता है, तुम सदा के लिए सेवकाई ही करते रहोगे, ऐसा आवश्यक नहीं है। तुम्हारे व्यक्तिगत आचरण आधार पर, परमेश्वर तुम्हारे साथ अलग तरीके से व्यवहार करेगा और अलग ढंग से तुम्हें प्रत्युत्तर देगा।
परन्तु ऐसे सेवकाई करने वाले भी हैं जो अन्त तक सेवकाई नहीं कर पाते; अपनी सेवकाई के दौरान, ऐसे लोग भी हैं जो अधूरे में छोड़ देते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं, ऐसे भी लोग हैं जो अनेक बुरे कार्य करते हैं और यहां तक कि ऐसे सेवकाई करने वाले भी हैं जो बड़ा नुकसान करते हैं और परमेश्वर के कार्य को बड़ी हानि पहुंचाते हैं, ऐसे सेवकाई करने वाले भी हैं जो परमेश्वर को कोसते हैं और इसी प्रकार के कार्य करते हैं-और इन असाध्य परिणामों का क्या अर्थ है? ऐसे किसी भी दुष्टता पूर्ण कार्यों का अर्थ होगा उनकी सेवकाई का भंग किया जाना। कहने का अर्थ है, क्योंकि सेवकाई काल के दौरान तुम्हारा आचरण बहुत खराब था, क्योंकि तुमने अपनी हदें पार की हैं, जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारी सेवकाई अपेक्षित स्तर तक नहीं है, वह तुम्हें सेवकाई करने की योग्यता से वंचित कर देगा, वह तुम्हें सेवकाई नहीं करने देगा, वह तुम्हें अपनी आंखों के सामने से और परमेश्वर के घर से हटा देगा। क्या ऐसा नहीं है कि तुम सेवकाई नहीं करना चाहते? क्या तुम्हारा मन हमेशा दुष्टता करने का नहीं करता? क्या तुम हमेशा से विश्वासघाती नहीं रहे हो? तब ठीक है, एक सरल उपाय है: तुम्हें सेवकाई करने की पात्रता से वंचित कर दिया जाएगा। परमेश्वर की दृष्टि में सेवकाई करने वाले को उसकी सेवकाई से वंचित किये जाने का अर्थ है कि सेवकाई करने वाले के अन्त की घोषणा की जा चुकी है, और इसलिये, भविष्य में वे परमेश्वर की सेवकाई करने योग्य नहीं होंगे, परमेश्वर को उन से भविष्य में सेवकाई की आवश्यकता नहीं है, और चाहे वे कितनी भी चिकनी-चुपड़ी बातें करें, उनकी बातें व्यर्थ होंगी। जब हालात यहां तक पहुंच गए, तो यह परिस्थिति असाध्य बन गई होगी; ऐसे सेवकाई करने वाले के पास लौटने का कोई मार्ग नहीं होगा और परमेश्वर इस प्रकार के सेवकाई करने वालों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करता है? क्या वह केवल उन्हें सेवकाई करने से रोकता है? नहीं। क्या वह उन्हें केवल बने रहने से रोकता है? या वह उन्हें एक तरफ कर देता है, और इंतज़ार करता है कि वह मुड़कर वापस आ जाएं? वह ऐसा नहीं करता। सचमुच, परमेश्वर इन सेवकाई करने वालों से इतना प्रेम नहीं करता। और अगर किसी व्यक्ति की परमेश्वर की सेवकाई के प्रति इस प्रकार की मानसिकता होती है, तो इस मनोभाव के कारण, परमेश्वर उसे सेवकाई करने की पात्रता से वंचित कर देगा और उसे एक बार फिर अविश्वासियों के बीच फेंक देगा। और जिस सेवकाई करने वाले को अविश्वासियों में फेंक दिया गया हो, उसका क्या हाल होता है? यह अविश्वासियों के समान होता है: उन्हें पशु के रुप में पुनर्जन्म दिया जाता है और आत्मिक संसार में अविश्वासियों वाला दण्ड दिया जाता है। और परमेश्वर उनके दण्ड में व्यक्तिगत रुचि नहीं लेगा, क्योंकि अब उनका परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। यह न केवल परमेश्वर में उनके विश्वासी जीवन का अन्त होता है बल्कि उनके स्वयं के भाग्य का, उनके भाग्य की उद्घोषणा का भी अन्त होता है, और इसलिये यदि सेवकाई करने वाले खराब सेवकाई करते हैं तो वे स्वयं परिणाम भुगतेंगे। यदि कोई सेवकाई करने वाला अन्त तक सेवकाई नहीं कर पाता है, या बीच में से ही सेवकाई करने की पात्रता से वंचित कर दिया जाता है, तो उन्हें अविश्वासियों में फेक दिया जायेगा और यदि उन्हें अविश्वासियों में फेक दिया गया तो उनके साथ मवेशियों जैसा व्यवहार होगा, उसी प्रकार जैसे अज्ञानियों और तर्कहीन व्यक्तियों के साथ होता है। जब मैं इस प्रकार से कहता हूं, तो तुम सब समझते हो न?
परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवकाई करने वालों के जीवन और मृत्यु चक्र के साथ ऐसे ही निपटता है। यह सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या मैंने पहले कभी परमेश्वर के चुने हुए लोगों और सेवकाई करने वालों के विषय में बात की है? दरअसल मैंने बात की है, लेकिन तुम लोगों को याद नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए और सेवकाई करने वालों के प्रति धर्मी है। हर तरह से वह धर्मी है, इसमें कोई शक नहीं। शायद ऐसे लोग हैं जो कहेंगे: अच्छा तो फिर परमेश्वर अपने चुने हुओं के प्रति उदार क्यों है? और वह सेवकाई करने वालों के प्रति केवल थोड़ा धैर्यवान क्यों है? "क्या कोई सेवा करने वालों के लिये खड़े होने की इच्छा रखता है।" "क्या परमेश्वर सेवकाई करने वालों को और समय दे सकता है और उनके प्रति ज्यादा सहिष्णु और उदार हो सकता है? क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं, सही नहीं हैं।) और वे सही क्यों नहीं है? (क्योंकि वास्तव में हमें केवल सेवकाई करने वाला बना कर ही हम पर दया दर्शायी गई।) सेवकाई करने वालों पर दरअसल दया उन्हें सेवकाई की अनुमति देकर ही दिखायी गई है! "सेवकाई करने वाले" शब्द के बिना और सेवकाई करने वालों के कामों के बिना, ये सेवकाई करने वाले कहां होते? अविश्वासियों के बीच, मवेशियों के साथ जीते और मरते। आज उन्हें कितना अनुग्रह मिल रहा है, परमेश्वर के सामने आने की अनुमति और परमेश्वर के निवास में आने की अनुमति! कितनी बडी कृपा है उन पर! यदि परमेश्वर ने तुम्हें सेवकाई करने का अवसर न दिया होता, तो तुम्हें कभी भी परमेश्वर के सामने आने का अवसर न मिलता। और क्या कहें, यदि तुम बौद्धधर्म को मानने वाले होते और अमरता भी पा ली होती, तो ज़्यादा से ज़्यादा तुम आत्मिक जगत के बिल्कुल एक छोटे प्रशासनिक कार्य करने वाले होते। तुम कभी भी परमेश्वर से नहीं मिल पाते, न उसकी आवाज सुन पाते, न उसके वचन सुन पाते न तुम अपने लिये उसके प्रेम और आशीष को महसूस कर पाते और न ही संभवतः कभी उससे रुबरु हो पाते। बौद्धों के सामने केवल साधारण काम होते हैं। वे संभवतः परमेश्वर को नहीं जान सकते और अंधों की तरह अनुकरण और आज्ञा मानते हैं, जबकि सेवकाई करने वाले कार्य के इस चरण में कितना कुछ प्राप्त कर लेते हैं! सर्वप्रथम, वे परमेश्वर से रूबरू होने, उसकी आवाज़ सुनने, उसके वचन सुनने, और उस अनुग्रह और आशीष का अनुभव करने में जो वह लोगों को देता है उसमें समर्थ होते हैं। इसके अलावा, वे परमेश्वर के द्वारा दिये गये वचनों और सच्चाई का आनंद उठाने के योग्य होते हैं। उन्हें वास्तव में कितना कुछ प्राप्त होता है। इतना ज्यादा! तो एक सेवकाई करने वाले के रूप में, अगर तुम सही प्रयत्न भी नहीं कर सकते, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें अपने साथ रखेगा? वह तुमसे ज्यादा कुछ नहीं चाहता! परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता; जो वह सही ढंग से चाहता है, वह तुम कुछ नहीं करते, तुम अपने कर्त्तव्य से जुड़े नहीं रहे-और इस कारण-बिना शक, परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। परमेश्वर तुम्हारे नखरे नहीं उठाता, लेकिन न ही वह तुम्हारे साथ किसी तरह का भेदभाव करता है। परमेश्वर इन्हीं सिद्धांतों पर चलता है। सब लोगों और प्राणियों के प्रति परमेश्वर ऐसे ही व्यवहार करता है।
जब आत्मिक जगत की बात आती है, यदि इसमें इतने जीव कुछ गलत करते हैं, यदि वे अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं करते हैं, तो परमेश्वर के पास उनसे निपटने के लिये उसी के अनुरूप स्वर्गिक धर्मादेश और निर्णय हैं-यह बात बिल्कुल सही है। तो परमेश्वर के हजारों काल के प्रबंधकीय कार्य के दौरान, जिन दूतों ने कुछ गलत किया था, उन्हें बाहर निकाल दिया गया, कुछ आज भी बंद हैं और दंडित किये जा रहे हैं – आत्मिक जगत में हर जीव को इसका सामना करना पडता है। यदि वे कुछ गलत करते हैं या कोई बुराई करते हैं तो वे दंडित किए जाते हैं – और यह ठीक वैसा ही है जैसा परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवकाई करने वालों के साथ करता है। अत: चाहे वह आत्मिक संसार में हो या भौतिक संसार में, परमेश्वर जिन सिद्धांतों से काम करता है, वे बदलते नहीं हैं। चाहे जो हो तुम परमेश्वर के कामों को देख पाओ या नहीं, उसके सिद्धांत नहीं बदलते हैं। शुरु से ही हर चीज़ के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण और चीज़ों के प्रबंधन के उसके सिद्धांत वही रहे हैं। यह अपरिवर्तनीय हैं। परमेश्वर उन अविश्वासी लोगों के प्रति भी उदार रहेगा जो अपेक्षाकृत सही तरीके से जीते हैं, और हर धर्म में उन लोगों के लिये अवसर बचाकर रखेगा जो सद्व्यवहार करते हैं और बुराई नहीं करते, उन्हें उन सब कामों में एक भूमिका देगा परमेश्वर जिन कामों का प्रबंध करता है, ताकि वे उन कामों को करें जो उन्हें करने चाहिए। ठीक उसी प्रकार, उन लोगों के बीच जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, जो उसके चुने हुए लोग हैं, परमेश्वर इन सिद्धांतों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के साथ पक्षपात नहीं करता। जो कोई भी ईमानदारी से उसका अनुसरण करता है, वह उसके प्रति दयालु है, और वह उसे प्रेम करता है। अंतर केवल इतना है कि जो इस प्रकार के लोग हैं जैसे-अविश्वासी, विभिन्न आस्थाओं वाले लोग और परमेश्वर के चुने हुए लोग-वह जो उन्हें प्रदान करता है, वह भिन्न है। अविश्वासियों को ही लीजियेः हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और परमेश्वर भी उन्हें ऐसे देखता है, जैसे मवेशी, सब बातों के बीच उनके पास खाने योग्य भोजन है, उनका अपना एक स्थान और जीवन और मृत्यु का सामान्य चक्र होता है। जो बुरा करते हैं वे दण्ड पाते और जो अच्छा करते हैं वे परमेश्वर से आशीष पाते और परमेश्वर की दया प्राप्त करते हैं। यह इस प्रकार से चलता है। आस्थावान लोगों के लिये, यदि वे हर जन्म में अपने धार्मिक विश्वासों का दृढ़ता से पालन करते रहें, तो इन सारे पुनर्जन्मों के बाद परमेश्वर अंततः इनके लिए अपनी उद्घोषणा करेगा। ठीक उसी प्रकार से प्रत्येक जो आज यहां पर है, चाहे वे परमेश्वर के चुने हुए लोग हों या सेवकाई करने वाले लोग हों, परमेश्वर उन्हें भी राह पर लाएगा और अपने द्वारा बनाए गए नियमों और प्रबंधनकारिणी निर्देशों के अनुसार उनके अंत का निर्णय करेगा। देखिए, ये जो विभिन्न प्रकार के लोग हैं, विभिन्न आस्थाओं के लोग, जो विभिन्न धर्मों को मानते हैं, क्या परमेश्वर ने उन्हें रहने का स्थान दिया है? यहूदी धर्म कहां है? क्या परमेश्वर उनके विश्वास में हस्तक्षेप करता है? बिल्कुल नहीं। और ईसाई धर्म का क्या? वह उसमें में बिल्कुल दखलअंदाजी नहीं करता। वह उन्हें उनके रिवाजों में बने रहने की अनुमति देता है और उनसे बात नहीं करता, और न ही किसी तरह का प्रकाशन देता है, और, उससे भी अधिक, वह उन पर कुछ भी प्रगट नहीं करता "यदि तुम सोचते हो कि यह सही है तो इसी तरह विश्वास करो!" कैथोलिक मरियम पर विश्वास रखते हैं, और मानते हैं कि वह मरियम ही थी जिसके द्वारा सुसमाचार यीशु तक पहुंचाया गया; यह उनकी आस्था का रूप है। और क्या कभी परमेश्वर ने उनके विश्वास को सुधारा? परमेश्वर उन्हें स्वत्रंत छोड़ दिया है, वह उन पर ध्यान नहीं देता और उन्हें उसमें जीने की आज़ादी दे दी है। और क्या मुसलमानों और बौद्धों के प्रति भी वह वैसा ही है? उसने उनके लिये भी एक दायरा तय कर दिया है, ताकि बिना किसी हस्तक्षेप के वे उस दायरे में अपनी आस्था का पालन करते हुए जी सकें। सब कुछ व्यवस्थित है। और इन सब में तुम क्या देखते हो? यही कि हर चीज़ पर परमेश्वर का अधिकार है, लेकिन वह उस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करता। परमेश्वर सब बातों को आदर्श क्रम में लगाता है और सुव्यवस्थित है और इसमें उसकी बुद्धि और सर्वव्याप्ता वास करती है।
आज हमने एक नये और खास विषय पर बात की जिसका संबंध आत्मिक संसार से है, जो परमेश्वर के प्रबंधन और आत्मिक जगत पर उसकी प्रभुता के पहलुओं में से एक है। यदि तुमने इन बातों को नहीं समझा होता, तो तुमने कहा होताः "इससे संबंधित हर चीज़ एक रहस्य है, और इसका हमारे जीवन में प्रवेश के विषय से कुछ लेना देना नहीं है; ये चीज़ें उन बातों से अलग हैं कि लोग कैसे जीते हैं, और हमें उन्हें समझने की आवश्यकता नहीं है और न ही हम उनके बारे में कुछ सुनना चाहते हैं। परमेश्वर को जानने से उनका बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं है।" अब क्या तुम सोचते हो कि ऐेसी सोच से कोई समस्या है? क्या यह ठीक है? ऐसी सोच ठीक नहीं है और इसमें गंभीर समस्या है। वह इसलिये क्योंकि यदि तुम वह समझने की इच्छा रखते हो कि परमेश्वर सब बातों पर कैसे राज करता है, तो तुम साधारण रुप में और केवल यह नहीं समझ सकते कि तुम क्या देख सकते हो और तुम्हारी सोच के द्वारा क्या प्राप्त किया जा सकता है। तुम्हें थोडा-बहुत उस संसार को भी समझना होगा जिसे तुम देख नहीं सकते, लेकिन यह उस जगत से जटिलता से उलझा हुआ है जिसे तुम देख सकते हो, यह परमेश्वर के प्रभुत्व से संबंधित है, इसका संबंध "परमेश्वर सभी चीजों के जीवन का स्रोत है" विषय से है। यह उसके विषय में जानकारी है। इस जानकारी के बिना, इस ज्ञान के विषय में कि केवल परमेश्वर ही सब चीजों के जीवन का स्रोत है, लोगों के ज्ञान में कमी और त्रुटियाँ आ जाएगी। अतः आज जो हमने कहा है, उसे जिसे हम पहले कर चुके हैं, उसका समापन कहा जा सकता है और साथ ही इस विषय का भी कि "परमेश्वर सभी चीजों के जीवन का स्रोत है"। इस सार-तत्व को समझ लेने पर क्या तुम इस विषय के माध्यम से परमेश्वर को जानने योग्य हो? और ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है? आज, मैंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण सूचना दी है: सेवकाई करने वालों का राज, मैं जानता हूं कि तुम इस तरह के विषय पर सुनना पसंद करते हो, कि तुम वास्तव में इन बातों की परवाह करते हो, तो मैंने आज जो चर्चा की, क्या तुम उससे संतुष्ट हो? (हां, हम हैं।) तुम पर शायद अन्य दूसरी बातों का इतना प्रभाव न हुआ हो, परन्तु तुम पर सेवकाई करने वालों के लिये कही गई बातों के विषय का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है, क्योंकि यह विषय तुममें से हरेक की आत्मा को छूता है।
2. मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा
1) स्वयं परमेश्वर की पहचान और पद
हम "परमेश्वर सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है" तथा "परमेश्वर स्वयं अद्वितीय है" विषय के अंत में आ गये हैं, ऐसा करने के बाद, हमें एक सार बनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार का सार? स्वयं परमेश्वर के बारे में। चूंकि यह स्वयं परमेश्वर के बारे में है, तो यह परमेश्वर के हर पहलू तथा परमेश्वर में लोगों के विश्वास के स्वरूप से सम्बंधित होना चाहिए। और इसलिए, पहले मैं तुम लोगों से पूछना चाहता हूँ: प्रचार को सुनने के बाद, तुम्हारे मन की आंखों में परमेश्वर कौन है? (सृष्टिकर्ता) परमेश्वर तुम्हारे मन की आंखों में सृष्टिकर्ता है। क्या कुछ और? परमेश्वर सभी बातों का प्रभु है; परमेश्वर वह है जो सभी चीज़ों पर राज्य करता है, और सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है उसकी व्यवस्था वही करता है और जो कुछ है उस पर वही राज्य करता है और सभी चीज़ें उसी के द्वारा पोषित होती हैं। यह परमेश्वर का पद और पहचान है। सभी चीजों के लिए और सब कुछ जो है, परमेश्वर की असली पहचान सृष्टिकर्ता की है, और वह सभी चीज़ों का शासक है। परमेश्वर की पहचान इस प्रकार की है और वह सभी बातों में अद्वितीय है। परमेश्वर की कोई भी रचना-चाहे वह मनुष्य के मध्य हो या आत्मिक दुनिया में हो-किसी भी साधन या बहाने का उपयोग करके परमेश्वर की पहचान और पद को परमेश्वर का वेष धारण करने या हटाने के लिए नहीं कर सकता, क्योंकि सभी बातों में वह ही एक है जो इस पहचान, शक्ति, अधिकार, और सभी बातों पर राज्य करने की योग्यता से सम्पन्न है: हमारा अद्वितीय परमेश्वर स्वयं। वह सभी वस्तुओं के बीच में रहता और चलता है, वह सभी चीज़ों के ऊपर सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है, वह मनुष्य बनकर अपने आपको को विनम्र बना सकता है, जो मांस और लहू के हैं उनके मध्य उनके जैसा बन सकता है, लोगों से रूबरू होकर उनके सुख-दुख बांट सकता है, साथ ही जो कुछ है सब उसी की आज्ञा के अधीन है और सभी चीज़ों का भाग्य और किस दिशा में इसे जाना है यह भी वही निश्चित करता है और इसके अलावा, वह सभी मनुष्यों के भाग्य का पथ और उसकी दिशा भी वही निर्धारित करता है। ऐसे परमेश्वर की आराधना, आज्ञा पालन होना चाहिए और सभी प्राणियों को उसे जानना चाहिये। और इसलिए, इस बात की परवाह किये बगैर कि तुम किस समूह और किस प्रकार के मनुष्यों से सम्बन्ध रखते हो, अपने प्रारब्ध के लिए परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, परमेश्वर के शासन को स्वीकार करना, और परमेश्वर की व्यवस्था को स्वीकार करना ही किसी भी इंसान के लिए, किसी जीव के लिए एकमात्र और आवश्यक विकल्प है। परमेश्वर की अद्वितीयता में, लोग देखते हैं कि उसका अधिकार, उसका धर्मी स्वभाव, उसका सार-तत्व, और वे सभी साधन जिनके द्वारा वह सभी का पोषण करता है, अद्वितीय हैं। उसकी अद्वितीयता, स्वयं परमेश्वर की पहचान को निश्चित करती है, और उसके पद को भी। और इसलिए, सभी प्राणियों के मध्य , यदि कोई जीवित प्राणी आत्मिक दुनिया में या मनुष्यों के मध्य में परमेश्वर की जगह में खड़ा होने की इच्छा रखता है, यह असंभव होगा, जैसे परमेश्वर का रूप धरने का प्रयास किया जा रहा हो। यह तथ्य है। ऐसे सृष्टिकर्ता और शासक की मनुष्य जाति से क्या अपेक्षाएं हैं, जिसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है, शक्ति है और पद है? यह सब आज तुम सबको स्पष्ट हो जाना चाहिये, और तुम्हें याद रखना चाहिए और यह परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है!
2) परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विभिन्न व्यवहार
लोग परमेश्वर के प्रति कैसा बर्ताव करते हैं, यह उनका भविष्य निर्धारित करता है और यह निर्धारित करता है कि परमेश्वर कैसे उनके साथ पेश आएगा और व्यवहार करेगा। यहां पर मैं कुछ उदाहरण देने जा रहा हूँ कि कैसे लोग परमेश्वर से पेश आते हैं। आइये, कुछ सुनते हैं कि उनका ढंग और रवैया जिससे वे परमेश्वर के प्रति पेश आते हैं वे सही हैं या नहीं। आइये, हम इन सात प्रकार के लोगों के आचरण पर विचार करें:
क. एक प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जिनका व्यवहार परमेश्वर के प्रति निश्चित रूप से बेतुका होता है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर एक बोधिसत्व या मानव बुद्धि के पवित्र प्राणी जैसा है, और चाहता है कि जब वे मिलें तो लोग तीन बार उसके सामने झुकें और खाने के बाद उसके सामने अगरबत्ती जलाएं। और इस तरह जब, उनके हृदय में, वे परमेश्वर के प्रति उसके अनुग्रह के लिए धन्यवादी हैं, और परमेश्वर के प्रति आभारी हैं, तो अक्सर उनके अंदर इस तरह का संवेग आता है। वे ऐसी कामना करते हैं कि जिस परमेश्वर में वे आज विश्वास करते हैं, उस पवित्र सत्ता की तरह जिसके लिए वे मन में लालसा रखते हैं, वह अपने प्रति उनके उस व्यवहार को स्वीकार करे जिसमें वे तीन बार उसके सामने झुकते हैं जब वे मिलते हैं, और खाने के बाद अगरबत्ती जलाते हैं।
ख. कुछ लोग परमेश्वर को जीवित बुद्धा के रूप में देखते हैं जो सबकी परेशानियों को हटाने और उनको बचाने में सक्षम है; वे परमेश्वर को जीवित बुद्धा के रूप में देखते हैं जो उन्हें दुःख के सागर में से दूर ले जाने में सक्षम है। इन लोगों का विश्वास बुद्धा के रूप में परमेश्वर की आराधना करने में है। हालाँकि वे अगरबत्ती नहीं जलाते, प्रणाम नहीं करते, या भेंट नहीं देते, लेकिन उनके हृदय में उनका परमेश्वर एक बुद्धा है और केवल यह चाहता है कि वे बहुत दयालु और धर्मार्थ हों, कि वे किसी प्राणी को नहीं मारें, न दूसरों को गाली दें, ऐसा जीवन जियें जो ईमानदार दिखे, और कुछ भी गलत नहीं करें-केवल यही बातें। उनके हृदय में यही परमेश्वर है।
ग. कुछ लोग परमेश्वर की आराधना किसी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में करते हैं। उदहारण के लिए, यह महान व्यक्ति चाहे किसी भी साधन से बोलना पसंद करता हो, किसी भी अंदाज़ में बोलता हो, किसी भी शब्द और शब्दाबली का उपयोग करता हो, उसका लहजा, उसके हाथ का संकेत, उसके विचार और कार्य-वे उन सब की नकल करते हैं, और यह सब ऐसी बातें हैं जो उन्हें पूरी तरह से परमेश्वर में अपने विश्वास को पैदा करने के लिए उत्पन्न करना ज़रूरी है।
घ. कुछ लोग परमेश्वर को एक सम्राट के रूप में देखते हैं, वे सोचते हैं कि वह सबसे ऊँचा है, और कोई भी उसका अपमान करने की हिम्मत नहीं करता-और यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें दण्डित किया जायेगा। वे ऐसे सम्राट की आराधना करते हैं क्योंकि उनके हृदय में सम्राट के लिए एक निश्चित जगह है। सम्राटों के विचार, तौर तरीके, अधिकार और स्वभाव-यहाँ तक कि उनकी रूचि और व्यक्तिगत जीवन-यह सब कुछ ऐसा बन जाता है जिसे इन लोगों को समझना जरुरी है, ऐसे मुद्दे और मामले हैं जो उनसे सम्बंधित हैं, और इसलिये वे परमेश्वर की आराधना एक सम्राट के रूप में करते हैं। इस तरह का विश्वास बेहूदा है।
च. कुछ लोगों का परमेश्वर के अस्तित्व में एक गहरा और अटूट खास विश्वास होता है।
क्योंकि उनका परमेश्वर के बारे में ज्ञान छिछला होता है और उन्हें परमेश्वर के वचन का ज्यादा अनुभव नहीं होता, वे उसकी आराधना एक प्रतिमा के रूप में करते हैं। यह प्रतिमा उनके हृदय में एक ईश्वर है, यह कुछ ऐसा है जिससे उन्हें डरना चाहिए और उसके सामने झुकना चाहिए, और जिसका उन्हें अनुसरण और अनुकरण करना चाहिए। वे परमेश्वर को प्रतिमा की तरह देखते हैं, उन्हें जिसका जीवनभर अनुसरण करना है। वे उस लहजे की नकल करते हैं जिसमें ईश्वर बोलता है, और बाहरी रूप में वे उनकी नकल करते हैं जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है। वे अक्सर ऐसे काम करते हैं जो भोले-भाले, शुद्ध, और ईमानदार दिखते हैं, और यहाँ तक कि वे एक ऐसे साथी के रूप में इस मूर्ति का अनुसरण करते हैं जिसका वे कभी हिस्सा नहीं बन सकते। यह उनके विश्वास का रूप है।
छ. कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े और उपदेश सुने होने बावजूद, अपने हृदय में महसूस करते हैं कि उनका परमेश्वर के प्रति पेश आने का एकमात्र सिद्धांत यह है कि उन्हें हमेशा चापलूस और खुशामद करने वाला होना चाहिए, या ईश्वर की प्रशंसा और सराहना इसी तरीके से करनी चाहिए जो वास्तविक न हो। वे विश्वास करते हैं कि ऐसा परमेश्वर ही परमेश्वर है जो चाहता है कि वे इसी तरह से पेश आएं, और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे कभी भी उसके क्रोध को भड़का सकते हैं, या उसके प्रति पाप करते हैं, और इस तरह पाप करने के परिणामस्वरुप ईश्वर उन्हें दण्डित करेगा। उनके हृदय में ईश्वर ऐसा है।
ज. और अब ऐसे लोगों की बहुतायत है जो परमेश्वर में आत्मिक सहारा प्राप्त करते हैं। क्योंकि वे इस जगत में रहते हैं, वे बिना शांति या आनंद के हैं, और उन्हें कहीं शांति प्राप्त नहीं होती है। परमेश्वर को प्राप्त करने के बाद, जब वे उसके वचनों को देख और सुन लेते हैं, अंदर ही अंदर उनका हृदय आनंदित और मगन हो जाता है। और ऐसा क्यों होता है? उन्हें लगता है कि उन्होंने आखिर में वह प्राप्त कर लिया है जो उनके लिए आनंद लायेगा, कि उन्होंने आखिरकार वह ईश्वर प्राप्त कर लिया है जो उन्हें आत्मिक सहारा देगा। ऐसा इसलिए क्योंकि, परमेश्वर को स्वीकार करने और अनुकरण करने के बाद, वे खुश हैं, उनके जीवन में संतुष्टि आ जाती है, वे अब उन अविश्वासियों के समान नहीं हैं, जो जीवन में जानवरों की तरह नींद में चलते हैं, और अब वे महसूस करने लगते हैं कि उनके पास जीवन में आगे देखने के लिए कुछ है। इस प्रकार, उन्हें लगता है कि यह ईश्वर उनकी आत्मिक जरूरतें पूरी कर सकता है और मन और आत्मा दोनों में एक बड़ा आनंद ला सकता है। बिना इसका अहसास किए, वे ऐसे ईश्वर को छोड़ नहीं पाते जो उन्हें आत्मिक सहारा देता है, जो उनके आत्मा और पूरे परिवार में आनंद लाता है। वे मानते हैं कि ईश्वर में विश्वास को उनके जीवन में आत्मिक सहारा लाने से ज्यादा कुछ और करने की जरुरत नहीं है।
क्या परमेश्वर के प्रति इस प्रकार का मनोभाव रखने वाले लोग तुम्हारे बीच में हैं? (हां, हैं) यदि उनके ईश्वर को मानने में, किसी के हृदय में इस प्रकार का रवैया है, क्या वे सही मायने में परमेश्वर के सम्मुख आने के योग्य हैं? यदि किसी के हृदय में इसमें से एक भी प्रकार का रवैया है, तो क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? क्या वे परमेश्वर स्वयं अद्वितीय में विश्वास रखते हैं? चूंकि तुम स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास नहीं करते तो तुम किसमें विश्वास करते हो? यदि तुम जिसमें विश्वास करते हो वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर नहीं है, तो यह संभव है कि तुम किसी प्रतिमा में विश्वास करते हो, या एक महान आदमी में, या एक बोधिसत्व में, कि तुम अपने हृदय में बुद्ध की आराधना करते हो। और इसके अलावा, यह भी संभव है कि तुम किसी साधारण व्यक्ति में विश्वास करते हो। संक्षेप में, परमेश्वर के प्रति लोगों के विभिन्न विश्वास और रवैये के कारण, लोग परमेश्वर को अपने संज्ञान के अनुसार हृदय में जगह देते हैं, वे परमेश्वर के ऊपर अपनी कल्पनाएँ थोप देते हैं, वे परमेश्वर के बारे में अपना रवैया और कल्पनायें स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के साथ साथ रखते हैं, और उनका उत्सव मनाने के लिए उन्हें पकडे रहते हैं। जब लोग परमेश्वर के प्रति इस प्रकार का अनुचित दृष्टिकोण रखते हैं तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उन्होंने स्वयं सच्चे परमेश्वर को अस्वीकार कर दिया है और झूठे ईश्वर की आराधना करते हैं, इसका मतलब है कि ठीक उसी समय जब वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे परमेश्वर को अस्वीकार करते हैं, और उसका विरोध करते हैं, और यह कि वे सच्चे परमेश्वर के अस्तित्व से इंकार करते हैं। यदि लोग इस प्रकार का विश्वास रखेंगे, उनके लिए क्या परिणाम होंगे? इस प्रकार के विश्वास के साथ, क्या वे कभी परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के निकट आ पाएंगे? इसके विपरीत, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण, ये लोग परमेश्वर के पथ से दूर होते जाएंगे, वे जिस दिशा की खोज में लगे हैं वह उससे ठीक विपरीत है जिस दिशा की अपेक्षा परमेश्वर उनसे करता है। क्या कभी तुमने वो कहानी सुनी है "रथ को उत्तर की ओर चलाकर दक्षिण की ओर जाना?" यह ठीक उत्तर की ओर रथ चला कर दक्षिण की ओर जाने का मामला हो सकता है। यदि लोग परमेश्वर में इस ऊंटपटांग तरह से विश्वास करेंगे तो तुम जितनी मेहनत करोगे, तुम परमेश्वर से उतना ही दूर होते जाओगे। और इसलिए मैं तुम्हें यह चेताता हूँ: इससे पहले कि तुम आगे बढ़ो, तुम्हें पहले यह जरुर देखना चाहिये कि तुम सही दिशा में जा रहे हो कि नहीं? अपने प्रयासों को लक्षित करो, और खुद से यह अवश्य पूछो, "क्या यह ईश्वर जिस पर मैं विश्वास रखता हूँ वह सभी चीज़ों पर राज्य करता है? जिस ईश्वर में मैं विश्वास रखता हूँ क्या वह मात्र कोई ऐसा है जो मुझे आत्मिक सहारा देता है? क्या वह मेरा आदर्श है? जिस ईश्वर में मैं भरोसा करता हूँ उसे मुझसे क्या अपेक्षा है? क्या ईश्वर वह सब कुछ जो मैं करता हूँ उसे स्वीकृत करता है? परमेश्वर को जानने के लिये जो मैं करता और खोजता हूं, क्या वे सब परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुकूल हैं? जिस पथ पर मैं चलता हूँ क्या वह परमेश्वर के द्वारा मान्य और स्वीकृत है? क्या परमेश्वर मेरे विश्वास से संतुष्ट है?" तुम्हें अक्सर और बार बार यह सवाल अपने आप से पूछते रहने चाहिए। यदि तुम परमेश्वर को जानने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हारे पास एक स्पष्ट विवेकशीलता और स्पष्ट उद्देश्य जरुर होना चाहिए, तभी तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो।
क्या यह संभव है कि अपनी सहनशीलता के कारण, परमेश्वर अनिच्छा से इन अनुचित रवैयों को स्वीकार करेगा जिनके बारे में मैंने अभी बताया है? क्या परमेश्वर इन लोगों के रवैयों की सराहना कर सकेगा? परमेश्वर की अपेक्षा मनुष्य से और उनसे जो उसका अनुकरण करते हैं, क्या है? क्या तुम्हें यह स्पष्ट है कि वह किस प्रकार के रवैये की अपेक्षा लोगों से करता है? आज मैं बहुत कह चुका, स्वयं परमेश्वर के इस विषय पर और साथ ही परमेश्वर के कार्यों और वह जो है, इन सब पर आज मैं बहुत बोल चुका हूँ। क्या अब तुम जानते हो कि परमेश्वर की लोगों से क्या प्राप्त करने की इच्छा है? क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है? बोलो। यदि तुम्हारे अनुभवों और अभ्यासों से प्राप्त ज्ञान में अभी भी कमी है या वह सतही है, तो तुम इन वचनों के अपने ज्ञान के बारे में कुछ कह सकते हो। क्या तुम्हारे पास ज्ञान का सारांश है? परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? (वफादारी, आज्ञापालन) वफादारी और आज्ञापालन के अलावा और क्या? दूसरे भाई और बहन भी बोल सकते हैं (इन कुछ संगतियों के दौरान, परमेश्वर ने इस बात को महत्व दिया है कि, हम परमेश्वर को जानें उसके कामों को जानें, यह जानें कि परमेश्वर ही सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है, और वह चाहता है कि हम उसके पद और सारूप्य को जानें। और परमेश्वर के जीव होने के नाते अपने कर्तव्य को जानें। उसने स्पष्ट शब्दों में बता दिया हमें अपने सभी प्रयास किन कार्यों को समर्पित करने चाहिए, वह हमसे क्या अपेक्षा करता है, किस प्रकार के लोगों को वह पसंद करता है, और किनसे वह घृणा करता है।) और जब परमेश्वर कहता है कि लोग उसे जानें, तो उसका अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे जानते हैं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और लोग सृजित प्राणी हैं।) जब वे इस प्रकार का ज्ञान पा लेते हैं, तो परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये में, उनके व्यवहार में, कार्यान्वय के तरीके में, या उनके स्वभाव में क्या बदलाव आता है? क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है? क्या यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर को जानने के बाद, और उसको समझने के बाद, वे भले व्यक्ति बन जाएंगे? (परमेश्वर पर विश्वास करना एक भला आदमी बनने का लक्ष्य अनुसरण नहीं है।) तो वे किस प्रकार के व्यक्ति बनने चाहिए? (वे परमेश्वर की योग्य रचना होने चाहिए।) (उन्हें ईमानदार होना चाहिए।) क्या कुछ और भी है? (उन्हें ऐसा होना चाहिए जो परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पित हो, जो वास्तव में परमेश्वर की आराधना करे और उससे प्रेम करे।) (उनमें विवेक और बोध हो, और सही रूप में परमेश्वर की आज्ञा पालन करता हो) और क्या? (परमेश्वर को सही और स्पष्ट रूप से जानने के बाद, हम परमेश्वर से परमेश्वर रूप में व्यवहार कर पाएंगे, हम सदा-सदा के लिए जानने लगेंगे कि परमेश्वर ही परमेश्वर है और हम रचे हुए प्राणी हैं, हमें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए और उसी चीज़ पर टिके रहना चाहिए) बहुत अच्छा! आइये, कुछ अन्य लोगों से भी सुनें। (परमेश्वर से सहभागिता हमें परमेश्वर के सभी वस्तुओं पर राज्य करने के अधिकार को जानने के काबिल बनाती है, इससे हम यह स्वीकार कर पाते हैं कि वह सभी वस्तुओं का शासक है, ताकि हम उस वातावरण को समर्पित हो सकें जिसकी परमेश्वर हमारे लिए प्रतिदिन व्यवस्था करता है, और वास्तव में उन कर्तव्यों को प्रस्तुत हो सकें जो हमें परमेश्वर द्वारा दिए गए हैं।) (हम परमेश्वर को जानते हैं, अंत में हम वे लोग हो पाए हैं जो वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा मानते हैं, परमेश्वर को आदर देते हैं और बुराई से अलग रहते हैं) बिल्कुल सही।
3) वह दृष्टिकोण जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों में परमेश्वर के प्रति होना चाहिए
वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता-कम से कम, उसे उतनी अपेक्षा नहीं जितनी लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर की वाणी के बिना, या उसके स्वभाव की किसी अभिव्यक्ति, कार्य या वचन के बिना, परमेश्वर को जानना तुम्हारे लिए बहुत कठिन है, क्योंकि लोगों को परमेश्वर की इच्छा और इरादों का निष्कर्ष निकालना पड़ेगा, जो उनके लिए बहुत कठिन है। लेकिन उसके कार्य के अंतिम चरण के बारे में, परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं, बहुत सारा काम किया है, और मनुष्य से बहुत-सी अपेक्षाएं की हैं। उसने अपने वचनों में और अपने विशाल कार्य में लोगों को बता दिया है कि उसे क्या पसंद है, उसे किससे घृणा है, और उन्हें किस प्रकार मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, लोगों के हृदय में परमेश्वर की अपेक्षा की सही परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर में अस्पष्टता और अमूर्तता के बीच विश्वास नहीं करते, और वे अब अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, या अस्पष्टता और अमूर्तता और शून्यता के बीच परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते हैं; बल्कि लोग परमेश्वर के कथन को सुनने के योग्य हैं, उसकी अपेक्षा के स्तर को समझने में वे सक्षम हैं, और उन्हें प्राप्त कर पाते हैं, और परमेश्वर मनुष्य की भाषा का उपयोग लोगों को वह सब बताने में करता है जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज भी, यदि लोग इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर की उनसे क्या अपेक्षा है, परमेश्वर क्या है, वे परमेश्वर में क्यों विश्वास करते हैं और उन्हें कैसे परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए, और कैसे उससे व्यवहार करना चाहिए तो इसमें फिर समस्या है। अभी तुम सबने एक क्षेत्र के बारे में बोला; तुम लोग कुछ बातों से परिचित हो, चाहे वे बातें विशिष्ट हों या सामान्य-लेकिन मैं तुमको परमेश्वर की मनुष्य से सही, पूर्ण और विशिष्ट अपेक्षा बताना चाहता हूँ। वे केवल कुछ शब्द हैं और बहुत साधारण हैं। तुम लोग पहले से ही इन शब्दों को जानते होगे। परमेश्वर की मनुष्य से सही अपेक्षा और जो उनका अनुसरण करते हैं इस प्रकार हैं। परमेश्वर जो उसका अनुसरण करते हैं, उनसे पांच बातें चाहता हैः सही विश्वास, वफादार अनुकरण, पूर्ण आज्ञापालन, सच्चा ज्ञान और हृदय से आदर।
इन पांच बातों में, परमेश्वर चाहता है कि लोग उससे अब सवाल ना करें, और न ही अपनी कल्पना या मिथ्या और अमूर्त दृष्टिकोण के उपयोग द्वारा उसका अनुसरण करें; वे कल्पनाओं और धारणाओं के साथ उसका अनुसरण न करें। परमेश्वर चाहता है कि जो उसका अनुसरण करते हैं, वे पूरी वफादारी से करें, ना कि आधे-अधूरे हृदय से या बिना किसी प्रतिबद्धता के। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, या तुम्हारा परीक्षण करता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुमसे व्यवहार करता है और तुम्हें छांटता है, या तुम्हें अनुशासित करता और दंड देता है, तो तुम्हें पूर्ण रूप से उसकी आज्ञा माननी चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, या शर्त नहीं रखनी चाहिए, और न तुम्हें तर्क करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता पूर्णरूपेण होनी चाहिए। परमेश्वर को जानना एक ऐसा क्षेत्र है जिसको लोग बहुत कम जानते हैं। वे अक्सर परमेश्वर पर कथन, उक्ति, और वचन थोपते हैं जो उससे संबंधित नहीं होते, ऐसा यह विश्वास करते हुए कि ये शब्द परमेश्वर के ज्ञान की सबसे मुख्य परिभाषा है। उन्हें पता नहीं कि ये बातें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क, और अपनी बुद्धि से आती हैं, परमेश्वर के सार-तत्व से उनका ज़रा भी सम्बन्ध नहीं होता। और इसलिए, मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर द्वारा इच्छित लोगों के ज्ञान में, परमेश्वर मात्र यह नहीं कहता कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों को पहचानो बल्कि यह कि परमेश्वर का तुम्हारा ज्ञान सच्चा हो। यदि तुम एक वाक्य भी बोल सको, या कुछ ही चीज़ों के बारे में जानते हो, तो यह थोड़ी-बहुत जागरुकता सही और सच्ची है, और स्वयं परमेश्वर के सार-तत्व के अनुकूल है। क्योंकि परमेश्वर लोगों की अवास्तविक और अविवेकी प्रशंसा और सराहना से घृणा करता है। और तो और, जब लोग उससे हवा समझकर पेश आते हैं तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर से जुड़े विषय पर लोग हल्केपन से पेश आते हैं, जैसा चाहे और बेझिझक, जैसा ठीक लगे बोलते हैं तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे भी नफरत करता है जो यह कहते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, और परमेश्वर के ज्ञान के बारे में डींगे मारते हैं, परमेश्वर के बारे में बिना किसी रुकावट या विचार किए बोलते हैं। उन पांच अपेक्षाओं में अंतिम अपेक्षा थी हृदय से आदर करना। यह परमेश्वर की परम अपेक्षा है उनसे जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी के पास परमेश्वर का सही और सत्य ज्ञान है, तो वे परमेश्वर का सच में आदर करने में और बुराई से दूर रहने में सक्षम होते हैं। यह आदर उनके हृदय की गहराई से आता है, यह इच्छा से है, और इस कारण नहीं कि परमेश्वर उन पर दबाव डालता है। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम किसी अच्छे रवैये, आचरण, या उसके लिए बाहरी व्यवहार का एक उपहार बनाओ; बल्कि वह कहता है कि तुम उसे हृदय की गहराई से आदर दो और उस से डरो। यह आदर तुम्हारे जीवन के स्वभाव के बदलाव से प्राप्त होता है, क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर का ज्ञान है, क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर के कामों की समझ है, तुम्हारे परमेश्वर के सार-तत्व की समझ के कारण और क्योंकि तुम इस तथ्य को मानते हो कि तुम परमेश्वर की एक रचना हो। और इसलिए, "हृदय से" शब्द का उपयोग करने का मेरा लक्ष्य आदर को समझाने के लिए है ताकि मनुष्य समझें कि लोगों का परमेश्वर के लिए आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।
अब उन पांच अपेक्षाओं पर विचार करें: क्या तुम्हारे बीच में कोई है जो प्रथम तीन को प्राप्त कर सकता हो? इससे मेरा मतलब सच्चा विश्वास, वफादार अनुसरण, और सम्पूर्ण आज्ञापालन। क्या तुममें से कोई है जो इन चीजों में समर्थ हो? मैं जानता हूँ यदि मैंने सभी पांच के लिए कहा होता तो निश्चित रूप से तुम में से कोई नहीं होता-लेकिन मैंने इसे तीन तक कर दिया है। इसके बारे में सोचें कि तुम इन्हें प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या "सच्चा विश्वास" प्राप्त करना सरल है? (नहीं, ऐसा नहीं है) यह सरल नहीं है, उन लोगों के लिए जो अक्सर परमेश्वर से प्रश्न करते रहते हैं। क्या वफादार अनुसरण प्राप्त करना सरल है? (नहीं, सरल नहीं है।) "वफादार" से क्या तात्पर्य है? (आधे हृदय से नहीं बल्कि पूरे हृदय से) हां, आधे-अधूरे हृदय से नहीं पूरे हृदय से। तुमने तीर निशाने पर लगाया है! तो क्या तुम इस अपेक्षा को प्राप्त करने में सक्षम हो? तुम्हें कड़ी मेहनत करनी होगी – अभी तुम्हें इस अपेक्षा को प्राप्त करना बाकी है! "पूर्ण आज्ञापालन" की बात करें तो- क्या तुमने इसे प्राप्त कर लिया है? (नहीं) तुमने इसे भी प्राप्त नहीं किया है। तुम अक्सर आज्ञा पालन नहीं करते, और विरोधी हो जाते हो, तुम अक्सर नहीं सुनते, या मानना नहीं चाहते, या सुनना नहीं चाहते। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएं हैं जिन्हें लोग जीवन में प्रवेश करने के बाद प्राप्त कर लेते हैं। और तुम्हें अभी उन्हें प्राप्त करना बाकी है। तो, इस वक्त, क्या तुम्हारे अंदर पूरी क्षमता है? आज जब मैंने ये बातें कहीं तो क्या तुम इससे चिंतित महसूस कर रहे हो? (हां!) तुम्हारा चिंतित होना सही है-तुम्हारे बदले में मैं चिंतित महसूस कर रहा हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं पर नहीं जाऊंगा; इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें कोई भी हासिल करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुमने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? तुम्हारे लक्ष्य क्या हों, तुम्हारी दिशा क्या हो और तुम्हें अपने प्रयास और अनुसरण किधर लगाने चाहिए? क्या तुम्हारा कोई लक्ष्य है? (हाँ) तुम्हारा लक्ष्य क्या है? मुझे बताओ। (सच की खोज के लिए, परमेश्वर के ज्ञान को उसके वचनों में खोजने के लिए, और अंत में परमेश्वर के प्रति आदर और आज्ञापालन प्राप्त करना) अगर सीधे तौर पर कहूं: जब तुम ये पांच बातें प्राप्त कर लोगे, तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। उनमें से प्रत्येक एक सूचक है, लोगों के जीवन में प्रवेश करके परिपक्वता में पहुँचने का सूचक और इसके अंतिम लक्ष्य का सूचक। यदि मैं इन अपेक्षाओं में से एक को भी विस्तार से बोलने के लिए चुनूं और तुमसे अपेक्षा करूं, तो इसे हासिल करना आसान नहीं होगा; लोगों को कुछ हद तक कठिनाई झेलनी पडेगी और विशेष प्रयास करने होंगे। और तुम्हारी मानसिकता किस प्रकार की होनी चाहिए? यह एक कैंसर के मरीज के समान होनी चाहिए जो ऑपरेशन की टेबल पर जाने का इन्तजार कर रहा है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करने की इच्छा रखते हो, परमेश्वर को, और उसकी को संतुष्टि प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन तुम कुछ हद कष्ट सहन नहीं करते, विशेष प्रयास नहीं करते तो तुम इन चीजों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगे। तुमने बहुत प्रचार सुना है, मगर इसको सुनने का यह मतलब नहीं कि प्रचार तुम्हारा हो गया, तुम्हें इसे सुनकर आत्मसात करना चाहिए और इसे किसी ऐसी वस्तु में परिवर्तित करना चाहिए जो तुमसे सम्बंधित हो, तुम्हें इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए, और इसे अपने अस्तित्व में ले आना चाहिए, ताकि ये वचन और प्रचार तुम्हारे जीने के तरीके की अगुवाई करें, और तुम्हारे जीवन में अस्तित्व पूरक मूल्य और अर्थ लायें-और तब तुम्हारा इन वचनों को सुनना मूल्य रखेगा। यदि ये शब्द जो मैंने कहे हैं, तुम्हारे जीवन में कोई सुधार नहीं लाते, या तुम्हारे अस्तित्व में कोई मूल्य नहीं लाते, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता। तुम इसे समझते हो? इसको समझने के बाद बाकी सब तुम पर है। तुम्हें काम पर लग जाना चाहिए! तुम्हें इन सभी बातों में ईमानदार होना चाहिए! दुविधा में मत रहो-समय भाग रहा है! तुम में से बहुत से दस साल से ज्यादा से विश्वास करते आ रहे हैं। इन दस सालों के विश्वास को पलटकर देखो: तुमने क्या पाया है? तुम्हारे और कितने दशक इस जीवन के बाकी हैं? अधिक समय नहीं बचा। तुम जो भी करो, यह न कहो कि परमेश्वर अपने काम में तुम्हारा इन्तजार करता है और तुम्हारे लिए अवसरों को बचाता है। परमेश्वर निश्चित रूप से पलटकर वही काम नहीं करेगा। क्या तुम अपने दस साल वापिस ला सकते हो? तुम्हारा गुज़रते हुए हर एक दिन और उठते हुए हर कदम के साथ, जो दिन तुम्हारे पास हैं,उनमें से एक दिन कम हो जाता है, घट जाता है, है ना? समय किसी के लिए इन्तजार नहीं करता! तुम परमेश्वर में विश्वास से तभी प्राप्त करोगे, जब तुम इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज समझोगे, खाने, कपडे, या किसी अन्य चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण समझोगे! यदि तुम केवल तभी विश्वास करो जब तुम्हारे पास समय हो, और अपना पूरा ध्यान अपने विश्वास को समर्पित करने में असमर्थ हो, यदि हमेशा किसी तरह से काम चलाओ और दुविधा में रहो तो तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे। इस बात को समझ रहे हो? हम आज यहीं समाप्त करेंगे। फिर मिलेंगे! (परमेश्वर को धन्यवाद)
फरवरी 15, 2014
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