आज यहाँ तक कि बहुत से लोगों के पास पौलुस के जैसी तर्क-संगतता या आत्म-बोध भी नहीं है, जो, यद्यपि प्रभु यीशु के द्वारा मार गिराया गया था, फिर भी पहले से ही उसके लिए काम करने और पीड़ा सहने का संकल्पी था। यीशु ने उसे एक बीमारी दी, और बाद में, एक बार जब पौलुस के कार्य करना शुरू कर दिया, तो वह उस बीमारी से पीड़ित होना जारी रहा। वह क्यों कहता था कि उसके शरीर में एक काँटा है?
काँटा, वास्तव में, वह बीमारी थी, और पौलुस के लिए, यह एक घातक कमज़ोरी थी। चाहे उसने कितनी भी अच्छी तरह से काम क्यों न किया था या चाहे पीड़ा उठाने का उसका संकल्प कितना भी महान क्यों न था, यह बीमारी उसे हमेशा रहती थी। आजकल तुम लोगों की तुलना में पौलुस बहुत अधिक मज़बूत क्षमता वाला था; न केवल वह अच्छी क्षमता वाला था, बल्कि उसमें आत्म-बोध भी था और उसके पास तुम लोगों से अधिक तर्कसंगतता थी। आज, पतरस के जैसी तर्कसंगतता हासिल करने की बात ही न करो—बहुत से लोग तो यहाँ तक कि पौलुस के जैसी तर्कसंगतता भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। पौलुस को यीशु द्वारा गिरा दिए जाने के बाद उसने शिष्यों को उत्पीड़ित करना बंद कर दिया, और यीशु के लिए उपदेश देना और पीड़ा सहनी शुरू कर दी। और उसे पीड़ा सहने के लिए किस बात ने प्रेरित किया? पौलुस का मानना था कि चूँकि उसने महान प्रकाश को देखा था, इसलिए उसे अवश्य प्रभु यीशु की गवाही देनी चाहिए, यीशु के शिष्यों को अवश्य अब और पीड़ित नहीं करना चाहिए, और अवश्य परमेश्वर के कार्य का अब और विरोध नहीं करना चाहिए। जब उसने महान प्रकाश को देख लिया उसके बाद, उसने परमेश्वर के लिए पीड़ित होना और स्वयं को परमेश्वर के लिए समर्पित करना शुरू कर दिया, और वह अपना संकल्प निर्धारित करने में समर्थ हो गया था, जिससे यह साबित हुआ कि उसके पास तर्कसंगतता थी। धर्म में, पौलुस एक बहुत ही उच्च स्तर का व्यक्ति था। वह बहुत सुविज्ञ और प्रतिभाशाली था, वह ज्यादातर लोगों को तुच्छ समझता था, और उसका व्यक्तित्व अधिकतर लोगों से अधिक शक्तिशाली था। परन्तु महान प्रकाश उसके ऊपर चमकने के बाद, वह कहता था कि उसे अवश्य प्रभु यीशु के लिए काम करना चाहिए—और यह उसकी तर्कसंगतता थी। जब उसने शिष्यों को उत्पीड़ित किया, तब यीशु ने उसके सामने प्रकट हो कर कहा: "पौलुस, तू मुझे क्यों उत्पीड़ित करता है?" पौलुस तुरन्त गिर पड़ा और बोला: "तुम कौन हो?" आकाश से एक आवाज़ ने कहा: "मैं प्रभु यीशु हूँ, जिसे तू सताता है।" एकाएक, पौलुस जाग उठा, उसकी समझ में आ गया, और केवल तभी उसे पता चला था कि यीशु तो मसीह है, कि वह परमेश्वर है। मुझे अवश्य आज्ञा-पालन करना चाहिए, परमेश्वर ने मुझे यह अनुग्रह दिया है, और मैंने उसे इस तरह से उत्पीड़ित किया, फिर भी उसने मुझे नहीं मार गिराया, और न ही उसने मुझे शाप दिया—मुझे अवश्य उसके लिए कष्ट झेलना चाहिए। पौलुस ने स्वीकार किया कि उसने प्रभु यीशु मसीह को उत्पीड़ित किया था और अब उसके शिष्यों को मार रहा था, कि परमेश्वर ने उसे शाप नहीं दिया था, बल्कि उस पर प्रकाश चमकाया था; इसने उसे प्रेरित किया, और उसने कहा: "हालाँकि मैंने उसका चेहरा नहीं देखा था, किन्तु मैंने उसकी आवाज़ सुनी और उसके महान प्रकाश को देखा था। केवल अब मैं वास्तव में देखता हूँ कि परमेश्वर मुझसे सच में प्रेम करता है, और यह कि प्रभु यीशु मसीह ही वास्तव में परमेश्वर है जो मनुष्य पर दया करता है और वह अनंत काल के लिए मनुष्य के पापों को क्षमा करता है। मैं वास्तव में देखता हूँ कि मैं पापी हूँ”। यद्यपि, बाद में, परमेश्वर ने पौलुस की प्रतिभाओं का कार्य के लिए उपयोग किया, कुछ समय के लिए इसे भूल जाओ। उस समय उसका संकल्प, उसकी सामान्य मानवीय तर्कसंगतता, और उसका आत्म-बोध— तुम लोग इन चीजों को हासिल करने में असमर्थ हो। आज, क्या तुम लोगों को काफी प्रकाश नहीं मिला है? क्या बहुत से लोगों ने नहीं देखा था कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप, कोप, न्याय और ताड़ना वाला है? अक्सर लोगों पर शाप, परीक्षण और शुद्धिकरण पड़े हैं—और उन्होंने क्या सीखा है? क्या तुमने अपने अनुशासन और निपटने से कुछ प्राप्त किया है? तुम पर तीखे वचन, पिटाई और न्याय कई बार पड़े हैं, फिर भी तुम उन पर कोई ध्यान नहीं देते हो। तुम्हारे पास पौलुस द्वारा धारण की गई थोड़ी-सी तर्कसंगतता नहीं है—क्या तुम बेहद पिछड़े हुए नहीं हो? ऐसा बहुत कुछ था जिसे पौलुस ने स्पष्ट रूप से नहीं देखा था। वह केवल इतना जानता था कि प्रकाश उस पर चमका था, और नहीं जानता था कि उसे मार गिराया गया है। अपने व्यक्तिगत विश्वास में, उस पर प्रकाश चमकने के बाद, उसे स्वयं को अवश्य परमेश्वर के लिए व्यय करना चाहिए, परमेश्वर के लिए कष्ट उठाना चाहिए, प्रभु यीशु मसीह के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए सब कुछ करना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा उद्धार किए जाने के लिए अधिक पापियों को प्राप्त करना चाहिए। यह उसका संकल्प, और उसके काम का एकमात्र उद्देश्य था—किन्तु जब वह कार्य करता था, तब भी रोग ने, ठीक उसकी मृत्यु तक, उसे नहीं छोड़ा था। पौलुस ने बीस से अधिक वर्षों तक कार्य किया। उसने बहुत कष्ट सहे, और कई उत्पीड़नों और क्लेशों का अनुभव किया था, यद्यपि, निश्चित रूप से, पतरस की तुलना में उसके परीक्षण बहुत कम थे। यदि तुम लोगों के पास पौलुस की तर्कसंगतता भी नहीं है तो यह कितनी दयनीय बात है? ऐसे में, परमेश्वर तुम लोगों में और भी बड़ा कार्य कैसे शुरू कर सकता है?
काँटा, वास्तव में, वह बीमारी थी, और पौलुस के लिए, यह एक घातक कमज़ोरी थी। चाहे उसने कितनी भी अच्छी तरह से काम क्यों न किया था या चाहे पीड़ा उठाने का उसका संकल्प कितना भी महान क्यों न था, यह बीमारी उसे हमेशा रहती थी। आजकल तुम लोगों की तुलना में पौलुस बहुत अधिक मज़बूत क्षमता वाला था; न केवल वह अच्छी क्षमता वाला था, बल्कि उसमें आत्म-बोध भी था और उसके पास तुम लोगों से अधिक तर्कसंगतता थी। आज, पतरस के जैसी तर्कसंगतता हासिल करने की बात ही न करो—बहुत से लोग तो यहाँ तक कि पौलुस के जैसी तर्कसंगतता भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। पौलुस को यीशु द्वारा गिरा दिए जाने के बाद उसने शिष्यों को उत्पीड़ित करना बंद कर दिया, और यीशु के लिए उपदेश देना और पीड़ा सहनी शुरू कर दी। और उसे पीड़ा सहने के लिए किस बात ने प्रेरित किया? पौलुस का मानना था कि चूँकि उसने महान प्रकाश को देखा था, इसलिए उसे अवश्य प्रभु यीशु की गवाही देनी चाहिए, यीशु के शिष्यों को अवश्य अब और पीड़ित नहीं करना चाहिए, और अवश्य परमेश्वर के कार्य का अब और विरोध नहीं करना चाहिए। जब उसने महान प्रकाश को देख लिया उसके बाद, उसने परमेश्वर के लिए पीड़ित होना और स्वयं को परमेश्वर के लिए समर्पित करना शुरू कर दिया, और वह अपना संकल्प निर्धारित करने में समर्थ हो गया था, जिससे यह साबित हुआ कि उसके पास तर्कसंगतता थी। धर्म में, पौलुस एक बहुत ही उच्च स्तर का व्यक्ति था। वह बहुत सुविज्ञ और प्रतिभाशाली था, वह ज्यादातर लोगों को तुच्छ समझता था, और उसका व्यक्तित्व अधिकतर लोगों से अधिक शक्तिशाली था। परन्तु महान प्रकाश उसके ऊपर चमकने के बाद, वह कहता था कि उसे अवश्य प्रभु यीशु के लिए काम करना चाहिए—और यह उसकी तर्कसंगतता थी। जब उसने शिष्यों को उत्पीड़ित किया, तब यीशु ने उसके सामने प्रकट हो कर कहा: "पौलुस, तू मुझे क्यों उत्पीड़ित करता है?" पौलुस तुरन्त गिर पड़ा और बोला: "तुम कौन हो?" आकाश से एक आवाज़ ने कहा: "मैं प्रभु यीशु हूँ, जिसे तू सताता है।" एकाएक, पौलुस जाग उठा, उसकी समझ में आ गया, और केवल तभी उसे पता चला था कि यीशु तो मसीह है, कि वह परमेश्वर है। मुझे अवश्य आज्ञा-पालन करना चाहिए, परमेश्वर ने मुझे यह अनुग्रह दिया है, और मैंने उसे इस तरह से उत्पीड़ित किया, फिर भी उसने मुझे नहीं मार गिराया, और न ही उसने मुझे शाप दिया—मुझे अवश्य उसके लिए कष्ट झेलना चाहिए। पौलुस ने स्वीकार किया कि उसने प्रभु यीशु मसीह को उत्पीड़ित किया था और अब उसके शिष्यों को मार रहा था, कि परमेश्वर ने उसे शाप नहीं दिया था, बल्कि उस पर प्रकाश चमकाया था; इसने उसे प्रेरित किया, और उसने कहा: "हालाँकि मैंने उसका चेहरा नहीं देखा था, किन्तु मैंने उसकी आवाज़ सुनी और उसके महान प्रकाश को देखा था। केवल अब मैं वास्तव में देखता हूँ कि परमेश्वर मुझसे सच में प्रेम करता है, और यह कि प्रभु यीशु मसीह ही वास्तव में परमेश्वर है जो मनुष्य पर दया करता है और वह अनंत काल के लिए मनुष्य के पापों को क्षमा करता है। मैं वास्तव में देखता हूँ कि मैं पापी हूँ”। यद्यपि, बाद में, परमेश्वर ने पौलुस की प्रतिभाओं का कार्य के लिए उपयोग किया, कुछ समय के लिए इसे भूल जाओ। उस समय उसका संकल्प, उसकी सामान्य मानवीय तर्कसंगतता, और उसका आत्म-बोध— तुम लोग इन चीजों को हासिल करने में असमर्थ हो। आज, क्या तुम लोगों को काफी प्रकाश नहीं मिला है? क्या बहुत से लोगों ने नहीं देखा था कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप, कोप, न्याय और ताड़ना वाला है? अक्सर लोगों पर शाप, परीक्षण और शुद्धिकरण पड़े हैं—और उन्होंने क्या सीखा है? क्या तुमने अपने अनुशासन और निपटने से कुछ प्राप्त किया है? तुम पर तीखे वचन, पिटाई और न्याय कई बार पड़े हैं, फिर भी तुम उन पर कोई ध्यान नहीं देते हो। तुम्हारे पास पौलुस द्वारा धारण की गई थोड़ी-सी तर्कसंगतता नहीं है—क्या तुम बेहद पिछड़े हुए नहीं हो? ऐसा बहुत कुछ था जिसे पौलुस ने स्पष्ट रूप से नहीं देखा था। वह केवल इतना जानता था कि प्रकाश उस पर चमका था, और नहीं जानता था कि उसे मार गिराया गया है। अपने व्यक्तिगत विश्वास में, उस पर प्रकाश चमकने के बाद, उसे स्वयं को अवश्य परमेश्वर के लिए व्यय करना चाहिए, परमेश्वर के लिए कष्ट उठाना चाहिए, प्रभु यीशु मसीह के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए सब कुछ करना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा उद्धार किए जाने के लिए अधिक पापियों को प्राप्त करना चाहिए। यह उसका संकल्प, और उसके काम का एकमात्र उद्देश्य था—किन्तु जब वह कार्य करता था, तब भी रोग ने, ठीक उसकी मृत्यु तक, उसे नहीं छोड़ा था। पौलुस ने बीस से अधिक वर्षों तक कार्य किया। उसने बहुत कष्ट सहे, और कई उत्पीड़नों और क्लेशों का अनुभव किया था, यद्यपि, निश्चित रूप से, पतरस की तुलना में उसके परीक्षण बहुत कम थे। यदि तुम लोगों के पास पौलुस की तर्कसंगतता भी नहीं है तो यह कितनी दयनीय बात है? ऐसे में, परमेश्वर तुम लोगों में और भी बड़ा कार्य कैसे शुरू कर सकता है?
जब पौलुस ने सुसमाचार फैलाया, तो उसे बड़ी यातना झेली। उस समय उसका संकल्प, उसने जो किया वह कार्य, उसका विश्वास, उसकी वफादारी, प्रेम, धैर्य और नम्रता, और कई अन्य बाह्य स्वभालगत गुण जो उसने जीए, आज तुम लोगों की तुलना में अधिक थे। इसे और अधिक कठोरता से कहें तो, तुम लोगों में कोई सामान्य तर्कसंगतता नहीं है! तुम लोगों के पास यहाँ तक कि कोई अंतःकरण या मानवता भी नहीं है— तुम लोगों में बहुत कमियाँ हैं! इस प्रकार, अधिकांश समय, तुम लोग जो जीवन जीते हो, उसमें कोई सामान्य तर्कसंगतता, और कोई आत्म-जागरूकता नहीं मिलती है। यद्यपि पौलुस का शरीर बीमारी से ग्रस्त था, फिर भी वह प्रार्थना करता और खोजता रहता था किः यह बीमारी क्या है—मैंने प्रभु के लिए यह सब कार्य किया है, यह बीमारी मुझे क्यों नहीं छोड़ती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रभु यीशु मेरी परीक्षा ले रहा है? क्या उसने मुझे मार गिराया है? यदि उसने मुझे मार गिराया होता, तो मैं उसी समय मर गया होता, और उसके लिए यह सब कार्य करने में असमर्थ होता,और न ही मुझे इतना प्रकाश प्राप्त हो सकता था। उसने मेरे संकल्प का एहसास भी किया था। पौलुस हमेशा महसूस करता था कि यह बीमारी परमेश्वर द्वारा उसकी परीक्षा थी, कि यह उसके विश्वास और संकल्प को कड़ा कर रही थी—यही वह सोचता था। वास्तव में, उसकी बीमारी प्रभु यीशु द्वारा उसे मार गिराने के कारण उत्पन्न हुई थी। इसने उसे मानसिक दबाव में रखा था, और उसके अधिकांश विद्रोही स्वभाव को हटा दिया था। यदि तुम लोग अपने आप को पौलुस कीपरिस्थितियों में पाते, तो तुम लोग क्या करते? क्या तुम लोगों का संकल्प पौलुस की तुलना में अधिक हो सकता है? क्या तुम लोग कष्ट सहने में उससे अधिक सक्षम हो? जब आज के लोग कुछ कुछ मामूली बीमारी से ग्रस्त होते हैं या किसी बड़े परीक्षण से गुज़रते हैं, तो उनकी पीड़ा उन्हें पूरी तरह से व्याकुल कर देती है। यदि तुम लोगों को पक्षी के एक पिंजरे में बंद कर दिया गया होता और कभी रिहा न किया जाता, तो तुम लोग ठीक रहते। और तुम लोगों को खाने-पीने की सभी ज़रुरी चीज़ें अवश्य दे दी जाती अन्यथा तुम लोग भेड़ियों की तरह होते। थोड़ी सी बाधा या कठिनाई से पीड़ित होना तुम लोगों के लिए अच्छा है; यदि तुम लोगों को इसके बारे में एक मौज करने का समय दिया गया होता, तो तुम लोग जब्त कर लिए जाते, और तब तुम कैसे सुरक्षित रह सकते थे? आज तुम लोगों को इसलिए सुरक्षा दी जाती है क्योंकि तुम लोगों को दंडित किया जाता है, शाप दिया जाता है, तुम लोगों कान्याय किया जाता है। क्योंकि तुम लोगों ने काफी कष्ट उठाया है इसलिए तुम्हें संरक्षण दिया जाता है। नहीं तो, तुम लोग बहुत समय पहले ही दुराचार में गिर गए होते। मैं जानबूझ कर तुम लोगों के लिए चीज़ों को मुश्किल नहीं बनाता हूँ—मनुष्य की प्रकृति कसकर घिरी हुई है, और मनुष्य केस्वभाव को बदलने का यही तरीका है। आज, तुम लोगों के पास यहाँ तक कि पौलुस की समझदारी या आत्म-जागरूकता भी नहीं है, और न ही तुम लोगों के पास उसका अंतःकरण है। तुम लोगों की आत्माओं को जगाने के लिए तुम लोगों पर हमेशा दबाव डालना होगा, और तुम लोगों को हमेशा ताड़ना देनी होगी और तुम लोगों का न्याय करना होगा। ताड़ना और न्याय ही वह चीज़ हैं जो तुम लोगों के जीवन के लिए सर्वोत्तम हैं। और जब आवश्यक हो, तो तथ्यों के आगमन द्वारा भी अवश्य ताड़ना होनी चाहिए, केवल तभी तुम लोग पूरी तरह से समर्पण करोगे। तुम लोगों की प्रकृतियाँ ऐसी हैं कि ताड़ना और शाप के बिना तुम लोग अपने सिरों को झुकाने के अनिच्छुक होगे, और समर्पण करने के अनिच्छुक होगे। तुम लोगों की आँखों के सामने तथ्यों के बिना, कोई प्रभाव नहीं होगा। तुम लोगो चरित्र में बहुत नीच और बेकार हो। ताड़ना और न्याय के बिना, तुम लोगों पर विजय प्राप्त करना कठिन होगा, और तुम लोगों की अधार्मिकता और अवज्ञा को दबाना मुश्किल होगा। तुम लोगों का पुराना स्वभाव बहुत गहरी जड़ें जमाए हुए है। यदि तुम लोगों को सिंहासन पर बिठा दिया गया होता, तो तुम लोगों को स्वर्ग की ऊँचाई और पृथ्वी की गहराई के बारे में कोई अंदाज़ न होता, तुम लोग किस ओर जा रहे हो इसके बारे में तो बिल्कुल भी अंदाज़ नहीं होता। तुम लोगों को यहाँ तक कि यह भी नहीं पता कि तुम सब कहाँ से आए हो, तो तुम लोग सृष्टिकर्ता को कैसे जान सकते हो? आज की समयोचित ताड़ना और शाप के बिना तुम लोगों के अंतिम दिन बहुत पहले आ चुके होते। तुम लोगों के भाग्य के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं—क्या यह और भी अधिक खतरे में नहीं है? इस समयोजित ताड़ना और न्याय के बिना, कौन जाने कि तुम लोग कितने घमंडी हो गए होते, और कौन जाने तुम लोग कितने पथभ्रष्ट हो जाते। इस ताड़ना और न्याय ने तुम लोगों को आज के दिन तक पहुँचाया है, और इसने तुम लोगों के अस्तित्व को संरक्षित रखा है। जिन तरीकों से तुम लोगों के “पिता” को शिक्षित किया गया था, यदि उन्हीं तरीकों से तुम लोगों को भी शिक्षित किया जाता, तो कौन जाने तुम लोग किस दुनिया में प्रवेश करते! तुम लोगों के पास स्वयं को नियंत्रित करने और आत्म-चिंतन करने की कोई योग्यता नहीं है। मेरे उद्देश्य प्राप्त किए जाएँ इसके लिए तुम जैसे लोगों के लिए यही पर्याप्त है कि तुम लोग बस अनुसरण करो, आज्ञापालन करो और कोई हस्तक्षेप या गड़बड़ न करो। क्या तुम लोगों को आज की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करने में बेहतर नहीं करना चाहिए? तुम लोगों के पास और क्या विकल्प हैं? जब पौलुस ने प्रभु यीशु को देखा था, उसने तब भी विश्वास नहीं किया था। बाद में, प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने के पश्चात्, वह इस तथ्य को जाना था, फिर भी वह उत्पीड़ित करता रहा और विरोध करता रहा। यही जानबूझकर पाप करने का अर्थ है, और इसलिए उसे गिरा दिया गया। शुरुआत में, वह जानता था कि यहूदियों के बीच एक राजा है जिसे यीशु कहा जाता था, उसने यह सुना था। बाद में, जब उसने मंदिर में धर्मोपदेश दिए और देश भर में उपदेश दिए, तो वह यीशु के विरुद्ध गया और उसने घमण्ड में किसी भी व्यक्ति का अनुसरण करने से इनकार कर दिया। उस समय के कार्य में ये चीजें एक ज़बर्दस्त बाधा बन गईं। जब यीशु काम कर रहा था, तो पौलुस ने प्रत्यक्ष रूप से लोगों को उत्पीड़ित नहीं किया और गिरफ्तार नहीं किया, परन्तु कार्य को तबाह करने के लिए उपदेश और वचनों का उपयोग किया। बाद में, जब प्रभु यीशु मसीह को सलीब के ऊपर रख दिया गया, तो उसने जगह-जगह पर भाग-दौड़ करके शिष्यों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया, और उन्हें परेशान करने के लिए जो कुछ कर सकता था वह करना शुरू कर दिया। केवल उसके ऊपर प्रकाश चमकने के बाद ही वह जागा और उसने बहुत पछतावा अनुभव किया। उसके गिर जाने के बाद, उसकी बीमारी ने उसे कभी नहीं छोड़ा। कभी-कभी उसे लगता था कि उसकी यातना बदतर हो गई है, और वह खड़े होने में असमर्थ है। वह सोचता था:[क] "क्या हो रहा है? क्या मुझे सचमुच गिरा दिया गया है?" फिर, यह जाने बिना कि यह कैसे हुआ था, वह महसूस करता कि वह फिर से कुछ बेहतर हो गया है, और वह एक बार फिर कार्य करना शुरू कर देता। लेकिन बीमारी ने उसे कभी नहीं छोड़ा, और यह इस बीमारी की वजह से ही था कि उसने बहुत कार्य किया। यह कहा जा सकता है कि यीशु ने पौलुस के दंभ और अभिमान के कारण इस बीमारी को उसमें रखा था; यह उसके लिए एक दण्ड था, किन्तु यीशु के बृहत्तर कार्य के वास्ते भी था—यीशु ने अपने कार्य के लिए पौलुस की प्रतिभा का उपयोग किया। वस्तुतः, यीशु का इरादा पौलुस को बचाना नहीं, बल्कि उसका उपयोग करना था। फिर भी पौलुस का स्वभाव बहुत अभिमानी और दुराग्रही था, और इसलिए उसमें एक "काँटा" रखा गया था। तुम लोगों में से कई पौलुस की तरह हैं, किन्तु यदि तुम लोग वास्तव में अंत तक अनुकरण करने का संकल्प धारण करते हो, तो तुम लोगों से दुर्व्यवहार नहीं किया जाएगा। आखिरकार, जब तक पौलुस ने अपना कार्य समाप्त किया, तब तकपौलुस को अपनी बीमारी बहुत दर्दनाक नहीं लगी, और इसलिए वह बाद में इन वचनों को कहने में सक्षम था, "मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं कुश्ती लड़ चुका हूँ, और मेरे लिए धर्म का मुकुट रखा हुआ है"—जो उसने इसलिए कहा क्योंकि वह नहीं जानता था। हम किसी और चीज के बारे में बात नहीं करेंगे, आओ हम उसके उसी भाग की बात करें जो सकारात्मक और प्रशंसनीय था: उसका एक अंतःकरण था, और उस पर प्रकाश के चमकने के बाद उसने स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित कर दिया और परमेश्वर के लिए कष्ट सहे। प्राकृतिक रूप से, यह उसका प्रशंसनीय पक्ष है, ये उसकी ताक़तें थीं। हम इस बारे में बात नहीं करेंगे कि उसने कैसे विद्रोह और विरोध किया; हम मुख्य रूप से उसकी एक सामान्य मनुष्य की तर्कसंगतता के बारे में और इस बारे में बात करते हैं कि वह आत्म-जागरूकता रखता था या नहीं। यदि ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि, क्योंकि उसके पास ताक़तें थीं, इसलिए इससे साबित होता है कि वह कोई ऐसा व्यक्ति था जो धन्य था, जो मानते हैं कि यह जरूरी नहीं की उसे ताड़ना दी गई थी, तो ये उन लोगों से वचन हैं जिनमें समझ नहीं है।
एक बार जब मेरा उनसे आमने-सामने बोलना समाप्त हो जाता है, तो कई लोग, मेरे वचनों को महत्वपूर्ण नहीं समझते हुए, मेरी पीठ पीछे एक बार फिर से स्वच्छंद हो जाते हैं । मैं, परत दर परत खोलते हुए, बार-बार बोलता हूँ और तब तक बोलता हूँ जब तक कि सबसे निचली परत उजागर नहीं हो जाती है, उन्हें "शांति नहीं मिल जाती है" और वे अब और कोई परेशानी पैदा नहीं करते हैं। आज तुम लोगों की जो स्थितियाँ हैं उनके साथ, तुम लोगों पर अवश्य बेरहमी से हमला किया और तुम लोगों को उजागर किया जाना चाहिए, और तुम लोगों का विस्तार-दर-विस्तार न्याय किया जाना चाहिए, ताकि तुम लोग चैन से साँस भी न ले सको। तुम लोगों को अवश्य पीटा और उजागर किया जाना चाहिए, और तुम लोगों को ऐसा लगे कि ताड़ना तुम्हें कभी नहीं छोडती है, और यह कि अभिशाप, और न ही कठोर न्याय भी तुम लोगों से दूर नहीं है, ताकि तुम लोग देख सको कि परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का हाथ कभी भी तुम लोगों से दूर नहीं जाता है। यह बेहतर है, यह ऐसा है जैसे हारून ने देखा था कि यहोवा ने उसे कभी नहीं छोड़ा था। (किन्तु उसने जो देखा था वह यहोवा का निरंतर मार्गदर्शन और संरक्षण था; जिस मार्गदर्शन को आज तुम लोग देखते हो वह ताड़ना, अभिशाप और न्याय है)। आज, यहोवा की प्रशासनिक आज्ञाओं का हाथ तुम लोगों को भी नहीं छोड़ता है, लेकिन एक चीज है जिसके बारे में तुम लोग चैन से हो सकते हो: चाहे तुम लोग कितना ही विरोध, विद्रोह, और आलोचना क्यों न करो, तुम लोगों की देह को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन ऐसे लोग हैं जो विरोध करने में बहुत दूर तक चले जाते हैं, जो स्वीकार्य नहीं है; इसकी एक सीमा है, और यह स्वीकार्य नहीं है कि तुम परमेश्वर के कार्य को बाधित करो। आज, तुम बिना प्रतिप्रभाव के बोल और कार्य कर सकते हो—किन्तु कलीसिया के जीवन को बाधित या अस्त-व्यस्त मत करो, पवित्र आत्मा के कार्य को बाधित मत करो। बाकी तुम जो चाहो कर सकते हो। तुम कहते हो कि तुम जीवन का अनुसरण नहीं करोगे और दुनिया में लौटना चाहते हो। तो जल्दी करो और जाओ! तुम लोग जो भी चाहो कर सकते हो, जब तक कि यह परमेश्वर के कार्य में बाधा नहीं डालता। फिर भी एक बात है जो तुम्हें अवश्य मालूम होनी चाहिए: अंत में, इस तरह के दुराग्रही पापियों को हटा दिया जाएगा। आज, हालाँकि, तुम तिरस्कृत नहीं हो। अंत में, अंशमात्र लोग ही गवाही देने में सक्षम होंगे—और बाकी खतरे में होंगे। अगर तुम इस धारा में रहना नहीं चाहते हो, तो ठीक है। आज लोगों के साथ सहनशीलता से व्यवहार किया जाता है; मैं तुम पर पाबंदी नहीं लगाता हूँ। यह तब तक ठीक है जब तक तुम कल की ताड़ना के बारे में भयभीत नहीं हो। लेकिन यदि तुम इस धारा में हो, तो तुम्हें गवाही अवश्य देनी चाहिए, और तुम्हें ताड़ित अवश्य किया जाना चाहिए। यदि तुम कहते हो कि तुम इसे अब और स्वीकार नहीं कर सकते हो, और कुछ समय के लिए बाहर रहना चाहते हो, तो ठीक है—तुम्हें कोई रोक नहीं रहा है! किन्तु मैं तुम्हें वह कार्य करने की अनुमति नहीं दूँगा जो विनाशकारी हो और जो पवित्र आत्मा के कार्य को तितर-बितर करता हो—तुम्हें इसके लिए माफ़ किया ही नहीं जा सकता है! जहाँ तक तुम्हारी आँखें जो देखती हैं उसकी बात है कि कौन से लोगों को ताड़ना दी जाती है और किनके परिवारों को शापित किया जाता है—इसके लिए दायरे और सीमाएँ हैं। पवित्र आत्मा चीजों को अकारण ही नहीं करता है। मनुष्य के पापों और तुम लोगों ने जो कुछ भी किया है उसके आधार पर, यदि तुम लोगों की अधार्मिकता के अनुसार तुम लोगों से व्यवहार किया जाता और तुम लोगों को गंभीरता से लिया जाता, तो तुम लोगों में से कौन जीवित बचने में समर्थ होता? तुम लोगों पर बड़ी परेशानी आ जाती—और क्या तब भी मनुष्य सलामत रहता? फिर भी, कई लोगों के साथ सहिष्णुता से व्यवहार किया जाता है। भले ही तुम लोग आलोचना, विद्रोह और विरोध करते हो, किन्तु जब तक तुम लोग व्यवधान नहीं डालते हो, तब तक मैं मुस्कुराहट के साथ तुम्हारा सामना करूँगा। यदि तुम लोग वास्तव में जीवन का अनुसरण करते हो, तो तुम लोगों को अवश्य थोड़ी ताड़ना भुगतनी चाहिए, और अवश्य टिके रहना चाहिए, तुम लोगों को शल्य - चिकित्सा के लिए मेज पर जाने के लिए उस सबसे बिछुड़ने की पीड़ा को अवश्य सहना चाहिए जो तुम लोगों को पसंद है, तुम्हें अवश्य पीड़ा सहनी चाहिए, परीक्षणों को स्वीकार करना चाहिए और पतरस की तरह दुःख उठाना चाहिए। आज तुम लोग न्याय के आसन के सामने हो। भविष्य में, तुम सब को "सिर काटने के यंत्र (गिलोटिन)" पर जाना पड़ेगा, जो कि तब होगा जब तुम लोग स्वयं को बलिदान करोगे।
अंत के दिनों के कार्य के अंतिम चरण के दौरान, तुम सभी लोगों को अवश्य अवगत होना चाहिए कि तुम यह मान सकते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को जड़ से नहीं मिटाएगा, और यह कहा जा सकता है कि भले ही तुम उसका विरोध करते हो और उसकी आलोचना करते हो फिर भी हो सकता है तुम कोई बीमारी न भुगतो—किन्तु जब परमेश्वर के कठोर वचन तुम पर पड़ते हैं, तो तुम छुप नहीं सकते हो, और तुम घबरा और चिंतित हो जाते हो। किन्तु आज, तुम लोगों के पास अवश्य थोड़ा अंतःकरण होना चाहिए। तुम वैसे लोग मत बनो, जो परमेश्वर के विरुद्ध विरोध और विद्रोह करते हैं, दुष्ट लोग मत बनो। तुम्हें अपने पुराने पूर्वजों की ओर अपनी पीठ कर देनी चाहिए; केवल यही दर्शाता है कि तुम्हारे पास सच्ची कद-काठी है, और यही वह मानवता भी है जो तुम्हारे पास होनी चाहिए। तुम हमेशा अपनी भविष्य की संभावनाओं को या आज के सुखों को एक ओर रखने में असमर्थ रहते हो। परमेश्वर कहता है: जब तक तुम लोग मेरा अनुसरण करने के लिए वह सब कुछ करते हो जो तुम लोग कर सकते हो, तो मैं निश्चित रूप से तुम लोगों को सिद्ध बना दूँगा। तुम लोगो को सिद्ध बना देने के बाद, सुंदर आशाएँ होंगी—मेरे साथ आशीषों का आनंद पाने के लिए तुम लोगों को मेरे राज्य में लाया जाएगा। तुम सब के पास एक मंजिल है, फिर भी तुम लोगों की अपेक्षाएँ कभी कम नहीं हुई हैं। यहाँ एक शर्त भी है: इस जगह में, इस बात की परवाह किए बिना कि तुम लोगों को जीता या सिद्ध बनाया जाएगा या नहीं, आज तुम लोगों को अवश्य कुछ ताड़ना, कुछ कष्ट के अधीन किया जाना चाहिए, तुम लोगों को अवश्य पीटा और अनुशासित किया जाना चाहिए, तुम लोगों को अवश्य मेरे वचनों को सुनना, मेरे मार्ग का अनुसरण करना और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना चाहिए—यही वह है जो तुम इंसानों को करना चाहिए। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम कैसे अनुसरण करते हो, तुम्हें अवश्य स्पष्ट रूप से इस मार्ग को सुनना चाहिए। यदि तुमने असलियत में, सच में देख लिया है, तो तुम अनुसरण करना जारी रख सकते हो। यदि तुम्हें लगता है कि यहाँ कोई संभावनाएँ या आशाएँ नहीं हैं, तो तुम जा सकते हो। ये वचन तुम्हें स्पष्ट रूप से कहे गए हैं, लेकिन यदि तुम सच में जाना चाहते हो, तो यह केवल इस बात को दर्शाता है कि तुम में जरा-सा भी अंतःकरण नहीं है; तुम्हारा कृत्य इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तुम एक राक्षस हो। यद्यपि तुम कहते हो कि सब कुछ परमेश्वर पर छोड़ दिया जाना चाहिए, किन्तु तुम जिस तरह जीवन-यापन करते हो उसके और तुम्हारी देह के आधार पर, तुम अभी भी शैतान के अधिकार-क्षेत्र के अधीन रहते हो। यद्यपि शैतान भी परमेश्वर के हाथों में है, किन्तु तुम स्वयं शैतान से संबंधित हो, और अभी भी परमेश्वर के द्वारा तुम्हें बचाया जाना बाकी है, क्योंकि तुम अभी भी शैतान के प्रभाव के अधीन रहते हो। पूरी तरह से बचाए जाने के लिए तुम्हें अवश्य कैसे अनुसरण करना चाहिए? चुनना तुमने है: तुम भाग सकते हो, तुम उड़ सकते हैं, तुम जहाँ चाहो वहाँ जा सकते हो, यह तुम पर निर्भर है—तुम्हें वह मार्ग चुनना चाहिए जिस पर तुम्हें जाना चाहिए। अंततः, यदि तुम कह सकते हो कि: मेरे पास और कुछ बेहतर नहीं है, मैं अपने अंतःकरण से परमेश्वर के प्रेम को वापिस चुकाता हूँ, और मुझ में अवश्य थोड़ी-सी मानवता होनी चाहिए। मैं इससे अधिक कुछ प्राप्त नहीं कर सकता हूँ, और न ही मेरी क्षमता बहुत अधिक है; परमेश्वर के कार्यों के दर्शन और अर्थ मेरी समझ में नहीं आते हैं। मैं केवल परमेश्वर के प्रेम का भुगतान करता हूँ, जो कुछ भी परमेश्वर कहता है, मैं उसे करता हूँ, और मैं वह सब करता हूँ जो मैं कर सकता हूँ—मैं परमेश्वर की एक रचना के रूप में अपना कर्तव्य करता हूँ—और इस तरह, मुझे चैन महसूस होता है। यही वह उच्चतम गवाही है जिसके लिए तुम सक्षम हो। यह लोगों के एक हिस्से से अपेक्षित उच्चतम मानक है: परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य को करना। जितना अधिक तुम करने में समर्थ हो, तुम्हें उतना करना चाहिए। तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत अधिक नहीं हैं; जब तक तुम वह करते हो जो तुम कर सकते हो, तब तक इसमें तुम गवाही देते हो।
फुटनोट:
क. मूल पाठ में "वह सोचता था" को छोड़ दिया गया है।
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