उस समय, जब यीशु के अनुनायियों ने एक निश्चित बिंदु तक अनुभव किया, तो उन्हें महसूस हुआ कि परमेश्वर का दिन आ चुका था, और वे सीधे प्रभु से मिलने वाले थे। उनकी यही भावना थी, और उनके लिए, यह भावना अत्यंत महत्वपूर्ण थी। परंतु, वास्तविकता यह है कि लोगों के भीतर की भावनाओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। भीतर, शिष्यों ने अंदर से महसूस किया कि शायद वे अपनी यात्रा के अंत तक पहुँच चुके हैं, या जो भी उन्होंने किया और सहा वह परमेश्वर द्वारा नियत था। और पौलुस ने कहा कि वह अपनी दौड़ पूरी कर चुका है, वह एक अच्छी लड़ाई लड़ चुका है, और उसके लिए अब धर्म का मुकुट रखा हुआ था। यही उसकी भावनाएं थीं, और उसने उन्हें पत्रकाव्यों में लिखा और कलीसियाओं को भेजा। इस तरह की क्रियाएं उस बोझ से उत्पन्न हुईं थीं जो उसने कलीसियाओं के लिए उठाया था, और इसलिए पवित्र आत्मा ने उसके कार्य पर ध्यान नहीं दिया। उस समय, जब उसने कहा, "मेरे लिए धर्म का मुकुट रखा गया है," तो उसे अपने भीतर बिल्कुल तिरस्कृत महसूस नहीं हुआ—उसे बेचैनी का कोई अहसास नहीं था, न ही वह तिरस्कृत किया गया था, इसलिए उसे विश्वास था कि यह भावना बिल्कुल सामान्य है और सही है। उसका मानना था कि यह पवित्र आत्मा से आई थी। परंतु आज जब हम देखते हैं, तो पता चलता है कि यह पवित्र आत्मा से नहीं आई थी। यह एक मनुष्य के भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं था। मनुष्यों के बीच कई भ्रम थे। उस समय, परमेश्वर ने उन पर ध्यान नहीं दिया या अपनी राय व्यक्त नहीं की। पवित्र आत्मा के अधिकांश कार्य लोगों की भावनाओं के माध्यम से नहीं किए जाते हैं—पवित्र आत्मा लोगों की भावनाओं में कार्य नहीं करता है। यह उस कठोर, अंधेरे समय की अवधि से अलग था जब परमेश्वर ने देह धारण किया था या उस अवधि से अलग था जब कोई भी प्रेरित या कर्मी नहीं थे; कार्य के इस चरण के दौरान पवित्र आत्मा ने लोगों को कुछ विशेष भावनाएं प्रदान की थीं। उदाहरण के लिए: जब लोगों को परमेश्वर के शब्दों का मार्गदर्शन नहीं मिलता था, तो प्रार्थना करने पर उन्हें अवर्णनीय ख़ुशी प्राप्त होती थी, उनके दिलों में आनंद का अहसास होता था, और वे शांति और चैन महूसस करते थे। जब उनके पास शब्दों का मार्गदर्शन आया, तो लोगों की आत्माओं में स्पष्टता आ गई, और उनके कार्यों को शब्दों से प्रबुद्धता प्राप्त हुई। स्वाभाविक था कि उन्हें शांति और चैन का अहसास हुआ। जब लोग ख़तरे में होते हैं, या जब परमेश्वर उन्हें कुछ करने से रोकता है, तो वे दिल में एक बेचैनी और असंतोष महसूस करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हैं कि उन्हें यह लगे कि उनका गला दबाया जा रहा हो और उन्हें सांस लेने में कठिनाई हो रही हो। हो सकता है कि लोगों को यह इसलिए महसूस होता था कि वातावरण डरावना या शत्रुतापूर्ण था, जो उनमें डर की भावना पैदा करता था, और इसलिए उन्हें अत्यंत घबराहट होने लगती थी। परन्तु, यह पवित्र आत्मा नहीं था जो उन्हें इस हद तक भयभीत कर देता था। ऐसे समय में, ऐसी भावनाओं का आधा हिस्सा लोगों की व्यग्र प्रतिक्रियाओं से आता था, और सब कुछ पवित्र आत्मा से नहीं आता था। लोग हमेशा अपनी भावनाओं के बीच रहते हैं, और कई वर्षों से ऐसा करते आ रहे हैं। जब वे अपने दिल के भीतर शांत रहते हैं, वे कार्य करते हैं (यह मानते हुए कि शांति की यह भावना उनकी इच्छा को दर्शाती है), और जब वे अपने दिल में शांत नहीं रहते, तो वे कार्य नहीं करते (यह मानते हुए कि उनकी अनिच्छा या नापसंदगी उनकी बेचैनी को दर्शाती है)। यदि चीज़ें सुचारू रूप से चलती हैं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर की इच्छा थी। (वास्तव में, यह एक ऐसी चीज़ थी जिसे बहुत ही सुचारू रूप से चलना चाहिए था क्योंकि यह चीज़ों का प्राकृतिक नियम है।) जब चीज़ें सुचारू रूप से नहीं चलतीं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर की इच्छा नहीं थी, और वे तुरंत वापस चले जाते हैं। परंतु, अधिकांश समय जब लोग ऐसी घटनाओं का सामना करते हैं, तो यह चीज़ों का प्राकृतिक नियम होता है। यदि तुम अधिक प्रयास करते, तो निश्चित रूप से तुम इस मामले को सही तरीके से संभाल पाते, और यह अधिक सुचारू रूप से चलतीं। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम बंदगोभी खरीदने के लिए गए। बाज़ार में इसका मूल्य एक जिन[ख] के लिए दो जिओ[क] है, परंतु तुम्हें लगता है कि यह एक जिन के लिए एक जिओ होना चाहिए। वास्तव में तुम यह केवल अपने दिल में सोचते हो, और जब तुम इस कीमत पर खरीदने की कोशिश करते हो, तो तुम कभी भी सफल नहीं होते, और तुम मान लेते हो कि परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम बंदगोभी खरीदो।
लोगों के जीवन में कई भावनाएं होती हैं। विशेष रूप से उस समय से जब वे परमेश्वर पर आस्था रखना शुरू करते हैं, लोगों की भावनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं, और वे हर समय परेशान और हैरान रहते हैं। वे नहीं जानते कि उन्हें कहाँ आरंभ करना चाहिए, और कई चीज़ों के बारे में वे अनिश्चित रहते हैं—परंतु अधिकाँश परिस्थितियों में, जब वे अपनी भावनाओं के अनुसार कार्य करते हैं या बोलते हैं, और ऐसा कुछ नहीं करते जो महान सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, तो पवित्र आत्मा उन्हें प्रतिक्रिया नहीं देता। यह पौलुस द्वारा महसूस किये गए धर्म के मुकुट की तरह है: कई सालों तक, किसी ने भी नहीं माना कि उसकी भावनाएं गलत थीं, न ही पौलुस ने कभी स्वयं महसूस किया कि उसकी भावनाएं गलत थीं। लोगों की भावनाएं कहां से आती हैं? निश्चित रूप से वे उनके मस्तिष्क की प्रतिक्रिया होती है। अलग-अलग वातावरणों और विभिन्न मामलों के अनुसार भिन्न-भिन्न भावनाएं उत्पन्न होती हैं। अधिकतर समय, लोग मानव तर्क के अनुसार अनुमान लगाते हैं और फॉर्मूलों का एक समूह प्राप्त कर लेते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कई मानवीय भावनाएं अपना स्वरूप लेती हैं। बिना समझे, लोग अपने तार्किक निष्कर्षों पर पहुँच जाते हैं, और इस तरह से, लोग अपने जीवन में इन्हीं भावनाओं पर निर्भर करने लगते हैं, जो इनके जीवन को भावनात्मक रूप से विकलांग बना देता है। (जैसे पौलूस का मुकुट, या विटनेस ली की "हवा में परमेश्वर से भेंट")। मनुष्यों की इन भावनाओं में हस्तक्षेप करने का परमेश्वर के पास शायद ही कोई रास्ता है, और वह मनुष्य को इन भावनाओं को अपनी मर्ज़ी से विकसित करने देता है। आज, मैं तुमसे स्पष्ट रूप से पूछ रहा हूं कि यदि तुम अपनी भावनाओं के अनुसार चल रहे हो, तो क्या तुम अभी भी अस्पष्टता में नहीं जी रहे? तुम उन शब्दों को स्वीकार नहीं करते जो स्पष्ट रूप से तुम्हारे लिए रखे गए हैं, और हमेशा अपनी व्यक्तिगत भावनाओं पर निर्भर करते हो। इस में, क्या तुम हाथी को महसूस करते हुए उस अंधे आदमी की तरह नहीं हो? [ग] और अंत में तुम्हें क्या लाभ मिलेगा?
आज, परमेश्वर देहधारी द्वारा किए गए सभी कार्य वास्तविक हैं। यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम महसूस कर सकते हो, या जिसकी तुम कल्पना कर सकते हो, इससे भी कम यह ऐसा कुछ नहीं है जिसका तुम अनुमान लगा सकते हो—यह ऐसी चीज़ है जिसे तुम केवल तब ही समझ पाओगे जब तथ्य तुम्हारे साथ घटित होंगे। कभी-कभी, जब ऐसा होता भी है, तो भी तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, और केवल जो घटित हो रहा है उनके सच्चे तथ्यों में बेहतर स्पष्टीकरण लाकर जब परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है, तब ही लोग समझ पाते हैं। उस समय, यीशु के शिष्यों के बीच कई भ्रम थे। उनका मानना था कि परमेश्वर का दिन आने वाला है और वे जल्द ही यीशु के लिए मरने वाले हैं और प्रभु यीशु से मिल पाएंगे—फिर भी ऐसा समय नहीं आया। पतरस इस भावना के प्रति बहुत संवेदनशील था। वह पूरे सात साल तक इंतज़ार करता रहा, हमेशा यह महसूस करते हुए कि समय आ गया है—लेकिन समय फिर भी नहीं आया। उन्हें लगा कि उनका जीवन परिपक्व हो गया है, और उनकी भावनाएं कई गुना बढ़ गई और ये भावनाएं संवेदनशील हो गईं—परंतु उन्होंने कई असफलताओं का अनुभव किया और वे सफल नहीं हुए। वे स्वयं नहीं जानते थे कि क्या चल रहा था। क्या ऐसा हो सकता है कि जो वास्तव में पवित्र आत्मा से आया वह पूरा नहीं हुआ? लोगों की भावनाएं विश्वसनीय नहीं होती हैं। क्योंकि समय के संदर्भ और स्थितियों के आधार पर लोगों के पास अपना दिमाग़, अपनी सोच, और अपने विचार होते हैं, वे अपने स्वयं के फलप्रद मानसिक संबंध बनाते हैं। विशेष रूप से, जब स्वस्थ मानसिक तर्कसंगतता वाले लोगों के साथ कुछ होता है, तो वे अति उत्तेजित हो जाते हैं, और स्वयं को फलप्रद मानसिक संबंध बनाने से रोक नहीं पाते। यह विशेष रूप से उच्च ज्ञान और सिद्धांतों वाले "विशेषज्ञों" पर लागू होता है, जिनके मानसिक संबंध कई सालों तक दुनिया से निपटने के बाद अधिक विपुल हो जाते हैं; बिना उन्हें पता लगे, वे अपनी सोच को अपना लेते हैं, जो अत्यंत शक्तिशाली भावनाओं का स्वरूप ले लेती हैं—और इसके माध्यम से ये विशेषज्ञ संतुष्ट हो जाते हैं। जब लोग कुछ करना चाहते हैं, तो भावनाएं और कल्पनाएं प्रकट होती हैं, और लोगों को महसूस होता है कि ये भावनाएं और कल्पनाएं सही हैं। बाद में, जब वे देखते हैं कि ये पूरी नहीं हो पाईं, तो लोग यह नहीं समझ पाते कि गलती क्या हुई। शायद वे मानते हैं कि परमेश्वर ने अपनी योजना बदल दी है।
व्यवस्था के युग में भी कई लोगों की कुछ भावनाएं थीं, लेकिन आज के लोगों की तुलना में उनकी भावनाओं में कम त्रुटियां थीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि, पहले, लोग यहोवा का प्रकटन देख पाए थे, और दूतों को देख सकते थे, और वे सपने देखते थे। आज के लोग भविष्य के दृश्यों या दूतों को देखने में असमर्थ हैं, और इसलिए उनकी भावनाओं में अधिक त्रुटियां हैं। लोगों में भावनाएं न हों, ऐसा हो नहीं सकता। ओल्ड टेस्टामेंट (पुराने नियम) के लोगों में भी भावनाएं थीं, और वे मानते थे कि ये भावनाएं बिल्कुल सही थीं, लेकिन अक्सर उनके बीच दूत दिखाई देते थे, जो उनकी भावनाओं की त्रुटियों को कम कर देते थे। जब आज के लोगों को लगता है कि कोई बात विशेष तौर पर सही है, और वे उस पर अमल करने लगते हैं, तो पवित्र आत्मा उन्हें तिरस्कृत नहीं करता। उनके भीतर कोई भावना नहीं होती, और वे शांत महसूस करते हैं। जब वे कार्य पूरा कर चुके होते हैं, तो केवल इक्ट्ठा होने या परमेश्वर के शब्दों को पढ़ने से ही उन्हें पता चलता है कि वे गलत थे। एक तरह से देखा जाए तो लोगों को कोई दूत नहीं दिखाई देते, सपने दुर्लभ हो गए हैं, और लोग आकाश में कोई दूरदर्शी दृश्य नहीं देख पाते हैं। दूसरी तरफ़, पवित्र आत्मा लोगों में अपने तिरस्कार और अनुशासन को नहीं बढ़ाता; लोगों में पवित्र आत्मा का शायद ही कोई कार्य हो। इसलिए, यदि लोग परमेश्वर के शब्दों को खाते और पीते नहीं हैं,[घ] अमल के रास्ते को समझ नहीं पाते, और वास्तव में खोज नहीं करते, तो वे कोई फल नहीं प्राप्त कर पाएंगे। पवित्र आत्मा के कार्यों के सिद्धांत इस प्रकार हैं: वह उस पर ध्यान नहीं देता जो उसके कार्य में शामिल नहीं है; अगर कुछ उसके अधिकार क्षेत्र के दायरे में नहीं है, तो वह कभी भी हस्तक्षेप नहीं करता, और लोगों को जो वे चाहें वह गलती करने की अनुमति देता है। तुम जैसे चाहो वैसे कार्य कर सकते हो, लेकिन एक दिन आएगा जब तुम्हें नहीं पता होगा कि क्या करना है। परमेश्वर अपनी देह में एकल-दिमाग़ से कार्य करता है, और कभी भी मनुष्य के कार्य में और उसकी छोटी-सी दुनिया में हस्तक्षेप नहीं करता और स्वयं को शामिल नहीं करता; बल्कि, परमेश्वर तुम्हारी दुनिया को एक व्यापक स्थान देता है और वही कार्य करता है जो उसे करना चाहिए। आज, अगर तुम पाँच माओ से अधिक खर्च करते हो, तो तुम्हें तिरस्कृत नहीं किया जाता है, और अगर तुम पांच माओ बचाते हो तो तुम्हें पुरस्कृत भी नहीं किया जाता है। ये मानवीय मामले हैं, और पवित्र आत्मा के कार्य से इनका थोड़ा-सा भी संबंध नहीं हैं—इन मामलों में तुम्हारा कार्य मेरे दायरे में नहीं आता है।
उस समय, पतरस ने कई वचन कहे और बहुत कार्य किए। क्या यह संभव है कि इनमें से कोई भी मानवीय विचारों से नहीं आए? क्योंकि इनका पूरी तरह से पवित्र आत्मा से आना असंभव है। पतरस केवल परमेश्वर का एक जीव था, वह अनुयायी था, वह पतरस था, यीशु नहीं था, और वे एक ही सार-तत्व के नहीं बने थे। हालांकि, पतरस को पवित्र आत्मा ने भेजा था, उसने जो कुछ भी किया और कहा वो पूर्ण रूप से पवित्र आत्मा से नहीं आया था[ङ], क्योंकि, आख़िरकार, वह एक मनुष्य था। पौलुस ने कई वचन कहे और कलीसियाओं को विपुल पत्रकाव्य लिखे, जो बाइबल में एकत्रित हैं। पवित्र आत्मा ने कोई राय व्यक्त नहीं की, क्योंकि जब वह पत्रकाव्य लिख रहा था, तब वह पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा था। उसने भविष्य के दृश्यों को देखा, और उन्हें लिख डाला और उन भाइयों और बहनों तक पहुंचाया जो प्रभु में समाए थे। यीशु ने कोई राय नहीं व्यक्त की, और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। पवित्र आत्मा ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? पवित्र आत्मा ने उसे क्यों नहीं रोका? क्योंकि कुछ अशुद्धियाँ लोगों के सामान्य विचारों से आती हैं, और उनसे बचा नहीं जा सकता। इसके अलावा, उसके कार्य रुकावटों से उत्पन्न नहीं हुए थे और उसके कार्यों ने लोगों की सामान्य स्थितियों में हस्तक्षेप नहीं किया; जब इस प्रकार के मानव स्वभाव के कुछ काम होते हैं, तो लोगों के लिए उन्हें स्वीकार करना आसान हो जाता है। लोगों के भीतर सामान्य विचारों का मिश्रित होना सामान्य है, बशर्ते कि ये अशुद्धियाँ किसी भी चीज़ में हस्तक्षेप न करें। दूसरे शब्दों में, सामान्य विचार वाले सभी लोग इस तरह सोचने में सक्षम होते हैं। जब लोग देह में रहते हैं, तो उनके अपने विचार होते हैं—लेकिन इन सामान्य विचारों को निकाल फेंकने का कोई तरीका नहीं है। यदि तुम्हारे पास मस्तिष्क है, तो तुम्हारे पास विचार होने चाहिएं। परंतु, कुछ देर के लिए परमेश्वर के कार्य को अनुभव करने के बाद, लोगों के मस्तिष्क में कम विचार आते हैं। जब वे अधिक चीज़ों का अनुभव कर लेते हैं, तो वे स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, और इसलिए कम बाधा उत्पन्न करते हैं; दूसरे शब्दों में, जब लोगों की कल्पना और तर्कसंगत निष्कर्ष का खंडन किया जाता है, तो उनकी असामान्य भावनाएं कम हो जाएंगी। जो लोग देह में रहते हैं, उन सभी के अपने विचार होते हैं, लेकिन अंत में, उनके भीतर परमेश्वर का कार्य उन्हें उस बिंदु तक पहुंचा देता है जहाँ उनके विचार उन्हें परेशान नहीं करेंगे, वे जीवित रहने की भावनाओं पर निर्भर नहीं करेंगे, उनका वास्तविक कद परिपक्व हो जाएगा, और वे वास्तविकता में परमेश्वर के शब्दों के अनुसार जीवन व्यतीत कर पाएंगे, और अब वे ऐसी चीज़ें नहीं करेंगे जो अस्पष्ट और खाली होंगी, फिर वे ऐसी बातें करने में असमर्थ हो जाएंगे जो रुकावट का कारण बनती हैं। इस तरह, वे भ्रम में रहना बंद कर देंगे, और इस समय से उनके कार्य ही उनका वास्तविक कद होंगे।
पाद टिप्पणी:
क. "जिओ" (जिसे "माओ" भी कहा जाता है) चीनी मुद्रा की मौद्रिक इकाई है। चीन में, पैसे की मूल इकाई युआन है।
एक युआन में दस जिओ होते हैं।
ख. "जिन" एक चीनी वज़न माप है, एक जिन में 500 ग्राम होते हैं।
ग. "हाथी को महसूस करता एक अंधा आदमी" अंधे मनुष्य और हाथी के दृष्टांत से लिया गया है। इसके अनुसार कई अंधे मनुष्य एक हाथी को महसूस करते हैं, प्रत्येक का यह मानना होता है कि जो हिस्सा वह छू रहा है वह जानवर की संपूर्णता को दर्शाता है। यह दृष्टान्त एक रूपक है जो दर्शाता है कि कैसे लोग आंशिक टिप्पणियों या निर्णयों को संपूर्ण सच्चाई मानने की गलती करते हैं।
घ. मूल पाठ "परमेश्वर के वचन" शामिल नहीं करता है।
ङ. मूल पाठ "उसने जो किया और कहा" शामिल नहीं करता है।
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