सभी लोगों को उनके नकारात्मक से सकारात्मक में संक्रमण के बाद उनका ध्यान आकृष्ट होने और उन्हें आवेश में बह जाने से रोकने के लिए, परमेश्वर के कथन के अंतिम अंश में, एक बार परमेश्वर ने अपने लोगों से अपनी उच्चतम अपेक्षाओं के बारे में कहा है—एक बार परमेश्वर ने अपनी प्रबंधन योजना के इस चरण में अपनी इच्छा के बारे में लोगों को बताया है—परमेश्वर अपने वचनों पर विचार करने, अंत में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए अपना मन बनाने में उनकी सहायता करने का उन्हें अवसर प्रदान करता है।जब लोगों की स्थितियाँ सकारात्मक होती हैं, तो परमेश्वर तुरंत लोगों से इस मुद्दे के दूसरे पक्ष के बारे में प्रश्न पूछना शुरू कर देता है।
वह उन प्रश्नों की एक श्रृंखला पूछता है जिन्हें समझना लोगों के लिए मुश्किल होता है: "क्या मेरे प्रति तुम लोगों का प्रेम अशुद्धताओं से दागदार था? क्या मेरे प्रति तुम लोगों का प्रेम शुद्ध और सम्पूर्ण हृदय से था? क्या मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान सच्चा था? मैंने तुम लोगों के हृदयों में कितना स्थान धारण किया?" आदि। इस परिच्छेद के पूर्वार्द्ध में, दो फटकारों के अपवाद के अलावा, शेष सभी प्रश्न हैं। विशेष रूप से,"क्या मेरे कथनों ने तुम लोगों के मर्मस्थल पर चोट की है?" एक बहुत ही उपयुक्त प्रश्न है, और ऐसा है जो लोगों के हृदय की गहराई में सबसे गुप्त चीजों पर वास्तव में चोट करता है, जिसके कारण अनजाने में वे स्वयं से पूछते हैं: क्या मैं परमेश्वर के अपने प्रेम में वास्तव में वफादार हूँ? अपने हृदयों में, लोग अनजाने में सेवा में अपने पिछले अनुभवों को याद करते हैं: वे आत्म-क्षमा, आत्म-धार्मिकता, आत्म-महत्व, आत्म-संतोष, आत्मतुष्टि और गर्व से बर्बाद हो गए थे। वे जाल में पकड़ी गई एक बड़ी मछली की तरह थे—और इन जालों में गिरने के बाद, उनके लिए स्वयं को मुक्त करना आसान नहीं था। और इसके अतिरिक्त, वे प्रायः अनियंत्रित थे, वे प्रायः परमेश्वर की सामान्य मानवता को धोखा देते थे, और उन्होंने जो कुछ भी किया उसमें अपने आप को सबसे पहले रखते थे। "सेवा करने वाले" कहे जाने से पहले, वे ऊर्जा से भरे हुए, एक नवजात बाघ शावक के समान थे। यद्यपि उन्होंने जीवन पर कुछ-कुछ अपना ध्यान केंद्रित किया, कभी-कभी उन्होंने बिना रुचि के काम किया; एक दास की तरह, वे परमेश्वर के प्रति बेपरवाह थे। सेवा करने वाले के रूप में उजागर होने के समय के दौरान, वे नकारात्मक थे, वे पिछड़ गए थे, वे दुःख से भरे थे, उन्होंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की, निराशा में उनके सिर लटक गए, आदि। उनकीस्वयं की अद्भुत, मर्मस्पर्शी कहानियों का प्रत्येक चरण उनके मन में रूका रहता है। यहाँ तक कि उनके लिए सोना भी मुश्किल हो जाता, और वे दिन का समय भाव-शून्यता में बिताते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे परमेश्वर द्वारा दूसरी बार हटाए जा चुके हैं, अधोलोक में गिर गए हैं, और बच निकलने में अक्षम हैं। यद्यपि परमेश्वर ने पहले परिच्छेद में कुछ कठिन प्रश्न खड़े करने की अपेक्षा कुछ नहीं किया, ध्यानपूर्वक पढ़े जाएँ तो, वे दर्शाते हैं कि परमेश्वर का उद्देश्य केवल इन प्रश्नों को उनके स्वयं के वास्ते पूछने की अपेक्षा कहीं अधिक है; उनमें अर्थ का एक गहरा स्तर निहित है, एक ऐसा जिसे अधिक विस्तार से अवश्य समझाया जाना चाहिए।
परमेश्वर ने एक बार क्यों कहा कि आज, आख़िरकार, आज है, और चूँकि कल पहले से ही गुज़र चुका है, इसलिए अतीत की ललक का कोई मतलब नहीं है—जबकि यहाँ पहले वाक्य में, वह लोगों से प्रश्न पूछता है, और उन्हें अतीत पर विचार करवाता है? विचार करो: परमेश्वर क्यों कहता है कि लोग अतीत की ललक में डूबे न रहें, लेकिन अतीत पर विचार भी करें? क्या परमेश्वर के वचनों में कोई गलती हो सकती है? क्या इन वचनों का स्रोत गलत हो सकता है? स्वाभाविक रूप से, जो लोग परमेश्वर के वचनों पर ध्यान नहीं देते हैं वे इस तरह के गहन प्रश्न नहीं पूछेंगे। लेकिन फिलहाल, इस बारे में बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले, मुझे ऊपर के "क्यों" को समझाने दो? निस्संदेह, हर कोई अवगत है कि परमेश्वर ने कहा है कि वह खोखले वचन नहीं बोलता है। यदि वचनों का कथन परमेश्वर के मुँह से किया जाता है, तो उनका एक उद्देश्य और महत्व होता है—और यह मुद्दे के मर्म को स्पर्श करता है। लोगों की सबसे बड़ी असफलता उनकी दुष्ट तौर-तरीके को बदलने की असमर्थता और उनकी पुरानी प्रकृति की अकड़ है। सभी लोगों को अपने आप को और अधिक अच्छी तरह से और वास्तविक रूप से जानने देने के लिए, परमेश्वर पहले अतीत पर पुन:विचार करने में उनकी अगुआई करता है, ताकि वे स्वयं पर अधिक गहराई से विचार करें, और इस प्रकार जान जाएँ कि परमेश्वर का एक भी वचन खोखला नहीं है, और यह कि परमेश्वर के सभी वचन भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न अंशों तक पूरे किए जाते हैं। अतीत में, परमेश्वर जिस तरह से लोगों से निपट उसने उन्हें परमेश्वर के बारे में थोड़ा ज्ञान प्रदान किया और परमेश्वर के प्रति उनकी ईमानदारी को थोड़ा और हार्दिक बनाया। "परमेश्वर" शब्द लोगों और उनके हृदय में रहता तो है किन्तु केवल 0.1 प्रतिशत। इतना ही प्राप्त करना यह दर्शाता है कि परमेश्वर ने बहुत बड़ी मात्रा में उद्धार कार्यान्वित किया है। यह कहना उचित है कि लोगों के इस समूह—एक ऐसा समूह है जिसका बड़े लाल अजगर द्वारा शोषण किया जाता है और जो शैतान के कब्जे में है—में परमेश्वर की इतनी ही उपलब्धि है ऐसी है जिससे वे जैसा मन हो वैसा करने का साहस नहीं करते हैं। इसका कारण यह है कि जो लोग शैतान के कब्जे में हो गए हैं उनके सौ प्रतिशत हृदय को अधिकार में करना परमेश्वर के लिए असंभव है। अगले चरण के दौरान परमेश्वर के बारे में लोगों के ज्ञान को बढ़ाने के लिए, परमेश्वर अतीत के सेवा करने वालों की स्थितियों की आज के परमेश्वर के लोगों के साथ तुलना करता है, इस प्रकार एक स्पष्ट अंतर बनाता है जो लोगों की शर्म की भावना को बढ़ाता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे परमेश्वर ने कहा, वहाँ "अपनी लज्जा को छिपाने के लिए कोई स्थान नहीं है।"
तो, मैंने क्यों कहा कि परमेश्वर केवल प्रश्नों के वास्ते ही प्रश्न नहीं पूछ रहा है? आरंभ से अंत तक का ध्यानपूर्वक पठन दर्शाता है कि, यद्यपि परमेश्वर द्वारा खड़े किए गए प्रश्न कुछ-कुछ चुभने वाले हैं, ये सभी लोगों की परमेश्वर के प्रति वफादारी और परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान की सीमा का संकेत करते हैं; दूसरे शब्दों में, वे लोगों की वास्तविक स्थितियों का संकेत करते हैं, जो दयनीय हैं, और जिनके बारे में खुल कर बोलना उनके लिए मुश्किल है। इससे देखा जा सकता है कि लोगों की कद-काठी बहुत तुच्छ है, कि परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान बहुत सतही है, और उसके प्रति उनकी निष्ठा भी बहुत दूषित और अशुद्ध है। जैसा कि परमेश्वर ने कहा, लगभग सभी लोग गंदे जल में मछली पकड़ते हैं और केवल संख्या पूरा करने के लिए ही हैं। जब परमेश्वर कहता है "क्या तुम सचमुच विश्वास करते हो कि तुम मेरे लोग होने योग्य नहीं हो?" इन वचनों का सही अर्थ यह है कि सभी लोगों के बीच, कोई भी परमेश्वर के लोग होने के योग्य नहीं है। किन्तु एक अधिक बड़ा प्रभाव प्राप्त करने के लिए, परमेश्वर प्रश्न पूछने की विधि का उपयोग करता है। यह पद्धति अतीत के वचनों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावी है, जिसने लोगों पर उनके दिलों को भेदने की स्थिति तक, क्रूरता से हमला किया, उन्हें काट डाला, और मार डाला। मान लो कि परमेश्वर ने प्रत्यक्ष रूप से कुछ अरुचिकर और नीरस कहा था जैसे कि "तुम लोग मेरे प्रति वफादार नहीं हो, और तुम लोगों की निष्ठा दूषित है, मैं तुम लोगों के हृदयों में संपूर्ण स्थान नहीं रखता हूँ ... । मैं तुम लोगों के छिपने के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ूँगा, क्योंकि तुम लोगों में से कोई भी मेरे लोग होने के लिए पर्याप्त नहीं है।" दोनों की तुम लोग तुलना कर सकते हो: उनकी सामग्री एक जैसी है, किन्तु प्रत्येक का स्वर भिन्न है। प्रश्न का उपयोग करना कहीं अधिक प्रभावी है। इसलिए, बुद्धिमान परमेश्वर पहले वाले स्वर को काम में लाता है, जो उस कला-कौशल को दर्शाता है जिसके साथ वह बोलता है। यह मनुष्य के द्वारा अप्राप्य है, और इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर ने कहा, "लोग तो बस मेरे द्वारा उपयोग किए गए बर्तनों के समान हैं, उनके बीच एकमात्र अंतर यह है कि कुछ अधम हैं, और कुछ अनमोल हैं।"
पढ़ना जारी रखें। परमेश्वर के वचन बहुत अधिक संख्या में और तेजी से आते हैं, लोगों को साँस लेने का मौका मुश्किल से ही देते हैं, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के साथ दयालुता से व्यवहार बिल्कुल नहीं करता है। जब लोग बेहद अफ़सोस महसूस करते हैं, तो परमेश्वर एक बार उन्हें पुनः चेतावनी देता है:"यदि तुम उपरोक्त प्रश्नों के प्रति पूर्णतः बेसुध हो, तो यह ये दिखाता है कि तुम गंदले पानी में मछलियाँ पकड़ रहे हो, कि वहाँ तुम केवल संख्या बढ़ाने के लिए हो, और मेरे द्वारा पूर्वनियत समय पर, तुम्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और दूसरी बार अथाह कुंड में डाल दिया जाएगा। ये मेरे चेतावनी के वचन हैं, और जो कोई भी इन्हें हल्के में लेगा उस पर मेरे न्याय की चोट पड़ेगी, और, नियत समय पर आपदा टूट पड़ेगी।" ऐसे वचनों को पढ़ कर, लोगों के पास उस समय के बारे में विचार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है जब उन्हें अथाह गड्ढे में डाल दिया गया था: परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं के द्वारा नियंत्रित, तबाही से धमकाए गए, उनका स्वयं का अंत उनकी प्रतीक्षा कर रहा था, वे लंबे समय से परेशान, उदास, बेचैन, अपने हृदय की उदासी के बारे में किसी को बोलने में असमर्थ महसूस कर रहे थे—इसकी तुलना में, अपनी देह को शुद्ध करवाना उनके लिए बेहतर स्थिति होती ... यह सोचकर, वे परेशान हुए बिना नहीं रह सकते हैं यह सोच कर कि वे अतीत में कैसे थे, वे आज कैसे हैं, और वे कल कैसे होंगे, उनके हृदय में दुःख बढ़ता जाता है, वे अनजाने में थरथराने लगते हैं, और इस प्रकार वे परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं से और भी अधिक भयभीत हो जाते हैं। जैसे ही उनके दिमाग में आता है कि "परमेश्वर के लोग" शब्द भी बोलने का साधन हो सकता है, उनके दिलों का उत्साह तुरंत परेशानी में बदल जाता है। परमेश्वर उन पर प्रहार करने के लिए उनकी घातक कमजोरी का प्रयोग कर रहा है, और इस बिन्दु पर, वह अपने कार्य के अगले चरण की शुरुआत कर रहा है, लगातार लोगों के मन को उकसा रहा है, और उनकी समझ को बढ़ा रहा है कि परमेश्वर के कर्म अथाह हैं, कि परमेश्वर अगम्य है, कि परमेश्वर पवित्र और शुद्ध है, और कि वे परमेश्वर के लोग होने के योग्य नहीं हैं। परिणामस्वरूप, पिछड़ने का साहस नहीं करते हुए, वे स्वयं को सुधारने के अपने प्रयासों को दोगुना कर देते हैं।
इसके बाद, लोगों को एक सबक सिखाने के लिए, और उन्हें स्वयं का ज्ञान करवाने, परमेश्वर का सम्मान करवाने, और परमेश्वर का भय मनवाने के लिए, परमेश्वर अपनी नई योजना शुरू करता है:"सृष्टि के सृजन से लेकर आज तक, बहुत से लोगों ने मेरे वचनों की अवज्ञा की है और इसलिए अच्छा होने की धारा से बहिष्कृत कर दिए गए और हटा दिए गए हैं, अंततः उनके शरीर नाश हो जाते हैं और आत्माएँ अधोलोक में डाल दी जाती हैं, और यहाँ तक कि आज वे अभी भी दुःखद दण्ड के अधीन किए जाते हैं। बहुत से लोगों ने मेरे वचनों का अनुसरण किया है, परंतु वे मेरी प्रबुद्धता और रोशनी के विरोध में चले गए हैं … और कुछ ... ।" ये वास्तविक उदाहरण हैं। इन वचनों में, परमेश्वर न केवल परमेश्वर के सभी लोगों को तमाम युगों में परमेश्वर के कर्मों के बारे में ज्ञात करवाने के लिए एक वास्तविक चेतावनी देता है, बल्कि आध्यात्मिक जगत में जो कुछ भी हो रहा है उसके एक हिस्से का अप्रत्यक्ष चित्रण भी प्रदान करता है। यह लोगों को इस बात को जानने देता है कि परमेश्वर के प्रति उनकी अवज्ञा से कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता है। वे शर्म का एक चिरस्थायी दाग़ बन जाएँगे, और वे शैतान का मूर्त रूप, और शैतान की एक प्रतिलिपि बन जाएँगे। परमेश्वर के हृदय में, अर्थ का यह पहलू गौण महत्त्व का है, क्योंकि इन वचनों ने लोगों को पहले से ही काँपता हुआ और उलझन में डाल दिया है। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि, जैसे-जैसे लोग डर से काँपते हैं, वे आध्यात्मिक जगत का कुछ विवरण भी प्राप्त करते हैं—लेकिन केवल थोड़ा ही प्राप्त करते हैं, इसलिए मुझे थोड़ा स्पष्टीकरण अवश्य प्रदान करना चाहिए। आध्यात्मिक जगत के द्वार से यह देखा जा सकता है कि यहाँ सभी प्रकार की आत्माएँ हैं। कुछ, हालाँकि, अधोलोक में हैं, कुछ नरक में हैं, कुछ आग की झील में हैं, और कुछ अथाह गड्ढे में हैं। मेरे पास यहाँ जोड़ने के लिए कुछ है। सतही तौर परकहें तो, इन आत्माओं को स्थान के अनुसार विभाजित किया जा सकता है; विशिष्ट रूप से कहें तो, हालाँकि, कुछ के साथ प्रत्यक्ष रूप सेपरमेश्वर की ताड़ना द्वारा निपटा जाता है, और कुछ शैतान की कैद में हैं, जिसे परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है। अधिक विशिष्ट रूप से, उनकी परिस्थितियों की गंभीरता के अनुसार उनकी ताड़ना भिन्न होती है। इस बिंदु पर, आओ मैं थोड़ा और समझाऊँ। जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर के हाथ से ताड़ना दी जाती है, उनकी पृथ्वी पर कोई आत्मा नहीं होती है, जिसका अर्थ है कि उनके पास पुनर्जन्म लेने का कोई अवसर नहीं होता है। शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन आत्माएँ—वे दुश्मन जिनके बारे में परमेश्वरतब बोलता है जब वह कहता है कि "मेरे शत्रु बन गए हैं"—पार्थिव मामलों से जुड़ी होती हैं। पृथ्वी पर विभिन्न बुरी आत्माएँ सभी परमेश्वर की शत्रु, शैतान की सेवक हैं, और उनके अस्तित्व का कारण[क] परमेश्वर के कर्मों को विशिष्टता से दिखाने के काम आना है। इस प्रकार, परमेश्वर कहता है, "ये लोग न केवल शैतान के द्वारा बंदी बना लिए गए हैं, बल्कि अनंत पापी बन गए हैं और मेरे शत्रु बन गए हैं, और वे सीधे तौर पर मेरा विरोध करते हैं।" इसके बाद, परमेश्वर इस प्रकार की आत्मा के अंत के बारे में लोगों को बताता है: "ऐसे लोग मेरे क्रोध की पराकाष्ठा पर मेरे दण्ड के पात्र हैं।" परमेश्वर उनकी वर्तमान स्थितियाँ भी स्पष्ट करता है: "और आज वे अभी भी अंधे हैं, आज भी अँधेरी कालकोठरियों में हैं।"
लोगों को परमेश्वर के वचनों की सच्चाई दिखाने के लिए, परमेश्वर एक साक्ष्य के रूप में एक वास्तविक उदाहरण का उपयोग करता है (पौलुस का मामला जिसके बारे में वह बोलता है) ताकि उनकी चेतावनी लोगों पर गहरी छाप छोड़े। पौलुस के बारे में जो कहा जाता है लोगों को उसे एक कहानी के रूप में मानने से रोकने, और उन्हें स्वयं को तमाशाइयों के रूप में सोचने से रोकने के लिए—और, इसके अलावा, उन चीजों के बारे में शेखी बघारने से रोकने के लिए जो हजारों साल पहले हुई थीं जिसे उन्होंने परमेश्वर से जाना था, परमेश्वर पौलुस के जीवन भर के अनुभवों पर ध्यान केंद्रित नहीं करता है। इसके बजाय, परमेश्वर पौलुस के परिणामों और अंत पर, उस कारण पर कि क्यों पौलुस ने परमेश्वर का विरोध किया,और जैसा पौलुस का अंत हुआ वह कैसे हुआ, इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है। जि स पर परमेश्वर ध्यान केंद्रित करता है वह है अंत में पौलुस की शानदार उम्मीदों की अपनी अस्वीकृति पर जोर देना, और प्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र में उसकी स्थिति को सामने लाना: "पौलुस सीधे परमेश्वर द्वारा ताड़ित किया गया है।" क्योंकि लोग सुन्न हैं और वे परमेश्वर के वचनों के बारे में कुछ भी समझने में अक्षम हैं, इसलिए परमेश्वर एक व्याख्या (कथन का अगला भाग) जोड़ता है, और एक अन्य क्षेत्र के मुद्दे की बात करना शुरू करता है:"जो कोई भी मेरा विरोध करता है (न केवल मेरी देह का बल्कि अधिक महत्वपूर्ण रूप से मेरे वचनों और मेरे पवित्रात्मा का विरोध करके), वह अपनी देह में मेरा न्याय प्राप्त करता है।" यद्यपि, सतही तौर परबोलें तो, ये वचन ऊपरोक्त वचनों से असंबंधित प्रतीत होते हैं, और दोनों के बीच कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है, घबराओ नहीं: परमेश्वर का अपना स्वयं का लक्ष्य है; "ऊपरोक्त उदाहरण साबित करता है कि" के सरल वचन दो असंबंधित प्रतीत होने वाले मुद्दों को जैविक रूप से जोड़ते हैं—जो कि परमेश्वर के वचनों की निपुणता है। इस प्रकार, लोग पौलुस के वृत्तांत के माध्यम से प्रबुद्ध किए जाते हैं, और इसलिए, ऊपर और नीचे के पाठ के बीच संबंध के कारण, पौलुस के सबक के माध्यम से परमेश्वर को जानने की उनकी खोज बढ़ जाती है, जो कि वास्तव में वह प्रभाव है जिसकी परमेश्वर ने उन वचनों को बोलने में प्राप्त करने की इच्छा की थी। इसके बाद, परमेश्वर कुछ वचन बोलता है जो जीवन में लोगों के प्रवेश के लिए सहायता और प्रबुद्धता प्रदान करते हैं। मुझे इसमें जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हें महसूस होगा कि उन्हें समझना आसान है। हालाँकि, मुझे जो अवश्य समझाना चाहिए, वह है कि जब परमेश्वर कहता है, "जब मैंने सामान्य मानवता में कार्य किया, तो अधिकांश लोग मेरे कोप और प्रताप के विरूद्ध स्वयं को पहले ही माप चुके थे, और मेरी बुद्धि व स्वभाव को थोड़ा बहुत जानते थे। आज, मैं दिव्यता में सीधे तौर पर बोलता और कार्य करता हूँ, और अभी भी कुछ लोग हैं जो अपनी स्वयं की आँखों से मेरे कोप और न्याय को देखेंगे; इसके अतिरिक्त, न्याय के युग के दूसरे भाग का मुख्य कार्य देह में मेरे कर्मों को मेरे सभी लोगों को सीधे तौर पर ज्ञात करवाना है, और सीधे तौर पर मेरे स्वभाव का तुम लोगों को अवलोकन करवाना है।" ये कुछ वचन सामान्य मानवता में परमेश्वर के कार्य का समापन करते हैं और आधिकारिक रूप से परमेश्वर के न्याय के युग के कार्य के दूसरे भाग को शुरू करते हैं, जो दिव्यता में किया जाता है, और लोगों के एक हिस्से के अंत की भविष्यवाणी करता है। इस बिंदु पर, यह समझाना उचित है कि परमेश्वर ने लोगों को नहीं बताया कि यह न्याय के युग का दूसरा भाग था जब वे परमेश्वर के लोग बन गए। इसके बजाय, लोगों को केवल परमेश्वर की इच्छा और उस लक्ष्य के बारे में जिसे परमेश्वर इस युग के दौरान प्राप्त करना चाहता है और पृथ्वी पर कार्य के परमेश्वर के अंतिम कदम के बारे में बताने के बाद ही वह समझाता है कि यह न्याय के युग का दूसरा भाग है। कहने की आवश्यकता नहीं, कि इसमें भी परमेश्वर की बुद्धि है। जब लोग अपनी रोगशय्याओं से अभी उठे ही हैं, तो एकमात्र चीज़ जिसके बारे में वे परवाह करते हैं वह है कि वे मरने जा रहे हैं या नहीं, अथवा उनकी बीमारी उनसे दूर की जा सकती है या नहीं। वे इस बात पर कोई ध्यान नहीं देते हैं कि क्या वे मोटे होंगे, अथवाकि क्या वे सही कपड़े पहनते हैं। इस प्रकार, यह केवल तभी होता है जब लोग पूर्णतः मानते हैं कि वे परमेश्वर के लोगों में से एक हैं, कि परमेश्वर अपनी अपेक्षाओं के बारे में कदम-दर-कदम बताता है, और लोगों को बताता है कि आज कौन सा युग है। इसका कारण यह है कि लोगों को उनके स्वस्थ होने के कुछ दिनों बाद केवल परमेश्वर के प्रबंधन के कदमों पर ध्यान एकाग्र करने की ऊर्जा होती है, और इसलिए उन्हें बताने का यह सबसे उपयुक्त समय होता है। जब लोग समझ जाते हैं केवल उसके बाद ही वे विश्लेषण करना शुरू करते हैं: चूँकि यह न्याय के युग का दूसरा हिस्सा है, इसलिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ अधिक कठोर हो गई हैं, और मैं परमेश्वर के लोगों में से एक बन गया हूँ। इस प्रकार से विश्लेषण करना सही है, यह मनुष्य द्वारा प्राप्य है, और इसलिए परमेश्वर बोलने की इस पद्धति को काम में लाता है।
एक बार जब लोग थोड़ा समझ जाते हैं, तो परमेश्वर बोलने के लिए एक बार और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करता है, और इसलिए वे एक बार पुनः घात में पड़ जाते हैं। प्रश्नों की इस श्रृंखला के दौरान, हर कोई सोच में पड़ जाता है, भ्रमित होता है, नहीं जानता है कि परमेश्वर की इच्छा कहाँ निहित है, नहीं जानता है कि परमेश्वर के प्रश्नों में से किसका उत्तर दे, और इसके अलावा, नहीं जानता है कि परमेश्वर के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए किस भाषा का प्रयोग करे। कोई सोच में पड़ जाता है कि हँसना है या रोना। लोगों के लिए, ये वचन ऐसे प्रतीत होते हैं मानो कि उनमें गहन रहस्य समाविष्ट हों—किन्तु तथ्य ठीक विपरीत हैं। मैं तुम्हारे लिए यहाँ थोड़ा स्पष्टीकरण भी जोड़ देताहूँ। यह तुम्हारे मस्तिष्क को आराम देगा, तुम्हें महसूस होगा[ख] कि यह कुछ सरल है जिसके लिए बहुत विचार की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, यद्यपि कई वचन हैं, उनमें परमेश्वर का केवल एक ही उद्देश्य समाविष्ट है: इन प्रश्नों के माध्यम से लोगों की निष्ठा प्राप्त करना। लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप से कहना उचित नहीं है, इसलिए परमेश्वर एक बार पुनः प्रश्नों को काम में लाता है। हालाँकि, स्वर विशेष रूप से नरम होता है, शुरुआत में जो था उससे बहुत भिन्न। यद्यपि उनसे परमेश्वर के द्वारा प्रश्न किए जा रहे हैं, इस तरह का अंतर लोगों के लिए थोड़ी राहत लाता है। तुम भी प्रत्येक प्रश्न को एक-एक करके पढ़ सकते हो; क्या इन चीजों को अतीत में प्रायः संदर्भित नहीं किया जाता था? इन कुछ प्रश्नों में समृद्ध सामग्री है, कुछ लोगों की मानसिकता का वर्णन हैं: "क्या तुम पृथ्वी पर ऐसे जीवन का आनंद लेने के इच्छुक हो जो स्वर्ग में जीवन के सदृश है?" कुछ परमेश्वर के सामने लोगों की "योद्धा की शपथ" हैं: “क्या तुम लोग सचमुच स्वयं को, एक भेड़ के समान, मेरे द्वारा तुम लोगों को मार दिए जाने और अगुआई किए जाने की अनुमति देने में समर्थ हो? " और उनमें से कुछ परमेश्वर की मनुष्य के बारे में अपेक्षाएँ हैं: "यदि मैं सीधे तौर पर तुम से न बोलता, तो क्या तुम अपने आसपास की सब चीजों का त्याग कर स्वयं को मुझे उपयोग करने दे सकते थे? क्या यही वह वास्तविकता नहीं जिसकी मैं अपेक्षा करता हूँ? … " या मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रोत्साहन और आश्वासन: “फिर भी मैं कहता हूँ कि तुम लोग गलतफहमी में अब और न पड़ना, कि तुम लोग अपने प्रवेश में अग्रसक्रिय बनो और मेरे वचनों के सार को ग्रहण करो। यह तुम लोगों को मेरे वचनों के मिथ्याबोध से और मेरे अर्थ को अस्पष्ट होने से बचाएगा और इस प्रकार मेरे प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने से बचाएगा।" अंत में, परमेश्वर मनुष्य के लिए अपनी उम्मीदों की बात करता है: "मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग मेरे वचनों में तुम लोगों के लिए मेरे इरादों को ग्रहण करो। अपनी भविष्य की संभावनाओं का और अधिक विचार मत करो, और उस तरह से कार्य करो जैसे तुम लोगों ने मेरे सम्मुख संकल्प लिया है कि सभी को परमेश्वर की दया पर निर्भर रहना चाहिए।" अंतिम प्रश्न का गहन अर्थ है। यह विचारोत्तेजक है, यह लोगों के हृदय पर स्वयं की छाप डालता है और इसे भुलाना कठिन है, उनके कानों से लटकी एक घंटी की तरह निरंतर बजता रहता है ...
उपरोक्त स्पष्टीकरण के कुछ वचन हैं जो तुम्हारे संदर्भ के उपयोग के लिए हैं।
Source From:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
वह उन प्रश्नों की एक श्रृंखला पूछता है जिन्हें समझना लोगों के लिए मुश्किल होता है: "क्या मेरे प्रति तुम लोगों का प्रेम अशुद्धताओं से दागदार था? क्या मेरे प्रति तुम लोगों का प्रेम शुद्ध और सम्पूर्ण हृदय से था? क्या मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान सच्चा था? मैंने तुम लोगों के हृदयों में कितना स्थान धारण किया?" आदि। इस परिच्छेद के पूर्वार्द्ध में, दो फटकारों के अपवाद के अलावा, शेष सभी प्रश्न हैं। विशेष रूप से,"क्या मेरे कथनों ने तुम लोगों के मर्मस्थल पर चोट की है?" एक बहुत ही उपयुक्त प्रश्न है, और ऐसा है जो लोगों के हृदय की गहराई में सबसे गुप्त चीजों पर वास्तव में चोट करता है, जिसके कारण अनजाने में वे स्वयं से पूछते हैं: क्या मैं परमेश्वर के अपने प्रेम में वास्तव में वफादार हूँ? अपने हृदयों में, लोग अनजाने में सेवा में अपने पिछले अनुभवों को याद करते हैं: वे आत्म-क्षमा, आत्म-धार्मिकता, आत्म-महत्व, आत्म-संतोष, आत्मतुष्टि और गर्व से बर्बाद हो गए थे। वे जाल में पकड़ी गई एक बड़ी मछली की तरह थे—और इन जालों में गिरने के बाद, उनके लिए स्वयं को मुक्त करना आसान नहीं था। और इसके अतिरिक्त, वे प्रायः अनियंत्रित थे, वे प्रायः परमेश्वर की सामान्य मानवता को धोखा देते थे, और उन्होंने जो कुछ भी किया उसमें अपने आप को सबसे पहले रखते थे। "सेवा करने वाले" कहे जाने से पहले, वे ऊर्जा से भरे हुए, एक नवजात बाघ शावक के समान थे। यद्यपि उन्होंने जीवन पर कुछ-कुछ अपना ध्यान केंद्रित किया, कभी-कभी उन्होंने बिना रुचि के काम किया; एक दास की तरह, वे परमेश्वर के प्रति बेपरवाह थे। सेवा करने वाले के रूप में उजागर होने के समय के दौरान, वे नकारात्मक थे, वे पिछड़ गए थे, वे दुःख से भरे थे, उन्होंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की, निराशा में उनके सिर लटक गए, आदि। उनकीस्वयं की अद्भुत, मर्मस्पर्शी कहानियों का प्रत्येक चरण उनके मन में रूका रहता है। यहाँ तक कि उनके लिए सोना भी मुश्किल हो जाता, और वे दिन का समय भाव-शून्यता में बिताते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे परमेश्वर द्वारा दूसरी बार हटाए जा चुके हैं, अधोलोक में गिर गए हैं, और बच निकलने में अक्षम हैं। यद्यपि परमेश्वर ने पहले परिच्छेद में कुछ कठिन प्रश्न खड़े करने की अपेक्षा कुछ नहीं किया, ध्यानपूर्वक पढ़े जाएँ तो, वे दर्शाते हैं कि परमेश्वर का उद्देश्य केवल इन प्रश्नों को उनके स्वयं के वास्ते पूछने की अपेक्षा कहीं अधिक है; उनमें अर्थ का एक गहरा स्तर निहित है, एक ऐसा जिसे अधिक विस्तार से अवश्य समझाया जाना चाहिए।
परमेश्वर ने एक बार क्यों कहा कि आज, आख़िरकार, आज है, और चूँकि कल पहले से ही गुज़र चुका है, इसलिए अतीत की ललक का कोई मतलब नहीं है—जबकि यहाँ पहले वाक्य में, वह लोगों से प्रश्न पूछता है, और उन्हें अतीत पर विचार करवाता है? विचार करो: परमेश्वर क्यों कहता है कि लोग अतीत की ललक में डूबे न रहें, लेकिन अतीत पर विचार भी करें? क्या परमेश्वर के वचनों में कोई गलती हो सकती है? क्या इन वचनों का स्रोत गलत हो सकता है? स्वाभाविक रूप से, जो लोग परमेश्वर के वचनों पर ध्यान नहीं देते हैं वे इस तरह के गहन प्रश्न नहीं पूछेंगे। लेकिन फिलहाल, इस बारे में बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले, मुझे ऊपर के "क्यों" को समझाने दो? निस्संदेह, हर कोई अवगत है कि परमेश्वर ने कहा है कि वह खोखले वचन नहीं बोलता है। यदि वचनों का कथन परमेश्वर के मुँह से किया जाता है, तो उनका एक उद्देश्य और महत्व होता है—और यह मुद्दे के मर्म को स्पर्श करता है। लोगों की सबसे बड़ी असफलता उनकी दुष्ट तौर-तरीके को बदलने की असमर्थता और उनकी पुरानी प्रकृति की अकड़ है। सभी लोगों को अपने आप को और अधिक अच्छी तरह से और वास्तविक रूप से जानने देने के लिए, परमेश्वर पहले अतीत पर पुन:विचार करने में उनकी अगुआई करता है, ताकि वे स्वयं पर अधिक गहराई से विचार करें, और इस प्रकार जान जाएँ कि परमेश्वर का एक भी वचन खोखला नहीं है, और यह कि परमेश्वर के सभी वचन भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न अंशों तक पूरे किए जाते हैं। अतीत में, परमेश्वर जिस तरह से लोगों से निपट उसने उन्हें परमेश्वर के बारे में थोड़ा ज्ञान प्रदान किया और परमेश्वर के प्रति उनकी ईमानदारी को थोड़ा और हार्दिक बनाया। "परमेश्वर" शब्द लोगों और उनके हृदय में रहता तो है किन्तु केवल 0.1 प्रतिशत। इतना ही प्राप्त करना यह दर्शाता है कि परमेश्वर ने बहुत बड़ी मात्रा में उद्धार कार्यान्वित किया है। यह कहना उचित है कि लोगों के इस समूह—एक ऐसा समूह है जिसका बड़े लाल अजगर द्वारा शोषण किया जाता है और जो शैतान के कब्जे में है—में परमेश्वर की इतनी ही उपलब्धि है ऐसी है जिससे वे जैसा मन हो वैसा करने का साहस नहीं करते हैं। इसका कारण यह है कि जो लोग शैतान के कब्जे में हो गए हैं उनके सौ प्रतिशत हृदय को अधिकार में करना परमेश्वर के लिए असंभव है। अगले चरण के दौरान परमेश्वर के बारे में लोगों के ज्ञान को बढ़ाने के लिए, परमेश्वर अतीत के सेवा करने वालों की स्थितियों की आज के परमेश्वर के लोगों के साथ तुलना करता है, इस प्रकार एक स्पष्ट अंतर बनाता है जो लोगों की शर्म की भावना को बढ़ाता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे परमेश्वर ने कहा, वहाँ "अपनी लज्जा को छिपाने के लिए कोई स्थान नहीं है।"
तो, मैंने क्यों कहा कि परमेश्वर केवल प्रश्नों के वास्ते ही प्रश्न नहीं पूछ रहा है? आरंभ से अंत तक का ध्यानपूर्वक पठन दर्शाता है कि, यद्यपि परमेश्वर द्वारा खड़े किए गए प्रश्न कुछ-कुछ चुभने वाले हैं, ये सभी लोगों की परमेश्वर के प्रति वफादारी और परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान की सीमा का संकेत करते हैं; दूसरे शब्दों में, वे लोगों की वास्तविक स्थितियों का संकेत करते हैं, जो दयनीय हैं, और जिनके बारे में खुल कर बोलना उनके लिए मुश्किल है। इससे देखा जा सकता है कि लोगों की कद-काठी बहुत तुच्छ है, कि परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान बहुत सतही है, और उसके प्रति उनकी निष्ठा भी बहुत दूषित और अशुद्ध है। जैसा कि परमेश्वर ने कहा, लगभग सभी लोग गंदे जल में मछली पकड़ते हैं और केवल संख्या पूरा करने के लिए ही हैं। जब परमेश्वर कहता है "क्या तुम सचमुच विश्वास करते हो कि तुम मेरे लोग होने योग्य नहीं हो?" इन वचनों का सही अर्थ यह है कि सभी लोगों के बीच, कोई भी परमेश्वर के लोग होने के योग्य नहीं है। किन्तु एक अधिक बड़ा प्रभाव प्राप्त करने के लिए, परमेश्वर प्रश्न पूछने की विधि का उपयोग करता है। यह पद्धति अतीत के वचनों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावी है, जिसने लोगों पर उनके दिलों को भेदने की स्थिति तक, क्रूरता से हमला किया, उन्हें काट डाला, और मार डाला। मान लो कि परमेश्वर ने प्रत्यक्ष रूप से कुछ अरुचिकर और नीरस कहा था जैसे कि "तुम लोग मेरे प्रति वफादार नहीं हो, और तुम लोगों की निष्ठा दूषित है, मैं तुम लोगों के हृदयों में संपूर्ण स्थान नहीं रखता हूँ ... । मैं तुम लोगों के छिपने के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ूँगा, क्योंकि तुम लोगों में से कोई भी मेरे लोग होने के लिए पर्याप्त नहीं है।" दोनों की तुम लोग तुलना कर सकते हो: उनकी सामग्री एक जैसी है, किन्तु प्रत्येक का स्वर भिन्न है। प्रश्न का उपयोग करना कहीं अधिक प्रभावी है। इसलिए, बुद्धिमान परमेश्वर पहले वाले स्वर को काम में लाता है, जो उस कला-कौशल को दर्शाता है जिसके साथ वह बोलता है। यह मनुष्य के द्वारा अप्राप्य है, और इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर ने कहा, "लोग तो बस मेरे द्वारा उपयोग किए गए बर्तनों के समान हैं, उनके बीच एकमात्र अंतर यह है कि कुछ अधम हैं, और कुछ अनमोल हैं।"
पढ़ना जारी रखें। परमेश्वर के वचन बहुत अधिक संख्या में और तेजी से आते हैं, लोगों को साँस लेने का मौका मुश्किल से ही देते हैं, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के साथ दयालुता से व्यवहार बिल्कुल नहीं करता है। जब लोग बेहद अफ़सोस महसूस करते हैं, तो परमेश्वर एक बार उन्हें पुनः चेतावनी देता है:"यदि तुम उपरोक्त प्रश्नों के प्रति पूर्णतः बेसुध हो, तो यह ये दिखाता है कि तुम गंदले पानी में मछलियाँ पकड़ रहे हो, कि वहाँ तुम केवल संख्या बढ़ाने के लिए हो, और मेरे द्वारा पूर्वनियत समय पर, तुम्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और दूसरी बार अथाह कुंड में डाल दिया जाएगा। ये मेरे चेतावनी के वचन हैं, और जो कोई भी इन्हें हल्के में लेगा उस पर मेरे न्याय की चोट पड़ेगी, और, नियत समय पर आपदा टूट पड़ेगी।" ऐसे वचनों को पढ़ कर, लोगों के पास उस समय के बारे में विचार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है जब उन्हें अथाह गड्ढे में डाल दिया गया था: परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं के द्वारा नियंत्रित, तबाही से धमकाए गए, उनका स्वयं का अंत उनकी प्रतीक्षा कर रहा था, वे लंबे समय से परेशान, उदास, बेचैन, अपने हृदय की उदासी के बारे में किसी को बोलने में असमर्थ महसूस कर रहे थे—इसकी तुलना में, अपनी देह को शुद्ध करवाना उनके लिए बेहतर स्थिति होती ... यह सोचकर, वे परेशान हुए बिना नहीं रह सकते हैं यह सोच कर कि वे अतीत में कैसे थे, वे आज कैसे हैं, और वे कल कैसे होंगे, उनके हृदय में दुःख बढ़ता जाता है, वे अनजाने में थरथराने लगते हैं, और इस प्रकार वे परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं से और भी अधिक भयभीत हो जाते हैं। जैसे ही उनके दिमाग में आता है कि "परमेश्वर के लोग" शब्द भी बोलने का साधन हो सकता है, उनके दिलों का उत्साह तुरंत परेशानी में बदल जाता है। परमेश्वर उन पर प्रहार करने के लिए उनकी घातक कमजोरी का प्रयोग कर रहा है, और इस बिन्दु पर, वह अपने कार्य के अगले चरण की शुरुआत कर रहा है, लगातार लोगों के मन को उकसा रहा है, और उनकी समझ को बढ़ा रहा है कि परमेश्वर के कर्म अथाह हैं, कि परमेश्वर अगम्य है, कि परमेश्वर पवित्र और शुद्ध है, और कि वे परमेश्वर के लोग होने के योग्य नहीं हैं। परिणामस्वरूप, पिछड़ने का साहस नहीं करते हुए, वे स्वयं को सुधारने के अपने प्रयासों को दोगुना कर देते हैं।
इसके बाद, लोगों को एक सबक सिखाने के लिए, और उन्हें स्वयं का ज्ञान करवाने, परमेश्वर का सम्मान करवाने, और परमेश्वर का भय मनवाने के लिए, परमेश्वर अपनी नई योजना शुरू करता है:"सृष्टि के सृजन से लेकर आज तक, बहुत से लोगों ने मेरे वचनों की अवज्ञा की है और इसलिए अच्छा होने की धारा से बहिष्कृत कर दिए गए और हटा दिए गए हैं, अंततः उनके शरीर नाश हो जाते हैं और आत्माएँ अधोलोक में डाल दी जाती हैं, और यहाँ तक कि आज वे अभी भी दुःखद दण्ड के अधीन किए जाते हैं। बहुत से लोगों ने मेरे वचनों का अनुसरण किया है, परंतु वे मेरी प्रबुद्धता और रोशनी के विरोध में चले गए हैं … और कुछ ... ।" ये वास्तविक उदाहरण हैं। इन वचनों में, परमेश्वर न केवल परमेश्वर के सभी लोगों को तमाम युगों में परमेश्वर के कर्मों के बारे में ज्ञात करवाने के लिए एक वास्तविक चेतावनी देता है, बल्कि आध्यात्मिक जगत में जो कुछ भी हो रहा है उसके एक हिस्से का अप्रत्यक्ष चित्रण भी प्रदान करता है। यह लोगों को इस बात को जानने देता है कि परमेश्वर के प्रति उनकी अवज्ञा से कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता है। वे शर्म का एक चिरस्थायी दाग़ बन जाएँगे, और वे शैतान का मूर्त रूप, और शैतान की एक प्रतिलिपि बन जाएँगे। परमेश्वर के हृदय में, अर्थ का यह पहलू गौण महत्त्व का है, क्योंकि इन वचनों ने लोगों को पहले से ही काँपता हुआ और उलझन में डाल दिया है। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि, जैसे-जैसे लोग डर से काँपते हैं, वे आध्यात्मिक जगत का कुछ विवरण भी प्राप्त करते हैं—लेकिन केवल थोड़ा ही प्राप्त करते हैं, इसलिए मुझे थोड़ा स्पष्टीकरण अवश्य प्रदान करना चाहिए। आध्यात्मिक जगत के द्वार से यह देखा जा सकता है कि यहाँ सभी प्रकार की आत्माएँ हैं। कुछ, हालाँकि, अधोलोक में हैं, कुछ नरक में हैं, कुछ आग की झील में हैं, और कुछ अथाह गड्ढे में हैं। मेरे पास यहाँ जोड़ने के लिए कुछ है। सतही तौर परकहें तो, इन आत्माओं को स्थान के अनुसार विभाजित किया जा सकता है; विशिष्ट रूप से कहें तो, हालाँकि, कुछ के साथ प्रत्यक्ष रूप सेपरमेश्वर की ताड़ना द्वारा निपटा जाता है, और कुछ शैतान की कैद में हैं, जिसे परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है। अधिक विशिष्ट रूप से, उनकी परिस्थितियों की गंभीरता के अनुसार उनकी ताड़ना भिन्न होती है। इस बिंदु पर, आओ मैं थोड़ा और समझाऊँ। जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर के हाथ से ताड़ना दी जाती है, उनकी पृथ्वी पर कोई आत्मा नहीं होती है, जिसका अर्थ है कि उनके पास पुनर्जन्म लेने का कोई अवसर नहीं होता है। शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन आत्माएँ—वे दुश्मन जिनके बारे में परमेश्वरतब बोलता है जब वह कहता है कि "मेरे शत्रु बन गए हैं"—पार्थिव मामलों से जुड़ी होती हैं। पृथ्वी पर विभिन्न बुरी आत्माएँ सभी परमेश्वर की शत्रु, शैतान की सेवक हैं, और उनके अस्तित्व का कारण[क] परमेश्वर के कर्मों को विशिष्टता से दिखाने के काम आना है। इस प्रकार, परमेश्वर कहता है, "ये लोग न केवल शैतान के द्वारा बंदी बना लिए गए हैं, बल्कि अनंत पापी बन गए हैं और मेरे शत्रु बन गए हैं, और वे सीधे तौर पर मेरा विरोध करते हैं।" इसके बाद, परमेश्वर इस प्रकार की आत्मा के अंत के बारे में लोगों को बताता है: "ऐसे लोग मेरे क्रोध की पराकाष्ठा पर मेरे दण्ड के पात्र हैं।" परमेश्वर उनकी वर्तमान स्थितियाँ भी स्पष्ट करता है: "और आज वे अभी भी अंधे हैं, आज भी अँधेरी कालकोठरियों में हैं।"
लोगों को परमेश्वर के वचनों की सच्चाई दिखाने के लिए, परमेश्वर एक साक्ष्य के रूप में एक वास्तविक उदाहरण का उपयोग करता है (पौलुस का मामला जिसके बारे में वह बोलता है) ताकि उनकी चेतावनी लोगों पर गहरी छाप छोड़े। पौलुस के बारे में जो कहा जाता है लोगों को उसे एक कहानी के रूप में मानने से रोकने, और उन्हें स्वयं को तमाशाइयों के रूप में सोचने से रोकने के लिए—और, इसके अलावा, उन चीजों के बारे में शेखी बघारने से रोकने के लिए जो हजारों साल पहले हुई थीं जिसे उन्होंने परमेश्वर से जाना था, परमेश्वर पौलुस के जीवन भर के अनुभवों पर ध्यान केंद्रित नहीं करता है। इसके बजाय, परमेश्वर पौलुस के परिणामों और अंत पर, उस कारण पर कि क्यों पौलुस ने परमेश्वर का विरोध किया,और जैसा पौलुस का अंत हुआ वह कैसे हुआ, इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है। जि स पर परमेश्वर ध्यान केंद्रित करता है वह है अंत में पौलुस की शानदार उम्मीदों की अपनी अस्वीकृति पर जोर देना, और प्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र में उसकी स्थिति को सामने लाना: "पौलुस सीधे परमेश्वर द्वारा ताड़ित किया गया है।" क्योंकि लोग सुन्न हैं और वे परमेश्वर के वचनों के बारे में कुछ भी समझने में अक्षम हैं, इसलिए परमेश्वर एक व्याख्या (कथन का अगला भाग) जोड़ता है, और एक अन्य क्षेत्र के मुद्दे की बात करना शुरू करता है:"जो कोई भी मेरा विरोध करता है (न केवल मेरी देह का बल्कि अधिक महत्वपूर्ण रूप से मेरे वचनों और मेरे पवित्रात्मा का विरोध करके), वह अपनी देह में मेरा न्याय प्राप्त करता है।" यद्यपि, सतही तौर परबोलें तो, ये वचन ऊपरोक्त वचनों से असंबंधित प्रतीत होते हैं, और दोनों के बीच कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है, घबराओ नहीं: परमेश्वर का अपना स्वयं का लक्ष्य है; "ऊपरोक्त उदाहरण साबित करता है कि" के सरल वचन दो असंबंधित प्रतीत होने वाले मुद्दों को जैविक रूप से जोड़ते हैं—जो कि परमेश्वर के वचनों की निपुणता है। इस प्रकार, लोग पौलुस के वृत्तांत के माध्यम से प्रबुद्ध किए जाते हैं, और इसलिए, ऊपर और नीचे के पाठ के बीच संबंध के कारण, पौलुस के सबक के माध्यम से परमेश्वर को जानने की उनकी खोज बढ़ जाती है, जो कि वास्तव में वह प्रभाव है जिसकी परमेश्वर ने उन वचनों को बोलने में प्राप्त करने की इच्छा की थी। इसके बाद, परमेश्वर कुछ वचन बोलता है जो जीवन में लोगों के प्रवेश के लिए सहायता और प्रबुद्धता प्रदान करते हैं। मुझे इसमें जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हें महसूस होगा कि उन्हें समझना आसान है। हालाँकि, मुझे जो अवश्य समझाना चाहिए, वह है कि जब परमेश्वर कहता है, "जब मैंने सामान्य मानवता में कार्य किया, तो अधिकांश लोग मेरे कोप और प्रताप के विरूद्ध स्वयं को पहले ही माप चुके थे, और मेरी बुद्धि व स्वभाव को थोड़ा बहुत जानते थे। आज, मैं दिव्यता में सीधे तौर पर बोलता और कार्य करता हूँ, और अभी भी कुछ लोग हैं जो अपनी स्वयं की आँखों से मेरे कोप और न्याय को देखेंगे; इसके अतिरिक्त, न्याय के युग के दूसरे भाग का मुख्य कार्य देह में मेरे कर्मों को मेरे सभी लोगों को सीधे तौर पर ज्ञात करवाना है, और सीधे तौर पर मेरे स्वभाव का तुम लोगों को अवलोकन करवाना है।" ये कुछ वचन सामान्य मानवता में परमेश्वर के कार्य का समापन करते हैं और आधिकारिक रूप से परमेश्वर के न्याय के युग के कार्य के दूसरे भाग को शुरू करते हैं, जो दिव्यता में किया जाता है, और लोगों के एक हिस्से के अंत की भविष्यवाणी करता है। इस बिंदु पर, यह समझाना उचित है कि परमेश्वर ने लोगों को नहीं बताया कि यह न्याय के युग का दूसरा भाग था जब वे परमेश्वर के लोग बन गए। इसके बजाय, लोगों को केवल परमेश्वर की इच्छा और उस लक्ष्य के बारे में जिसे परमेश्वर इस युग के दौरान प्राप्त करना चाहता है और पृथ्वी पर कार्य के परमेश्वर के अंतिम कदम के बारे में बताने के बाद ही वह समझाता है कि यह न्याय के युग का दूसरा भाग है। कहने की आवश्यकता नहीं, कि इसमें भी परमेश्वर की बुद्धि है। जब लोग अपनी रोगशय्याओं से अभी उठे ही हैं, तो एकमात्र चीज़ जिसके बारे में वे परवाह करते हैं वह है कि वे मरने जा रहे हैं या नहीं, अथवा उनकी बीमारी उनसे दूर की जा सकती है या नहीं। वे इस बात पर कोई ध्यान नहीं देते हैं कि क्या वे मोटे होंगे, अथवाकि क्या वे सही कपड़े पहनते हैं। इस प्रकार, यह केवल तभी होता है जब लोग पूर्णतः मानते हैं कि वे परमेश्वर के लोगों में से एक हैं, कि परमेश्वर अपनी अपेक्षाओं के बारे में कदम-दर-कदम बताता है, और लोगों को बताता है कि आज कौन सा युग है। इसका कारण यह है कि लोगों को उनके स्वस्थ होने के कुछ दिनों बाद केवल परमेश्वर के प्रबंधन के कदमों पर ध्यान एकाग्र करने की ऊर्जा होती है, और इसलिए उन्हें बताने का यह सबसे उपयुक्त समय होता है। जब लोग समझ जाते हैं केवल उसके बाद ही वे विश्लेषण करना शुरू करते हैं: चूँकि यह न्याय के युग का दूसरा हिस्सा है, इसलिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ अधिक कठोर हो गई हैं, और मैं परमेश्वर के लोगों में से एक बन गया हूँ। इस प्रकार से विश्लेषण करना सही है, यह मनुष्य द्वारा प्राप्य है, और इसलिए परमेश्वर बोलने की इस पद्धति को काम में लाता है।
एक बार जब लोग थोड़ा समझ जाते हैं, तो परमेश्वर बोलने के लिए एक बार और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करता है, और इसलिए वे एक बार पुनः घात में पड़ जाते हैं। प्रश्नों की इस श्रृंखला के दौरान, हर कोई सोच में पड़ जाता है, भ्रमित होता है, नहीं जानता है कि परमेश्वर की इच्छा कहाँ निहित है, नहीं जानता है कि परमेश्वर के प्रश्नों में से किसका उत्तर दे, और इसके अलावा, नहीं जानता है कि परमेश्वर के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए किस भाषा का प्रयोग करे। कोई सोच में पड़ जाता है कि हँसना है या रोना। लोगों के लिए, ये वचन ऐसे प्रतीत होते हैं मानो कि उनमें गहन रहस्य समाविष्ट हों—किन्तु तथ्य ठीक विपरीत हैं। मैं तुम्हारे लिए यहाँ थोड़ा स्पष्टीकरण भी जोड़ देताहूँ। यह तुम्हारे मस्तिष्क को आराम देगा, तुम्हें महसूस होगा[ख] कि यह कुछ सरल है जिसके लिए बहुत विचार की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, यद्यपि कई वचन हैं, उनमें परमेश्वर का केवल एक ही उद्देश्य समाविष्ट है: इन प्रश्नों के माध्यम से लोगों की निष्ठा प्राप्त करना। लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप से कहना उचित नहीं है, इसलिए परमेश्वर एक बार पुनः प्रश्नों को काम में लाता है। हालाँकि, स्वर विशेष रूप से नरम होता है, शुरुआत में जो था उससे बहुत भिन्न। यद्यपि उनसे परमेश्वर के द्वारा प्रश्न किए जा रहे हैं, इस तरह का अंतर लोगों के लिए थोड़ी राहत लाता है। तुम भी प्रत्येक प्रश्न को एक-एक करके पढ़ सकते हो; क्या इन चीजों को अतीत में प्रायः संदर्भित नहीं किया जाता था? इन कुछ प्रश्नों में समृद्ध सामग्री है, कुछ लोगों की मानसिकता का वर्णन हैं: "क्या तुम पृथ्वी पर ऐसे जीवन का आनंद लेने के इच्छुक हो जो स्वर्ग में जीवन के सदृश है?" कुछ परमेश्वर के सामने लोगों की "योद्धा की शपथ" हैं: “क्या तुम लोग सचमुच स्वयं को, एक भेड़ के समान, मेरे द्वारा तुम लोगों को मार दिए जाने और अगुआई किए जाने की अनुमति देने में समर्थ हो? " और उनमें से कुछ परमेश्वर की मनुष्य के बारे में अपेक्षाएँ हैं: "यदि मैं सीधे तौर पर तुम से न बोलता, तो क्या तुम अपने आसपास की सब चीजों का त्याग कर स्वयं को मुझे उपयोग करने दे सकते थे? क्या यही वह वास्तविकता नहीं जिसकी मैं अपेक्षा करता हूँ? … " या मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रोत्साहन और आश्वासन: “फिर भी मैं कहता हूँ कि तुम लोग गलतफहमी में अब और न पड़ना, कि तुम लोग अपने प्रवेश में अग्रसक्रिय बनो और मेरे वचनों के सार को ग्रहण करो। यह तुम लोगों को मेरे वचनों के मिथ्याबोध से और मेरे अर्थ को अस्पष्ट होने से बचाएगा और इस प्रकार मेरे प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने से बचाएगा।" अंत में, परमेश्वर मनुष्य के लिए अपनी उम्मीदों की बात करता है: "मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग मेरे वचनों में तुम लोगों के लिए मेरे इरादों को ग्रहण करो। अपनी भविष्य की संभावनाओं का और अधिक विचार मत करो, और उस तरह से कार्य करो जैसे तुम लोगों ने मेरे सम्मुख संकल्प लिया है कि सभी को परमेश्वर की दया पर निर्भर रहना चाहिए।" अंतिम प्रश्न का गहन अर्थ है। यह विचारोत्तेजक है, यह लोगों के हृदय पर स्वयं की छाप डालता है और इसे भुलाना कठिन है, उनके कानों से लटकी एक घंटी की तरह निरंतर बजता रहता है ...
उपरोक्त स्पष्टीकरण के कुछ वचन हैं जो तुम्हारे संदर्भ के उपयोग के लिए हैं।
Source From:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें