मनुष्य ने परमेश्वर के वचन से कभी भी कुछ नहीं सीखा है। इसके बजाय, मनुष्य परमेश्वर के वचन की केवल सतह को ही सँजोए रखता है, किन्तु इसके सही अर्थ को नहीं जानता है। इसलिए, यद्यपि अधिकांश लोग परमेश्वर के वचन से प्रेम करते हैं, फिर भी परमेश्वर कहता है कि वे वास्तव में इसे सँजोए नहीं रखते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के दृष्टिकोण में, भले ही उसका वचन एक मूल्यवान वस्तु है, फिर भी लोगों ने इसकी सच्ची मिठास को नहीं चखा है।
इसलिए, वे केवल "बेर के फलों के विचारों से अपनी प्यास बुझा सकते हैं,"[क] और इस तरह अपने लालची हृदय को शांत कर सकते हैं। परमेश्वर का आत्मा न केवल सभी लोगों के बीच कार्य में लगा है, बल्कि इसमें परमेश्वर के वचन की प्रबुद्धता भी है। बात सिर्फ इतनी है कि लोग इतने लापरवाह हैं कि वास्तव में इसके सार की सराहना करने में अक्षम हैं। मनुष्य के मन में, यह राज्य का युग है जो अब पूरी तरह से महसूस किया जा रहा है, किन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं है। यद्यपि परमेश्वर उसी की भविष्यवाणी करता है जो उसने पूरा किया है, वास्तविक राज्य अभी तक पूरी तरह से पृथ्वी पर नहीं आया है। बजाय, मानवजाति में परिवर्तन के साथ, कार्य में प्रगति के साथ, पूर्व से आती हुई चमकती बिजली के साथ, अर्थात्, परमेश्वर के वचन के गहरे होते जाने के साथ, राज्य धीरे धीरे पृथ्वी पर आएगा, धीरे-धीरे किन्तु पूरी तरह से पृथ्वी पर आ जाएगा। राज्य के आने की प्रक्रिया पृथ्वी पर दिव्य कार्य की प्रक्रिया भी है। इसी के साथ-साथ, परमेश्वर ने पूरी पृथ्वी के पुनर्गठन के लिए पूरे ब्रह्माण्ड में उस कार्य को आरंभ कर दिया है जो कि इतिहास के किसी भी युग में नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, इजरायल राज्य में परिवर्तन, संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्यविप्लव, मिस्र में परिवर्तन, सोवियत संघ में परिवर्तन, और चीन में तख्तापलट सहित, संपूर्ण ब्रह्मांड में भारी परिवर्तन हैं। जब पूरा ब्रह्मांड शांत हो जाता है और सामान्य रूप से बहाल हो जाता है, तभी पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पूरा होगा; तभी राज्य पृथ्वी पर आएगा। यही "जब विश्व के सभी राष्ट्र तितर-बितर हो जाते हैं, यह ठीक तब होगा जब मेरा राज्य स्थापित होकर आकार ले लेगा और साथ ही जब मैं भी रूपान्तरित होकर समस्त विश्व की ओर मुड़ूँगा।" इन वचनों का सही अर्थ है। परमेश्वर मानवजाति से कुछ भी नहीं छुपाता है, उसने लगातार अपनी समृद्धि के बारे में लोगों को बताया है, किन्तु वे उसका अर्थ नहीं समझ सकते हैं, वे केवल मूर्ख की तरह उसके वचन को स्वीकार करते हैं। कार्य के इस चरण पर, मनुष्य ने परमेश्वर की अगाधता को सीखा है और इसके अलावा वह महसूस कर सकता है कि उसे समझने का कार्य कितना विशाल है; इस कारण से उन्होंने महसूस किया है कि परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे कठिन कार्य है। वे पूरी तरह से असहाय हैं—यह एक सुअर को गाना सिखाने जैसा है, या चूहेदानी में फँसे किसी चूहे की तरह है। निस्संदेह, इस बात की परवाह किए बिना कि किसी व्यक्ति के पास कितनी सामर्थ्य है या किसी व्यक्ति का कौशल कितना निपुण है, या चाहे किसी व्यक्ति के अंदर असीम क्षमताएँ हैं, जब परमेश्वर के वचन की बात आती है, तो ये बातें कोई मायने नहीं रखती हैं। यह ऐसा है मानो कि परमेश्वर की नज़रों में मानवजाति, किसी भी मूल्य से पूरी तरह से रहित, जले हुए कागज़ की राख का ढेर है, उपयोग की तो बात ही छोड़ो। यही "मनुष्य की भ्रष्टता के साथ मैं मनुष्यों से और भी अधिक छिप गया हूँ उनके लिए अधिक से अधिक अथाह बन गया हूँ" वचनों के सही अर्थ का परिपूर्ण उदाहरण है। इससे यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य प्राकृतिक अनुक्रम का अनुसरण करता है और मानव के बोधात्मक अंग क्या समझ सकते हैं इसके आधार पर किया जाता है। जब मानवजाति का स्वभाव दृढ़ और अविचलित होता है, तो परमेश्वर जिन वचनों को बोलता है वे पूरी तरह से उनकी धारणाओं के अनुरूप होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो कि परमेश्वर और मानवजाति की धारणाएँ, बिना किसी अंतर के, बिल्कुल एक जैसी हैं। यह लोगों को परमेश्वर की वास्तविकता के बारे में कुछ-कुछ अवगत कराता है, किन्तु यह परमेश्वर का प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। परमेश्वर धरती पर अपना सच्चा कार्य शुरू करने से पहले लोगों को औपचारिक रूप से बसने की अनुमति देता है। इसलिए, इस शुरुआत के दौरान जो कि मानवजाति के लिए भ्रामक है, मानवजाति को महसूस होता है कि उसके पूर्व के विचार गलत थे और परमेश्वर और मनुष्य स्वर्ग और पृथ्वी के समान भिन्न हैं और बिल्कुल भी समान नहीं हैं। क्योंकि मनुष्य की धारणाओं के आधार पर परमेश्वर के वचनों का अब और मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, इसलिए मनुष्य तुरंत एक नई रोशनी में परमेश्वर को देखना शुरू कर देता है, और उसके बाद वे विस्मय से परमेश्वर को टकटकी लगा कर देखते हैं, मानो कि व्यावहारिक परमेश्वर उतना ही अगम्य है जितना कि अदृश्य और अस्पृश्य परमेश्वर है, मानो कि परमेश्वर का देह केवल बाह्य रूप से और उसके सार के बिना है। लोगों को लगता है कि[ख] यद्यपि वह पवित्रात्मा का देहधारण है, फिर भी वह पवित्रात्मा के रूप में परिवर्तित हो सकता है और किसी भी समय बह कर दूर जा सकता है। इसलिए, लोगों ने कुछ-कुछ संरक्षित मानसिकता विकसित कर ली है। परमेश्वर के उल्लेख पर, लोग उसे अपनी धारणाओं के वस्त्र पहनाते हैं, यह कहते हैं कि वह बादलों और कोहरे पर सवारी कर सकता है, पानी पर चल सकता है, मनुष्य के बीच अचानक प्रकट हो सकता है और गायब हो सकता है, और कुछ अन्य लोगों के पास और भी अधिक वर्णनात्मक स्पष्टीकरण भी हैं। मानवजाति की अज्ञानता और अंतर्दृष्टि के अभाव की वजह से, परमेश्वर ने कहा "जब वे मानते हैं कि उन्होंने मेरा विरोध किया है या मेरी प्रशासनिक राजाज्ञा का अपमान किया है, तो मैं तब भी अपनी आँख मूँद लेता हूँ।"
इसलिए, वे केवल "बेर के फलों के विचारों से अपनी प्यास बुझा सकते हैं,"[क] और इस तरह अपने लालची हृदय को शांत कर सकते हैं। परमेश्वर का आत्मा न केवल सभी लोगों के बीच कार्य में लगा है, बल्कि इसमें परमेश्वर के वचन की प्रबुद्धता भी है। बात सिर्फ इतनी है कि लोग इतने लापरवाह हैं कि वास्तव में इसके सार की सराहना करने में अक्षम हैं। मनुष्य के मन में, यह राज्य का युग है जो अब पूरी तरह से महसूस किया जा रहा है, किन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं है। यद्यपि परमेश्वर उसी की भविष्यवाणी करता है जो उसने पूरा किया है, वास्तविक राज्य अभी तक पूरी तरह से पृथ्वी पर नहीं आया है। बजाय, मानवजाति में परिवर्तन के साथ, कार्य में प्रगति के साथ, पूर्व से आती हुई चमकती बिजली के साथ, अर्थात्, परमेश्वर के वचन के गहरे होते जाने के साथ, राज्य धीरे धीरे पृथ्वी पर आएगा, धीरे-धीरे किन्तु पूरी तरह से पृथ्वी पर आ जाएगा। राज्य के आने की प्रक्रिया पृथ्वी पर दिव्य कार्य की प्रक्रिया भी है। इसी के साथ-साथ, परमेश्वर ने पूरी पृथ्वी के पुनर्गठन के लिए पूरे ब्रह्माण्ड में उस कार्य को आरंभ कर दिया है जो कि इतिहास के किसी भी युग में नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, इजरायल राज्य में परिवर्तन, संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्यविप्लव, मिस्र में परिवर्तन, सोवियत संघ में परिवर्तन, और चीन में तख्तापलट सहित, संपूर्ण ब्रह्मांड में भारी परिवर्तन हैं। जब पूरा ब्रह्मांड शांत हो जाता है और सामान्य रूप से बहाल हो जाता है, तभी पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पूरा होगा; तभी राज्य पृथ्वी पर आएगा। यही "जब विश्व के सभी राष्ट्र तितर-बितर हो जाते हैं, यह ठीक तब होगा जब मेरा राज्य स्थापित होकर आकार ले लेगा और साथ ही जब मैं भी रूपान्तरित होकर समस्त विश्व की ओर मुड़ूँगा।" इन वचनों का सही अर्थ है। परमेश्वर मानवजाति से कुछ भी नहीं छुपाता है, उसने लगातार अपनी समृद्धि के बारे में लोगों को बताया है, किन्तु वे उसका अर्थ नहीं समझ सकते हैं, वे केवल मूर्ख की तरह उसके वचन को स्वीकार करते हैं। कार्य के इस चरण पर, मनुष्य ने परमेश्वर की अगाधता को सीखा है और इसके अलावा वह महसूस कर सकता है कि उसे समझने का कार्य कितना विशाल है; इस कारण से उन्होंने महसूस किया है कि परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे कठिन कार्य है। वे पूरी तरह से असहाय हैं—यह एक सुअर को गाना सिखाने जैसा है, या चूहेदानी में फँसे किसी चूहे की तरह है। निस्संदेह, इस बात की परवाह किए बिना कि किसी व्यक्ति के पास कितनी सामर्थ्य है या किसी व्यक्ति का कौशल कितना निपुण है, या चाहे किसी व्यक्ति के अंदर असीम क्षमताएँ हैं, जब परमेश्वर के वचन की बात आती है, तो ये बातें कोई मायने नहीं रखती हैं। यह ऐसा है मानो कि परमेश्वर की नज़रों में मानवजाति, किसी भी मूल्य से पूरी तरह से रहित, जले हुए कागज़ की राख का ढेर है, उपयोग की तो बात ही छोड़ो। यही "मनुष्य की भ्रष्टता के साथ मैं मनुष्यों से और भी अधिक छिप गया हूँ उनके लिए अधिक से अधिक अथाह बन गया हूँ" वचनों के सही अर्थ का परिपूर्ण उदाहरण है। इससे यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य प्राकृतिक अनुक्रम का अनुसरण करता है और मानव के बोधात्मक अंग क्या समझ सकते हैं इसके आधार पर किया जाता है। जब मानवजाति का स्वभाव दृढ़ और अविचलित होता है, तो परमेश्वर जिन वचनों को बोलता है वे पूरी तरह से उनकी धारणाओं के अनुरूप होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो कि परमेश्वर और मानवजाति की धारणाएँ, बिना किसी अंतर के, बिल्कुल एक जैसी हैं। यह लोगों को परमेश्वर की वास्तविकता के बारे में कुछ-कुछ अवगत कराता है, किन्तु यह परमेश्वर का प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। परमेश्वर धरती पर अपना सच्चा कार्य शुरू करने से पहले लोगों को औपचारिक रूप से बसने की अनुमति देता है। इसलिए, इस शुरुआत के दौरान जो कि मानवजाति के लिए भ्रामक है, मानवजाति को महसूस होता है कि उसके पूर्व के विचार गलत थे और परमेश्वर और मनुष्य स्वर्ग और पृथ्वी के समान भिन्न हैं और बिल्कुल भी समान नहीं हैं। क्योंकि मनुष्य की धारणाओं के आधार पर परमेश्वर के वचनों का अब और मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, इसलिए मनुष्य तुरंत एक नई रोशनी में परमेश्वर को देखना शुरू कर देता है, और उसके बाद वे विस्मय से परमेश्वर को टकटकी लगा कर देखते हैं, मानो कि व्यावहारिक परमेश्वर उतना ही अगम्य है जितना कि अदृश्य और अस्पृश्य परमेश्वर है, मानो कि परमेश्वर का देह केवल बाह्य रूप से और उसके सार के बिना है। लोगों को लगता है कि[ख] यद्यपि वह पवित्रात्मा का देहधारण है, फिर भी वह पवित्रात्मा के रूप में परिवर्तित हो सकता है और किसी भी समय बह कर दूर जा सकता है। इसलिए, लोगों ने कुछ-कुछ संरक्षित मानसिकता विकसित कर ली है। परमेश्वर के उल्लेख पर, लोग उसे अपनी धारणाओं के वस्त्र पहनाते हैं, यह कहते हैं कि वह बादलों और कोहरे पर सवारी कर सकता है, पानी पर चल सकता है, मनुष्य के बीच अचानक प्रकट हो सकता है और गायब हो सकता है, और कुछ अन्य लोगों के पास और भी अधिक वर्णनात्मक स्पष्टीकरण भी हैं। मानवजाति की अज्ञानता और अंतर्दृष्टि के अभाव की वजह से, परमेश्वर ने कहा "जब वे मानते हैं कि उन्होंने मेरा विरोध किया है या मेरी प्रशासनिक राजाज्ञा का अपमान किया है, तो मैं तब भी अपनी आँख मूँद लेता हूँ।"
जब परमेश्वर मानवजाति के कुरूप पक्ष और उसकी आंतरिक दुनिया को प्रकट करता है, तो वह, जरा से भी विचलन के बिना, सचमुच में पूर्णतः सही होता है। यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि इसमें कुछ भी त्रुटि नहीं होती है। यह वो सबूत है जो पूरी तरह से लोगों को मनाता है। परमेश्वर के कार्य के सिद्धांत की वजह से, उसके कई वचन और कर्म ऐसी छाप छोड़ते हैं जिसे मिटाना असंभव है, और लोगों को उसके बारे में गहरी समझ होती हुई प्रतीत होती है, मानो कि वे उन चीज़ों को खोज लेते हैं जो उसमें अधिक मूल्यवान है। "उनकी स्मृति में, मैं ऐसा परमेश्वर हूँ जो मनुष्यों को ताड़ित करने की अपेक्षा उन पर दया दिखाता है, या मैं परमेश्वर स्वयं हूँ जिसके कहने का आशय वह नहीं होता जो वो कहता है। ये सब मनुष्यों के विचारों में जन्मी कल्पनाएँ हैं और ये तथ्यों के अनुसार नहीं है।" यद्यपि मानवजाति ने परमेश्वर के वास्तविक चेहरे को कभी महत्व नहीं दिया है, फिर भी वे "उसके स्वभाव के पार्श्व पक्ष" को बहुत अच्छी प्रकार से जानते हैं; वे हमेशा परमेश्वर के वचनों और कार्यों में दोष निकालते रहते हैं। इसका कारण यह है कि मानवजाति, परमेश्वर के कर्मों को केवल निम्नतर समझते हुए, हमेशा नकारात्मक चीजों पर ध्यान देने और सकारात्मक चीजों की उपेक्षा करने के लिए तैयार रहती है। परमेश्वर जितना अधिक कहता है कि वह विनम्रतापूर्वक अपने निवास स्थान में खुद को छुपाता है, उतना ही अधिक मानवजाति उससे अपेक्षा करती है। वे कहते हैं: "यदि देहधारी परमेश्वर मनुष्य के हर कर्म को देख रहा है और मानव जीवन का अनुभव ले रहा है, तो ऐसा क्यों है कि अधिकांश समय परमेश्वर हमारी वास्तविक स्थिति के बारे में नहीं जानता है। क्या इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर सचमुच छुपा हुआ है?" यद्यपि परमेश्वर मानव हृदय में गहराई से देखता है, तब भी वह, अस्पष्ट और अलौकिक ना होते हुए, मानवजाति की वास्तविक स्थिति के अनुसार कार्य करता है। मानवजाति के भीतर के पुराने स्वभाव से पूरी तरह से छुटकारा पाने के लिए, परमेश्वर ने विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से बोलने का कोई प्रयास नहीं छोड़ा है: उनकी वास्तविक प्रकृति को अनावृत करना, उनकी अवज्ञा पर न्याय घोषित करना; एक पल कहना कि वह सभी लोगों के साथ निपटेगा, और अगले पल कहना कि वह लोगों के एक समूह को बचाएगा; या तो मानवजाति पर अपेक्षाएँ रखना है या उन्हें चेतावनी देना; बारी-बारी से उनके भीतरी भाग का विश्लेषण करना, बारी-बारी से उपाय प्रदान करना। इस प्रकार, परमेश्वर के वचन के मार्गदर्शन के अधीन, ऐसा लगता है मानो कि मानवजाति ने पृथ्वी के हर कोने में यात्रा की हो और एक भरे-पूरे उद्यान में प्रवेश किया हो जहाँ प्रत्येक फूल सबसे सुंदर होने के लिए स्पर्धा करता हो। परमेश्वर जो कुछ भी कहेगा मानवजाति उसके वचन में प्रवेश करेगी, ठीक वैसे जैसे कि परमेश्वर कोई चुंबक हो और लोहे वाली कोई चीज़ उसकी ओर आकर्षित हो जाएगी। जब वे "मानवजाति मुझ पर कोई ध्यान नहीं देती है, इसलिए मैं भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेता हूँ। मनुष्य मुझ पर कोई ध्यान नहीं देता है, इसलिए मुझे भी उन पर प्रयास लगाने की आवश्यकता नहीं है। क्या दोनों संसारों का यही सर्वोत्तम नहीं है?" इन वचनों को देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के सभी लोगों को, पूरी तरह से भयभीत करते हुए, फिर से अथाह गड्ढे में धक्का दे दिया गया हो या फिर से उनके मर्म स्थल पर चोट की हो, और इस तरह वे फिर से मेरे कार्य करने की पद्धति में फिर से प्रवेश करते हैं।[ग] वे विशेष रूप से "यदि, राज्य में मेरे लोगों में से एक के रूप में, तुम लोग अपने कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ हो, तो तुम लोग मेरे द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत कर दिए जाओगे!" वचन के संबंध में भ्रमित होते हैं। अधिकांश लोगों के हृदयविदारक आँसू आ जाते हैं: "अथाह गड्ढे में से चढ़ कर बाहर निकलना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, इसलिए यदि मैं इसमें फिर से गिर जाऊँ तो मुझे बिल्कुल भी आशा नहीं होगी। मुझे, अपने जीवन में हर तरह की कठिनाइयों और परेशानियों से गुज़र कर, मानव जीवन में कुछ भी नहीं मिला है। विशेष रूप से, आस्था में आने के बाद, मैं अपने प्रियजनों से परित्याग, परिवारों से उत्पीड़न, संसारिक लोगों से लांछन से गुजरा, और मैंने दुनिया की खुशी का आनंद नहीं उठाया। यदि मैं फिर से अथाह गड्ढे में गिरता हूँ, तो क्या मेरी ज़िन्दगी और भी अधिक व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" (मनुष्य जितना अधिक इस बारे में सोचता है वह उतना ही अधिक दुःखी होता है।) "मेरी सभी उम्मीदें परमेश्वर के हाथों में सौंप दी गई हैं। यदि परमेश्वर मेरा परित्याग करता है, तो इससे अच्छा कि मैं अभी मर जाऊँ ...। ठीक है, सभी कुछ परमेश्वर ने पूर्वनियत किया है, अब मैं केवल परमेश्वर से प्यार करने की कोशिश कर सकता हूँ, अन्य सब कुछ गौण है। मेरा ऐसा भाग्य किसने बनाया?" मनुष्य जितना अधिक सोचते हैं, वे परमेश्वर के मानकों और उसके वचनों के उद्देश्य के उतना ही अधिक करीब होते हैं। इस तरह से उसके वचनों का उद्देश्य प्राप्त होता है। जब मनुष्य परमेश्वर के वचनों को देखते हैं उसके बाद, उन सभी के भीतर एक वैचारिक संघर्ष होता है। उनका एकमात्र विकल्प भाग्य के आदेशों के प्रति समर्पण करना है, और इस तरह से परमेश्वर का उद्देश्य प्राप्त होता है। परमेश्वर के वचन जितना अधिक कठोर होते हैं, परिणामस्वरूप उतनी ही अधिक जटिल मानवजाति की आंतरिक दुनिया बन जाती है। यह किसी घाव को स्पर्श करने जैसा है; जितना कस कर इसे स्पर्श किया जाता है उतना ही अधिक दर्द पहुँचाता है, इस हद तक कि वे जीवन और मृत्यु के बीच मँडराते हैं और यहाँ तक कि जीवित बचे रहने का विश्वास भी खो देते हैं। इस तरह, जब मानवजाति सबसे अधिक पीड़ित होती है और निराशा की गहराईयों में होती है केवल तभी वे अपने सच्चे हृदय परमेश्वर को सौंप सकते हैं। मानवजाति की प्रकृति है ऐसी है कि यदि यदि लेशमात्र भी आशा बची रहती है तो वे सहायता के लिए परमेश्वर के पास नहीं जाएँगे, बल्कि प्राकृतिक उत्तरजीविता के आत्मनिर्भर तरीके अपनाएँगे। इसका कारण यह है कि मानवजाति की प्रकृति दंभी है, और वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं। इसलिए, परमेश्वर ने कहा: "एक भी मनुष्य सुख में होने के समय मुझसे प्रेम करने में समर्थ नहीं है। एक भी व्यक्ति अपने शांति और आनंद के समय में नहीं पहुँचा है ताकि मैं उनकी खुशी में सहभागी हो सकूँ।" यह निस्संदेह निराशाजनक है: परमेश्वर ने मानवजाति बनाई, किन्तु जब वह मानव दुनिया में आता है, तो वे उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, उसे अपने इलाके से निकाल देते हैं, मानो कि वह कोई भटकता हुआ अनाथ हो, या दुनिया में एक राज्यविहीन व्यक्ति हो। कोई भी परमेश्वर से अनुरक्त महसूस नहीं करता है, कोई भी वास्तव में उसे प्यार नहीं करता है, किसी ने भी उसके आने का स्वागत नहीं किया है। इसके बजाय, जब वे परमेश्वर के आगमन को देखते हैं, तो उनके हर्षित चेहरे पलक झपकते ही उदास हो जाते हैं, मानो कि अचानक कोई तूफान आ रहा हो, मानो कि परमेश्वर उनके परिवार की खुशियों को छीन लेगा, मानो कि परमेश्वर ने मानवजाति को कभी भी आशीष नहीं दिया हो, बल्कि इसके बजाय मानवजाति को केवल दुर्भाग्य ही दिया हो। इसलिए, मानवजाति के मन में, परमेश्वर उनके लिए कोई वरदान नहीं है, बल्कि कोई ऐसा है जो हमेशा उन्हें शाप देता है; इसलिए, मानवजाति उस पर ध्यान नहीं देती है, वे उसका स्वागत नहीं करते हैं, वे उसके प्रति हमेशा उदासीन रहते हैं, और यह कभी भी नहीं बदला है। क्योंकि मानवजाति के हृदय में ये बातें हैं, इसलिए परमेश्वर कहता है कि मानवजाति अतर्कसंगत और अनैतिक है, और यहाँ तक कि उन भावनाओं को भी उनमें महसूस नहीं किया जा सकता है जिनसे मनुष्यों को सुसज्जित होना माना जा सकता है। मानवजाति परमेश्वर की भावनाओं के लिए कोई मान नहीं दिखाती है, किन्तु परमेश्वर से निपटने के लिए तथाकथित "धार्मिकता" का उपयोग करती है। मानवजाति कई वर्षों से इसी तरह की है और इस कारण से परमेश्वर ने कहा है कि उनका स्वभाव नहीं बदला है। यह दिखाता है कि उनके पास कुछ पंखों से अधिक सार नहीं है। ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य मूल्यहीन अभागे हैं क्योंकि वे स्वयं को नहीं सँजोए रखते हैं। यदि वे स्वयं से भी प्यार नहीं करते हैं, किन्तु स्वयं को ही रौंदते हैं, तो क्या यह इस बात को नहीं दर्शाता है कि वे मूल्यहीन हैं? मानवजाति एक अनैतिक स्त्री की तरह है जो स्वयं के साथ खेल खेलती है और जो दूषित किए जाने के लिए स्वेच्छा से स्वयं को दूसरों को देती है। किन्तु फिर भी, वे अब भी नहीं जानते हैं कि वे कितने अधम हैं। उन्हें दूसरों के लिए कार्य करने, या दूसरों के साथ बातचीत करने, स्वयं को दूसरों के नियंत्रण के अधीन करने में खुशी मिलती है; क्या यह वास्तव में मानवजाति की गंदगी नहीं है? यद्यपि मैं मानवजाति के बीच किसी जीवन से नहीं गुज़रा हूँ, मुझे वास्तव में मानव जीवन का अनुभव नहीं रहा है, फिर भी मुझे मनुष्य की हर हरकत, उसके हर क्रिया-कलाप, हर वचन और हर कर्म हर की बहुत स्पष्ट समझ है। मैं मानवजाति को उसकी गहरी शर्मिंदगी तक उजागर करने में भी सक्षम हूँ, इस हद तक कि वे अपनी चालाकियाँ दिखाने का और अपनी वासना को मार्ग देने का अब और साहस नहीं करते हैं। घोंघे की तरह, जो अपने खोल में शरण ले लेता है, वे अपनी स्वयं की बदसूरत स्थिति को उजागर करने का अब और साहस नहीं करते हैं। क्योंकि मानवजाति स्वयं को नहीं जानती है, इसलिए उनका सबसे बड़ा दोष अपने आकर्षण का दूसरों के सामने स्वेच्छा से जुलूस निकालना है, अपने कुरूप चेहरे का जूलूस निकालना है; यह कुछ ऐसा है जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है। क्योंकि लोगों के बीच संबंध असामान्य हैं, और लोगों के बीच कोई सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं हैं, इसलिए परमेश्वर के साथ उनका सामान्य[घ] संबंध तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर ने बहुत अधिक कहा है, और ऐसा करने में उसका मुख्य उद्देश्य मानवजाति के हृदय में एक स्थान को अधिकार में लेना है, लोगों को उनके हृदय की सभी मूर्तियों से छुटकारा दिलवाना है, ताकि परमेश्वर समस्त मानवजाति पर सामर्थ्य का उपयोग कर सके और पृथ्वी पर होने का अपना उद्देश्य प्राप्त कर सके।
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