अनुग्रह के युग में, यूहन्ना ने यीशु का मार्ग प्रशस्त किया। वह स्वयं परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकता था और उसने मात्र मनुष्य का कर्तव्य पूरा किया था। यद्यपि यूहन्ना प्रभु का अग्रदूत था, फिर भी वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था; वह आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया मात्र एक मनुष्य था। यीशु के बपतिस्मा के बाद "पवित्र आत्मा कबूतर के समान उस पर उतरा।" तब उसने अपना काम आरम्भ किया, अर्थात्, उसने मसीह की सेवकाई करना प्रारम्भ किया। इसीलिए उसने परमेश्वर की पहचान को अपनाया, क्योंकि वह परमेश्वर से आया था।
इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इससे पहले उसका विश्वास कैसा था—कदाचित् कभी-कभी यह दुर्बल था, या कभी-कभी यह मज़बूत था—अपनी सेवकाई को करने से पहले यह सब उसका सामान्य मानव जीवन था। उसका बपतिस्मा (अभिषेक) होने के पश्चात्, उसके पास तुरन्त ही परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा थी, और इस प्रकार उसने अपनी सेवकाई आरंभ की। वह चिह्न और अद्भुत काम कर सकता था, चमत्कार कर सकता था, उसके पास सामर्थ्य और अधिकार था, क्योंकि वह सीधे स्वयं परमेश्वर की ओर से काम करता था; उसने पवित्र आत्मा के बदले में उसका काम किया और पवित्रात्मा की आवाज़ को व्यक्त किया; इसलिए वह स्वयं परमेश्वर था। यह निर्विवादित है। पवित्र आत्मा के द्वारा यूहन्ना का उपयोग किया गया था। वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, और परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना उसके लिए सम्भव नहीं था। यदि उसने ऐसा करने की इच्छा की होती, तो पवित्र आत्मा ने इसकी अनुमति नहीं दी होती, क्योंकि वह उस काम को नहीं कर सकता था जिसे परमेश्वर ने स्वयं सम्पन्न करने का इरादा किया था। कदाचित् उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो मनुष्यों की इच्छा का था, या उसमें कुछ विसामान्य था; वह किसी भी परिस्थिति में प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। उसकी अशुद्धि और ग़लतियाँ केवल उसका ही प्रतिनिधित्व करती थीं, किन्तु उसका काम पवित्र आत्मा का प्रतिनिधि था। फिर भी, तुम नहीं कह सकते हो कि उसका सर्वस्व परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। क्या उसकी विसामान्यता और ग़लती परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है? मनुष्य का प्रतिनिधित्व करने में त्रुटि होना सामान्य है, परन्तु यदि परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में उसमें विसामान्यता होती है, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति अनादर नहीं होगा? क्या वह पवित्र आत्मा के विरुद्ध ईशनिंदा नहीं होगी? पवित्र आत्मा मनुष्य को इच्छानुसार परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने की अनुमति नहीं देता है, भले ही दूसरों के द्वारा उसे बड़ा ठहराया गया हो। यदि वह परमेश्वर नहीं है, तो वह अंत में खड़े रहने में असमर्थ होगा। पवित्र आत्मा मनुष्य को जैसा मनुष्य चाहे वैसे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं देता है! उदाहरण के लिए, पवित्र आत्मा ने यूहन्ना की गवाही दी और उसे यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाला व्यक्ति भी प्रकट किया, परन्तु पवित्र आत्मा के द्वारा उसमें किए गए कार्य को अच्छी तरह से मापा गया था। यूहन्ना से कुल इतना कहा गया था कि वह यीशु के लिए मार्ग तैयार करने वाला बने, उसके लिए मार्ग तैयार करे। कहने का अभिप्राय है, कि पवित्र आत्मा ने केवल मार्ग बनाने में उसके कार्य का समर्थन किया था और केवल इसी प्रकार के कार्य को करने की उसे अनुमति दी, अन्य कोई कार्य नहीं। यूहन्ना ने एलिय्याह का प्रतिनिधित्व किया था, वह भविष्यद्वक्ता जिसने मार्ग प्रशस्त किया था। पवित्र आत्मा के द्वारा इसका समर्थन किया गया था; जब तक उसका कार्य मार्ग प्रशस्त करने का था, तब तक पवित्र आत्मा ने इसका समर्थन किया। हालाँक, यदि उसने दावा किया होता कि वह स्वयं परमेश्वर है और छुटकारे के कार्य को पूरा करने के लिए आया है, तो पवित्र आत्मा अवश्य उसे अनुशासित करता। यूहन्ना का काम चाहे जितना भी बड़ा था, और चाहे पवित्र आत्मा ने उसे समर्थन दिया था, फिर भी उसका काम सीमाओं के अंतर्गत रहा था। यह वास्तव में सत्य है कि पवित्र आत्मा के द्वारा उसके कार्य का समर्थन किया गया था, परन्तु उस समय उसे जो सामर्थ्य दी गई थी वह केवल उसके मार्ग तैयार करने तक ही सीमित थी। वह अन्य कोई काम बिल्कुल नहीं कर सकता था, क्योंकि वह सिर्फ यूहन्ना था जिसने मार्ग प्रशस्त किया था, और वह यीशु नहीं था। इसलिए, पवित्र आत्मा की गवाही मुख्य है, किन्तु वह कार्य जिसको करने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा मनुष्य को अनुमति दी गई है वह और भी अधिक महत्वपूर्ण है। क्या यूहन्ना की बड़ी गवाही नहीं दी गई थी? क्या उसका काम भी महान नहीं था? किन्तु जो काम उसने किया वह यीशु के काम से बढ़ कर नहीं हो सका, क्योंकि वह पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने वाले व्यक्ति से अधिक नहीं था और वह सीधे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, और इस तरह उसने जो काम किया वह सीमित था। उसके मार्ग प्रशस्त करने का काम समाप्त करने के बाद, किसी ने भी उसकी गवाही को जारी नहीं रखा, कोई भी नया काम फिर उसके बाद नहीं आया, और जब परमेश्वर स्वयं का काम शुरू हुआ तो वह चला गया।
इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इससे पहले उसका विश्वास कैसा था—कदाचित् कभी-कभी यह दुर्बल था, या कभी-कभी यह मज़बूत था—अपनी सेवकाई को करने से पहले यह सब उसका सामान्य मानव जीवन था। उसका बपतिस्मा (अभिषेक) होने के पश्चात्, उसके पास तुरन्त ही परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा थी, और इस प्रकार उसने अपनी सेवकाई आरंभ की। वह चिह्न और अद्भुत काम कर सकता था, चमत्कार कर सकता था, उसके पास सामर्थ्य और अधिकार था, क्योंकि वह सीधे स्वयं परमेश्वर की ओर से काम करता था; उसने पवित्र आत्मा के बदले में उसका काम किया और पवित्रात्मा की आवाज़ को व्यक्त किया; इसलिए वह स्वयं परमेश्वर था। यह निर्विवादित है। पवित्र आत्मा के द्वारा यूहन्ना का उपयोग किया गया था। वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, और परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना उसके लिए सम्भव नहीं था। यदि उसने ऐसा करने की इच्छा की होती, तो पवित्र आत्मा ने इसकी अनुमति नहीं दी होती, क्योंकि वह उस काम को नहीं कर सकता था जिसे परमेश्वर ने स्वयं सम्पन्न करने का इरादा किया था। कदाचित् उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो मनुष्यों की इच्छा का था, या उसमें कुछ विसामान्य था; वह किसी भी परिस्थिति में प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। उसकी अशुद्धि और ग़लतियाँ केवल उसका ही प्रतिनिधित्व करती थीं, किन्तु उसका काम पवित्र आत्मा का प्रतिनिधि था। फिर भी, तुम नहीं कह सकते हो कि उसका सर्वस्व परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। क्या उसकी विसामान्यता और ग़लती परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है? मनुष्य का प्रतिनिधित्व करने में त्रुटि होना सामान्य है, परन्तु यदि परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में उसमें विसामान्यता होती है, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति अनादर नहीं होगा? क्या वह पवित्र आत्मा के विरुद्ध ईशनिंदा नहीं होगी? पवित्र आत्मा मनुष्य को इच्छानुसार परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने की अनुमति नहीं देता है, भले ही दूसरों के द्वारा उसे बड़ा ठहराया गया हो। यदि वह परमेश्वर नहीं है, तो वह अंत में खड़े रहने में असमर्थ होगा। पवित्र आत्मा मनुष्य को जैसा मनुष्य चाहे वैसे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं देता है! उदाहरण के लिए, पवित्र आत्मा ने यूहन्ना की गवाही दी और उसे यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाला व्यक्ति भी प्रकट किया, परन्तु पवित्र आत्मा के द्वारा उसमें किए गए कार्य को अच्छी तरह से मापा गया था। यूहन्ना से कुल इतना कहा गया था कि वह यीशु के लिए मार्ग तैयार करने वाला बने, उसके लिए मार्ग तैयार करे। कहने का अभिप्राय है, कि पवित्र आत्मा ने केवल मार्ग बनाने में उसके कार्य का समर्थन किया था और केवल इसी प्रकार के कार्य को करने की उसे अनुमति दी, अन्य कोई कार्य नहीं। यूहन्ना ने एलिय्याह का प्रतिनिधित्व किया था, वह भविष्यद्वक्ता जिसने मार्ग प्रशस्त किया था। पवित्र आत्मा के द्वारा इसका समर्थन किया गया था; जब तक उसका कार्य मार्ग प्रशस्त करने का था, तब तक पवित्र आत्मा ने इसका समर्थन किया। हालाँक, यदि उसने दावा किया होता कि वह स्वयं परमेश्वर है और छुटकारे के कार्य को पूरा करने के लिए आया है, तो पवित्र आत्मा अवश्य उसे अनुशासित करता। यूहन्ना का काम चाहे जितना भी बड़ा था, और चाहे पवित्र आत्मा ने उसे समर्थन दिया था, फिर भी उसका काम सीमाओं के अंतर्गत रहा था। यह वास्तव में सत्य है कि पवित्र आत्मा के द्वारा उसके कार्य का समर्थन किया गया था, परन्तु उस समय उसे जो सामर्थ्य दी गई थी वह केवल उसके मार्ग तैयार करने तक ही सीमित थी। वह अन्य कोई काम बिल्कुल नहीं कर सकता था, क्योंकि वह सिर्फ यूहन्ना था जिसने मार्ग प्रशस्त किया था, और वह यीशु नहीं था। इसलिए, पवित्र आत्मा की गवाही मुख्य है, किन्तु वह कार्य जिसको करने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा मनुष्य को अनुमति दी गई है वह और भी अधिक महत्वपूर्ण है। क्या यूहन्ना की बड़ी गवाही नहीं दी गई थी? क्या उसका काम भी महान नहीं था? किन्तु जो काम उसने किया वह यीशु के काम से बढ़ कर नहीं हो सका, क्योंकि वह पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने वाले व्यक्ति से अधिक नहीं था और वह सीधे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, और इस तरह उसने जो काम किया वह सीमित था। उसके मार्ग प्रशस्त करने का काम समाप्त करने के बाद, किसी ने भी उसकी गवाही को जारी नहीं रखा, कोई भी नया काम फिर उसके बाद नहीं आया, और जब परमेश्वर स्वयं का काम शुरू हुआ तो वह चला गया।
कुछ ऐसे लोग हैं जो दुष्टात्माओं के द्वारा ग्रसित हैं और लगातार चिल्लाते रहते हैं, "मैं ईश्वर हूँ!" फिर भी अंत में, वे खड़े नहीं रह सकते हैं, क्योंकि वे गलत प्राणी की ओर से काम करते हैं। वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं और पवित्र आत्मा उन पर कोई ध्यान नहीं देता है। तुम अपने आपको कितना भी बड़ा ठहराओ या तुम कितनी भी ताकत से चिल्लाओ, तुम अभी भी एक सृजित प्राणी ही हो और एक ऐसे प्राणी हो जो शैतान से सम्बन्धित है। मैं कभी नहीं चिल्लाता हूँ, कि मैं ईश्वर हूँ, मैं परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ! परन्तु जो कार्य मैं करता हूँ वह परमेश्वर का कार्य है। क्या मुझे चिल्लाने की आवश्यकता है? बड़ा ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर अपना काम स्वयं करता है और उसे मनुष्य से कोई आवश्यकता नहीं है कि वह उसे हैसियत या सम्मानसूचक पदवी प्रदान करें, और उसकी पहचान और हैसियत को दर्शाने के लिए उसका काम ही पर्याप्त है। उसके बपतिस्मा से पहले, क्या यीशु स्वयं परमेश्वर नहीं था? क्या वह परमेश्वर का देहधारी देह नहीं था? निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि केवल उसके लिए गवाही दिए जाने के पश्चात् ही वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र बना गया? क्या उसके द्वारा काम आरम्भ करने से बहुत पहले ही यीशु नाम का कोई व्यक्ति नहीं था? तुम नए मार्ग नहीं ला सकते हो या पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हो। तुम पवित्र आत्मा के कार्य को या उन वचनों को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिन्हें वह कहता है। तुम परमेश्वर स्वयं के या पवित्रात्मा के कार्य को नहीं कर सकते हो। तुम परमेश्वर की बुद्धि, अद्भुत काम, और अगाधता को, या उस सम्पूर्ण स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को ताड़ना देता है। अतः परमेश्वर होने के तुम्हारे बार-बार के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ता है; तुम्हारे पास सिर्फ़ नाम है और सार में से कुछ भी नहीं है। परमेश्वर स्वयं आ गया है, किन्तु कोई भी उसे नहीं पहचाता है, फिर भी वह अपना काम जारी रखता है और पवित्र आत्मा के प्रतिनिधित्व में ऐसा ही करता है। चाहे तुम उसे मनुष्य कहो या परमेश्वर, प्रभु कहो या मसीह, या उसे बहन कहो, सब सही है। परन्तु जिस कार्य को वह करता है वह पवित्रात्मा का है और स्वयं परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। वह उस नाम के बारे में परवाह नहीं करता है जिसके द्वारा मनुष्य उसे पुकारते है। क्या वह नाम उसके काम का निर्धारण कर सकता है? इस बात की परवाह किए बिना कि तुम उसे क्या कहते हो, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारी देह है; वह पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके द्वारा अनुमोदित है। तुम एक नए युग के लिए मार्ग नहीं बना सकते हो, और तुम पुराने युग का समापन नहीं कर सकते हो और एक नए युग का सूत्रपात या नया कार्य नहीं कर सकते हो। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर नहीं कहा जा सकता है!
यहाँ तक कि कोई मनुष्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया जाता है वह भी परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। और न केवल यह व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, बल्कि उसका काम भी सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। करने का अर्थ है, कि मनुष्य के अनुभव को सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है, और यह परमेश्वर के प्रबंधन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। वह समस्त कार्य जिसे परमेश्वर स्वयं करता है वह ऐसा कार्य है जिसे वह अपनी स्वयं की प्रबंधन योजना में करने का इरादा करता है और बड़े प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य (पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया मनुष्य) के द्वारा किया गया कार्य उसके व्यक्तिगत अनुभव की आपूर्ति करता है। वह उस मार्ग से अनुभव का एक नया मार्ग पाता है जिस पर उससे पहले के लोग चले थे और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अधीन अपने भाईयों और बहनों की अगुवाई करता है। जो कुछ ये लोग प्रदान करते हैं वह उनका व्यक्तिगत अनुभव या आध्यात्मिक मनुष्यों की आध्यात्मिक रचनाएँ हैं। यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा उनका उपयोग किया जाता है, फिर भी ऐसे मनुष्यों का कार्य छ:-हज़ार-वर्षों की योजना के बड़े प्रबंधन कार्य से असम्बद्ध है। उन्हें सिर्फ तब तक पवित्र आत्मा की मुख्यधारा में लोगों की अगुवाई करने के लिए विभिन्न अवधियों में पवित्र आत्मा के द्वारा उभारा गया है जब तक कि वे अपने कार्य को पूरा न कर लें या उनकी ज़िन्दगियों का अंत न हो जाए। जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल परमेश्वर स्वयं के लिए एक उचित मार्ग तैयार करने के लिए है या पृथ्वी पर परमेश्वर स्वयं की प्रबंधन योजना में एक अंश को निरन्तर जारी रखने के लिए है। ऐसे मनुष्य उसके प्रबंधन में बड़े-बड़े कार्य करने में असमर्थ होते हैं, और वे नए मार्गों की शुरुआत नहीं कर सकते हैं, और वे पूर्व युग के परमेश्वर के सभी कार्यों का समापन तो बिलकुल भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए, जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल एक सृजित प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है जो अपने कार्यों को क्रियान्वित कर रहा है और स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है जो अपनी सेवकाई को कार्यान्वित कर रहा हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस कार्य को वे करते हैं वह परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए जाने वाले कार्य के असदृश है। एक नए युग के सूत्रपात का कार्य परमेश्वर के स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसे परमेश्वर स्वयं के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और तब किया जाता है जब पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। ऐसे मनुष्य द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन यह होता है कि मनुष्य के दैनिक जीवन में किस प्रकार अभ्यास किया जाए और मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। मनुष्य का कार्य न तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना को सम्मिलित करता है और न ही पवित्रात्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। एक उदाहरण के रूप में, गवाह ली और वॉचमैन नी का कार्य मार्ग की अगुआई करना था। चाहे मार्ग नया हो या पुराना, कार्य बाइबल के सिद्धांतों से अधिक नहीं बढ़ने के आधार पर किया गया था। चाहे स्थानीय कलीसियाओं को पुनर्स्थापित किया गया हो अथवा बनाया गया हो, उनका कार्य कलीसियाओं की स्थापना करना था। जो कार्य उन्होंने किया उसने उस कार्य को आगे बढ़ाया जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने समाप्त नहीं किया था या अनुग्रह के युग में आगे विकसित नहीं किया था। उन्होंने अपने कार्य में जो कुछ किया, वह उसे बहाल करना था जिसे यीशु ने अपने कार्य में अपने बाद की पीढ़ियों से कहा था, जैसे कि अपने सिरों को ढक कर रखना, बपतिस्मा, रोटी साझा करना या वाइन पीना। यह कहा जा सकता है कि उनका कार्य केवल बाइबल का पालन करना था और केवल बाइबल के भीतर से मार्ग तलाशना था। उन्होंने कोई भी नई प्रगति बिल्कुल नहीं की। इसलिए, कोई उनके कार्य में केवल बाइबल के भीतर ही नए मार्गों की खोज, और साथ ही बेहतर और अधिक यथार्थवादी अभ्यासों को देख सकता है। किन्तु कोई उनके कार्य में परमेश्वर की वर्तमान इच्छा को नहीं खोज सकता है, उस कार्य को तो बिल्कुल नहीं खोज सकता है जिसे परमेश्वर अंत के दिनों में करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस मार्ग पर वे चलते थे वह तब भी पुराना था; उसमें कोई प्रगति नहीं थी और कुछ नया नहीं था। उन्होंने "यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने" की वास्तविकता का पालन करना, "लोगों को पश्चाताप करने और अपने पापों को स्वीकार करने के लिए कहने" के अभ्यास, और इस उक्ति "जो अन्त तक सहन करता है बचा लिया जाएगा" और इस उक्ति "पुरुष स्त्री का सिर है" और "स्त्री को अपने पति का आज्ञापालन करना चाहिए" के अभ्यास को जारी रखा। इसके अलावा, उन्होंने परंपरागत धारणा को बनाए रखा कि "बहनें उपदेश नहीं दे सकती हैं, और वे केवल आज्ञापालन कर सकती हैं।" यदि इस तरह की अगुआई जारी रही होती, तो पवित्र आत्मा कभी भी नए कार्य को करने, मनुष्यों को सिद्धांत से मुक्त करने, या मनुष्यों को स्वतंत्रता और सुंदरता के क्षेत्र में ले जाने में समर्थ नहीं होता। इसलिए, युगों के परिवर्तन के लिए कार्य का यह चरण स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया और बोला जाना चाहिए, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके स्थान पर ऐसा नहीं कर सकता है। अभी तक, इस धारा के बाहर पवित्र आत्मा का समस्त कार्य एकदम रुक गया है, और जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया गया था वे दिग्भ्रमित हो गए हैं। इसलिए, चूँकि पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए गए कार्य के असदृश है, इसलिए उनकी पहचान और वे जिनकी ओर से कार्य करते हैं वे भी उसी तरह से भिन्न हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा जिस कार्य को करने का इरादा करता है वह भिन्न है, फलस्वरूप कार्य करने वाले सभी को अलग-अलग पहचानें और हैसियतें प्रदान की जाती है। पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए लोग भी कुछ कार्य कर सकते हैं जो नया हो और वे पूर्व युग में किये गए कुछ कार्य को हटा भी सकते हैं, किन्तु उनका कार्य नए युग में परमेश्वर के स्वभाव और इच्छा को व्यक्त नहीं कर सकता है। वे केवल पूर्व युग के कार्य को हटाने के लिए कार्य करते हैं, और सीधे तौर पर परमेश्वर स्वयं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई नया कार्य नहीं करते हैं। इस प्रकार, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे पुरानी पड़ चुके कितने अभ्यासों का उन्मूलन करते हैं या वे नए अभ्यासों को आरंभ करते हैं, वे तब भी मनुष्य और सृजित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। फिर भी, जब परमेश्वर स्वयं कार्य को करता है, तो भी, वह प्राचीन युग के अभ्यासों के उन्मूलन की खुलकर घोषणा नहीं करता है या सीधे तौर पर नए युग की शुरुआत की घोषणा नहीं करता है। वह अपने कार्य में प्रत्यक्ष और स्पष्ट है। वह उस कार्य को करने में निष्कपट है जिसका उसने इरादा किया है; अर्थात्, वह उस कार्य को सीधे तौर पर व्यक्त करता है जिसे उसने घटित किया है, वह सीधे तौर पर अपना कार्य करता है जैसा उसने मूलतः इरादा किया था, और अपने अस्तित्व एवं स्वभाव को व्यक्त करता है। जैसा मनुष्य इसे देखता है, उसका स्वभाव और उसी प्रकार उसका कार्य भी बीते युगों के लोगों के असदृश है। हालाँकि, परमेश्वर स्वयं के दृष्टिकोण से, यह मात्र उसके कार्य की निरन्तरता और आगे का विकास है। जब परमेश्वर स्वयं कार्य करता है, तो वह अपने वचन को व्यक्त करता है और सीधे तौर पर नया कार्य लाता है। इसके विपरीत, जब मनुष्य काम करता है, तो यह विचार-विमर्श एवं अध्ययन के माध्यम से होता है, या यह दूसरों के कार्य की बुनियाद पर निर्मित ज्ञान का विकास और अभ्यास का व्यवस्थापन है। कहने का अर्थ है, कि मनुष्य के द्वारा किए गए कार्य का सार प्रथा को बनाए रखना और "नए जूतों में पुराने मार्ग पर चलना" है। इसका अर्थ है कि यहाँ तक कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा चला गया मार्ग भी उस पर बनाया गया है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा खोला गया था। अतः मनुष्य आख़िरकर मनुष्य है, और परमेश्वर परमेश्वर है।
.यूहन्ना प्रतिज्ञा द्वारा जन्मा था, बहुत कुछ जैसे इब्राहीम के लिए इसहाक पैदा हुआ था। उसने यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया और बहुत कार्य किया, किन्तु वह परमेश्वर नहीं था। बल्कि, वह एक भविष्यद्वक्ता माना जाता है क्योंकि उसने केवल यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया था। उसका कार्य भी महान था, और यह केवल उसके मार्ग प्रशस्त करने के बाद था कि यीशु ने आधिकारिक रूप से अपना कार्य शुरू किया। सार में, उसने केवल यीशु के लिए श्रम किया, और उसका कार्य यीशु के कार्य की सेवा में था। उसके मार्ग प्रशस्त करने के बाद, यीशु ने अपना कार्य शुरू किया, वह कार्य जो नया, अधिक विशिष्ट, और अधिक विस्तार से था। यूहन्ना ने केवल शुरुआत का कार्य किया; अधिकतर नया कार्य यीशु के द्वारा किया गया था। यूहन्ना ने भी नया कार्य किया, किन्तु वह वह नहीं था जिसने नए युग का सूत्रपात किया था। यूहन्ना प्रतिज्ञा के द्वारा जन्मा था, और उसका नाम स्वर्गदूत के द्वारा दिया गया था। उस समय, कुछ लोग उसके पिता जकरयाह के नाम पर उसका नाम रखना चाहते थे, परन्तु उसकी माँ ने साहस के साथ कहा, "इस बालक को उस नाम से नहीं पुकारा जा सकता है। उसे यूहन्ना के नाम से पुकारा जाना चाहिए।" यह सब पवित्र आत्मा के द्वारा निर्देशित किया गया था। तो यूहन्ना को परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? यीशु का नाम भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से था, और उसका जन्म पवित्र आत्मा से, और पवित्र आत्मा की प्रतिज्ञा से हुआ था। यीशु परमेश्वर, मसीह, और मनुष्य का पुत्र था। यूहन्ना का कार्य भी महान था, किन्तु उसे परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? यीशु के द्वारा किए गए कार्य और यूहन्ना के द्वारा किए गए कार्य के बीच ठीक-ठीक क्या अंतर था? क्या यही एकमात्र कारण था कि यूहन्ना वह व्यक्ति था जिसने यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया था? या इसलिए क्योंकि इसे परमेश्वर के द्वारा पहले से ही नियत कर दिया गया था? यद्यपि यूहन्ना ने भी कहा था, "मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।"( मत्ती 3:2). और स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का भी उपदेश दिया, उसका कार्य गहरा नहीं था और उसने मात्र एक आरम्भ का गठन किया था। इसके विपरीत, यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात किया, और पुराने युग का अंत किया, किन्तु उसने पुराने विधान की व्यवस्था को भी पूरा किया। जो कार्य उसने किया था वह यूहन्ना की अपेक्षा अधिक महान था, और वह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए आया—उसने कार्य की इस अवस्था को किया। यूहन्ना ने बस मार्ग तैयार किया। यद्यपि उसका कार्य महान था, उसके वचन बहुत थे, और वे चेले जो उसका अनुसरण करते थे वे अनगिनत थे, फिर भी उसके कार्य ने लोगों तक एक नई शुरुआत तक पहुँचाने से बढ़कर और कुछ नहीं किया। न ही कभी लोगों ने उससे जीवन, मार्ग, या गहरी सच्चाईयों को प्राप्त किया, और न ही उन्होंने उसके जरिए परमेश्वर की इच्छा की समझ को प्राप्त किया। यूहन्ना एक बहुत बड़ा भविष्यद्वक्ता (एलिय्याह) था जिसने यीशु के कार्य के लिए नई भूमि की खोज करने में पथ प्रदर्शन किया और चुने हुओं को तैयार किया; वह अनुग्रह के युग का अग्रदूत था। ऐसे मुद्दों को साधारण तौर पर उनके सामान्य मानवीय प्रकटन को देखकर नहीं जाना जा सकता है। विशेष रूप से, यूहन्ना ने भी बहुत बड़ा काम किया; इसके अतिरिक्त, वह पवित्र आत्मा की प्रतिज्ञा के द्वारा जन्मा था, और उसके कार्य को पवित्र आत्मा के द्वारा समर्थन दिया गया था। वैसे तो, केवल उनके कार्य के माध्यम से उनकी अपनी-अपनी अपनी पहचान के बीच अन्तर किया जा सकता है, क्योंकि किसी मनुष्य का बाहरी प्रकटन उसके सार के बारे में नहीं बताता है, और मनुष्य पवित्र आत्मा की सच्ची गवाही को सुनिश्चित करने में असमर्थ है। यूहन्ना के द्वारा किया गया कार्य और यीशु के द्वारा किया गया कार्य एक समान नहीं थे और अलग-अलग प्रकृतियों के थे। इसी से यह निर्धारित करना चाहिए कि वह परमेश्वर है या नहीं। यीशु का कार्य शुरूआत करना, जारी रखना, समापन करना और सम्पन्न करना था। इनमें से प्रत्येक कदम यीशु के द्वारा सम्पन्न किया गया था, जबकि यूहन्ना का कार्य शुरुआत से अधिक और कुछ नहीं था। आरम्भ में, यीशु ने सुसमाचार को फैलाया और पश्चाताप के मार्ग का उपदेश दिया, फिर वह मनुष्य को बपतिस्मा देने लगा, बीमारियों को चंगा करने लगा, और दुष्टात्माओं को निकालने लगा। अंत में, उसने मानवजाति को पाप से छुटकारा दिया और सम्पूर्ण युग के अपने कार्य को पूरा किया। उसने सभी स्थानों में मनुष्य को स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का उपदेश दिया और उसे फैलाया। यूहन्ना के साथ भी ऐसा ही था, इस अन्तर के साथ कि यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात किया और मनुष्य के लिए अनुग्रह का युग लाया। उसके मुँह से वह वचन निकला जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए और वह मार्ग निकला जिसका मनुष्य को अनुग्रह के युग में अनुसरण करना चाहिए, और अंत में, उसने छुटकारे के कार्य को पूरा किया। ऐसा कार्य यूहन्ना के द्वारा कभी सम्पन्न नहीं किया जा सका। और इसलिए, यह यीशु ही था जिसने परमेश्वर स्वयं के कार्य को किया, और यह वही है जो परमेश्वर स्वयं है और जो प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य की धारणाएँ कहती हैं कि वे सभी जो प्रतिज्ञा द्वार जन्मे थे, पवित्र आत्मा से जन्मे थे, पवित्र आत्मा द्वारा सँभाले गए थे और जिन्होंने नए मार्ग खोले वे परमेश्वर हैं। इस तर्क के अनुसार, यूहन्ना भी परमेश्वर होगा, और मूसा, इब्राहीम और दाऊद ..., ये भी परमेश्वर होंगे। क्या यह एक बड़ा मज़ाक नहीं है?
अपनी सेवकाई करने से पहले, यीशु भी केवल एक साधारण आदमी था जो पवित्र आत्मा के किसी भी कार्य का पालन करता था। इस बात की परवाह किए बिना कि उस समय वह अपनी पहचान के बारे में जानता था या नहीं, उसने उस सब का आज्ञापालन किया जो परमेश्वर से आया। पवित्रा आत्मा ने कभी भी उसकी सेवकाई शुरू होने से पहले उसकी पहचान प्रकट नहीं की। यह उसकी सेवकाई शुरू करने के बाद था कि उसने उन नियमों और उन व्यवस्थाओं को समाप्त कर दिया, और यह तब तक नहीं था जब तक कि उसने आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई का प्रदर्शन करना शुरू नहीं किया कि उसके वचन अधिकार और शक्ति से व्याप्त हो गए। जब उसने अपनी सेवकाई शुरू कर दी उसके बाद ही एक नए युग को लाने का उसका कार्य शुरू हुआ। इससे पहले, पवित्र आत्मा 29 वर्षों तक उसके भीतर छिपा रहा, जिस समय के दौरान उसने केवल एक मनुष्य का प्रतिनिधित्व किया और वह परमेश्वर की पहचान या उसके कार्य के बिना था। जब से उसने कार्य करना शुरू किया और अपनी सेवकाई करनी शुरू की, तब से उसने, इस बात की परवाह किए बिना कि मनुष्य उसे कितना जानता था, उसने अंदर बनाई गई योजना के अनुसार अपना कार्य किया, और उसका कार्य सीधे स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व था। उस समय, यीशु ने अपने आस-पास के लोगों से पूछा, "परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?" उन्होंने उत्तर दिया, "तुम महानतम भविष्यद्वक्ता और हमारे अच्छे चिकित्सक हो।" और कुछ ने उत्तर दिया, "तुम हमारे महायाजक हो"... विभिन्न प्रकार के उत्तर दिए गए थे; कुछ ने कहा कि वह यूहन्ना था, कि वह एलिय्याह था, फिर यीशु ने शमौन पतरस की ओर मुड़कर पूछा, "परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?" पतरस ने उत्तर दिया, "तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है।" तब से लोगों को पता चला कि वह परमेश्वर था। जब यह ज्ञात करवा दिया गया, तो यह पतरस था जिसे सबसे पहले इसका अनुभव हुआ और उसके मुँह से ऐसा कहा गया। फिर यीशु ने कहा, "क्योंकि मांस और लहू ने नहीं परन्तु मेरे पिता ने जो स्वर्ग में है, यह बात तुझ पर प्रगट की है।"
उसके बपतिस्मा के बाद, चाहे यह दूसरों को ज्ञात हुआ हो या नहीं, उसका कार्य परमेश्वर की ओर से था। वह उसके कार्य को करने के लिए आया, अपनी पहचान को प्रकट करने के लिए नहीं। पतरस के द्वारा उन वचनों को बोले जाने के बाद ही उसकी पहचान खुलेआम मनुष्य द्वारा जानी गयी। चाहे तुम जानते थे या नहीं कि वह परमेश्वर स्वयं था, उसने अपना कार्य तब शुरू किया जब समय आया। उसने अपना कार्य जारी रखा चाहे तुम इसे जानते थे या नहीं। यहाँ तक कि यदि तुमने इनकार भी किया होता, तब भी वह अपना कार्य करता और ऐसा तब करता जब ऐसा करने का समय होता। वह कार्य करने और अपनी सेवकाई करने के लिए आया, इसलिए नहीं कि मनुष्य उसकी देह को जाने, बल्कि इसलिए कि मनुष्य उसके कार्य को प्राप्त करे । यदि तुम यह नहीं पहचानने हो कि आज के दिन के कार्य का चरण स्वयं परमेश्वर का है, तो यह इसलिए है क्योंकि तुम्हारे पास दर्शन का अभाव है। तब भी, तुम कार्य के इस चरण का इनकार नहीं कर सकते हो; इसे पहचानने में तुम्हारी असफलता यह साबित नहीं करती है कि पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा है या यह कि उसका कार्य ग़लत है। यहाँ तक कि कुछ लोग वर्तमान समय के काम को बाइबल के अंतर्गत यीशु के काम के विरुद्ध जाँचते हैं, और कार्य के इस चरण का इनकार करने के लिए किन्हीं भी विसंगतियों का उपयोग करते हैं। क्या यह किसी अंधे व्यक्ति का काम नहीं है? वह सब जो बाइबिल में लिखा है वह सीमित है और परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। सुसमाचार की चारों पुस्तकों में कुल मिलाकर एक सौ से भी कम अध्याय हैं जिनमें एक सीमित संख्या में घटनाएँ लिखी हैं, जैसे यीशु का अंजीर के वृक्ष को शाप देना, पतरस का तीन बार प्रभु का इनकार करना, यीशु का सलीब पर चढ़ने और पुनरुत्थान के बाद चेलों को दर्शन देना, उपवास के बारे में शिक्षा देना, प्रार्थना के बारे में शिक्षा देना, तलाक के बारे में शिक्षा देना, यीशु का जन्म और वंशावली, यीशु द्वारा चेलों की नियुक्ति, इत्यादि। ये बस कुछ रचनाएँ ही हैं, फिर भी मनुष्य इन्हें ख़ज़ाने के रूप में महत्व देता है, यहाँ तक कि उनके विरुद्ध आज के काम को भी सत्यापित करता है। वे यहाँ तक कि यह भी विश्वास करते हैं कि यीशु ने अपने जन्म के बाद के समय में सिर्फ इतना ही किया। यह ऐसा है मानो कि वे विश्वास करते हैं कि परमेश्वर केवल इतना ही कर सकता है, यह कि और अधिक कार्य नहीं हो सकता है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है?
जितना समय यीशु के पास पृथ्वी पर था वह साढ़े-तैंतीस वर्ष था, अर्थात् वह साढ़े-तैंतीस वर्ष तक पृथ्वी पर रहा। इसमें से केवल साढ़े तीन वर्ष का समय ही उसकी सेवकाई करने में बिताया गया था, और शेष में, उसने सिर्फ एक सामान्य मनुष्य का जीवन जीया था। आरंभ में, उसने आराधनालय में सेवाओं में भाग लिया और वहाँ याजकों के धर्मोपदेशों और अन्य लोगों के संदेशों को सुना; उसने बाइबल का बहुत सा ज्ञान प्राप्त किया। वह ऐसे ज्ञान के साथ नहीं जन्मा था, और उसने केवल पढ़ने और सुनने के माध्यम से इसे प्राप्त किया। यह बाइबिल के भीतर स्पष्ट रूप से दर्ज है कि उसने बारह वर्ष की आयु में आराधनालय में रब्बी से प्रश्न पूछे: प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं की भविष्यवाणियाँ क्या थीं? मूसा के कानूनों के बारे में क्या है? शास्त्रों के बारे में क्या है? और मंदिर में याजकीय लबादों में परमेश्वर की सेवा करने वाले मनुष्य के बारे में क्या है? ... उसने कई प्रश्न पूछे, क्योंकि उसमें न तो ज्ञान था और न समझ थी। यद्यपि वह पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आया था, किन्तु वह एक पूरी तरह से सामान्य व्यक्ति के रूप में जन्मा था। कुछ विशेष अभिलक्षणों के बावजूद, वह अभी भी एक साधारण मनुष्य था। उसका ज्ञान उसकी कद-काठी और उम्र के अनुसार लगातार बढ़ता रहा, और उसके जीवन ने एक साधारण मनुष्य की तरह प्रगति की। मनुष्य की कल्पना में, यीशु ने न बचपन, न किशोरावस्था, और न मध्य आयु का अनुभव किया; मनुष्य की यह अवधारणा है कि वह एक तैंतीस-वर्षीय मनुष्य के जीवन में जन्मा था, और उसका कार्य पूरा हो जाने पर उसे सलीब पर चढ़ाया गया था। उनका मानना है कि शायद उसकी ज़िन्दगी उसी प्रगति से नहीं गुज़री जैसी एक सामान्य व्यक्ति की होती है; शायद मनुष्य के साथ उसने न तो खाया और न ही वह संबद्ध हुआ, और मनुष्य द्वारा आसानी से उसकी झलक नहीं देखी गई। शायद वह एक दृष्टि विपथन था जो उन्हें डरा देता जो उसे देखते, क्योंकि वह परमेश्वर है। लोग विश्वास करते हैं कि परमेश्वर जो देह में आता है निश्चित रूप से मनुष्य की तरह नहीं जीता है; वे मानते हैं कि वह अपने दाँतों को साफ किए बिना या अपने चेहरे को धोए बिना ही स्वच्छ रहता है, क्योंकि वह एक पवित्र व्यक्ति है। क्या ये सब पूर्ण रूप से मनुष्य की धारणाएँ नहीं हैं? बाइबल एक मनुष्य के रूप में यीशु के जीवन को लिखित रूप में दर्ज नहीं करती है, केवल उसके कार्य को दर्ज करती है, किन्तु इससे यह साबित नहीं होता कि उसके पास एक सामान्य मानवता नहीं थी या यह कि उसने 30 वर्ष की आयु से पहले सामान्य मानव जीवन नहीं जीया था। उसने आधिकारिक रूप से 29 वर्ष की आयु में अपने कार्य को आरम्भ किया, किन्तु उस आयु से पहले तुम मनुष्य के रूप में उसके सम्पूर्ण जीवन का इनकार नहीं कर सकते हो। बाइबल ने मात्र उस चरण को अपने लिखित दस्तावेज़ों से हटा दिया; क्योंकि यह एक साधारण मनुष्य के रूप में उसका जीवन था और उसके दिव्य कार्य का चरण नहीं था, इसलिए इसको लिखे जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि यीशु के बपतिस्मा से पहले, पवित्र आत्मा ने सीधे अपना कार्य नहीं किया, परन्तु उसने मात्र एक साधारण मनुष्य के रूप में अपने जीवन को उस दिन तक बनाए रखा था जब यीशु के लिए अपनी सेवकाई करना निश्चित था। यद्यपि वह देहधारी परमेश्वर था, फिर वह परिपक्व होने की प्रक्रिया से वैसे ही गुज़रा था जैसे एक आम मानव गुज़रता है। इस प्रक्रिया को बाइबल से हटा दिया गया था। क्योंकि यह मनुष्य के जीवन की उन्नति में कोई बड़ी सहायता प्रदान नहीं कर सकता था, इसलिए इसे हटा दिया गया था। उसके बपतिस्मा से पहले एक चरण था जिसमें वह अप्रकट बना रहा, और न ही उसने चिह्न और अद्भुत काम किए। केवल यीशु के बपतिस्मा के बाद ही उसने मानवजाति के छुटकारे के समस्त कार्य को करना आरम्भ किया, ऐसा कार्य जो अनुग्रह, सत्य, और प्रेम, और करुणा से प्रचुर मात्रा में भरपूर था। इस कार्य का आरम्भ अनुग्रह के युग का आरम्भ भी था; इसी कारण से, इसे लिखा गया और वर्तमान तक पहुँचाया गया।इसने एक मार्ग खोल दिया और अनुग्रह के युग के सभी को ऐसे युग के मार्ग पर चलने के लिए और सलीब के मार्ग पर चलने के लिए आनंद में ले आया। यद्यपि इस तरह के अभिलेख, कुछ मामलों में केवल मामूली त्रुटियों के साथ, मनुष्य के द्वारा लिखे गए थे, किन्तु सभी तथ्यों के विवरण हैं। इस सब के बावज़ूद, ऐसे मामलों की सत्यता से कोई इनकार नहीं कर सकता है। ये पूरी तरह से तथ्यात्मक हैं, यद्यपि त्रुटियाँ दिखाई देती हैं क्योंकि वे मनुष्य द्वारा लिखे गए थे। कुछ लोग कह सकते हैं कि यीशु एक सामान्य और साधारण मनुष्य था, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि वह चिन्हों और अद्भुत कामों को करने में सक्षम था? प्रलोभन के वे चालीस दिन जिनसे यीशु गुज़रा एक चमत्कारिक चिह्न है, ऐसा जिसे एक साधारण व्यक्ति प्राप्त करने में अक्षम होगा। चालीस दिनों का उसका प्रलोभन पवित्र आत्मा का कार्य था; तो फिर कोई ऐसा कैसे कह सकता है कि उसके भीतर लेश मात्र भी अलौकिकता नहीं है? उसका चिह्नों और अद्भुत कामों को करना यह नहीं दर्शाता है कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि एक सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति था; यह केवल इतना ही है कि पवित्र आत्मा ने उस जैसे एक साधारण व्यक्ति में कार्य किया, और इस प्रकार चमत्कारों को करना और अधिक बड़ा कार्य करना उसके लिए संभव बनाया। यीशु के अपनी सेवकाई करने से पहले, या जैसा कि बाइबल में कहा गया है, उसके ऊपर पवित्र आत्मा के उतरने से पहले, यीशु सिर्फ एक साधारण मनुष्य था और थोड़ी सी भी अलौकिकता धारण नहीं करता था। पवित्र आत्मा के उतरने पर, अर्थात्, जब उसने अपनी सेवकाई को करना आरम्भ किया, तब वह अलौकिकता से व्याप्त हो गया। वैसे तो, लोग यह धारणा रखते हैं कि परमेश्वर का देहधारी देह कोई साधारण मनुष्य नहीं था और ग़लती से यह मानते हैं कि देहधारी परमेश्वर में मानवता नहीं थी। निश्चित रूप से, वह कार्य और वह सब कुछ जिसे मनुष्य परमेश्वर के बारे में पृथ्वी पर देखता है वह अलौकिक है। जो कुछ तुम अपनी आँखों से देखते हो और जो कुछ तुम अपने कानों से सुनते हो वे सब अलौकिक हैं, क्योंकि उसका कार्य और उसके वचन मनुष्य के लिए अबोधगम्य और अप्राप्य है। यदि स्वर्ग की किसी चीज़ को पृथ्वी पर लाया जाता है, तो वह अलौकिक होने के सिवाए कोई अन्य चीज़ कैसे हो सकती है? स्वर्ग के राज्य के रहस्यों को पृथ्वी पर लाया गया था, ऐसे रहस्य जो मनुष्य के लिए अबोधगम्य और अगाध थे, जो बहुत चमत्कारिक और बुद्धिमत्तापूर्ण हैं—क्या वे सब अलौकिक नहीं थे? हालाँकि, तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितने अलौकिक हैं, उन्हें उसकी सामान्य मानवता में किया गया था। परमेश्वर के देहधारी देह में मानवता है, अन्यथा, वह परमेश्वर का देहधारी देह नहीं होता। उस समय, यीशु ने बहुत से चमत्कार किए। उस समय के इस्राएलियों ने जो देखा था वह अलौकिक चीजों से भरा था; उन्होंने फरिश्तों और दूतों को देखा और यहोवा की आवाज़ सुनी। क्या ये सभी अलौकिक नहीं थे? निश्चित रूप से, आज कुछ दुष्ट आत्माएँ हैं जो मनुष्य को धोखा देने के लिए अलौकिक चीजों के माध्यम से कार्य करती हैं; जो उनकी ओर से नक़ल के अलावा और कुछ नहीं है, यह ऐसे कार्य के द्वारा मनुष्य को धोखा देने के लिए है जो वर्तमान में पवित्र आत्मा द्वारा नहीं किया जाता है। कई बुरी आत्माएँ चमत्कारों के कार्य और बीमारी को चंगा करने की नक़ल करती हैं; वे बुरी आत्माओं के कार्य के अलावा और कुछ नहीं हैं, क्योंकि पवित्र आत्मा वर्तमान में ऐसा कार्य अब और नहीं करता है। वे सभी जो बाद में पवित्र आत्मा के कार्य की नकल करते हैं—वे बुरी आत्माएँ हैं। उस समय इस्राएल में किया गया समस्त कार्य अलौकिक था। हालाँकि, पवित्र आत्मा अब इस तरीके से कार्य नहीं करता है, और ऐसा कोई भी कार्य जो पीछे आता है शैतान का और बुरी आत्माओं का कार्य और उपद्रव है। लेकिन तुम यह नहीं कह सकते हो कि समस्त अलौकिक चीज़ें बुरी आत्माओं का कार्य है। यह परमेश्वर के कार्य के युग पर निर्भर करता है। देहधारी परमेश्वर के द्वारा इस दिन किया जाने वाला कौन सा कार्य अलौकिक नहीं है? उसके वचन तुम्हारे लिए अबोधगम्य और अप्राप्य हैं, और उसका कार्य किसी भी व्यक्ति के द्वारा नहीं किया जा सकता है। जो उसकी समझ में है वह मनुष्य द्वारा नहीं समझा जा सकता है, और न ही मनुष्य जान सकता है कि उसका ज्ञान कहाँ से है। कुछ कहते हैं, कि मैं भी तुम्हारे जैसा साधारण हूँ, तो ऐसा कैसे है कि मैं वह नहीं जानता हूँ जो तुम जानते हो? मैं अनुभव में बड़ा और समृद्ध हूँ, फिर भी तुम वह कैसे जान सकते हो जो मैं नहीं जानता हूँ? यह सब मनुष्य के लिए अप्राप्य है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो आश्चर्य करते हैं: इस्राएल में किए गए कार्य को वास्तव में कोई भी नहीं जानता है; तुम्हें कैसे पता चला? यहाँ तक कि बाइबल के प्रतिपादक भी स्पष्टीकरण नहीं दे सकते हैं; तुम्हें कैसे पता चला? क्या ये सभी अलौकिक मामले नहीं हैं? उसने किसी अद्भुत काम का अनुभव नहीं किया है, फिर भी वह सब जानता है और वचन उस तक अत्यधिक आसानी के साथ आता है। क्या यह अलौकिक नहीं है? उसका कार्य उस से अधिक है जो देह के लिए प्राप्य है। ऐसा कार्य केवल किसी भी देह के विचार से प्राप्त नहीं किया जा सकता है और मनुष्य के मन और तर्क के लिए पूरी तरह से अचिंतनीय है। यद्यपि उसने कभी भी बाइबल नहीं पढ़ी, फिर भी वह इस्राएल में परमेश्वर के कार्य को समझता है। और यद्यपि जब वह बोलता है तो वह पृथ्वी पर खड़ा होता है, किन्तु वह तीसरे स्वर्ग के रहस्यों की बात करता है। जब मनुष्य इन वचनों पर विचार करता है, तो एक भावना मनुष्य को वशीभूत कर लेती है, "क्या यह तीसरे स्वर्ग की भाषा नहीं है?" क्या ये सभी ऐसे मामले नहीं हैं जो सामान्य व्यक्ति के द्वारा प्राप्त किए जाने से अधिक हैं? आरंभ में जब यीशु चालीस दिनों के उपवास से गुज़रा, तो क्या वह अलौकिक नहीं था? यदि तुम कहते हो कि चालीस दिनों का उपवास अलौकिक और दुष्ट आत्माओं का कार्य है, तो क्या तुमने यीशु की निंदा नहीं की है? यीशु के अपनी सेवकाई करने से पहले, वह सभी सामान्य मनुष्यों की तरह था। उसने भी पाठशाला में अध्ययन किया; अन्यथा वह पढ़ना और लिखना कैसे सीख सकता था? जब परमेश्वर देह बना, तो पवित्रात्मा देह के भीतर छिपा हुआ था। हालाँकि, सभी सामान्य मनुष्यों की तरह, विकास की प्रक्रिया से गुजरना उसके लिए आवश्यक था, और जब तक उसका मन और विचार परिपक्व नहीं हो गए और वह चीजों को समझने में सक्षम नहीं हो गया, तब तक वह एक साधारण व्यक्ति माना जाता था। यह केवल उसकी मानवता परिपक्व हो जाने के बाद ही था कि वह अपनी सेवकाई का प्रदर्शन कर सकता था। वह कैसे अपनी सेवकाई का प्रदर्शन कर सकता था जबकि उसकी सामान्य मानवता अभी तक अपरिपक्व थी और उसकी विवेक-बुद्धि अपुष्ट थी? निश्चित रूप से उससे छह या सात वर्ष की उम्र में उसकी सेवकाई करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी! जब परमेश्वर पहली बार देह बना, तो परमेश्वर ने स्वयं को ज्ञात क्यों नहीं करवाया? क्योंकि उसकी देह की मानवता अभी तक अपरिपक्व थी; इस तरह की देह का मन और विचार, और साथ ही सामान्य मानवता, पूरी तरह से सम्पन्न नहीं थे। इस कारण से, उसे सामान्य मानवता और एक सामान्य व्यक्ति का सामान्यबोध धारण करने की पूरी आवश्यकता थी, जब तक कि वे देह में उसका कार्य करने के लिए पर्याप्त न हों। केवल उसके बाद ही वह अपना कार्य शुरू कर सकता था, अन्यथा उसके लिए विकसित होने रहना आवश्यक हो गया होता। यदि सात या आठ वर्ष की आयु में यीशु ने अपना कार्य शुरू कर दिया होता, तो क्या मनुष्य ने उसे विलक्षण प्रतिभा संपन्न व्यक्ति के रूप में नहीं माना होता? क्या सभी ने ऐसा नहीं माना होगा कि वह एक बच्चे के अलावा और कुछ नहीं है, किस ने उसे विश्वसनीय पाया होगा? सात या आठ वर्ष का बच्चा जो उस पीठिका से ऊँचा नहीं है जिसके पीछ वह खड़ा है—क्या वह उपदेश दे सकता है? इससे पहले कि उसकी मानवता परिपक्व हो, एक साधारण व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है। ऐसे किसी के लिए भी बहुत कुछ कार्य पूरी तरह से अप्राप्य है जिसकी मानवता अभी तक अपरिपक्व है। देह में परमेश्वर के आत्मा के कार्य के भी अपने स्वयं के सिद्धान्त हैं। वह परमपिता के कार्य और उत्तरदायित्व को केवल इस आधार पर अपने ऊपर ले सकता था कि वह सामान्य मानवता को धारण किए हुए था। केवल तभी वह अपना काम प्रारम्भ कर सका था। अपने बचपन में, जो कुछ प्राचीन समयों में घटित हुआ था यीशु उन्हें बहुत ज़्यादा नहीं समझ सकता था, और केवल रब्बियों से पूछने के माध्यम से ही वह समझ पाता था। यदि जब उसने पहली बार बोलना सीखा था तब उसने अपने कार्य को आरम्भ किया होता, तो कोई ग़लती न करना कैसे सम्भव हो गया होता? परमेश्वर कैसे ग़लतियाँ कर सकता है? इसलिए, यह केवल उसके समर्थ होने के पश्चात् ही हुआ कि उसने अपना काम आरम्भ किया; उसने तब तक किसी भी कार्य को नहीं किया जब तक वह ऐसे कार्य को आरम्भ करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं हो गया। 29 वर्ष की आयु में, यीशु पहले से ही काफी परिपक्व हो चुका था और उसकी मानवता उस कार्य को आरम्भ करने के लिए पर्याप्त थी जो उसे करना था। यह केवल तभी हुआ कि पवित्र आत्मा, जो तीस वर्षों तक अदृष्ट था, उसने स्वयं को प्रकट करना आरम्भ किया, और परमेश्वर का आत्मा आधिकारिक रूप से उसमें कार्य करने लगा। उस समय, यूहन्ना ने उसके लिए मार्ग खोलने के लिए सात वर्षों तक तैयारी की थी, और अपने कार्य का समापन होने पर, यूहन्ना को बंदीगृह में डाल दिया गया था। तब पूरा बोझ यीशु पर आ गया। यदि उसने इस कार्य को 21 या 22 वर्ष की आयु में प्रारम्भ किया होता, जब उसमें मानवता का बहुत अभाव था और उसने बस अभी-अभी युवा वयस्कता में प्रवेश किया था, और उसमें बहुत सी चीज़ों की समझ का अभाव था, तो वह नियन्त्रण रख पाने में असमर्थ होता। उस समय, जब यीशु ने अपनी मध्य आयु में अपने कार्य को आरम्भ किया था उसके कुछ समय पूर्व ही यूहन्ना ने पहले से ही अपने कार्य को सम्पन्न कर लिया था। उस आयु में, उसकी सामान्य मानवता उस कार्य को आरम्भ करने के लिए पर्याप्त थी जो उसे करना चाहिए था। देहधारी परमेश्वर में भी सामान्य मानवता है। यद्यपि तुम लोगों की तुलना में उतनी परिवक्व नहीं है, किन्तु अपने आप में उसकी मानवता उसका कार्य करने के लिए पहले से ही पर्याप्त है; जिस परिस्थिति में वह आज कार्य करता है वह पूरी तरह से यीशु की परिस्थिति के समान नहीं है। यीशु ने बारह चेलों को क्यों चुना? यह सब उसके कार्य के समर्थन में था और उसके सामंजस्य में था। एक तरफ़, यह उस समय उसके कार्य की नींव रखने के लिए था, जबकि पीछे आने वाले उसके कार्य के लिए भी यही करना था। तब के कार्य के अनुसार, बारह चेलों का चयन करना यीशु का और साथ ही परमेश्वर स्वयं का इरादा था। उसका मानना था कि बारह चेलों को चुना जाना चाहिए उसके बाद सभी जगहों पर उपदेश के लिए भेजा जाना चाहिए। लेकिन आज तुम लोगों के बीच इसकी कोई आवश्यकता नहीं है! शरीर में देहधारी परमेश्वर के कार्य के बहुत से सिद्धान्त हैं। ऐसा बहुत कुछ है जिसे मनुष्य साधारणतः नहीं समझता है, फिर भी मनुष्य उसे मापने के लिए या परमेश्वर से बहुत अधिक माँग करने के लिए लगातार अपनी स्वयं की अवधारणाओं का उपयोग करता है। और आज के दिन भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें बिलकुल भी पता नहीं है कि उनके ज्ञान में उनकी स्वयं की अवधारणाओं से अधिक और कुछ भी नहीं है। वह युग या स्थान जो भी हो जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, देह में उसके कार्य के सिद्धान्त अपरिवर्तनीय बने रहते हैं। वह देह नहीं बन सकता है फिर भी कार्य करने के लिए देह की सीमाओं से परे जाता है; इसके अतिरिक्त, वह देह नहीं बन सकता है फिर भी देह की साधारण मानवता के भीतर काम नहीं करता है। अन्यथा, परमेश्वर के देहधारण का महत्व घुलकर शून्य हो जाएगा, और वचन देह बनता है पूरी तरह से निरर्थक हो जाएगा। इसके अतिरिक्त, केवल स्वर्ग में परमपिता (पवित्रात्मा) ही परमेश्वर के देहधारण के बारे में जानता है, और दूसरा कोई नहीं, यहाँ तक कि स्वयं देह या स्वर्ग के संदेशवाहक भी नहीं जानते हैं। वैसे तो, देह में परमेश्वर का कार्य और भी अधिक सामान्य और बेहतर ढंग से यह प्रदर्शित करने में समर्थ है कि वास्तव में वचन देह बनता है; देह का अर्थ एक सामान्य और साधारण मनुष्य है।
कुछ लोग आश्चर्य कर सकते हैं, युग का सूत्रपात स्वयं परमेश्वर के द्वारा क्यों किया जाना चाहिए? क्या उसके स्थान पर कोई सृजित प्राणी नहीं खड़ा हो सकता है? तुम लोग अच्छी तरह से अवगत हो कि एक नए युग का सूत्रपात करने के उद्देश्य से स्पष्ट रूप से परमेश्वर देह बनता है, और, वास्तव में, जब वह नए युग का सूत्रपात करता है, तो वह उसके साथ-साथ ही पूर्व युग का समापन करता है। परमेश्वर आदि और अंत है; यही वह स्वयं है जो अपने कार्य को चलाता है और इसलिए यह अवश्य वह स्वयं होना चाहिए जो पहले के युग का समापन करता है। यही वह प्रमाण है कि वह शैतान को पराजित करता है और संसार को जीत लेता है। प्रत्येक बार जब वह स्वयं मनुष्य के बीच कार्य करता है, तो यह एक नए युद्ध की शुरुआत होती है। नए कार्य की शुरुआत के बिना, प्राकृतिक रूप से पुराने का कोई समापन नहीं होगा। और पुराने का समापन न होना इस बात का प्रमाण है कि शैतान के साथ युद्ध अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। यदि स्वयं परमेश्वर मनुष्यों के बीच में आता है और एक नया कार्य करता है केवल तभी मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र को तोड़कर पूरी तरह से स्वतन्त्र हो सकता है और एक नया जीवन एवं नई शुरुआत प्राप्त कर सकता है। अन्यथा, मनुष्य सदैव ही पुराने युग में जीएगा और हमेशा शैतान के पुराने प्रभाव के अधीन रहेगा। परमेश्वर के द्वारा अगुवाई किए गए प्रत्येक युग के साथ, मनुष्य के एक भाग को स्वतन्त्र किया जाता है, और इस प्रकार परमेश्वर के कार्य के साथ-साथ मनुष्य एक नए युग की ओर आगे बढ़ता है। परमेश्वर की विजय उन सबकी विजय है जो उसका अनुसरण करते हैं। यदि सृष्टि की मानवजाति को युग के समापन का कार्यभार दिया जाता, तब चाहे यह मनुष्य के दृष्टिकोण से हो या शैतान के, यह एक ऐसे कार्य से बढ़कर नहीं है जो परमेश्वर का विरोध या परमेश्वर के साथ विश्वासघात करता है, न कि परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का एक कार्य है, और इस प्रकार मनुष्य का कार्य शैतान को अवसर देगा। मनुष्य केवल परमेश्वर के द्वारा सूत्रपात किए गए एक युग में परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन और अनुसरण करता है केवल तभी शैतान पूरी तरह से आश्वस्त होगा, क्योंकि यह सृजित प्राणी का कर्तव्य है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोगों को केवल अनुसरण और आज्ञापालन कंरने की आवश्यकता है, और इससे अधिक तुम लोगों से नहीं कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करने और अपने कार्य को क्रियान्वित करने का अर्थ यही है। परमेश्वर स्वयं अपना काम करता है और उसे मनुष्य की कोई आवश्यकता नहीं है कि उसके स्थान पर काम करे, और न ही वह सृजित प्राणियों के काम में अपने आपको शामिल करता है। मनुष्य अपना स्वयं का कर्तव्य करता है और परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है, और यही सच्ची आज्ञाकारिता है और सबूत है कि शैतान पराजित है। जब परमेश्वर स्वयं ने नए युग का आरम्भ कर दिया उसके पश्चात्, वह मानवों के बीच अब और कार्य नहीं करता है। यह तभी है कि एक सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य अपने कर्तव्य को करने और अपने ध्येय को सम्पन्न करने के लिए आधिकारिक रूप से नए युग में कदम रखता है। कार्य करने के सिद्धान्त ऐसे ही हैं जिनका उल्लंघन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। केवल इस तरह से कार्य करना ही विवेकपूर्ण और तर्कसंगत है। परमेश्वर का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किया जाता है। यह वही है जो अपने कार्य को चलाता है, और साथ ही वही उसका समापन करता है। यह वही है जो कार्य की योजना बनाता है, और साथ ही वही है जो उसका प्रबंधन करता है, और उससे भी बढ़कर, यह वही है जो उस कार्य को सफल करता है। यह ऐसा ही है जैसा बाइबल में कहा गया है "मैं ही आदि और अंत हूँ; मैं ही बोनेवाला और काटनेवाला हूँ।" सब कुछ जो उसके प्रबंधन के कार्य से संबंधित है स्वयं उसी के द्वारा किया जाता है। वह छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना का शासक है; कोई भी उसके स्थान पर उसका काम नहीं कर सकता है या उसके कार्य का समापन नहीं कर सकता है, क्योंकि यह वही है जो सबको नियन्त्रण में रखता है। चूँकि उसने संसार का सृजन किया है, वह संपूर्ण संसार की अगुवाई करेगा ताकि सब उसके प्रकाश में जीवन जीएँ, और वह अपनी सम्पूर्ण योजना को सफल करने के लिए संपूर्ण युग का समापन करेगा!
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