2019-02-09

6. यह क्यों कहा जाता है कि भ्रष्ट मानव जाति को देह बने परमेश्वर के उद्धार की अधिक आवश्यकता है?

6. यह क्यों कहा जाता है कि भ्रष्ट मानव जाति को देह बने परमेश्वर के उद्धार की अधिक आवश्यकता है?

I. परमेश्वर के देह-धारण से सम्बंधित सत्य के पहलू पर हर किसी को गवाही देनी चाहिए

6. यह क्यों कहा जाता है कि भ्रष्ट मानव जाति को देह बने परमेश्वर के उद्धार की अधिक आवश्यकता है?
(परमेश्वर के वचन का चुना गया अवतरण)

भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है

परमेश्वर ने देहधारण किया क्योंकि शैतान का आत्मा, या कोई अभौतिक चीज़ उसके कार्य का विषय नहीं है, परन्तु मनुष्य है, जो शरीर से बना है और जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया गया है। निश्चित रूप से चूँकि मनुष्य की देह को भ्रष्ट किया गया है इसलिए परमेश्वर ने हाड़-मांस के मनुष्य को अपने कार्य का विषय बनाया है; इसके अतिरिक्त, क्योंकि मनुष्य भ्रष्टता का विषय है, उसने मनुष्य को अपने उद्धार के कार्य के समस्त चरणों के दौरान अपने कार्य का एकमात्र विषय बनाया है। मनुष्य एक नश्वर प्राणी है, और वह हाड़-मांस एवं लहू से बना हुआ है, और एकमात्र परमेश्वर ही है जो मनुष्य को बचा सकता है।
इस रीति से, परमेश्वर को अपना कार्य करने के लिए ऐसा देह बनना होगा जो मनुष्य के समान ही गुणों को धारण करता है, ताकि उसका कार्य बेहतर प्रभावों को हासिल कर सके। परमेश्वर को अपने कार्य को ठीक तरह से करने के लिए देहधारण करना होगा क्योंकि मनुष्य देह से बना हुआ है, और पाप पर विजय पाने में या स्वयं को शरीर से अलग करने में असमर्थ है। यद्यपि देहधारी परमेश्वर का मूल-तत्व एवं उसकी पहचान, मनुष्य के मूल-तत्व एवं उसकी पहचान से बहुत अधिक भिन्न है, फिर भी उसका रूप मनुष्य के समान है, उसके पास किसी सामान्य व्यक्ति का रूप है, और वह एक सामान्य व्यक्ति का जीवन जीता है, और जो लोग उसे देखते हैं वे परख सकते हैं कि वह किसी सामान्य व्यक्ति से अलग नहीं है। यह सामान्य रूप एवं सामान्य मानवता उसके लिए पर्याप्त है कि वह सामान्य मानवता में अपने अलौकिक कार्य को अंजाम दे। उसका देह उसे सामान्य मानवता में अपना कार्य करने देता है, और मनुष्य के मध्य अपने कार्य को करने में उसकी सहायता करता है, इसके अतिरिक्त उसकी सामान्य मानवता मनुष्य के मध्य उद्धार के कार्य को क्रियान्वित करने के लिए सहायता करती है। यद्यपि उसकी सामान्य मानवता ने मनुष्य के बीच में काफी कोलाहल मचा दिया है, फिर भी ऐसे कोलाहल ने उसके कार्य के सामान्य प्रभावों पर कोई असर नहीं डाला है। संक्षेप में, उसके सामान्य देह का कार्य मनुष्य के लिए अत्यंत लाभदायक है। हालाँकि अधिकांश लोग उसकी सामान्य मानवता को स्वीकार नहीं करते हैं, उसका कार्य फिर भी प्रभावशाली हो सकता है, और उसकी सामान्य मानवता के कारण इन प्रभावों को हासिल किया जाता है। इसके विषय में कोई सन्देह नहीं है। देह में किए गए के उसके कार्य से, मनुष्य उसकी सामान्य मानवता के विषय में उन धारणाओं की अपेक्षा दस गुना या दर्जनों गुना ज़्यादा चीज़ों को प्राप्त करता है जो मनुष्य के मध्य मौजूद हैं, और ऐसी धारणाओं को अंततः उसके कार्य के द्वारा पूरी तरह से निगल लिया जाएगा। और वह प्रभाव जो उसके कार्य ने हासिल किया है, कहने का तात्पर्य है, मनुष्य का उसके बारे में ज्ञान, उसके विषय में मनुष्य की धारणाओं से बहुत अधिक है। वह कार्य जिसे वह शरीर में करता है उसकी कल्पना करने या उसे मापने हेतु कोई तरीका नहीं है, क्योंकि उसका देह हाड़-मांस के मनुष्य के समान नहीं है; यद्यपि बाहरी आवरण एक समान है, फिर भी मूल-तत्व एक जैसा नहीं है। उसका देह परमेश्वर के विषय में मनुष्य के मध्य कई धारणाओं को उत्पन्न करता है, फिर भी उसका देह मनुष्य को अत्यधिक ज्ञान अर्जित करने भी दे सकता है, और वह किसी भी व्यक्ति पर विजय प्राप्त कर सकता है जो वैसा ही बाहरी आवरण धारण किए हुए है। क्योंकि वह महज एक मनुष्य नहीं है, परन्तु मनुष्य के बाहरी आवरण के साथ परमेश्वर है, और कोई भी पूरी तरह से उसकी गहराई को माप नहीं सकता है एवं उसे समझ नहीं सकता है। सभी लोगों के द्वारा ऐसे अदृश्य एवं अस्पृश्य परमेश्वर से प्रेम एवं उसका स्वागत किया जाता है। यदि परमेश्वर बस एक आत्मा होता जो मनुष्य के लिए अदृश्य है, तो परमेश्वर पर विश्वास करना मनुष्य के लिए कितना आसान होता। मनुष्य अपनी कल्पना को बेलगाम कर सकता है, और अपने आपको प्रसन्न करने तथा अपने आपको खुश करने के लिए किसी भी आकृति को परमेश्वर की आकृति के रूप में चुन सकता है। इस रीति से, मनुष्य बिना किसी संकोच के कुछ भी कर सकता है जो उसके स्वयं के परमेश्वर को अति प्रसन्न करता है, और वह कार्य कर सकता है जिसे यह परमेश्वर करने की अत्यधिक इच्छा करता है। इसके अलावा, मनुष्य मानता है कि उसकी अपेक्षा परमेश्वर के प्रति कोई भी उससे अधिक भरोसेमंद एवं भक्त नहीं है, और यह कि बाकी सब बुतरस्त कुत्ते हैं, एवं परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि यह वह है जिसे उन लोगों के द्वारा खोजा जाता है जिनका विश्वास परमेश्वर में अस्पष्ट है और सिद्धान्तों पर आधारित है; जो कुछ वे खोजते हैं वह सब थोड़ी बहुत विभिन्नता के साथ काफी कुछ एक जैसा ही होता है। यह महज ऐसा है कि उनकी कल्पनाओं में परमेश्वर की आकृतियां भिन्न-भिन्न होती हैं, फिर भी उनका मूल-तत्व वास्तव में एक जैसा ही होता है।
मनुष्य परमेश्वर में अपने निश्चिन्त विश्वास के द्वारा परेशान नहीं होता है, और जैसा उसे भाता है परमेश्वर में विश्वास रखता है। यह मनुष्य का एक "अधिकार एवं आज़ादी" है, जिसमें कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, क्योंकि मनुष्य अपने स्वयं के परमेश्वर में विश्वास करता है तथा किसी और के परमेश्वर पर नहीं; यह उसकी अपनी निजी सम्पत्ति है, और लगभग हर कोई इस तरह की निजी सम्पत्ति रखता है। मनुष्य इस सम्पत्ति को एक बहुमूल्य ख़ज़ाने के रूप में मानता है, किन्तु परमेश्वर के लिए इससे अधिक निम्न या निकम्मी चीज़ और कोई नहीं है, क्योंकि मनुष्य की इस निजी सम्पत्ति की तुलना में परमेश्वर के विरोध का इससे और अधिक स्पष्ट संकेत नहीं है। यह देहधारी परमेश्वर के कार्य के कारण है कि परमेश्वर ने देह धारण किया है जिसके पास एक स्पर्शगम्य आकार है, और जिसे मनुष्य के द्वारा देखा एवं स्पर्श किया जा सकता है। वह एक निराकार आत्मा नहीं है, बल्कि एक शरीर है जिससे मनुष्य द्वारा सम्पर्क किया जा सकता है और देखा जा सकता है। फिर भी, अधिकांश ईश्वर जिन पर लोग विश्वास करते हैं वे देहरहित देवता हैं जो निराकार हैं, जो स्वतंत्र आकार के हैं। इस रीति से, देहधारी परमेश्वर उनमें से अधिकांश लोगों का शत्रु बन गया है जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और ऐसे लोग जो परमेश्वर के देहधारण के तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते हैं वे भी, उसी प्रकार से, परमेश्वर के विरोधी बन गए हैं। सोचने के अपने तरीके के कारण, या अपने विद्रोहीपन के कारण नहीं, किन्तु मनुष्य की इस निजी सम्पत्ति के कारण मनुष्य धारणाओं को धारण किए हुए है। यह इस निजी सम्पत्ति के कारण ही है कि अधिकांश लोग मर जाते हैं, और यह वह अस्पष्ट परमेश्वर है जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है, देखा नहीं जा सकता है, और मौजूद नहीं है वास्तव में वह मनुष्य के जीवन को बर्बाद कर देता है। मनुष्य के जीवन को देहधारी परमेश्वर के द्वारा ज़ब्त नहीं किया जाता है, और स्वर्ग के परमेश्वर के द्वारा तो बिलकुल भी नहीं, बल्कि मनुष्य की स्वयं की कल्पना के परमेश्वर द्वारा ज़ब्त किया जाता है। यह वह एकमात्र वज़ह है कि भ्रष्ट मनुष्य की आवश्यकताओं के कारण ही देहधारी परमेश्वर देह में होकर आया है। यह मनुष्य की आवश्यकताओं के कारण है परन्तु परमेश्वर की आवश्यकताओं के कारण नहीं, और उसके समस्त बलिदान एवं कष्ट मानवजाति के लिए हैं, और स्वयं परमेश्वर के लाभ के लिए नहीं हैं। परमेश्वर के लिए कोई पक्ष एवं विपक्ष या प्रतिफल नहीं है; वह भविष्य की कोई फसल नहीं काटेगा, बल्कि वह जो मूल रूप से उसे दिया जाना था। वह सब जिसे वह मानवजाति के लिए करता है और बलिदान करता है यह इसलिए नहीं है ताकि वह बड़ा प्रतिफल अर्जित कर सके, परन्तु यह विशुद्ध रूप से मानवजाति के लिए है। यद्यपि देह में किए गए परमेश्वर के कार्य में अनेक अकल्पनीय मुश्किलें शामिल होती हैं, फिर भी वे प्रभाव जिन्हें वह अंततः हासिल करता है वे उन कार्यों से कहीं बढ़कर होते हैं जिन्हें आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया जाता है। देह के कार्य में काफी कठिनाईयां साथ में जुड़ी होती हैं, और देह आत्मा के समान वैसी ही बड़ी पहचान को धारण नहीं कर सकता है, और आत्मा के समान उन्हीं अलौकिक कार्यों को क्रियान्वित नहीं कर सकता है, और वह आत्मा के समान उसी अधिकार को तो बिलकुल भी धारण नहीं कर सकता है। फिर भी इस साधारण देह के द्वारा किए गए कार्य का मूल-तत्व आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, और यह देह स्वयं ही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं का उत्तर है। क्योंकि उनके लिए जिन्हें बचाया जाना है, आत्मा की उपयोगिता का मूल्य देह की अपेक्षा कहीं अधिक निम्न है: आत्मा का कार्य समूचे विश्व, सारे पहाड़ों, नदियों, झीलों एवं महासागरों को ढंकने में सक्षम है, फिर भी देह का कार्य और अधिक प्रभावकारी ढंग से प्रत्येक व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है जिसके साथ उसका सम्पर्क है। इसके अलावा, मनुष्य के द्वारा परमेश्वर की देह को उसके स्पर्श्गम्य आकार के साथ बेहतर ढंग से समझा जा सकता है और उस पर भरोसा किया जा सकता है, और यह परमेश्वर के विषय में मनुष्य के ज्ञान को और गहरा कर सकता है, और यह मनुष्य पर परमेश्वर के वास्तविक कार्यों का और अधिक गंभीर प्रभाव छोड़ सकता है। आत्मा का कार्य रहस्य से ढका हुआ है, इसकी गहराई को मापना नश्वर प्राणियों के लिए कठिन है, और यहाँ तक कि उनके लिए उन्हें देखना और भी अधिक मुश्किल है, और इस प्रकार वे मात्र खोखली कल्पनाओं पर भरोसा रख सकते हैं। फिर भी, देह का कार्य साधारण है, यह वास्तविकता पर आधारित है, और समृद्ध बुद्धि धारण किए हुए है, और ऐसा तथ्य है जिसे मनुष्य की शारीरिक आँख के द्वारा देखा जा सकता है; मनुष्य परमेश्वर के कार्य की बुद्धिमत्ता का व्यक्तिगत रूप से अनुभव कर सकता है, और उसे अपनी ढेर सारी कल्पना को काम में लगाने की आवश्यकता नहीं है। यह देह में परमेश्वर के कार्य की सटीकता एवं उसका वास्तविक मूल्य है। आत्मा केवल उन कार्यों को कर सकता है जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं और उसके लिए कल्पना करने हेतु कठिन हैं, उदाहरण के लिए आत्मा की प्रबुद्धता, आत्मा द्वारा हृदय स्पर्श करना, और आत्मा का मार्गदर्शन, परन्तु मनुष्य के लिए जिसके पास एक मस्तिष्क है, ये कोई स्पष्ट अर्थ प्रदान नहीं करते हैं। वे केवल हृदय स्पर्शी, या एक विस्तृत अर्थ प्रदान करते हैं, और वचनों से कोई निर्देश नहीं दे सकते हैं। फिर भी, देह में परमेश्वर का कार्य बहुत ही अलग होता है: उसमें वचनों का सटीक मार्गदर्शन होता है, उसमें स्पष्ट इच्छा होती है, और उसमें स्पष्ट अपेक्षित उद्देश्य होते हैं। और इस प्रकार मनुष्य को अंधेरे में यहाँ वहाँ टटोलने, या अपनी कल्पना को काम में लगाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, और अंदाज़ा लगाने की तो बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होती है। यह देह में किए गए कार्य की स्पष्टता है, और आत्मा के कार्य से बिलकुल अलग है। आत्मा का कार्य केवल एक सीमित दायरे तक उपयुक्त होता है, और देह के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। देह का कार्य मनुष्य को आत्मा के कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक सटीक एवं आवश्यक लक्ष्य और कहीं अधिक वास्तविक, एवं मूल्यवान ज्ञान प्रदान करता है। वह कार्य जो भ्रष्ट मनुष्य के लिए सबसे अधिक मूल्य रखता है वह ऐसा कार्य है जो सटीक वचनों, एवं अनुसरण करने के लिए स्पष्ट लक्ष्यों को प्रदान करता है, और जिसे देखा एवं स्पर्श किया जा सकता है। केवल वास्तविकता से सम्बन्धित कार्य एवं समयानुसार मार्गदर्शन ही मनुष्य की अभिरुचियों के लिए उपयुक्त होते हैं, और केवल वास्तविक कार्य ही मनुष्य को उसके भ्रष्ट एवं दूषित स्वभाव से बचा सकता है। इसे केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है; केवल देहधारी परमेश्वर ही मनुष्य को उसके पूर्व के भ्रष्ट एवं दूषित स्वभाव से बचा सकता है। यद्यपि आत्मा परमेश्वर का अंतर्निहित मूल-तत्व है, फिर भी ऐसे कार्य को केवल उसके देह के द्वारा ही किया जा सकता है। यदि आत्मा अकेले ही कार्य करता, तब उसके कार्य का प्रभावशाली होना संभव नहीं होता—यह एक स्पष्ट सच्चाई है। यद्यपि अधिकांश लोग इस देह के कारण परमेश्वर के शत्रु बन गए हैं, फिर भी जब वह अपने कार्य को पूरा करता है, तो ऐसे लोग जो उसके विरोधी हैं वे न केवल आगे से उसके शत्रु नहीं रहेंगे, बल्कि इसके विपरीत वे उसके गवाह बन जाएंगे। वे ऐसे गवाह बन जाएंगे जिन्हें उसके द्वारा जीत लिया गया है, ऐसे गवाह जो उसके अनुकूल हैं और उससे अविभाज्य हैं। वह मनुष्य को प्रेरित करेगा कि मानव के प्रति देह में किए गए उसके कार्य के महत्व को जाने, और मनुष्य मानव के अस्तित्व के अर्थ के लिए इस देह के महत्व को जानेगा, मानव के जीवन की प्रगति के लिए उसके वास्तविक मूल्य को जानेगा, और, इसके अतिरिक्त, यह जानेगा कि यह देह जीवन का एक जीवन्त सोता बन जाएगा जिससे अलग होने की बात को मानव सहन नहीं कर सकता है। यद्यपि परमेश्वर का देहधारी शरीर परमेश्वर की पहचान एवं पद से मेल खाने से कहीं दूर है, और मनुष्य को ऐसा प्रतीत होता है कि वह उसके वास्तविक रुतबे से असंगत है, फिर भी यह देह, जो परमेश्वर के असली रूप को, या परमेश्वर की सच्ची पहचान को धारण किए हुए नहीं है, वह कार्य कर सकता है जिसे परमेश्वर का आत्मा सीधे तौर पर करने में असमर्थ है। परमेश्वर के देहधारण का असली महत्व एवं मूल्य ऐसा ही है, और यह वही महत्व एवं मूल्य है जिसे सराहने एवं स्वीकार करने में मनुष्य असमर्थ है। यद्यपि समस्त मनुष्य परमेश्वर के आत्मा को ऊँची दृष्टि से देखते हैं और परमेश्वर के देह को नीची दृष्टि से देखते हैं, फिर भी इस बात पर विचार न करते हुए कि वे किस प्रकार सोचते या देखते हैं, देह का वास्तविक महत्व एवं मूल्य आत्मा से कहीं बढ़कर है। निश्चित रूप से, यह केवल भ्रष्ट मनुष्य के सम्बन्ध में है। क्योंकि हर कोई जो सत्य की खोज करता है और परमेश्वर के प्रकट होने की लालसा करता है, आत्मा का कार्य केवल हृदय स्पर्श या प्रकाशन, और अद्भुतता का एहसास प्रदान कर सकता है जो अवर्णनीय एवं अकल्पनीय है, और ऐसा एहसास प्रदान करता है कि यह महान, सर्वोपरि, एवं प्रशंसनीय है, फिर भी सभी के लिए अप्राप्य एवं असाध्य भी है। मनुष्य एवं परमेश्वर का आत्मा एक दूसरे को केवल दूर से ही देख सकते हैं, मानो उनके बीच एक बड़ी दूरी है, और वे कभी भी एक समान नहीं हो सकते हैं, मानो किसी अदृश्य विभाजन के द्वारा अलग किए गए हों। वास्तव में, यह एक दृष्टि भ्रम है जिसे आत्मा के द्वारा मनुष्य को दिया गया है, यह इसलिए है क्योंकि आत्मा एवं मनुष्य दोनों एक ही किस्म के नहीं हैं, और आत्मा एवं मनुष्य इसी संसार में एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकेंगे, और इसलिए क्योंकि आत्मा मनुष्य की किसी भी चीज़ को धारण नहीं करता है। अतः मनुष्य को आत्मा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आत्मा सीधे तौर पर वह कार्य नहीं कर सकता है जिसकी मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता होती है। देह का काम मनुष्य को अनुसरण करने के लिए वास्तविक उद्देश्य देता है, स्पष्ट वचन, और एक एहसास देता है कि परमेश्वर वास्तविक एवं सामान्य है, यह कि वह दीन एवं साधारण है। यद्यपि मनुष्य उसका भय मान सकता है, फिर भी अधिकांश लोगों के लिए उससे सम्बन्ध रखना आसान है: मनुष्य उसके चेहरे को देख सकता है, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और दूर से उसे देखने की आवश्यकता नहीं है। यह देह महसूस करता है कि वह मनुष्य तक पहुंच सकता है, एवं वह दूर, या अथाह नहीं है, परन्तु दृश्यमान एवं स्पर्शगम्य है, क्योंकि यह देह मनुष्य के समान इसी संसार में है।
क्योंकि वे सभी जो देह में जीवन बिताते हैं, उन्हें अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए अनुसरण हेतु लक्ष्यों की आवश्यकता होती है, और परमेश्वर को जानने के लिए परमेश्वर के वास्तविक कार्यों एवं वास्तविक चेहरे को को देखने की आवश्यकता होती है। दोनों को सिर्फ परमेश्वर के देहधारी शरीर के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है, और दोनों को सिर्फ साधारण एवं वास्तविक देह के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इसी लिए देहधारण ज़रूरी है, और इसी लिए समस्त भ्रष्ट मानवजाति को इसकी आवश्यकता होती है। जबकि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे परमेश्वर को जानें, तो अस्पष्ट एवं अलौकिक ईश्वरों की आकृतियों को उनके हृदयों से दूर हटाना जाना चाहिए, और जबकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करें, तो उन्हें पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना होगा। यदि मनुष्य केवल लोगों के हृदयों से अस्पष्ट ईश्वरों की आकृतियों को हटाने के लिए कार्य करता है, तो वह उपयुक्त प्रभाव हासिल करने में असफल हो जाएगा। लोगों के हृदयों से अस्पष्ट ईश्वरों की आकृतियों को केवल शब्दों से उजागर, एवं दूर नहीं किया जा सकता है, या पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता है। ऐसा करके, अंततः गहराई से जड़ जमाई हुई चीज़ों को लोगों से हटाना अभी भी संभव नहीं होगा। केवल व्यावहारिक परमेश्वर और परमेश्वर का सच्चा स्वरूप ही इन अस्पष्ट एवं अलौकिक चीज़ों का स्थान ले सकता है ताकि लोगों को धीरे धीरे उन्हें जानने की अनुमति दी जाए, और केवल इसी रीति से उस तयशुदा प्रभाव को हासिल किया जा सकता है। मनुष्य पहचान गया है कि वह परमेश्वर जिसे वह पिछले समयों में खोजता था वह अस्पष्ट एवं अलौकिक है। जो इस प्रभाव को हासिल कर सकता है वह आत्मा की प्रत्यक्ष अगुवाई नहीं है, और किसी फलाने व्यक्ति की शिक्षाएं तो बिलकुल भी नहीं हैं, किन्तु देहधारी परमेश्वर की शिक्षाएं हैं। जब देहधारी परमेश्वर आधिकारिक रूप से अपना कार्य करता है तो मनुष्य की धारणाओं का भेद खुल जाता है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर की साधारणता एवं वास्तविकता मनुष्य की कल्पना में अस्पष्ट एवं अलौकिक परमेश्वर के विपरीत है। मनुष्य की मूल धारणाओं को केवल देहधारी परमेश्वर से उनके अन्तर के माध्यम से ही प्रगट किया जा सकता है। देहधारी परमेश्वर से तुलना किए बगैर, मनुष्य की धारणाओं को प्रगट नहीं किया जा सकता था; दूसरे शब्दों में, वास्तविकता के अन्तर के बगैर अस्पष्ट चीज़ों को प्रगट नहीं किया जा सकता था। इस कार्य को करने के लिए कोई भी शब्दों का प्रयोग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी शब्दों का उपयोग करके इस कार्य को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना खुद का कार्य कर सकता है, और कोई अन्य उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य की भाषा कितनी समृद्ध है, वह परमेश्वर की वास्तविकता एवं साधारणता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। मनुष्य केवल और अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है, और केवल उसे और अधिक साफ साफ देख सकता है, यदि परमेश्वर व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य के मध्य कार्य करे और पूरी तरह से अपने स्वरूप एवं अपने अस्तित्व को प्रगट करे। यह प्रभाव किसी भी शारीरिक मनुष्य के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है। निश्चित रूप से, परमेश्वर का आत्मा भी इस प्रभाव को हासिल करने में असमर्थ है। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है, परन्तु इस कार्य को सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता है, इसके बजाए, इसे केवल उस देह के द्वारा किया जा सकता है जिसे परमेश्वर के आत्मा ने पहना है, और परमेश्वर के देहधारी शरीर के द्वारा किया जा सकता है। यह देह मनुष्य एवं साथ ही परमेश्वर भी है, यह देह एक मनुष्य है जिसने एक सामान्य मानवता को धारण किया है और साथ ही परमेश्वर भी है जिसने पूर्ण ईश्वरीयता को धारण किया है। और इस प्रकार, यद्यपि यह देह परमेश्वर का आत्मा नहीं है, और आत्मा से बिल्कुल भिन्न है, फिर भी वह अब भी स्वयं देहधारी परमेश्वर है जो मनुष्य को बचाता है, जो आत्मा है और साथ ही देह भी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसे किस नाम के द्वारा पुकारा जाता है, अंततोगत्वा वह अभी भी स्वयं परमेश्वर है जो मानवजाति को बचाता है। क्योंकि परमेश्वर का आत्मा देह से अविभाज्य है, और देह का कार्य भी परमेश्वर के आत्मा का कार्य है; यह बस ऐसा है कि इस कार्य को आत्मा की पहचान का उपयोग करते हुए नहीं किया गया है, किन्तु इसे देह की पहचान का उपयोग करते हुए किया गया है। कार्य जिसे सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा किए जाने की ज़रूरत है उसे देहधारण की आवश्यकता नहीं है, और कार्य जिसे करने के लिए देह की आवश्यकता है उसे आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया जा सकता है, और इसे केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही किया जा सकता है। यह वह है जिसकी आवश्यकता इस कार्य के लिए होती है, और यह वह है जिसकी भ्रष्ट मनुष्य के द्वारा आवश्यकता होती है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में, केवल एक ही चरण को सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा सम्पन्न किया गया था, और शेष दो चरणों को देहधारी परमेश्वर के द्वारा सम्पन्न किया गया है, और आत्मा के द्वारा सीधे तौर सम्पन्न नहीं किया गया है। आत्मा के द्वारा किए गए व्यवस्था के कार्य ने मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के परिवर्तन को शामिल नहीं किया था, और न ही यह परमेश्वर के विषय में मनुष्य के ज्ञान से कोई सम्बन्ध रखता था। फिर भी, अनुग्रह के युग में और राज्य के युग में परमेश्वर के देह का कार्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव एवं परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान को शामिल करता है, और यह उद्धार के कार्य का एक महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भाग है। इसलिए, भ्रष्ट मानवजाति को देहधारी परमेश्वर के उद्धार की और अधिक आवश्यकता है, और उसे देहधारी परमेश्वर के प्रत्यक्ष कार्य की और अधिक ज़रूरत है। मानवजाति को ज़रूरत है कि देहधारी परमेश्वर उसकी चरवाही करे, उसकी आपूर्ति करे, उसकी सिंचाई करे, उसका पोषण करे, उसका न्याय एवं उसे ताड़ना दे, और उसे देहधारी परमेश्वर से और अधिक अनुग्रह एवं और बड़े छुटकारे की आवश्यकता है। केवल देह में प्रगट परमेश्वर ही मनुष्य का दृढ़ विश्वासपात्र, मनुष्य का चरवाहा, मनुष्य का अति सहज सहायक बन सकता है, और पिछले समयों में एवं आज यह सब देहधारण की आवश्यकता है।
मनुष्य को शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, और वह परमेश्वर के सभी जीवधारियों में सबसे ऊपर है, अतः मनुष्य को परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है। परमेश्वर के उद्धार का विषय मनुष्य है, न कि शैतान, और जिसे बचाया जाना चाहिए वह मनुष्य की देह है, एवं मनुष्य का प्राण है, और शैतान नहीं है। शैतान परमेश्वर के सम्पूर्ण विनाश का विषय है, मनुष्य परमेश्वर के उद्धार का विषय है, और मनुष्य के शरीर को शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है, अतः जिसे पहले बचाना है वह मनुष्य का शरीर ही होगा। मनुष्य की देह को बहुत ज़्यादा भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह कुछ ऐसा बन गया है जो परमेश्वर का विरोध करता है, जो यहाँ तक कि खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध करता है और उसके अस्तित्व को भी नकारता है। इस भ्रष्ट देह का उपचार करना बहुत ही मुश्किल है, और देह के भ्रष्ट स्वभाव की अपेक्षा किसी और चीज़ के साथ निपटना या उसे बदलना ज़्यादा कठिन नहीं है। शैतान परेशानियां खड़ी करने के लिए मनुष्य की देह के भीतर आता है, और परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी डालने के लिए मनुष्य की देह का उपयोग करता है, और परमेश्वर की योजना को बाधित करता है, और इस प्रकार मनुष्य शैतान, एवं परमेश्वर का शत्रु बन चुका है। मनुष्य को बचाने के लिए, पहले उस पर विजय पाना होगा। यही कारण है कि परमेश्वर चुनौती के लिए उठता है, और देह में होकर आता है कि वह कार्य करे जिसे उसने करने का इरादा किया है, और शैतान के साथ लड़े । उसका उद्देश्य मनुष्य का उद्धार है, जिसे भ्रष्ट किया जा चुका है, और शैतान की पराजय एवं उसका सम्पूर्ण विनाश है, जो उसके विरुद्ध विद्रोह करता है। वह मनुष्य पर विजय पाने के अपने कार्य के जरिए शैतान को पराजित करता है, और ठीक उसी समय भ्रष्ट मानवजाति का उद्धार करता है। इस प्रकार, परमेश्वर एक बार में ही दो समस्याओं का हल करता है। वह देह में होकर कार्य करता है, देह में होकर बात करता है, और देह में होकर समस्त कार्यों की शुरुआत करता है जिससे मनुष्य के साथ बेहतर ढंग से संलग्न हो सके, और बेहतर ढंग से मनुष्य पर विजय पा सके। अंतिम बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया है, तो अंतिम दिनों के उसके कार्य को देह में पूरा किया जाएगा। वह सभी मनुष्यों को उनके किस्म के अनुसार वर्गीकृत करेगा, अपने सम्पूर्ण प्रबंधन को समाप्त करेगा, और साथ ही देह में अपने समस्त कार्य को भी समाप्त करेगा। जब पृथ्वी पर उसके सभी कार्य समाप्त हो जाते हैं, तो वह पूरी तरह से विजयी हो जाएगा। देह में कार्य करते हुए, परमेश्वर ने मानवजाति को पूरी तरह से जीत लिया होगा, और मानवजाति को पूर्ण रूप से अर्जित कर लिया होगा। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका समूचा प्रबंधन समापन की ओर आ चुका होगा? जब परमेश्वर देह में अपना कार्य पूरा करता है, चूँकि उसने शैतान को पूरी तरह से हरा दिया है और विजयी हुआ है, तो शैतान के पास मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए आगे और कोई अवसर नहीं होगा। परमेश्वर के प्रथम देहधारण का कार्य था मनुष्य के पापों का छुटकारा एवं उनकी क्षमा। अब यह मानवजाति को जीतने एवं पूरी तरह से अर्जित करने का कार्य है, ताकि शैतान के पास आगे से अपने कार्य को करने के लिए कोई मार्ग न हो, और वह पूरी तरह से हार चुका होगा, और परमेश्वर पूरी तरह से विजयी होगा। यह देह का कार्य है, और वह कार्य है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया गया है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के शुरूआती कार्य को सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा किया गया था, और देह के द्वारा नहीं। फिर भी, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के अंतिम कार्य को देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया है, और आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया गया है। माध्यमिक चरण के छुटकारे के कार्य को भी देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया था। समूचे प्रबंधकीय कार्य के दौरान, सबसे महत्वपूर्ण कार्य है शैतान के प्रभाव से मनुष्य का उद्धार। मुख्य कार्य है भ्रष्ट मनुष्य पर सम्पूर्ण विजय, इस प्रकार यह जीते गए मनुष्य के हृदय में परमेश्वर के मूल आदर को फिर से ज्यों का त्यों करता है, और उसे एक सामान्य जीवन हासिल करने की अनुमति देता है, कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर के एक जीवधारी का सामान्य जीवन। यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, और प्रबंधकीय कार्य का केन्द्रीय भाग है। उद्धार के कार्य के तीन चरणों में, व्यवस्था के कार्य का प्रथम चरण प्रबंधकीय कार्य के केन्द्रीय भाग से काफी दूर था; उसके पास उद्धार के कार्य का केवल हल्का सा रूप था, और यह शैतान के प्रभुत्व से मनुष्य को बचाने हेतु परमेश्वर के कार्य का आरम्भ नहीं था। पहले चरण के कार्य को सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा किया गया था क्योंकि, व्यवस्था के अन्तर्गत, मनुष्य केवल इतना जानता था कि व्यवस्था में बने रहना था, और उसके पास और अधिक सच्चाई नहीं थी, और क्योंकि व्यवस्था के युग में कार्य मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तनों को बमुश्किल ही शामिल करता था, और यह उस कार्य से तो बिलकुल भी सम्बन्धित नहीं था कि किस प्रकार मनुष्य को शैतान के प्रभुत्व से बचाया जाए। इस प्रकार परमेश्वर के आत्मा ने इस अत्यंत साधारण चरण के कार्य को पूरा किया था जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से सम्बन्धित नहीं था। इस चरण के कार्य ने प्रबंधन के केन्द्रीय भाग से थोड़ा सा सम्बन्ध रखा था, और इसका मनुष्य के उद्धार के आधिकारिक कार्य से कोई बड़ा परस्पर सम्बन्ध नहीं था, और इस प्रकार इसे आवश्यकता नहीं थी कि परमेश्वर अपने कार्य को व्यक्तिगत रीति से अंजाम देने के लिए देह धारण करे। आत्मा के द्वारा किए गए कार्य को सूचित किया गया है एवं यह अथाह है, और यह मनुष्य के लिए भय योग्य एवं अगम्य है; उद्धार के कार्य को सीधे तौर पर करने के लिए आत्मा उपयुक्त नहीं है, और मनुष्य को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने के लिए उपयुक्त नहीं है। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त यह है कि आत्मा के कार्य को सुगमता (पहुंच) में रूपान्तरित कर दिया जाए जो मनुष्य के करीब हो, कहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है वह यह है कि परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए एक साधारण एवं सामान्य व्यक्ति बन जाए। यह परमेश्वर के लिए आवश्यक है कि वह आत्मा के कार्य का स्थान लेने के लिए देहधारण करे, और मनुष्य के लिए, कार्य करने हेतु परमेश्वर के लिए कोई और उपयुक्त मार्ग नहीं है। कार्य के इन तीन चरणों के मध्य, दो चरणों को देह के द्वारा सम्पन्न किया गया है, और ये दो चरण प्रबंधकीय कार्य के मुख्य पहलु हैं। दो देहधारण परस्पर पूरक हैं और एक दूसरे को सिद्ध करते हैं। परमेश्वर के देहधारण के प्रथम चरण ने द्वितीय चरण के लिए नींव डाली थी, ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के दो देहधारण ने एक पूर्णता का आकार लिया था, और वे एक दूसरे से असंगत नहीं हैं। परमेश्वर के कार्य के इन दो चरणों को परमेश्वर के द्वारा उसकी देहधारी पहचान में सम्पन्न किया गया है क्योंकि वे समूचे प्रबंधकीय कार्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लगभग ऐसा कहा जा सकता है कि, परमेश्वर के दो देहधारण के कार्य के बिना, समूचा प्रबंधकीय कार्य थम गया होता, और मानवजाति को बचाने का कार्य और कुछ नहीं बल्कि खोखली बातें होतीं। ऐसा कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं यह मानवजाति की आवश्यकताओं, एवं मानवजाति की कलुषता की वास्तविकता, और शैतान की अनाज्ञाकारिता और कार्य के विषय में उसकी गड़बड़ी पर आधारित है। सही व्यक्ति जो कार्य करने में समर्थ है वह अपने कार्य के स्वभाव, और कार्य के महत्व पर आधारित होता है। जब इस कार्य के महत्व की बात आती है, इस सम्बन्ध में कि कार्य के कौन से तरीके को अपनाया जाए - आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किया गया कार्य, या देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य, या मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य– जिसे पहले निष्काषित किया जाना है वह मनुष्य के माध्यम से किया गया कार्य है, और, उस कार्य के स्वभाव, और देह के कार्य के विपरीत आत्मा के कार्य के स्वभाव के पर आधारित है , अंततः यह निर्णय लिया गया है कि देह के द्वारा किया गया कार्य आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य की अपेक्षा मनुष्य के लिए अत्यधिक लाभदायक है, और अत्यधिक लाभ प्रदान करता है। यह उस समय परमेश्वर का विचार है कि वह निर्णय ले कि कार्य आत्मा के द्वारा किया गया था या देह के द्वारा। कार्य के प्रत्येक चरण का एक महत्व एवं आधार होता है। वे आधारहीन कल्पनाएं नहीं हैं, न ही उन्हें स्वेच्छा से क्रियान्वित किया गया है; उनमें एक निश्चित बुद्धि है। परमेश्वर के सारे कार्यों के पीछे की सच्चाई ऐसी ही है। विशेष रूप में, ऐसे बड़े कार्य में परमेश्वर की और भी अधिक योजना है चूँकि देहधारी परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के बीच में कार्य कर रहा है। और इस प्रकार, परमेश्वर की बुद्धि और उसके अस्तित्व की सम्पूर्णता उसके प्रत्येक कार्य, सोच, एवं कार्य करने की युक्ति में प्रतिबिम्बित होती है; यह परमेश्वर का अस्तित्व है जो अत्यधिक ठोस एवं क्रमानुसार है। इन विलक्षण विचारों एवं युक्तियों की कल्पना करना मनुष्य के लिए कठिन है, और मनुष्य के लिए विश्वास करना कठिन है, और, इसके अतिरिक्त, मनुष्य के लिए जानना कठिन है। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य सामान्य सिद्धान्त के अनुसार होता है, जो मनुष्य के लिए अत्यंत संतोषजनक होता है। फिर भी परमेश्वर के कार्य से तुलना करने पर, केवल एक बहुत बड़ी असमानता ही दिखाई देती है; यद्यपि परमेश्वर के कार्य महान हैं और परमेश्वर के कार्य शोभायमान स्तर के होते हैं, फिर भी उनके पीछे अनेक सूक्ष्म एवं सटीक योजनाएं एवं इंतज़ाम होते हैं जो मनुष्य के लिए अकल्पनीय हैं। उसके कार्य का प्रत्येक चरण न केवल सिद्धान्त के अनुसार होता है, बल्कि अनेक चीज़ों को रखता है जिन्हें मानवीय भाषा में स्पष्टता से व्यक्त नहीं किया जा सकता है, और ये ऐसी चीज़ें हैं जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं। इसकी परवाह किए बगैर कि यह आत्मा का कार्य है या देहधारी परमेश्वर का कार्य है, हर एक उसके कार्य की योजनाओं को रखता है। वह बिना किसी आधार के कार्य नहीं करता है, और महत्वहीन कार्य नहीं करता है। जब आत्मा सीधे तौर पर कार्य करता है तो यह उसके लक्ष्यों के साथ होता है, और जब वह कार्य करने के लिए मनुष्य (कहने का तात्पर्य है, जब वह अपने बाहरी आवरण को रूपान्तरित करता है) बन जाता है, तो यह उसके उद्देश्य के साथ और भी अधिक होता है। वह और किस लिए अपनी पहचान को स्वतन्त्र रूप से बदलेगा? वह और किस लिए ऐसा व्यक्ति बनेगा जिसे निकृष्ट माना गया है और जिसे सताया गया है?
देह के उसके कार्य अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, जिसे कार्य के सम्बन्ध में कहा गया है, और वह परमेश्वर जो अंततः कार्य का समापन करता है वह देहधारी परमेश्वर है, और आत्मा नहीं है। कुछ लोग विश्वास करते हैं कि शायद परमेश्वर किसी समय पृथ्वी पर आए और लोगों को दिखाई दे, जिसके बाद वह समस्त मानवजाति का न्याय करेगा, किसी को छोड़े बिना उन्हें एक एक करके जांचेगा। ऐसे लोग जो इस रीति के सोचते हैं वे देहधारण के इस चरण के कार्य को नहीं जानते हैं। परमेश्वर एक एक करके मनुष्य का न्याय नहीं करता है, और एक एक करके मनुष्य की जांच नहीं करता है; ऐसा करना न्याय का कार्य नहीं होगा। क्या समस्त मानवजाति की भ्रष्टता एक समान नहीं है? क्या मनुष्य का मूल-तत्व सब एक जैसा नहीं है? जिसका न्याय किया जाता है वह मनुष्य का भ्रष्ट मूल-तत्व है, मनुष्य का मूल-तत्व जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया गया है, और मनुष्य के समस्त पाप हैं। परमेश्वर मनुष्य की छोटी-मोटी एवं मामूली त्रुटियों का न्याय नहीं करता है। न्याय का कार्य प्रतिनिधिक है, और इसे विशेषकर किसी निश्चित व्यक्ति के लिए क्रियान्वित नहीं किया जाता है। इसके बजाए, यह ऐसा कार्य है जिसमें समस्त मानवजाति के न्याय को दर्शाने के लिए लोगों के एक समूह का न्याय किया जाता है। लोगों के एक समूह पर व्यक्तिगत रूप से अपने कार्य को क्रियान्वित करने के द्वारा, देह में प्रगट परमेश्वर समूची मानवजाति के कार्य को दर्शाने के लिए अपने कार्य का उपयोग करता है, जिसके पश्चात् यह धीरे धीरे फैलता जाता है। न्याय का कार्य भी इस प्रकार ही है। परमेश्वर किसी निश्चित किस्म के व्यक्ति या लोगों के किसी निश्चित समूह का न्याय नहीं करता है, परन्तु समूची मानवजाति की अधार्मिकता का न्याय करता है - परमेश्वर के प्रति मनुष्य का विरोध, उदाहरण के लिए, या उसके विरुद्ध मनुष्य का अनादर, या परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी डालना, एवं इत्यादि। जिसका न्याय किया जाता है वह परमेश्वर के विरुद्ध मनुष्य का मूल-तत्व है, और यह कार्य अंतिम दिनों के विजय का कार्य है। देहधारी परमेश्वर का कार्य एवं वचन जिसकी गवाही मनुष्य के द्वारा दी जाती है वे अंतिम दिनों के दौरान बड़े श्वेत सिंहासन के सामने न्याय के कार्य हैं, जिसे पिछले समयों के दौरान मनुष्य के द्वारा सोचा विचारा गया था। ऐसा कार्य जिसे वर्तमान में देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया जा रहा है वह बिलकुल उस बड़े श्वेत सिंहासन के सामने का न्याय है। आज का देहधारी परमेश्वर वह परमेश्वर है जो अंतिम दिनों के दौरान समूची मानवजाति का न्याय करता है। यह देह एवं उसका कार्य, वचन, और समूचा स्वभाव वे उसकी सम्पूर्णता हैं। यद्यपि उसके कार्य का दायरा सीमित है, और सीधे तौर पर समूचे विश्व को शामिल नहीं करता है, फिर भी न्याय के कार्य का मूल-तत्व समस्त मानवजाति का प्रत्यक्ष न्याय है; यह ऐसा कार्य नहीं है जिसे केवल चीन के लिए, या कम संख्या के लोगों के लिए आरम्भ किया गया है। देह में परमेश्वर के कार्य के दौरान, यद्यपि इस कार्य का दायरा समूचे विश्व को शामिल नहीं करता है, फिर भी यह समूचे विश्व के कार्य को दर्शाता है, जब वह अपनी देह के कार्य के दायरे के भीतर उस कार्य का समापन करता है उसके पश्चात्, वह तुरन्त ही इस कार्य को समूचे विश्व में फैला देगा, उसी रीति से जैसे यीशु के पुनरूत्थान एवं स्वर्गारोहण के बाद उसका सुसमाचार सारी दुनिया में फैल गया था। इसकी परवाह किए बगैर कि यह आत्मा का कार्य है या देह का कार्य, यह ऐसा कार्य है जिसे एक सीमित दायरे के भीतर सम्पन्न किया गया है, परन्तु जो समूचे विश्व के कार्य को दर्शाता है। अन्त के दिनों के दौरान, परमेश्वर अपनी देहधारी पहचान का उपयोग करते हुए अपने कार्य को करने के लिए प्रगट हुआ है, और देह में प्रगट परमेश्वर वह परमेश्वर है जो बड़े श्वेत सिंहासन के सामने मनुष्य का न्याय करता है। इसकी परवाह किए बगैर कि वह आत्मा है या देह, वह जो न्याय का काम करता है वही ऐसा परमेश्वर है जो अंतिम दिनों के दौरान मनुष्य का न्याय करता है। उसके कार्य के आधार पर इसे परिभाषित किया गया है, परन्तु उसके बाहरी रंग-रूप एवं विभिन्न अन्य कारकों के अनुसार इसे परिभाषित नहीं किया गया है। यद्यपि मनुष्य के पास इन वचनों के विषय में धारणाएं हैं, फिर भी कोई देहधारी परमेश्वर के न्याय एवं समस्त मानवजाति पर विजय के तथ्य को नकार नहीं सकता है। इसकी परवाह किए बगैर कि किस प्रकार इसका मूल्यांकन किया जाता है, तथ्य, आखिरकार, तथ्य ही हैं। कोई यह नहीं कह सकता है कि "यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया है, परन्तु यह देह परमेश्वर नहीं है।" यह बकवास है, क्योंकि इस कार्य को देहधारी परमेश्वर को छोड़कर किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता है। जबकि इस कार्य को पहले से ही पूरा किया जा चुका है, तो इस कार्य के बाद मनुष्य के विषय में परमेश्वर के न्याय का कार्य दूसरी बार प्रगट नहीं होगा; दूसरे देहधारी परमेश्वर ने पहले से ही समूचे प्रबंधन के सभी कार्यों का समापन कर लिया है, और परमेश्वर के कार्य का चौथा चरण नहीं होगा। क्योंकि वह मनुष्य है जिसका न्याय किया जाता है, मनुष्य जो हाड़-मांस का है और उसे भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान का आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, न्याय के कार्य को आत्मिक संसार में सम्पन्न नहीं किया जाता है, परन्तु मनुष्यों के बीच किया जाता है। कोई भी मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रगट परमेश्वर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त, एवं योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया गया होता, तो यह सभी के द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार्य नहीं होता। इसके अतिरिक्त, ऐसे कार्य को स्वीकार करना मनुष्य के लिए कठिन होगा, क्योंकि आत्मा मनुष्य के साथ आमने-सामने आने में असमर्थ है, और इस कारण से, प्रभाव तत्काल नहीं होंगे, और मनुष्य परमेश्वर के अनुल्लंघनीय स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिलकुल भी सक्षम नहीं होगा। यदि देह में प्रगट परमेश्वर मानवजाति की भ्रष्टता का न्याय करे केवल तभी शैतान को पूरी तरह से हाराया जा सकता है। मनुष्य के समान होकर जो सामान्य मानवता को धारण करता है, देह में प्रगट परमेश्वर सीधे तौर पर मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय कर सकता है; यह उसकी अंतर्निहित पवित्रता, एवं उसकी असाधारणता का चिन्ह है। केवल परमेश्वर ही योग्य है, एवं उस स्थिति में है कि मनुष्य का न्याय करे, क्योंकि वह सत्य एवं धार्मिकता को धारण किए हुए है, और इस प्रकार वह मनुष्य का न्याय करने में सक्षम है। ऐसे लोग जो सत्य एवं धार्मिकता से रहित हैं वे दूसरों का न्याय करने के लायक नहीं हैं। यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाता, तो एक छोटा सा कीड़ा (लीख) भी शैतान पर विजय नहीं पाता। आत्मा स्वभाव से ही नश्वर प्राणियों कहीं अधिक ऊँचा है, और परमेश्वर का आत्मा स्वभाव से ही पवित्र है, और देह के ऊपर जयवंत है। यदि आत्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य की सारी आनाज्ञाकारिता का न्याय करने में सक्षम नहीं होता, और मनुष्य की सारी अधार्मिकता को प्रगट नहीं कर सकता था। क्योंकि परमेश्वर के विषय में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से न्याय के कार्य को भी सम्पन्न किया जाता है, और मनुष्य के पास कभी भी आत्मा के विषय में कोई धारणाएं नहीं है, और इस प्रकार आत्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रगट करने में असमर्थ है, और ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिलकुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते हैं। उसके प्रति मनुष्य की धारणाओं एवं विरोध का न्याय करने के माध्यम से, वह मानवजाति की सारी अनाज्ञाकारिता का खुलासा करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव आत्मा के कार्य की अपेक्षा अधिक प्रगट हैं। और इस प्रकार, समस्त मानवजाति के न्याय को आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता है, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देह में प्रगट परमेश्वर को मनुष्य के द्वारा देखा एवं छुआ जा सकता है, और देह में प्रगट परमेश्वर पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पा सकता है। देहधारी परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में, मनुष्य विरोध से आज्ञाकारिता की ओर, सताव से स्वीकार्यता की ओर, सोच विचार से ज्ञान की ओर, और तिरस्कार से प्रेम की ओर प्रगति करता है। ये देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव हैं। मनुष्य को केवल परमेश्वर के न्याय की स्वीकार्यता के माध्यम से ही बचाया जाता है, मनुष्य केवल परमेश्वर के मुँह के वचनों के माध्यम से ही धीरे धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान उसके द्वारा मनुष्य पर विजय पाया जाता है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकार्यता के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, और आत्मा के रूप में उसकी पहचान में परमेश्वर का कार्य नहीं है। देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य सर्वश्रेष्ठ कार्य है, और अति गंभीर कार्य है, और परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अति महत्वपूर्ण भाग देहधारण के दो चरणों के कार्य हैं। मनुष्य की अत्यंत गंभीर भ्रष्टता देहधारी परमेश्वर के कार्य में एक बड़ी बाधा है। विशेष रूप में, अंतिम दिनों के लोगों पर क्रियान्वित किया गया कार्य बहुत ही कठिन है, और माहौल प्रतिकूल है, और हर किस्म के लोगों की क्षमता बहुत ही कमज़ोर है। फिर भी इस कार्य के अंत में, यह बिना किसी त्रुटि के अब भी उचित प्रभाव को हासिल करेगा; यह देह के कार्य का प्रभाव है, और यह प्रभाव आत्मा के कार्य की अपेक्षा अधिक रज़ामन्द करने वाला (मनाने वाला) है। देहधारी परमेश्वर के द्वारा तीन चरणों के कार्य का समापन किया जाएगा, और इसे देहधारी परमेश्वर के द्वारा अवश्य पूरा किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण एवं सबसे निर्णायक कार्य को देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया है, और मनुष्य के उद्धार को व्यक्तिगत रूप से देहधारी परमेश्वर के द्वारा अवश्य सम्पन्न किया जाना चाहिए। यद्यपि समस्त मानवजाति को लगता है कि देह में प्रगट परमेश्वर का मनुष्य से कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वास्तव में यह देह समूची मानवजाति की नियति एवं अस्तित्व से सम्बन्धित है।
परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण सारी मानवजाति के वास्ते है, और समूची मानवजाति की ओर निर्देशित है। यद्यपि यह देह में उसका कार्य है, फिर भी इसे अब भी सारी मानवजाति की ओर निर्देशित किया गया है; वह सारी मानवजाति का परमेश्वर है, वह सभी सृजे गए और न सृजे गए प्राणियों का परमेश्वर है। यद्यपि देह में उसका कार्य एक सीमित दायरे के भीतर होता है, और इस कार्य का विषय भी सीमित होता है, फिर भी हर बार जब वह अपना कार्य करने के लिए देह धारण करता है तो वह अपने कार्य का एक विषय चुनता है जो अत्यंत प्रतिनिधिक है; वह सामान्य एवं मामूली लोगों के एक समूह को नहीं चुनता है कि उन पर कार्य करे, किन्तु इसके बजाए अपने कार्य के विषय के रूप में लोगों के ऐसे समूह को चुनता है जो देह में उसके कार्य के प्रतिनिधि होने में सक्षम हैं। लोगों के ऐसे समूह को चुना गया है क्योंकि देह में उसके कार्य का दायरा सीमित होता है, और इसे विशेष रूप से उसके देहधारी शरीर के लिए तैयार किया गया है, और इसे विशेष रूप से देह में उसके कार्य के लिए चुना गया है। परमेश्वर के द्वारा अपने कार्य के विषयों का चुनाव बेबुनियाद नहीं होता है, परन्तु सिद्धान्त के अनुसार होता हैः कार्य का विषय देहधारी परमेश्वर के कार्य के लिए अवश्य लाभदायक होना चाहिए, और उसे सम्पूर्ण मानवजाति का प्रतिनिधित्व करने में अवश्य सक्षम होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यीशु के व्यक्तिगत छुटकारे को स्वीकार करने के द्वारा यहूदी समस्त मानवजाति का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम थे, और देहधारी परमेश्वर के व्यक्तिगत विजय को स्वीकार करने के द्वारा चीनी लोग समस्त मानवजाति का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हैं। समस्त मानवजाति के विषय में यहूदियों के प्रतिनिधित्व का एक आधार है, और परमेश्वर के व्यक्तिगत विजय को स्वीकार करने के द्वारा समस्त मानवजाति के विषय में चीनियों के प्रतिनिधित्व का भी एक आधार है। यहूदियों के बीच किए गए छुटकारे के कार्य से अधिक कोई भी चीज़ छुटकारे के महत्व को प्रगट नहीं करती है, और चीनी लोगों के बीच विजय के कार्य से अधिक कोई भी चीज़ विजय के कार्य की सम्पूर्णता एवं सफलता को प्रगट नहीं करती है। ऐसा प्रतीत होता है कि देहधारी परमेश्वर के कार्य एवं वचन का लक्ष्य केवल लोगों का एक छोटा समूह ही है, परन्तु वास्तव में, ऐसे छोटे समूह के बीच उसका कार्य समूचे विश्व का कार्य है, और उसके वचन को समस्त मानवजाति की ओर निर्देशित किया गया है। जब देह में उसका कार्य समाप्त हो जाता है उसके बाद, ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे उस कार्य को फैलाना शुरू कर देते हैं जिसे उसने उनके बीच किया है। देह में किए गए उसके कार्य के विषय में सबसे अच्छी बात यह है कि वह सटीक वचनों एवं उपदेशों को, और मानवजाति के लिए अपनी सटीक इच्छा को उन लोगों के लिए छोड़ सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं, ताकि बाद में उसके अनुयायी देह में किए गए उसके समस्त कार्य और समूची मानवजाति के लिए उसकी इच्छा को अत्यधिक सटीकता एवं अत्यंत ठोस रूप में उन लोगों तक पहुंचा सकते हैं जो इस मार्ग को स्वीकार करते हैं। केवल मनुष्य के बीच देह में प्रगट परमेश्वर का कार्य ही सचमुच में परमेश्वर के अस्तित्व और मनुष्य के साथ रहने के तथ्य को पूरा करता है। केवल यह कार्य ही परमेश्वर के मुख को देखने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने, और परमेश्वर के व्यक्तिगत वचन को सुनने हेतु मनुष्य की इच्छा को पूरा करता है। देहधारी परमेश्वर उस युग को अन्त की ओर लाता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मानवजाति को दिखाई दी थी, और साथ ही अस्पष्ट परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास का भी समापन करता है। विशेष रूप में, अंतिम देहधारी परमेश्वर का कार्य सारी मानवजाति को एक ऐसे युग में लाता है जो और अधिक वास्तविक, और अधिक व्यावहारिक, एवं और अधिक मनोहर है। वह न केवल व्यवस्था एवं सिद्धान्त के युग का अन्त करता है; बल्कि अति महत्वपूर्ण रूप से, वह मानवजाति पर ऐसे परमेश्वर को प्रगट करता है जो वास्तविक एवं साधारण है, जो धर्मी एवं पवित्र है, जो प्रबंधकीय योजना के कार्य को चालू करता है और मानवजाति के रहस्यों एवं मंज़िल को प्रदर्शित करता है, जिसने मानवजाति को सृजा था और प्रबंधकीय कार्य को अन्त की ओर ले जाता है, और जो हज़ारों वर्षों से छिपा हुआ है। वह अस्पष्टता के युग को सम्पूर्ण अन्त की ओर ले जाता है, वह उस युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति परमेश्वर के मुख को खोजने की इच्छा करती थी परन्तु वह ऐसा करने में असमर्थ थी, वह ऐसे युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति शैतान की सेवा करती थी, और समस्त मानवजाति की अगुवाई पूरी तरह से एक नए विशेष काल (युग) में करता है। यह सब परमेश्वर के आत्मा के बजाए देह में प्रगट परमेश्वर के कार्य का परिणाम है। जब परमेश्वर अपनी देह में कार्य करता है, तो ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे आगे से उन अस्पष्ट एवं संदिग्ध चीज़ों को खोजते एवं टटोलते नहीं हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर की इच्छा का अन्दाज़ा लगाना बन्द कर देते हैं। जब परमेश्वर देह में अपने कार्य को फैलाता है, तो ऐसे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं वे उस कार्य को सभी मसीही समुदायों एवं मतों में आगे पहुंचाएंगे जिसे उसने देह में किया है, और वे उसके सभी वचनों को समूची मानवजाति के युगों से कहेंगे। सब कुछ जिसे उन लोगों के द्वारा सुना गया है जिन्होंने उसके सुसमाचार को प्राप्त किया है वे उसके कार्य के तथ्य होंगे, ऐसी चीज़ें होंगीं जिन्हें मनुष्य के द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखा एवं सुना गया है, और तथ्य होंगे और झूठी शिक्षा नहीं होगी। ये तथ्य ऐसे प्रमाण हैं जिनके तहत वह उस कार्य को फैलाता है, और वे ऐसे यन्त्र हैं जिन्हें वह उस कार्य को फैलाने में इस्तेमाल करता है। तथ्यों की मौजूदगी के बगैर, उसका सुसमाचार सभी देशों एवं सभी स्थानों तक नहीं फैलेगा; तथ्यों के बिना किन्तु केवल मनुष्यों की कल्पनाओं के साथ, वह समूचे संसार पर विजय पाने के कार्य को करने में कभी सक्षम नहीं होगा। आत्मा मनुष्य के लिए अस्पृश्य है, और मनुष्य के लिए अदृश्य है, और आत्मा का कार्य मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य के विषय में और कोई प्रमाण एवं तथ्यों को छोड़ने में असमर्थ है। मनुष्य परमेश्वर के सच्चे चेहरे को कभी नहीं देख पाएगा, और वह हमेशा ऐसे अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करता रहेगा जो अस्तित्व में है ही नहीं। मनुष्य कभी परमेश्वर के मुख को नहीं देख पाएगा, न ही मनुष्य परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से कहे गए वचनों को कभी सुन पाएगा। मनुष्य की कल्पनाएं, आखिरकार, खोखली होती हैं, और परमेश्वर के सच्चे चेहरे का स्थान नहीं ले सकती हैं; मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के कार्य की नकल (रूप धारण) नहीं की जा सकती है। स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर और उसके कार्य को केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही पृथ्वी पर लाया जा सकता है जो मनुष्य के बीच में व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता है। यह सबसे आदर्श तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर मनुष्य पर प्रगट होता है, जिसके अंतर्गत मनुष्य परमेश्वर को देखता है और परमेश्वर के असली चेहरे को जानने लगता है, और इसे किसी देह रहित परमेश्वर के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के द्वारा इस चरण के अपने कार्य को सम्पन्न करने के बाद, उसके कार्य ने पहले से ही सर्वोत्तम प्रभाव को हासिल लिया है, और पूरी तरह सफल रहा है। देह में प्रगट परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य ने पहले से ही परमेश्वर के समूचे प्रबंधन के कार्य का नब्बे प्रतिशत कार्य पूरा कर लिया है। इस देह ने उसके समस्त कार्य को एक बेहतर शुरूआत, और उसके समस्त कार्य के लिए एक सारांश प्रदान किया है, और उसके समस्त कार्य की घोषणा की है, और इस समस्त कार्य के लिए फिर से सम्पूर्ण आपूर्ति की है। इसके पश्चात्, परमेश्वर के कार्य के चौथे चरण को करने के लिए और कोई दूसरा देहधारी परमेश्वर नहीं होगा, और परमेश्वर के तीसरे देहधारण का और कोई चमत्कारीय कार्य नहीं होगा।
देह में परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण समूचे युग के उसके कार्य का प्रतिनिधित्व करता है, और मनुष्य के काम के समान किसी निश्चित समय अवधि का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। और इस प्रकार उसके अंतिम देहधारण के कार्य के अन्त का अभिप्राय यह नहीं है कि उसका कार्य पूर्ण समापन की ओर आ गया है, क्योंकि देह में उसका कार्य समूचे युग का प्रतिनिधित्व करता है, और केवल उसी समय अवधि का ही प्रतिनिधित्व नहीं करता है जिसमें वह देह में कार्य करता है। यह ठीक ऐसा है कि वह उस समय के दौरान जब वह देह में है समूचे युग के अपने कार्य को पूरा करता है, उसके पश्चात् यह सभी स्थानों में फैल जाता है। देहधारण के पश्चात् परमेश्वर अपनी सेवकाई को पूरा करता है, वह अपने भविष्य के कार्य को उन्हें सौंपेगा जो उसका अनुसरण करते हैं। इस रीति से, समूचे युग के उसके कार्य को सही सलामत सम्पन्न किया जाएगा। देहधारण के समूचे युग के कार्य को केवल तभी सम्पूर्ण माना जाएगा जब एक बार यह समूचे संसार के आर पार फैल जाए। देहधारी परमेश्वर का कार्य एक नये विशेष युग (काल) को प्रारम्भ करता है, और ऐसे लोग जो उसके कार्य को निरन्तर जारी रखते हैं वे ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें उसके द्वारा उपयोग किया जाता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई के अन्तर्गत होता है, और इस दायरे के परे जाने में असमर्थ होता है। यदि देहधारी परमेश्वर अपने कार्य को करने के लिए नहीं आता, तो मनुष्य पुराने युग को समापन की ओर लाने में समर्थ नहीं होता, और नए विशेष युग की शुरुआत करने के समर्थ नहीं होता। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य महज उसके कर्तव्य के दायरे के भीतर होता है जो मानवीय रूप से संभव है, और परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। केवल देहधारी परमेश्वर ही आ सकता है और उस कार्य को पूरा कर सकता है जो उसे करना चाहिए, और उसके अलावा, कोई भी उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। निश्चित रूप से, जो कुछ मैं कहता हूँ वह देधारण के कार्य के सम्बन्ध में है। यह देहधारी परमेश्वर पहले कार्य के प्रथम चरण को क्रियान्वित करता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, उसके पश्चात् वह और अधिक कार्य करता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है। उस कार्य का लक्ष्य है मनुष्य पर विजय। एक लिहाज से, परमेश्वर का देहधारण मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, जिसके साथ ही वह और भी अधिक कार्य करता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, और इस प्रकार मनुष्य उसके विषय में और भी अधिक आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करता है। वह सिर्फ मनुष्यों के बीच में विजय का कार्य करता है जिनके पास उसके प्रति असंख्य धारणाएं होती हैं। इसकी परवाह किए बगैर कि वे किस प्रकार उससे व्यवहार करते हैं, जब एक बार वह अपनी सेवकाई को पूरा कर लेता है, तो सभी मनुष्य उसके प्रभुत्व के अधीन हो चुके होंगे। इस कार्य की सच्चाई न केवल चीनी लोगों के बीच में प्रतिबिम्बित हुई है, बल्कि यह दर्शाती है कि किस प्रकार सम्पूर्ण मानवजाति को जीत लिया जाएगा। ऐसे प्रभाव जिन्हें इन लोगों के ऊपर हासिल किया गया है वे उन प्रभावों के एक अग्रदूत होते हैं जिन्हें समूची मानवजाति पर हासिल किया जाएगा, और उस कार्य के प्रभाव जिन्हें वह भविष्य में करता है वे उन लोगों पर प्रभावों को तेजी से बढ़ा देंगे। देह में प्रगट परमेश्वर का कार्य किसी बड़े स्वागत ध्वनी को शामिल नहीं करता है, न ही यह रहस्य में ढंका होता है। यह यथार्थ एवं वास्तविक है, और यह ऐसा कार्य है जिसमें एक और एक दो के बराबर होते हैं। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है, न ही यह किसी को धोखा देता है। जो कुछ लोग देखते हैं वे वास्तविक एवं विशुद्ध चीजें हैं, और जो कुछ मनुष्य अर्जित करता है वह वास्तविक सत्य एवं ज्ञान है। जब कार्य समाप्त होता है, तब मनुष्य के पास उसका नया ज्ञान होगा, और ऐसे लोग जो सचमुच में परमेश्वर को खोजते हैं उनके पास आगे से उसके विषय में कोई धारणाएं नहीं होंगीं। यह सिर्फ चीनी लोगों पर उसके कार्य का प्रभाव नहीं है, बल्कि साथ ही सम्पूर्ण मानवजाति को जीतने में उसके कार्य के प्रभाव को भी दर्शाता है, क्योंकि इस देह, एवं इस देह के कार्य, एवं इस देह की हर एक चीज़ की अपेक्षा कोई भी चीज़ सम्पूर्ण मानवजाति पर विजय पाने के कार्य के लिए अत्यधिक लाभदायक नहीं है। वे आज उसके कार्य के लिए लाभदायक हैं, और भविष्य में उसके कार्य के लिए लाभदायक हैं। यह देह समस्त मानवजाति को जीत लेगा और समस्त मानवजाति को अर्जित कर लेगा। ऐसा कोई बेहतर कार्य नहीं है जिसके माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति परमेश्वर को निहारेगी, एवं परमेश्वर की आज्ञा मानेगी, एवं परमेश्वर को जानेगी। मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य मात्र एक सीमित दायरे को दर्शाता है, और जब परमेश्वर अपना कार्य करता है तो वह किसी निश्चित व्यक्ति से बात नहीं करता है, परन्तु सम्पूर्ण मानवजाति, एवं उन सभी लोगों से बात करता है जो उसके वचनों को स्वीकार करते हैं। वह अन्त जिसकी वह घोषणा करता है वह सभी मनुष्यों का अन्त है, और सिर्फ किसी निश्चित व्यक्ति का अन्त नहीं है। वह किसी के साथ खास व्यवहार नहीं करता है, न ही किसी को पीड़ित करता है, और वह सम्पूर्ण मानवजाति के लिए कार्य करता है, और उससे बोलता है। और इस प्रकार इस देहधारी परमेश्वर ने समस्त मानवजाति को उसके किस्म (वर्ग) के अनुसार पहले से ही वर्गीकृत कर दिया है, समस्त मानवजाति का पहले से ही न्याय कर दिया है, समस्त मानवजाति के लिए पहले से ही उपयुक्त मंज़िल का इंतज़ाम कर लिया है। यद्यपि परमेश्वर सिर्फ चीन में ही अपना कार्य करता है, फिर भी वास्तव में उसने तो पहले से ही सम्पूर्ण विश्व के कार्य का दृढ़ निश्चय कर लिया है। अपने कथनों एवं इंतज़ामों को कदम दर कदम करने से पहले वह तब तक इंतज़ार नहीं कर सकता है जब तक उसका कार्य समस्त मानवजाति में फैल न जाए। क्या बहुत देर न हो जाएगी? अब वह भविष्य के कार्य को समय से पहले पूरा करने में पूरी तरह से सक्षम है। क्योंकि वह परमेश्वर जो कार्य कर रहा है वह देहधारी परमेश्वर है, वह सीमित दायरे में असीमित कार्य कर रहा है, और इसके पश्चात् वह मनुष्य से उस कर्तव्य का पालन करवाएगा जिसे मनुष्य को करना चाहिए; यह उसके कार्य का सिद्धान्त है। वह केवल कुछ समय के लिए ही मनुष्य के साथ जीवन बिता सकता है, और समूचे युग के कार्य के समाप्त होने तक उसके साथ नहीं रह सकता है। यह इसलिए है क्योंकि वह ऐसा परमेश्वर है जो समय से पहले ही अपने भविष्य के कार्य की भविष्यवाणी करता है। उसके पश्चात्, वह अपने वचनों के द्वारा सम्पूर्ण मानवजाति को उसके किस्म के अनुसार वर्गीकृत करेगा, और मानवजाति उसके वचनों के अनुसार उसके कदम दर कदम कार्य में प्रवेश करेगी। कोई भी नहीं बचेगा, और सभी को इसके अनुसार अभ्यास करना होगा। अतः, भविष्य में युग को उसके वचनों के अनुसार मार्गदर्शन दिया जाएगा, और आत्मा के द्वारा मार्गदर्शन नहीं दिया जाएगा।
देह में प्रगट परमेश्वर के कार्य को देह में अवश्य किया जाना चाहिए। यदि इसे सीधे तौर पर आत्मा के द्वारा किया जाता है तो उसके कोई प्रभाव नहीं होंगे। भले ही इसे आत्मा के द्वारा किया गया होता, फिर भी वह कार्य किसी बड़े महत्व का नहीं होता, और अन्ततः रज़ामन्द करनेवाला (मनाने वाला) नहीं होता। सभी जीवधारी जानना चाहते हैं कि सृष्टिकर्ता के कार्य का महत्व है या नहीं, और यह क्या दर्शाता है, और यह किस के लिए है, और परमेश्वर का कार्य अधिकार एवं बुद्धि से भरा हुआ है या नहीं, और यह अत्यंत मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण है या नहीं। वह कार्य जिसे वह करता है वह सम्पूर्ण मानवजाति के उद्धार के लिए है, शैतान को हराने के लिए है, और सभी चीज़ों के मध्य स्वयं की गवाही देने के लिए है। उसी रूप में, वह कार्य जिसे वह करता है वह अवश्य ही बड़े महत्व का होगा। मनुष्य की देह को शैतान के द्वारा भष्ट किया गया है, और बिलकुल अन्धा कर दिया गया है, और गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया गया है। परमेश्वर किस लिए व्यक्तिगत रूप से देह में कार्य करता है उसका अत्यंत मौलिक कारण है क्योंकि उसके उद्धार का विषय है मनुष्य, जो देह से है, और क्योंकि शैतान भी परमेश्वर के कार्य को बिगाड़ने के लिए मनुष्य की देह का उपयोग करता है। शैतान के साथ युद्ध वास्तव में मनुष्य पर विजय पाने का कार्य है, और ठीक उसी समय, मनुष्य भी परमेश्वर के उद्धार का विषय है। इस रीति से, देहधारी परमेश्वर का कार्य परम आवश्यक है। शैतान ने मनुष्य की देह को भ्रष्ट कर दिया है, और मनुष्य शैतान का मूर्त रूप बन गया है, और ऐसा विषय बन गया है जिसे परमेश्वर के द्वारा हराया जाना है। इस रीति से, शैतान से युद्ध करने और मनुष्य को बचाने का कार्य पृथ्वी पर घटित होता है, और शैतान से युद्ध करने के लिए परमेश्वर को अवश्य मनुष्य बनना होगा। यह अत्यंत व्यावहारिकता का कार्य है। जब परमेश्वर देह में कार्य कर रहा है, तो वह वास्तव में देह में शैतान से युद्ध कर रहा है। जब वह देह में कार्य करता है, तो वह आत्मिक आयाम में अपना कार्य कर रहा है, और आत्मिक आयाम में अपने समस्त कार्य को पृथ्वी पर वास्तविक करता है। वह प्राणी जिस पर विजय पाया जाता है वह मनुष्य है, जो उसके प्रति अनाज्ञाकारी है, वह प्राणी जिसे पराजित किया गया है वह शैतान का मूर्त रूप है (निश्चित रूप से, यह भी मनुष्य ही है), जो परमेश्वर से शत्रुता में है, और वह प्राणी है जिसे अन्ततः बचाया जाता है वह भी मनुष्य ही है। इस रीति से, यह परमेश्वर के लिए और भी अधिक ज़रूरी हो जाता है कि ऐसा मनुष्य बने जिसके पास एक जीवधारी का बाहरी आवरण हो, ताकि वह शैतान के साथ वास्तविक युद्ध करने में सक्षम हो, एवं मनुष्य पर विजय पाए, जो उसके प्रति अनाज्ञाकारी है और उसके समान ही बाहरी आवरण धारण किए हुए है, जो उसके समान ही बाहरी आवरण का हो और जिसे शैतान के द्वारा नुकसान पहुंचाया गया हो। उसका शत्रु मनुष्य है, उसकी विजय का विषय मनुष्य है, और उसके उद्धार का विषय मनुष्य है, जिसे उसके द्वारा सृजा गया था। अतः उसे अवश्य मनुष्य बनना होगा, और इस रीति से, उसका कार्य और अधिक आसान हो जाता है। वह शैतान को हराने और मनुष्य को जीतने में समर्थ है, और, उसके अतिरिक्त, मनुष्य को बचाने में समर्थ है। यद्यपि यह देह सामान्य एवं वास्तविक है, फिर भी यह आम देह नहीं है: यह ऐसी देह नहीं है जो महज मानवीय है, परन्तु ऐसी देह है मानवीय एवं ईश्वरीय दोनों है। यह मनुष्य से उसका अन्तर है, और परमेश्वर की पहचान का चिन्ह है। केवल ऐसी देह ही वह काम कर सकता है जिसे वह करने का इरादा करता है, और देह में परमेश्वर की सेवा को पूरा कर सकता है, और मनुष्यों के बीच में अपने कार्य को पूरी तरह से पूर्ण कर सकता है। यदि यह ऐसा नहीं होता, तो उसका कार्य हमेशा मनुष्य के मध्य खोखला एवं त्रुटिपूर्ण होता। यद्यपि परमेश्वर शैतान के आत्मा के साथ युद्ध कर सकता है और विजयी होकर उभर सकता है, फिर भी भ्रष्ट हो चुके मनुष्य के पुराने स्वभाव का समाधान कभी नहीं किया जा सकता है, और ऐसे लोग जो उसके प्रति अनाज्ञाकारी हैं और उसका विरोध करते हैं वे उसके प्रभुत्व के अधीन कभी नहीं हो सकते हैं, कहने का तात्पर्य है, वह कभी मानवजाति को जीत नहीं सकता है, और समूची मानवजाति को दोबारा कभी अर्जित नहीं कर सकता है। यदि पृथ्वी पर उसके कार्य का समाधान नहीं किया जा सकता है, तो उसके प्रबन्धन को कभी भी समाप्ति की ओर नहीं लाया जाएगा, और समूची मानवजाति विश्राम में प्रवेश करने में सक्षम नहीं होगी। यदि परमेश्वर अपने सभी जीवधारियों के साथ विश्राम में प्रवेश नहीं कर सकता है, तब ऐसे प्रबंधकीय कार्य का कभी कोई परिणाम नहीं होगा, और फलस्वरूप परमेश्वर की महिमा विलुप्त हो जाएगी। यद्यपि उसकी देह के पास कोई अधिकार नहीं है, फिर भी वह कार्य जिसे वह करता है अपने प्रभाव को हासिल कर चुका होगा। यह उसके कार्य का अनिवार्य निर्देशन है। इस बात की परवाह किए बगैर कि उसकी देह अधिकार को धारण करता है या नहीं, जब तक वह स्वयं परमेश्वर के कार्य को करने में सक्षम है, तब तक वह स्वयं परमेश्वर है। इसकी परवाह किए बगैर कि यह देह कितना सामान्य एवं साधारण है, वह उस कार्य को कर सकता है जिसे उसे करना चाहिए, क्योंकि यह देह परमेश्वर है और मात्र एक मनुष्य नहीं है। वह कारण कि देह वह कार्य कर सकता है जिसे मनुष्य नहीं कर सकता है क्योंकि उसका भीतरी मूल-तत्व किसी भी मनुष्य के समान नहीं है, और वह कारण कि वह मनुष्य का उद्धार कर सकता है क्योंकि उसकी पहचान किसी भी मनुष्य से अलग है। यह देह मानवजाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह मनुष्य है और उससे भी बढ़कर परमेश्वर है, क्योंकि वह ऐसा काम कर सकता है जिसे हाड़-मांस का कोई सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता है, और क्योंकि वह भ्रष्ट मनुष्य का उद्धार कर सकता है, जो पृथ्वी पर उसके साथ मिलकर रहता है। यद्यपि वह मनुष्य के समान है, फिर भी देहधारी परमेश्वर किसी भी बेशकीमती व्यक्ति की अपेक्षा मानवजाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह ऐसा कार्य कर सकता है जिसे परमेश्वर के आत्मा के द्वारा नहीं किया जा सकता है, वह स्वयं परमेश्वर की गवाही देने के लिए परमेश्वर के आत्मा की अपेक्षा अधिक सक्षम है, और मानवजाति को सम्पूर्ण रीति से अर्जित करने के लिए परमेश्वर के आत्मा की अपेक्षा अधिक सक्षम है। परिणामस्वरूप, यद्यपि यह देह सामान्य एवं साधारण है, फिर भी मानवजाति के निमित्त उसका योगदान और मानवजाति के अस्तित्व के निमित्त उसका महत्व उसे अत्यंत बहुमूल्य बना देता है, और इस देह का वास्तविक मूल्य एवं महत्व किसी भी मनुष्य के लिए अतुलनीय है। यद्यपि यह देह सीधे तौर पर शैतान का नाश नहीं कर सकता है, फिर भी वह मानवजाति को जीतने के लिए और शैतान को हराने के लिए अपने कार्य का उपयोग कर सकता है, और शैतान को सम्पूर्ण रीति से अपनी प्रभुता के अधीन कर सकता है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने देह धारण किया है इसलिए वह शैतान को हरा सकता है और वह मानवजाति का उद्धार करने में सक्षम है। वह सीधे तौर पर शैतान का विनाश नहीं करता है, परन्तु देह धारण करता है ताकि मानवजाति को जीतने के लिए कार्य करे, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया गया है। इस रीति से, वह सभी प्राणियों के मध्य स्वयं की बेहतर ढंग से गवाही देने में सक्षम है, और वह भ्रष्ट हो चुके मनुष्य को बेहतर ढंग से बचाने में सक्षम है। परमेश्वर के आत्मा के द्वारा शैतान के प्रत्यक्ष विनाश की अपेक्षा देहधारी परमेश्वर के द्वारा शैतान की पराजय बड़ी गवाही देती है, तथा यह और अधिक रज़ामन्द करने वाली बात है। देह में प्रगट परमेश्वर सृष्टिकर्ता को जानने के लिए मनुष्य की बेहतर ढंग से सहायता करने में सक्षम है, और सभी प्राणियों के मध्य स्वयं की बेहतर ढंग से गवाही देने में सक्षम है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से
Source From:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया--परमेश्वर का प्रेम


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें